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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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जिनमत-प्रव्रज्या ले हुई वीरांगना निर्वाधिका ! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ३ ॥
है धन्य तव व्यक्तित्व और कृतित्व सुस्पृहणीय है। दीक्षित किये भव्यात्मा संख्या विपुल गणनीय है। अनुगत तुम्हारा हो रहा जनकुल, महाप्रारब्धिका!
जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ४ ॥ तव प्रेरणा से हुई संसृष्टि "जम्बूद्वीप" की ! इससे अमर तव है! मनस्वनि ! ज्योति यश-तन-दीप की! समवेत स्वर में वंदना तव; विधि-विधान-विधायिका! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ५ ॥
कृत्कृत्य तव जीवन तपस्वनि ! रत स्व-पर-कल्याण है। चतु संघयुत चरितार्थ तव शिवमार्ग पर अभियान है। तव, आधि-व्याधि-हरी, वृषामृत-दान, शान्ति समाधिका।
जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥६॥ हर प्राण में अध्यात्म प्राणित, स्वात्म-स्वर हर श्वास में। 'ध्रुव'-तत्त्व की महिमा समायी ज्ञप्ति-व्रत-विश्वास में । पुण्यात्म पावन चिन्पगा! स्व-स्वभाव-सरस अगाधिका। जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ७ ॥
"आदर भरा प्रणाम है"
- डॉ० एस०एन० पाठक, भोपाल [म०प्र०]
ज्ञानमतीजी का अभिनंदन, आदर भरा प्रणाम है। ग्रंथ समर्पित है चरणों में, अमर हो गया नाम है ॥ १॥ सन् चौतिस की शरद पूर्णिमा,
__ को अद्भुत आलोक हुआ। हुई अवतरित ज्योति अनूठी,
धन्य धरा भूलोक हुआ ॥ २ ॥ छोटेलाल मोहिनी देवी,
कन्या प्राप्त प्रसन्न हुए । बाराबंकी की वरीयता,
सचर-अचर सब धन्य हुए ॥ ३ ॥ नजरें टिकी टिकैतनगर पर,
ग्राम लक्ष्मी से आशा । धर्म-कर्म की मोहक मैना,
बने सत्य की परिभाषा ॥ ४ ॥ सपने सब साकार हो गये,
पूज्य देशभूषणजी से ।
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