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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
"अवतार प्रथम है बालसती का"
- प्रकाशचन्द जैन, सर्राफ, सनावद [म०प्र०]
पूज्य माताजी व संघ का सनावद में सन् १९६७ में चातुर्मास हुआ, तब से ही पूज्या माताजी के सम्पर्क में आने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ चातुर्मास में पूरे समय तो माताजी के ज्ञान गुण व दृढ़ इच्छाशक्ति वाले गुण को देखने का अवसर प्रत्यक्ष नहीं मिल पाया, क्योंकि उस समय बाहर पढ़ाई के लिए जाना पड़ा। बाद में जब माताजी का संघ बिहार होकर पू० आचार्य शिवसागरजी महाराज के संघ में पहुँचा तब से प्रतिवर्ष संघ में जाने का अवसर मिला। जैसा कि माताजी ने श्रवणबेलगोला में ध्यान में जम्बूद्वीप के दर्शन कर उसके निर्माण की प्रेरणा सनावद चातुर्मास में दी, परन्तु कई बाधाएँ व समय सीमा पार कर उस जम्बूद्वीप का निर्माण आखिर हस्तिनापुर की पावन धरती पर बड़े ही विराट् रूप में साकार हुआ। यह समाज के सामने है व आज भी नई-नई योजनाएँ (कमल मंदिर, त्रिमूर्ति मंदिर, ध्यान केन्द्र) रखकर सबको साकार करने की प्रेरणा दे रही हैं।
जहाँ तक साहित्य-सृजन की बात है उस क्षेत्र में तो माताजी ने युग की प्रथम महिला के रूप में अवतार लिया है, जिनकी लेखनी से करीब १५० ग्रन्थों का लेखन व अनुवाद हुआ है। जिनमें मुख्यरूप से अष्टसहस्री ग्रन्थ का अनुवाद है। माताजी द्वारा रचित विधानों (इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र) द्वारा आज जो भक्ति रस की गंगा संपूर्ण भारतवर्ष व विदेशों में भी बह रही है उसका वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं है।
आज समाज में कोई भी धार्मिक कार्य या सामाजिक उत्थान की बात आती है तो सर्वप्रथम समाज की निगाह दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर की ओर ही उठती है, ऐसी सशक्त संस्था का निर्माण आपकी ही प्रेरणा से संभव हुआ है।
ऐसी प० पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी युगों-युगों तक हमारी प्रेरणास्रोत बनी रहें व उनका आशीर्वाद सतत हमें प्राप्त होता रहे। पूज्य माताजी के चरणों में वन्दामि ।
तत्त्व पारंगत : आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी
- सतीश जैन [आकाशवाणी, नयी दिल्ली]
अधिकांश देखा गया है कि पद पाकर व्यक्ति गौरवान्वित होते हैं इसीलिए पदों की प्राप्ति के लिए होड़-सी लगी हुई है, परन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिनसे पद गौरवान्वित होते हैं। इसी तरह कुछ तिथियाँ भी ऐसी हैं जो व्यक्ति को पाकर गौरवान्वित होती हैं। वि०सं० १९९१ की शरद् पूर्णिमा भी एक ऐसी ही पवित्र तिथि बन गई जो व्यक्तित्व को पाकर गौरवान्वित हुई है। इसी पवित्र तिथि को मानवता की उज्ज्वल प्रतीक, साधना, त्याग और समर्पित निष्ठा से नारी जीवन को सार्थक दिशा देकर उसे गौरव प्रदान कराने वाली परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का जन्म हुआ था, आज वह तिथि एक पर्व के रूप में मनाई जाती है। .
माता के सुसंस्कारों से बालिका मैना ने बाल्यकाल में अर्थात् १२-१३ वर्ष की आयु में ही “पद्मनंदिपंचविंशतिका" जैसे ग्रन्थ का स्वाध्याय कर लिया और उससे अंकुरित वीतरागता का बीज पुष्पित हुआ ईस्वी सन् १९५२ में जब बाराबंकी शहर में पूज्य आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से बालिका मैना ने सप्तम प्रतिमा रूप आजस ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और एक आर्यिका की भाँति संघ के साथ ही पद विहार करने लगीं।
पूज्य आचार्य श्री ने ब्रह्मचारिणी मैना को क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान करते समय नाम दिया वीरमती। क्षुल्लिका वीरमती की उत्कृष्ट वैराग्य भावना तथा अलौकिक ज्ञान को देखकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने माधोराजपुरा (राजस्थान) में वि०सं० २०१३ को आर्यिका दीक्षा देकर ज्ञानमती नाम से अलंकृत किया। यह थी बालिका मैना से आर्यिका ज्ञानमती तक की नामांकन यात्रा । आज ज्ञानमती एक सार्थक नाम है। जो स्वयं प्रकाशित है और दूसरों को भी ज्ञान प्रकाश देकर प्रकाशित कर रहा है।
पूज्य माताजी श्रमण संस्कृति की उस परम्परा की सर्वोत्तम प्रतीक हैं, जो भगवान आदिनाथ से लेकर आज तक प्राचीनतम सभ्यता के रूप में अवशिष्ट है और जो सारे संसार को अपनी गौरवगाथा सुना रही है। आप न किसी वर्ग की हैं, न किसी जाति की और न किसी संप्रदाय विशेष की, अपितु आप संपूर्ण भारत की, मानवमात्र की हैं। आपकी करुणा का कोई ओर-छोर नहीं है। वह अपरिमित और महान् है, आपने संकीर्णताओं की समस्त अंधी जर्जर दीवारों को ढहा दिया है। वास्तव में आप "सत्त्वेषु मैत्री" की परम ज्योति हैं। इसीलिए प्राणिमात्र आपमें आत्म-कल्याण को साकार हुआ अनुभव करता है।
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