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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
जम्बूद्वीप, तीसचौबीसी, सर्वतोभद्र विधानों को घर में व जहाँ पर मुझे समय मिला, गाकर पढ़ा। उस समय घण्टों-घण्टों विधानों में डूबा रहता था। ऐसा लगता था कि साक्षात् तीर्थंकर के समोशरण में भजन गा रहा हूँ। अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना साक्षात् रूप से कर रहा हूँ। बचपन से मन्दिरजी में एक भजन तक नहीं बोलने वाला एक प्राणी आज पूज्य माताजी के आशीर्वाद से भजनों व विधानों की श्रृंखलाओं में डूबा रहना चाहता है।
सम्यग्ज्ञान फरवरी १९९१ की चौबीस तीर्थंकर स्तुति अंक के प्रकाशित होने के बाद से जिस दिन जिस तीर्थंकर भगवान् का कल्याणक होता है उस दिन उन तीर्थंकर भगवान की पूजा करते हैं और शाम को पू० माताजी द्वारा रचित उन तीर्थंकर भगवान की स्तुति पढ़ते हैं। तीर्थंकर पंचकल्याणकों की तिथियाँ कलेण्डर में पहले से ही अंकित कर लेते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि तीर्थंकर कल्याणक एक पर्व के समान है। उस दिन मुझको एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है।
बंगाली मार्किट में मम्मी जी ने एक दिन बताया कि पूज्य माताजी कहती है कि कमल मन्दिर में भगवान श्री महावीरजी की मूर्ति कल्पवृक्ष के समान है। अचानक मन में ख्याल आया कि कल्पवृक्ष से माँगने से सब कुछ मिल जाता है। यह चमत्कारी मूर्ति इससे भी अधिक प्रदान करती है। एक दिन में मन्दिरजी में पूजा करके नीचे आ रहा था और गुनगुनारहा था कि
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"ज्ञानमती" की शरण में हम आ गये। ज्ञान की निधी को हम पा गये ॥ "ज्ञानमती" की छाया में जब आ गये । चिन्ताओं से मुक्ति मानो पा गये ॥
मन तो करता है कि पूज्य माताजी के बारे में लिखता रहूँ, किन्तु अब लेखनी को यही विराम देता हूँ । आपके दर्शनों का अभिलाषी ।
बात ऐसे बनी
पूज्य माताजी का नाम तो बहुत समय से सुन रखा था, किन्तु प्रथम दर्शन का सुयोग जून, ८४ में विवाहोपरान्त प्राप्त हुआ। माताजी की शान्त सौम्य मुद्रा, वात्सल्य का भाव, आधुनिक युग में विद्यमान अनेकानेक समस्याओं के मध्य अपने संस्कारों को सुरक्षित रखने हेतु संघर्षरत युवाओं के प्रति अनुराग, सरलता, सहजता ने मन में ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि मैं सदैव ही हस्तिनापुर आने को लालायित रहती हूँ। मेरे पति (अनुपम जैन) तो पूर्व से ही पूज्य माताजी की आज्ञानुसार दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर की अकादमिक गतिविधियों में अपना योगदान करने हेतु प्रायः हस्तिनापुर आते रहते थे, फलतः प्रथम दर्शन के बाद निरन्तर विकसित होती श्रद्धा ने समर्पण का सा रूप ले लिया। मैं अपनी बहनों के उपयोग हेतु दो अविस्मरणीय प्रसंगों को लिपिबद्ध कर रही हूँ।
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१- मेरे छोटे बेटे अनुज को जन्मशः एक नेत्र रोग था, फलतः निरन्तर उसकी आँखों में कीचड़ एवं अन्य विकार बने रहते थे । एक वर्ष से कम अवस्था में १९८९ में उसे नेत्र विशेषज्ञ को दिखाना पड़ा। विशेषज्ञ ने बताया कि आपरेशन ही इसका निदान है। फिर भी मैं दवा दे रहा हूँ यदि फायदा हो गया तो ठीक, वरना आपरेशन करना पड़ेगा। यह हमारे लिए चिन्ता का विषय था। श्रद्धावश हमने सपरिवार हस्तिनापुर आने पर पूज्य माताजी को जब यह बात बताई तो आपने आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित प्राचीन शान्ति भक्ति का नियमपूर्वक २१ दिन तक बताई रीति से पाठ करने का परामर्श दिया एवं उपरान्त सम्मुख रखे जल को नेत्र पर छिड़कने को कहा। इस शान्तिभक्ति से उसे नेत्र रोग में आश्चर्यजनक लाभ हुआ एवं अब वह पूर्णतः नेत्र रोग से मुक्त है। यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि यह सब पूज्य माताजी के आशीर्वाद एवं प्रदर्शित मार्ग का प्रतिफल है।
श्रीमती निशा जैन, सारंगपुर
२- इसी जून- ९२ में हम लोग जम्बूद्वीप आये थे । मैं स्वयं द्रव्य संग्रह एवं बच्चे बालविकास का अध्ययन कर अपने ज्ञान में अभिवृद्धि कर रहे थे। २७ जून को दोपहर में अचानक 'अनुज' अस्वस्थ हो गया। सुबह तक जो बालक णमोकार मंत्र के महात्म्य पर भाषण एवं कथा सुना रहा था दोपहर २.०० बजे वह तीव्र ज्वर से ग्रसित हो गया, पूज्य माताजी द्वारा मंत्रोच्चार सहित पिच्छी लगाने से रात्रि ८.०० बजे तक वह पुनः स्वस्थ हो गया । वस्तुतः माताजी के आशीर्वाद से ही बात बनी।
पूज्य माताजी अत्यन्त निस्पृह भाव से सभी को अपना स्नेहपूर्ण, वात्सल्यमयी आशीर्वाद देती हैं। युवाओं को एक बार उनके दर्शनार्थ अवश्य जाना चाहिये इससे वे स्वतः ही बिना कुछ कहे अपने जीवन को सही दिशा दे सकेंगे।
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