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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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विदुषीरत्न माताजी
जैन [आचार्य ]
एम०ए० [हिन्दी-संस्कृत ]; एच०पी०ए०; दर्शनायुर्वेदाचार्य-दिल्ली
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राजकुमार
साध्वियों की परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं- परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी। समाज के उपकार एवं देश हित के लिए उनका योगदान अमूल्य है। साध्वी होते हुए भी सदैव समाज का हितचिन्तन करना, समाज के उपकार के कार्यों में संलग्न रहना और तदर्थ समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को सतत प्रेरित करना भी सम्भवतः उनके जीवन का लक्ष्य है, जिसका साकार रूप आज हमें उनकी बनाई गई विभिन्न योजनाओं में दिखाई पड़ रहा है। अपने साध्वी आचरण के अतिरिक्त आप जिस प्रकार विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक रचनात्मक कार्यों में संलग्न है और आपके द्वारा किए गए कार्यों का जो मूर्तरूप हमारे सम्मुख विद्यमान् है, उससे आपके द्वारा कृत कार्यों की सार्थकता का आभास सहज ही मिल जाता है। धर्म और समाज के लिए आपने अद्यावधि जो भी कार्य किए हैं उनसे एक ओर समाज का बड़ा उपकार हुआ है तो दूसरी ओर धर्म की महती प्रभावना हुई है। अतः सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में आपके रचनात्मक योगदान का सदैव स्मरण किया जाता रहेगा ।
आपकी एक विशेषता यह है कि आप स्वभाव से साधु, कार्यों में कर्मठ एवं ज्ञान में विदुषी हैं। धर्म के गूढ़तम रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करना आपके द्वारा किये गये शास्त्रों के गहन अध्ययन का परिणाम है। यदि साधु को धर्म सम्बन्धी विषयों का ज्ञान, तत्त्वचिन्तन एवं शास्त्राभ्यास नहीं हो तो उसका साधुत्व निरर्थक है, वह केवल नाममात्र का साधु है, किन्तु विदुषी रत्न ज्ञानमती माताजी में यह बात नहीं है। उन्होंने अपने ज्ञान, कर्म एवं आचरण से साध्वी धर्म का निर्वाह तो किया ही है, साधुत्व को भी सार्थक किया है।
माताजी ने स्वेच्छापूर्वक साध्वी जीवन को अंगीकार किया है। साधु का आचरण कोंटों भरी वह यह है जिस पर चलना अतिशय दुष्कर है श्रद्धेय माताजी ने अपनी समस्त वासनाओं को तिलांजलि देकर काँटों का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर समझा और आजीवन उसी का अनुसरण करते हुए जीवन का उच्चतम आदर्श समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया। यह एक धार्मिक अवधारणा है कि ज्ञान के बिना किए गए आचरण की कोई फलश्रुति नहीं है और ज्ञानार्जन के लिए शास्त्राभ्यास एवं स्वाध्याय अत्यन्त आवश्यक है। संभवतः इसीलिए माताजी ने अपने जीवन (दैनिकचर्या) में स्वाध्याय एवं शास्त्राभ्यास को विशेष महत्त्व दिया। शास्त्रों के गहन अध्ययन, शास्त्र में प्रतिपादित तत्त्वों के मनन और अनुचिन्तन ने उनके अन्तःकरण में उस विलक्षण ज्योति का प्रस्फुरण किया, जिसके आलोक में अज्ञान तिमिर का विनाश स्वतः हो गया। इसकी प्रतीति और अनुभूति उनके द्वारा दिये गए उद्बोधन में सहज रूप से होती है। इसके अतिरिक्त जो साहित्य सृजन उन्होंने किया है उसमें उनके ज्ञानामृत की अक्षय निधि देखने को मिलती है। यह उनके ज्ञानामृत की विशेषता है कि उन्होंने एक ओर धर्म दर्शन के गूढ़ तत्त्वों पर आधारित ग्रंथों का प्रणयन किया है तो दूसरी ओर बालबोधार्थ सुबोध भाषा में सरल और सहज शैली में ऐसी पुस्तकों का निर्माण भी किया है, जिन्हें पढ़कर बालक, युवक, अल्पज्ञ और महिलाएँ ज्ञान लाभ एवं धर्म लाभ ले सकती हैं। जिन गूढ़ ग्रंथों को समझने में विद्वान् भी चकरा जाते हैं उनकी टीका, भाषानुवाद कर पूज्य माताजी ने अपने वैदुष्य, विलक्षण प्रतिभा एवं ज्ञान गाम्भीर्य का परिचय तो दिया ही है, इससे उन्होंने समाज का बहुत बड़ा उपकार भी किया है? क्योंकि भाषा की क्लिष्टता के कारण अष्टसहस्त्री जैसे ग्रंथ को हाथ लगाने में जो विद्वान् कतराते थे, उसे पूज्य माताजी ने न केवल सुगम बना दिया, अपितु उसके गूढ़ रहस्यों को अनावृत कर ज्ञान के द्वार जन सामान्य के लिए खोल दिए इस प्रकार वन्दनीय माताजी ने ज्ञान का शुभोपयोग यदि स्वान्तः सुखाय किया है तो समाज के उपकारार्थ भी उसे उतना ही सुलभ बनाया है।
आपका व्यक्तित्व विलक्षण है। आपके मुख मण्डल पर तेजस्विता है तो वाणी में ओज है। निस्पृह भाव और सरल स्वभाव से आपका अन्तःकरण परिपूरित है।
आपके द्वारा धर्म की जो प्रभावना हुई है, उससे समाज का बड़ा उपकार हुआ है और समाज उसे कभी नहीं भुला सकेगा। ऐसी आर्यिकारत्न जिसने न केवल नारी समाज, अपितु सम्पूर्ण मानव समाज को गौरवान्वित किया है, की चरण वन्दना करते हुए उनके श्री चरणों में अत्यन्त श्रद्धा एवं भक्तिभावपूर्वक अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ।
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