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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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आदिमतीजी, आर्यिका श्रेष्ठमतीजी, आर्यिका संभवमती जी आदि को आचार्य श्री शिवसागर महाराज के करकमलों से दीक्षा दिलवाई। सन् १९६१ में सीकर चातुर्मास के अन्तर्गत ब्र. राजमलजी को अनेक प्रेरणाएं देकर मुनि दीक्षा के लिए उत्साहित किया, जो वहीं मुनि श्री अजितसागर बने। भविष्य में वे इस परंपरा के चतुर्थ पट्टाचार्य चतुर्विध संघ की सहमति से बने हैं।
आर्यिका संघ की मंगलमयी तीर्थयात्राईसवी सन् १९६२ (वि.सं. २०१९) के लाडनूं चातुर्मास के पश्चात् आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने गुरुभाई आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की आज्ञा लेकर चार आर्यिका एवं एक क्षुल्लिका का संघ लेकर सम्मेदशिखर और गोम्मटेश्वर यात्रा के लिए विहार किया। इस आर्यिका संघ का सर्वप्रथम चातुर्मास सन् १९६३ (वि.सं. २०२०) में कलकत्ता महानगरी में हुआ।
श्री ज्ञानमती माताजी ही इस संघ की प्रमुख बड़ी आर्यिका थीं, शेष सभी तो उनके द्वारा हस्तावलंबन को प्राप्त संसार कर्दम से निकली शिष्याएं थीं, अतः माताजी को ही संघ जिम्मेदारी का सारा भार वहन करना पड़ता। इनकी प्रवचन कला तो प्रारंभ से ही आकर्षक रही है। आगम में छिपे रहस्यों को रोचक शैली से प्रवचन में उद्घाटित करतीं, तब हर्षातिरेक में कई विद्वान् श्रावक तो इन्हें श्रुतकेवली की संज्ञा प्रदान कर भी तृप्त न होते थे।
शुद्धजल का नियम दिलाकर आहार लेने पर भी चौकों की भरमार रहती और क्यू लाइन लगवाकर लोग १-१ ग्रास आहार दे पाते। आहार में मीठा, नमक, तेल, दही आदि रसों का त्याग ही था, प्रायः एक अन्न या दो अन्न मात्र ग्रहण करती थीं। अतः उनके नीरस और अल्पाहार को देखकर सबको आश्चर्य होता और वे सोचने को मजबूर हो जाते कि माताजी इतना परिश्रम कैसे कर लेती हैं, कहाँ से शक्ति आती है? किन्तु ज्ञानमती माताजी के जीवन का एक छोटा-सा सूत्र समस्त साधु समाज के लिए अनुकरणीय है_ "जैसे गाय घास खाकर मीठा दूध देती है, उसी प्रकार साधु रूखा-सूखा भोजन करके समाज को धर्मामृत प्रदान करते हैं। इसीलिए साधुओं की वृत्ति "गोचरीवृत्ति" कही गई है।"
इसी सूत्र को सार्थक करती हुई आर्यिका श्री ने अपने कमजोर औदारिक शरीर से कठोर परिश्रम कर संसार को अथाह ज्ञानामृत पिलाया है। इसी तरह हैदराबाद, श्रवणबेलगोल, सोलापुर और सनावद में किए गए आपके चातुर्मास भी ऐतिहासिक रहे हैं।
कतिपय उपलब्धियाँसन् १९६३ में कलकत्ते से आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी की गृहस्थावस्था की सुपुत्री कु. सुशीला को अनेक संघर्षों के मध्य घर से निकाला और सन् १९७४ में दिल्ली में आचार्य श्री धर्मसागरजी से दीक्षा दिलाकर "आर्यिका श्रुतमती" बनाया। जो वर्तमान में पू. ज्ञानमती माताजी की शिष्या आर्यिका श्री आदिमती माताजी के पास हैं।
सन् १९६४ (वि.सं. २०२१) आंध्र प्रदेश के हैदराबाद शहर में आर्यिका संघ के चातुर्मास के मध्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी गम्भीर रूप से बीमार हुईं। वहाँ की स्थानीय समाज ने भरपूर सेवा की। वैद्यराजजी भी कलकत्ते से आए, उनका इलाज चला। इसी बीच संघस्थ ब्र. कु. मनोवती ने माताजी से दीक्षा लेने का आग्रह किया। यहाँ एक अचम्भे और हँसी की बात है कि दीक्षा का नाम सुनते ही माताजी का स्वास्थ्य सुधरने लगा। हैदराबाद की जनता आश्चर्यचकित थी। वैद्यजी की औषधि से अधिक आरोग्यता तो उन्हें दीक्षा के नाम से प्राप्त हो गयी थी। कोई सोच नहीं सकता था कि इस कमजोर हालत में माताजी पांडाल तक जाकर मनोवती का दीक्षा संस्कार कर पाएंगी, किन्तु श्रावण शुक्ला सप्तमी तिथि को माताजी स्वयं चलकर पांडाल तक पहुँची तथा अपनी गृहस्थावस्था की लघु बहन कु. मनोवती को विशाल जनसमूह के मध्य क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान किया और "अभयमती" नाम घोषित किया। आंध्र प्रान्त में जैन दीक्षा का यह प्रथम अवसर था, जो वहाँ के इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया। - श्रवणबेलगोल गोम्मटेश्वर बाहुबली के इस ऐतिहासिक तीर्थ पर सन् १९६५ (वि.सं. २०२२) के चातुर्मास ने तो आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को एक ऐतिहासिक साध्वी का रूप प्रदान किया है। बाहुबली स्वामी के पादमूल में १५ दिन की अखंड मौनपूर्वक की गई ध्यान साधना ने उन्हें तेरह द्वीप के माध्यम से सब कुछ प्रदान कर दिया था। आगे चलकर यह तेरहद्वीप मात्र एक जम्बूद्वीप के रूप में परिवर्तित हुआ हस्तिनापुर की पावन वसुंधरा पर । जिसे उत्तर-दक्षिण का सेतु मानकर सारे देश के तीर्थयात्री तो देखने आते ही हैं, विदेशों से भी अनेक पर्यटक इस दर्शनीय स्थल को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
बाहुवली की इस अमूल्य देन के साथ ही श्रवलबेलगोल के एक श्रेष्ठी श्री जी.वी. धरणेन्द्रैय्या की सुपुत्री कु. शीला को गृह कारावास से निकालकर आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत दिया तथा सन् १९७४ में आचार्य श्री धर्मसागरजी के करकमलों से आर्यिका दीक्षा दिलाई। वे आर्यिका शिवमती माताजी आज आपके पास ही रह रही हैं।
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