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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
दिया उपदेश अमृतमय ।
उसी को पान कर-कर के,
तरंगें रह-रह उठती हैं । किया है केश लुञ्चन आपने, जो शहर गाँवों में ।
अजैन जनता उसे लखकर,
बड़े चक्कर में पड़ती है ॥ केशलोंच आप करती हैं, और जनता आहे भरती है ।
कठिन जिन साधु परीक्षा से,
जनता काँप उठती है ॥ किया है आपने निर्णय, जो यह विहार करने का ।
घड़ी वो याद कर-कर के,
हृदय में हूक उठती है ॥ "बाला" की अरज है इतनी, कि हमको भूल मत जाना ।
शरण में मुझको भी ले लो,
यही हुंकार उठती है ॥ आपके दर्शन से माताजी, मुझको चैन मिलती है।
जयवन्त हो माँ . . . . .
-कविरत्न सुरेन्द्र सागर प्रचण्डिया,
कुरावली [मैनपुरी]
(हरिगीतिका छंद) श्रद्धास्पदा हे ज्ञानमति ! अभिनन्दनीय महान हो! तुम अग्रणी गणिनी, निसर्गज आप्त-प्रतिभावान हो! संज्ञान-गीताओं शताधिक की प्रणयिनी आर्यिका ! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका !
तुम आर्यिका-रत्नावली में रत्न सर्वोत्कृष्ट हो । कौमार्यवय से ब्रह्मचर्या में रमी आकृष्ट हो ॥ पथ-दर्शिका तुम हो कुमारी-वृंद की, हे साधिका!
जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ २ ॥ वैराग्य के बीजांकुरों से 'अथ' तम्हारा धन्य है! जो आज पुष्पित हो रहा आदर्श एक अनन्य है!
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