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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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वह भी एक महिला होकर उस समय इतना संघर्ष, जिस समय लोग बालिकाओं को घर से बाहर नहीं जाने देते थे, शायद माताजी के स्थान पर अन्य कोई पुरुष भी होता, तो अपना उद्देश्य बदल देता माँ ज्ञानमतीजी इस जनसमुदाय के बीच में ठीक उसी प्रकार से हैं, जिस प्रकार आसमान में सूर्य चमकता है। माताजी रूपी सूर्य से कुछ ज्ञानरूपी किरण मुझको भी प्राप्त हुईं। माताजी ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी कलम को कभी भी नहीं रोका, चाहे कितनी भी अस्वस्थ्य हो माँ की इस असीम शक्ति को देखकर मन में मैं सोचता है कि एक वक्त आहार करना और विहार करना आदि इतनी कठिन तपस्या है जिनका तेज सूर्य के बराबर है, ऐसी माता को मेरा शत शत वंदन है माताजी की शान्त मुद्रा एवं सूर्यरूपी तेज मुख का दर्शन करके मन गद्गद हो जाता है एवं शीघ्र अपने आप ही चरणों में झुक जाता है।
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पू० माताजी की प्रेरणा से रचित जम्बूद्वीप की विशाल रचना एक अद्भुत कार्य है। माताजी की गुरु भक्ति तो मैंने देखी नहीं, लेकिन माताजी द्वारा रचित ग्रन्थ "मेरी स्मृतियों को पढ़कर मन प्रसन्नता से भर जाता है। मैं सोचता हूँ कि न जाने हमारे कितने जन्मों का पुण्य है कि हम माताजी के गृहस्थाश्रम के भांजे है इसी वास्ते हम समय-समय पर जब भी शिक्षण शिविर या अन्य कोई प्रोग्राम होता है तब हम माताजी के सानिध्य में रहकर कुछ ज्ञानार्जन करते हैं माताजी त्याग एवं वात्सल्य की मूर्ति हैं, माताजी में साक्षात् जिनवाणी माँ का दर्शन होता है। ऐसी माताजी के चरणों में हमारा शत-शत वन्दन है।
"सच्ची माता"
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"बात उस समय की है जब मेरे दूध के दांत गिरे ही थे दुर्भाग्य से मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया, तब मैं १२ वर्ष का था पिताजी की वृद्धावस्था के कारण व घर में बड़ा होने के कारण छोटे भाई-बहनों को माँ का वात्सल्य देने का भार मुझ पर था, परन्तु मुझे वह वात्सल्य कौन दे ! कुंठा और अंधकार में दिन बीत रहे थे और प्राची से रोज प्रातः निकलने वाला सूर्य भी जीवन के अँधेरे को प्रकाशित नहीं कर पा रहा था ।
एक दिन मैं दोपहर को [शायद रविवार स्कूल की छुट्टी का दिन था] घर पर सो रहा था कि भाई मोतीचंद्रजी (वर्तमान में क्षुल्लक मोतीसागरजी ] ने अपनी दुकान पर बुलवाया और एक दो रुपये का नोट हाथ में देते हुए कहा कि "सुना है पश्चिम दिशा में (सनावद से १८ कि०मी० दूर बेड़िया ग्राम में] एक सूर्य [ज्ञान के सूर्य ] ने पड़ाव डाल रखा है और वह सनावद में भी १-२ दिन में पश्चिम दिशा से ही उदित होगा । अतः जाकर उस सूर्य के प्रोग्राम का पता लगाकर आओ।" मैंने बेड़िया पहुँचकर बिना समय व्यर्थ खोये पूज्य ज्ञानमती माताजी के दर्शनों से अपने नेत्रों को और चरण रज से अपने हाथों को पवित्र करने हेतु मन्दिर की ओर प्रस्थान किया और ज्ञानमती माताजी [जिन्हें मैं तब जानता नहीं था ] की वंदना करके पूछा कि " बड़ी माताजी कौन हैं ? मुझे उनसे सनावद पहुँचने के प्रोग्राम के बारे में जानना है।" माताजी की महानता देखें, उन्होंने मुझे इशारे से [उनसे वय में बड़ी] पद्मावती माताजी की ओर इशारा करके जतलाया कि ये हैं बड़ी माताजी धन्य है माताजी की महानता को
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उसके बाद समय बीतता गया, सनावद में पू० माताजी का चातुर्मास हुआ और उस समय चौबीस घंटे पू० माताजी के सानिध्य में रहते हुए भी एक दिन मेरे मन में विकल्प आया कि मेरी पैदा करने वाली माँ नहीं है और मैं अनाथ हूँ। यह सोचकर मेरी आँखें आई हो रही थीं तो माताजी ने पूछ लिया। मेरे हृदय की वेदना को समझकर माताजी ने कहा कि तू क्यों घबराता है? मैं तो हूँ तेरी माँ और मुझसे भी बड़ी जिनवाणी माँ हैं, जो जन्म-जन्मान्तर तक तेरी सच्ची माता रहेंगी। अतः यह क्षोभ छोड़कर उस माँ की शरण ले । पूज्य माताजी के सनावद प्रवास व चातुर्मास के दौरान उन्होंने देवशास्त्र और गुरु की विनय और उन पर दृढ़ श्रदान रखते हुए धर्म के लिए प्राणों की भी आहुति देने के लिए तैयार रहने का जो प्रण हमें दिलवाया वह सांसारिक माता शायद कभी नहीं दे सकती थी। हमारी जननी तो हमें कभी स्वार्थवश भीरू बना सकती है, परन्तु मेरे देखते-देखते न जाने कितने भीरू लोगों को माताजी ने सिंह बना दिया।
देवेन्द्र जैन
अनुदेशक : भारतीय स्टेट बैंक, जबलपुर
जो कुछ अमृतपान मैंने माताजी के चरणारविंद की शीतल छाया में रहकर पाया है, उसका अंशमात्र भी वर्णन मैं अपनी लेखनी से करने में असमर्थ हूँ।
पूज्य माताजी भी ज्ञान के सूर्य के समान है श्री जिनेन्द्रदेव से हमारी यही प्रार्थना है कि [यदि ऐसा हो सकता] वे हमारी उम्र पूज्य माताजी को देकर उन्हें सहस्रायु बनावें, ताकि वे धर्म की ध्वजा को आने वाले युगों तक फहराती रहें व निर्भीकता से धर्म का डंका बजाती रहें।
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