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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
जो संसार विषै सुख होता तीर्थंकर क्यों त्यागे, काहे को शिवसाधन करते संयम सो अनुरागे ॥
आजकल इस पंचम काल में मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका सभी धन्य हैं। आप लोगों की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है। आज लाखों लोग पू० माताजी की लेखनी से अपने को धन्य समझते हैं। मुझको भी आपकी बहन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। सालभर में एक या दो बार आपके दर्शनार्थ आ जाती हूँ, कुछ ज्ञान मुझे भी मिल जाता है। आपके जाप्य मंत्र में बहुत शक्ति है, जो भी विश्वास से पता है उसके सारे मनोरथ फलते हैं, आपने शुरू से ही चार रस का त्याग कर दिया था, कभी-कभी दो रस ले लेती थीं। इनके त्याग की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।
वाणी माँ जिनवाणी की प्रति मूर्ति जहाँ साकार है। ज्ञानमती माँ के चरणों में वन्दन शत शत बार है ॥
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माताजी युगों तक स्मरणीय रहेंगी
पूज्य आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के अभिनंदन हेतु अभिवंदन ग्रंथ का प्रकाशन श्लाघनीय है। पूज्य श्री माताजी की लेखनी, उनके साथ चर्चा- वार्त्ता व उनके सदुपदेश मुमुक्षुओं को जिनभक्ति, स्वाध्याय व संयम धारण हेतु सतत व सहज ही सम्प्रेरित करते हैं। 'जम्बूद्वीप' और विशाल साहित्य पूज्या माताजी को युगों तक स्मरणीय व सम्माननीय बनाये रखेंगे। उनकी अनुपम सूझ-बूझ व उनके कर्मठ व्यक्तित्व से सत्प्रेरित होकर जिन महान् आत्माओं ने ज्ञानार्जन के साथ-साथ संयम-विधा को क्रियात्मक रूप से अपनाकर मानव जीवन सार्थक व कृतकृत्य किया है उनके लिए वे सदा-सदा सच्ची व आदर्श जननी के समान स्तुत्य रहेंगी। अभिनंदन ग्रंथ उनकी महती कृपा के प्रति उनके शिष्यगण व भक्तों के विशाल समुदाय का आधार प्रदर्शनमात्र है। वास्तविक अभिनंदन तो विभिन्न रूपों में उनके द्वारा प्ररूपित जिनोपदिष्ट रत्नत्रय मार्ग पर आरूढ़ होना है। मेरी भावना और कामना है कि पूज्यश्री माताजी का आशीर्वाद हमारा सत्पथ सदाप्रशस्त करता रहे। पूज्य श्री माताजी के चरण-युग्म के प्रति सादर, सविनय कोटि-कोटि विनयांजलि ।
- रतनलाल जैन, पंकज टेक्सटाइल्स, मेरठ
समाज का अपूर्व रत्न
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- कपूरचंद जैन महामंत्री श्री दिगंबर जैन उच्च विद्यालय, गौहाटी
परम पूज्यगणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में समाज को एक ऐसा अपूर्व रत्न प्राप्त हुआ है, जिसकी आध्यात्मिक प्रतिभा एवं धर्म प्रभावना ने समाज में धर्म की अजस्र धारा प्रवाहित की । पूज्य माताजी ने अपने जैन दर्शन के गहरे अध्ययन-मनन से हस्तिनापुर क्षेत्र की पवित्र भूस्थली पर जैन भूगोल का साधारण जनमानस को भी ज्ञान कराने के लिए विशाल जम्बूद्वीप की रचना का कार्य प्रारम्भ अपने सदुपदेश से कराया है, जो आने वाली पीढ़ी के लिए भी मार्ग दर्शक सिद्ध होगा। आपने कई ग्रन्थों की स्वतंत्र रचनाएं की है, जिसमें इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान तथा सर्वतोभद्र विधान बड़ी रोचक शैली में सुलभ अर्थों से भरे गागर में सागर वाली कहावत को चरितार्थ करने वाले विधान हैं, जो सर्वत्र अत्यन्त लोकप्रिय हो चुके हैं। "अष्टसहस्री", "समयसार" आदि महान् ग्रन्थों की टीका करके आपने अपने विशाल पाण्डित्य का परिचय दिया है।
आपके त्याग एवं संयमी जीवन को देखकर आज सारा समाज आपके प्रति नतमस्तक है। आपका वरदहस्त हमें सैकड़ों वर्षों तक मिलता रहे, यही मेरी मंगल भावना है।
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