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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
श्रुत आराधिका
श्रुत साधकों का अभिनन्दन अनादिकाल से होता आ रहा है। आगे भी होता रहेगा और आज भी होना आवश्यक है। उन्हीं श्रुत आराधकों में श्रुत ज्ञानसाधिका, चारित्र चन्द्रिका गणिनी पूज्य माताजी ज्ञानमतीजी भी हैं।
पूर्वभव के संस्कार और इस भव का निरन्तर श्रुताभ्यास पठन-पाठन पूज्या माताजी का नित्य का क्रम है, उनका चिंतन, मनन एक उत्कट आदर्श है, जो मुमुक्षु प्राणियों को मार्गदर्शन देता है और देता रहेगा।
ऐसी उन मातेश्वरी के श्री चरणों में स्वस्थपूर्ण शतायु होने की कामना के साथ मेरी विनयांजलि अर्पित है।
श्रद्धा सुमन
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- सौ० शान्तिदेवी शास्त्री प्रभाकर
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शिवपुरी [म०प्र० ]
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जम्बूद्वीप के निर्माण की पावन प्रेरणा देने वाली गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के चरणों में मेरा शत शत वन्दन । पू० माताजी के गुणों का वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश है, मेरी लेखनी में ऐसी शक्ति कहाँ जो मैं कुछ कह सकूँ, फिर भी दुस्साहस कर रही हूँ।
अच्छा हुआ नारी हैं आप
जम्बूद्वीप निर्माण से जनता को अनेक प्रकार का लाभ मिला। हस्तिनापुर की पुण्य धरा पर जहाँ अनेक तीर्थंकरों (शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ इत्यादि) के कई कल्याणक हुए। मल्लिनाथ भगवान का समवशरण आया और भगवान आदिनाथ का इक्षुरस का आहार हुआ। ऐसी पुण्य भूमि पर आमतौर से लोग मेले पर या अट्ठाईयों में ही आते थे। बाकी दिनों में कोई व्यवस्था नहीं थी। अब यहाँ रोज मेला लगा रहता है। सड़कें बन गई हैं। जनता को धर्म लाभ के साथ-साथ साधुओं का संसर्ग भी प्राप्त होता है ।
विश्व का यह अनोखा निर्माण कराने के पश्चात् माताजी स्वयं अस्वस्थ हो गई, लेकिन जनता के लिए हस्तिनापुर फिर से आबाद हो गया। अधिक क्या कहूँ, माताजी की पावन प्रेरणा से जो श्रावक दर्शन करने आता है वही धर्म में दृढ़ता लेकर जाता है। उनकी वाणी में ओज है, मन्द हास्य है और शांत मुख मुद्रा सहसा ही व्यक्ति को आकृष्ट करती है। माताजी ने जिन आगम में से श्रावकों के लिए अनेक प्रकार के विधानों की रचना की है एवं सरल भाषा में अनगिनत ग्रन्थों की रचना करके द्वादशांग वाणी को श्रावकों के लिए प्रस्तुत किया है।
इन कठिन प्रयासों के लिए जैन समाज उनका सदा आभारी रहेगा।
- डॉ० सरोज जैन, रीडर,
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अरविन्द कॉलेज, दिल्ली वि०वि० दिल्ली
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प्राचीन काल से सृष्टि की अनिवार्य और अपरिहार्य घटक होते हुए भी, बौद्धिकरूपेण सक्षम एवं समर्थ होते हुए नारी की स्थिति धर्म हो अथवा कर्म सभी में द्वितीय श्रेणी की ही रही है; नारी विशेषण न रहकर संज्ञा न बनकर "अपशब्द" का पर्याय तक बनकर रह गया, तिस पर दुरस्थिति यह रही कि मात्र देहयष्टि एवं प्राकृतिक संरचना से शारीरिक समर्थता की सबलता के समक्ष नारी ने भी अबलापन को न केवल नियति, अपितु मुकुटवत् शिरोधार्य कर लिया था, इस क्रम की दुःखद परिणति वर्तमान के प्रगतिशील युग में भी नारीदुर्दशा, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, बेमेल विवाह आदि अनेक वीभत्स रूपों में देखने को मिल रही है, ऐसे संक्रमण एवं विषम काल में एक नारी ने अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र के त्रिशूल को दृढ़ता से सभी क्षेत्रों में पुरुष को पछाड़ नारी कीर्ति, संस्तुति और गरिमा महिमा के उच्चतम कीर्तिमान स्थापित किये, तब स्वाभाविक हो जाता है
- डॉ० नीलम जैन, देहरादून
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