________________
२६२]
गाड़ी कुछ खराब होकर रह गई।
पूज्य माताजी कहने लगीं - इसमें हमारा कुछ भी नहीं है, जिनधर्म और उसमें वर्णित मंत्रों में आज भी महान् शक्ति है। जो हृदय से इसे धारण करता है, उसके अकाल मृत्यु जैसे महासंकट भी टल जाते हैं। तुम्हारा आयुकर्म शेष था, अतः बच गए, अब धर्म में अडिग श्रद्धा रखना इत्यादि ।
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
ये तो मैंने तत्काल बीती २-३ घटनाओं का दिग्दर्शन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इनके जीवन की ऐसी सैकड़ों घटनाएं हैं, जो जैन दीक्षा की कठोर तपस्या एवं अखंड ब्रह्मचर्य का प्रभाव बतलाती है। कई महिलाओं ने तो पूज्य माताजी के शारीरिक स्पर्श-मालिश करके अपने अनेक शारीरिक रोगों को नष्ट कर इन्हें अतिशयकारी "विशल्या" की संज्ञा प्रदान की है।
पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी
माता मोहिनी द्वारा प्रदत्त तेरह संतानों में से आप पांचवीं कन्यारत्न हैं। सन् १९४२ में मगशिर सु. सप्तमी को टिकैतनगर (जि. बाराबंकी) में जन्मी इस कन्या का नाम रखा गया- "मनोवती।" सन् १९६२ में ये अपनी माँ के साथ लाडनूं (राजस्थान) में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के पास आईं और फिर आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर त्यागमार्ग में प्रवृत्त हुईं। सन् १९६४ में हैदराबाद चातुर्मास के मध्य आपने पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर "अभयमती" नाम प्राप्त किया, पुनः सन् १९६९ में फाल्गुन सु. ८ को श्री शांतिवीर नगर महावीरजी में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के कर कमलों से 'आर्यिका दीक्षा' धारण कर "आर्यिका श्री अभयमती माताजी" बन गईं।
गणिनी आर्यिका श्री के वर्तमान संघस्थ शिष्यों के संक्षिप्त परिचय
सन् १९७२ में आपने बुंदेलखंड की यात्रा हेतु संघ से अलग विहार किया, पुनः सन् १९८६ में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शनार्थ पधारीं तब से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आपका विहार होता रहता है। हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर भी आपके तीन चातुर्मास सम्पन्न हुए हैं। शारीरिक स्वास्थ्य अत्यंत कमजोर होते हुए भी आप अपनी रत्नत्रय साधना में अत्यंत दृढ़ हैं। साहित्यसृजन के भी कई कार्य आपके द्वारा हुए हैं, जो आपकी विद्वा के प्रतीक है।
आर्यिका श्री शिवमती माताजी
कर्नाटक के श्रवणबेलगोला (गोम्मटेश्वर बाहुबली) निवासी श्रेष्ठी श्री जी.वी. धरणेन्द्रया को धर्मपत्नी श्रीमती ललितम्मा ने एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया— शीला ।
सन् १९६५ में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने आर्यिका संघ सहित श्रवणबेलगोला में चातुर्मास किया, तब कु. शीला को गृह बंधन से निकालकर मोक्षमार्ग में लगाया। तब से ये पूज्य माताजी के पास ही धर्माराधन कर रही हैं। सन् १९७३ में माताजी ने इन्हें सप्तमप्रतिमा के व्रत दिये तथा सन् १९७४ में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा दिलवाई। अब आर्यिका श्री शिवमतीजी के नाम से माताजी के संघ में ही रह रही हैं।
आर्थिका बंदनामती
इस परिचय की लेखिका रूप में मैं अपना परिचय स्वयं पाठकों को प्रदान कर रही हूँ। १८ मई, सन् १९५८ ज्येष्ठ कृ. अमावस्या को टिकैतनगर (जि. बाराबंकी, उ. प्र.) में माता मोहिनी ने मुझे अपनी बारहवीं संतान के रूप में जन्म दिया था। ऐसा मैंने अपने पिताजी श्री छोटेलालजी के पुराने बहीखाते में लिखा पाया । विरासत में प्राप्त धर्मसंस्कारों के अनुरूप मैंने सन् १९७१ में सुगंधदशमी के दिन अजमेर (राज.) में "कु. माधुरी" की अवस्था में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के करकमलों से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया। सन् १९८२ में दो प्रतिमा एवं सन् १९८७ में सप्तम प्रतिमा धारण की तथा १३ अगस्त सन् १९८९ (श्रावण शु. ११) को जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर में ही पूज्य गणिनी आर्यिका श्री के करकमलों से मैंने आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर "चंदनामती" नाम प्राप्त किया है। ३ वर्षों से गुरु की छत्रछाया में मेरी रत्नत्रय साधना एवं ज्ञानाराधना निर्विघ्न रूप से चल रही है। इसी प्रकार भविष्य में चारित्र एवं ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि का आशीर्वाद गुरुचरणों से अपेक्षित है।
-
Jain Educationa International
पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी महाराज -
ईसवी सन् १९४० में सनावद (म.प्र.) के श्रेष्ठी श्री अमोलकचंदजी सर्राफ की ध.प. श्रीमती रूपाबाई ने आश्विन कृ. चतुर्दशी को एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया-मोतीचंद ।
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org.