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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
"जीवन के उच्चतम शिखर पर"
- वीरेन्द्र कुमार जैन, रायबरेली
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जिनका बचपन का नाम मैना था, टिकैतनगर जिला बाराबंकी के एक धार्मिक जैन परिवार में जन्मी थीं। अपने पिता श्री छोटेलालजी एवं माता श्री मोहिनी देवी (त्यागोपरान्त जिन्हें माता रत्नमती के नाम से जाना जाता है) के लालन-पालन में उन्हें धार्मिक शिक्षा अपनी माँ से घर पर ही मिली थी। गाँव की पाठशाला में आपने मात्र कक्षा ४ तक अध्ययन किया। धार्मिक आयोजन के एक नाटकीय प्रहसन में अकलंक-निकलंक की वार्ता से प्रभावित होकर “कीचड़" में पैर डालकर उसे साफ करने की अपेक्षा कीचड़ से बचना उत्तम है" स्वीकार करते हुए इन्होंने स्वयं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और फिर त्याग एवं अध्ययन के अध्यवसाय में जिस गति से आप बढ़ीं, वह अद्वितीय है। ५ वर्ष के सूक्ष्म अन्तराल में ही आप ब्रह्मचारिणी से क्षुल्लिका वीरमती, फिर आर्यिका ज्ञानमती बन गई और आज नारी जगत् के त्यागी जीवन के उच्चतम शिखर पर अर्थात् "गणिनी आर्यिकारत्न" के पद को सुशोभित कर रही हैं।
पू० माताजी में निश्चय की दृढ़ता, ज्ञानार्जन की ललक एवं समाज को सही मार्गदर्शन देने की भावना आरम्भ से ही गजब की रही है। अपने त्यागी जीवन में सामान्य साधनाओं के अनुशासन के साथ-साथ विपुल उपयोगी साहित्य का जितना सृजन आपने किया है, उसकी कोई मिशाल नहीं मिलती।
पूज्य माताजी ने अपनी प्रेरणा से हस्तिनापुर प्राचीन तीर्थक्षेत्र पर जम्बूद्वीप की रचना को साकार रूप दिया है। जम्बूद्वीप की रचना बरबस ही इतिहास और भूगोल के विद्वानों का ध्यान प्राचीनतम खोज (शोधकार्य) की ओर आकृष्ट करती है, जिसके परिणामस्वरूप देश/विदेश से अनेक विद्वान् इस रचना का स्वरूप देखने हस्तिनापुर आते हैं और जैन धर्मावलम्बी धर्मलाभ हेतु दर्शनार्थ आते हैं। हस्तिनापुर को विकसित तीर्थक्षेत्र बनाकर पू० माताजी ने इसे पर्यटन स्थल की श्रेणी में ला दिया है। ऐसी अद्भुत इतिहास सृजनकर्ती माता श्री का हार्दिक अभिनन्दन है।
व्यवस्था एवं अनुशासन प्रिय माताजी में जहाँ अनुशासन के प्रति कठोरता है वहीं उनका हृदय उदार एवं बहुत सरल है। अपनी बात सरलता से, संक्षेप में, प्रभावशाली ढंग से कहने की जो कला पू० माताजी में है वह उनकी साधना और उत्तम क्षयोपशम का परिणाम है।
मेरी कामना है कि पू० माताजी का अभिवन्दन ग्रंथ प्रेरणास्रोत बनकर जन-जन के मानस में धर्मप्रभावना का संचार करे । मेरा उनको शत-शत नमन है।
"त्याग, स्नेह एवं करुणा की प्रतिमूर्ति आर्यिका ज्ञानमती"
- विजेन्द्रकुमार जैन, शाहदरा, दिल्ली
शरद पूर्णिमा वि०सं० १९९१ सन् १९३४ मानो जैन धर्म के इतिहास में एक नया पृष्ठ जोड़ने ही आयी थी। जब माँ मोहिनी के गर्भ से श्रीमान् छोटेलालजी के आँगन में एक कन्या रत्न का अवतरण हुआ था। जिला बाराबंकी उ०प्र० के टिकैतनगर ने मानो तीर्थंकरों से पूजित अयोध्या को ही अपने में समेट लिया था, जिससे टिकैतनगर की माटी नहीं, बल्कि दिशाएँ भी पवित्रता को प्राप्त हो गई थीं। घर में प्रथम सन्तान के अवरतण से अपार खुशी के माहौल में कन्या का नामकरण संस्कार किया गया और नाम रखा गया "मैना" । लगता है परिवारजनों को पहले ही आभास हो गया था कि यह कन्या परिवार का त्याग कर वैराग्य की दुनिया में उड़ जायेगी। इसलिए इनका नाम मैना रखा गया; क्योंकि कहावत भी है "पूत के पाँव पालने में ही नजर आ जाते हैं" और यह नाम इस कहावत पर पूरा उतरता है। त्याग की प्रतिमूर्ति :
सन् १९५२ का वह दिन भी आ गया था जब मैना मात्र १६ वर्ष को पूर्ण कर १७ वर्ष में प्रवेश कर परिवार के पिंजड़े में छटपटा रही थी। तभी पूज्य आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज का आगमन हुआ और उन्होंने मैना को पिंजड़े से मुक्त कर सप्तम प्रतिमा रूप आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करवा दिया। आज मानो मैना के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे; क्योंकि बाल्यावस्था में ही उन्होंने ब्राह्मी सुन्दरी, चन्दना, सुलोचना, सीता आदि की गौरव-गाथा का श्रवण कर उनके बताये मार्ग पर चलने का संकल्प लिया था। जो आज सफल हो रहा था । त्याग की भावना दिनों-दिन
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