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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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भारत की राजधानी दिल्ली में पदार्पणअजमेर चातुर्मास के पश्चात् पुनः आचार्य संघ से कुछ साधुओं ने अलग-अलग विहार किया। संघस्थ मुनि श्री सुपार्श्वसागरजी के निर्देशन में कुछ मुनियों का संघ सम्मेदशिखर, बुंदेलखण्ड आदि तीर्थों की यात्रा हेतु निकला एवं आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अपने आर्यिका संघ के साथ पीसांगन (राज.) से आचार्य श्री की आज्ञा लेकर ब्यावर पधारीं । ब्यावर में दिल्ली के कुछ गणमान्य व्यक्ति पूज्य माताजी के पास दिल्ली की ओर मंगल विहार करने हेतु प्रार्थना करने आए।
सन् १९७२ की महावीर जयंती के पश्चात् आर्यिका संघ का विहार दिल्ली की ओर हुआ। वैशाख, ज्येष्ठ मास की चिलचिलाती धूप में कभी-कभी २४-२५ कि.मी. भी चलना पड़ता। आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के जीवन में यह प्रथम पदयात्रा थी, वृद्धावस्था में इस लम्बे विहार के कारण उनके पैरों में सूजन आ गई, अतः डोली की व्यवस्था भी की गई। पूज्य माताजी के इस प्रवास में लघुवयस्क दो मुनिराज (मुनि श्री संभवसागर मुनि श्री वर्धमान सागर) भी थे, जो कि प्रारंभ में माताजी के ही शिष्य रहे थे और माताजी की प्रेरणा से ही मुनि बने थे। वे लोग सन् १९७५ तक साथ में रहे।
___ आर्यिका संघ का मंगल पदार्पण आषाढ़ शु. ११ को पहाड़ी धीरज पर हुआ और सन् १९७२ का चातुर्मास पहाड़ी धीरज की "नन्हेंमल घमण्डीलाल जैन धर्मशाला" में सम्पन्न हआ। दिल्ली में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का यह प्रथम चातुर्मास अपने आप में ऐतिहासिक रहा, क्योंकि "दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान" की स्थापना सन् १९७२ में ही पहाड़ी धीरज पर हुई, जिसके माध्यम से आज देश-विदेश में विस्तृत धर्म प्रभावना हो रही है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का निर्माण, ग्रंथों का प्रकाशन, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का संचालन, पूरे देश में शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों एवं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों के आयोजन आदि विभिन्न कार्यक्रम इसी रजिस्टर्ड संस्थान द्वारा हस्तिनापुर कार्यालय से संचालित किए जाते हैं। पच्चीस सौवें निर्वाणोत्सव में सानिध्यईसवी सन् १९७४ में भगवान महावीर स्वामी का पच्चीस सौवाँ निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया, जिसमें पूज्य आर्यिका श्री की पावन प्रेरणा एवं अथक प्रयासों से दिल्लीवासी आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के विशाल संघ को दिल्ली लाए। उस समय तक दिल्ली की जनता को भय था कि यहाँ इतने बड़े संघ का निर्वाह कैसे होगा, उन साधुओं को शूद्रजल त्याग करके आहार कौन देगा . . . . इत्यादि। किन्तु माताजी ने यह कहकर वहाँ के शिष्ट-मंडल को आचार्य श्री के पास अलवर भेजा कि साधुओं के आहार की जिम्मेदारी मेरी है, तुम लोग तो मात्र उन्हें प्रार्थनापूर्वक दिल्ली तक ले आओ। आखिर हुआ भी यही, आचार्य श्री संघ सहित दिल्ली पधारे और पूरे शहर में अनगिनत चौके लगे, मानो वहाँ चतुर्थकाल का दृश्य उपस्थित हो गया था।
आर्यिका श्री में संकल्पशक्ति अद्भुत है, वे जिस कार्य को भी हाथ में लेती हैं, उसे पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न करके दिखलाती हैं। इस प्रकार आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के दिल्ली पधारने से पच्चीस सौवें निर्वाणोत्सव में चार चाँद लगे, जिसका अन्तरंग श्रेय पूज्य माताजी को है। उस समय कई सामाजिक एवं शास्त्रीय विवादास्पद विषयों में आचार्य श्री इन्हीं आर्यिका श्री से विचार-विमर्श कर समस्याओं का गंभीरतापूर्वक समाधान करते थे, जो उनकी सिंहवृत्ति का परिचायक बना। आज दिल्ली और सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश का समाज उनकी निस्पृहता, भोलेपन तथा सिंहवृत्ति को स्मरण करता है। तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर का उद्धारहस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के वीरान जंगल ने आर्यिकाश्री को अपने संरक्षण हेतु पुकारा और उनकी पदरज पाकर हँसने-मुस्कराने लगा। सन् १९७४ में चातुर्मास से पूर्व श्री ज्ञानमती माताजी अपनी १-२ शिष्याओं को लेकर हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र की यात्रा करने दिल्ली से निकलीं, साथ में ब्र. मोतीचंदजी थे। संयोगवश उन्हें यह तीर्थ पसन्द आया और यहीं पर उन्होंने मोतीचंदजी के द्वारा हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र कमेटी के प्रधानमंत्री बाबू सुकुमार चंद, मवाना के सेठ बूलचंदजी, लखमीचंदजी आदि महानुभावों के सहयोग से एक छोटी-सी भूमि का चयन कराया और सुमेरु पर्वत की नींव डलवाकर वे पुनः तीव्रगति से दिल्ली पहुँच गई, जहाँ आचार्यसंघ के साथ चातुर्मास सम्पन्न किया।
दिल्ली के इस ऐतिहासिक चातुर्मास के पश्चात् उन्होंने अपनी दो शिष्याओं कु. सुशीला, कु. शीला को मृगशिर कृ. १० को आचार्यश्री से आर्यिका दीक्षा दिलाई, जिनके नाम क्रमशः आर्यिका श्रुतमतीजी और आर्यिका शिवमतीजी रखे गये। जनवरी सन् १९७५ में आपने अपने आर्यिका संघ सहित हस्तिनापुर की ओर विहार किया, पुनः फरवरी में आचार्य श्री भी अपने चतुर्विध संघ सहित ज्ञानमती माताजी की प्रारंभिक कर्मभूमि के अवलोकनार्थ हस्तिनापुर पधारे। माताजी तथा समस्त संघ प्राचीन बड़े मंदिर तथा गुरुकुल परिसर में ठहरा।
आचार्य संघ का हस्तिनापुर में लगभग ४ माह का प्रवास रहा, इस मध्य तीर्थक्षेत्र के जलमंदिर, बाहुबलिमंदिर एवं जम्बूद्वीप स्थल पर विराजमान
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