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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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जिनवाणी की आराधिका
-पं० शिखरचन्द्र जैन, प्रतिष्ठाचार्य
भिण्ड [म०प्र०]
श्री १०५ विदुषी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का अभिवंदन ग्रन्थ निकल रहा है, यह एक पावन कार्य है।
पूज्या माताजी ने जिनागम की अभूतपूर्व सेवा करके जैन जगत् का महान् उपकार किया है। नारियाँ अनेक पुत्री-पुत्रों को जन्म देती हैं, किन्तु पूज्य माताजी ने जिनवाणी की आराधना कर एक बहुत बड़ा अनूठा कार्य किया है, ऐसी आर्यिका व्रतधारी श्री १०५ विदुषी ज्ञानमती माताजी को शत-शत वन्दन है। ये मेरे श्रद्धा सुमन स्वीकृत हो।
क्रियाकाण्ड-विषय में माताजी का मार्गदर्शन
- पं० फतहसागर, प्रतिष्ठाचार्य, उदयपुर
ध्यानयोग- पूज्य माताजी के गत १५ वर्षों से निरन्तर दर्शनों का लाभ प्राप्त होता रहा है। प्रथम बार जब हस्तिनापुर में माताजी के दर्शनों के लिए गया था। सन्ध्या का समय था, पू० माताजी सामायिक में बैठी थीं, लगभग एक घण्टे तक बैठा, परन्तु उनके ध्यान में उन परमात्मा की शक्ति थी, जिन्हें सांसारिक प्राणियों से कोई प्रयोजन नहीं था। कोई बात नहीं हो सकी, निराश होकर पुनः जाना पड़ा। समन्वयवादी- दूसरी बार सहारनपुर (उ०प्र०) में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराके पू० माताजी के चरणों में पहुँचा । मधुर मुस्कान के साथ आशीर्वाद दिया और कहा कि मुमुक्ष, तेरहपंथ, बीसपंथ आदि विचारधारा का समन्वय कर दिगम्बर जैन समाज की एकता के साथ महोत्सव सम्पन्न कराओ। पू० माताजी सदैव जैन समाज की एकता एवं समन्वय में विश्वास रखती हैं, उनके मन में कोई पंथवाद नहीं है, परन्तु आर्षपरम्परा एवं आगमानुकूल ही कार्यक्रमों में उनका दृढ़ विश्वास है। इतना ही नहीं हमें लेस्टर (यूरोप) में दिगम्बर-श्वेताम्बर मत को समन्वय कर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराने का भी पू० माताजी ने आशीर्वाद प्रदान किया। निरभिमानी-मई-जून १९८९ में पू० माताजी के सानिध्य में भारतीय स्तर का शिविर लगाया गया। गणधराचार्य सहित अन्य आचार्य, मुनि संध विराजमान था। अनेक विषयों पर चर्चा होती थी। पू० माताजी प्रत्येक विषय का समाधान विद्वत्तापूर्ण ढंग से करती थीं कि किसी को भी कोई शंका नहीं रहती, फिर भी कोई हठाग्रह कर विषय को विवाद में डालते तो माताजी कहतीं इसका समाधान तो "केवलज्ञानी" ही कर सकते हैं, हम तो अल्पज्ञ हैं। भगवान् सर्वज्ञ हैं। पू० माताजी की कितनी सारपूर्ण बात है। क्रियाकाण्ड- अकूटबर १९८९ में पूज्य माताजी के सान्निध्य में प्रतिष्ठाचार्यों का सम्मेलन हुआ, जिसमें उत्तरी भारत, दक्षिणी भारत के विद्वान् एकत्रित हुए। क्रियाकाण्ड के विषय में तीन दिन तक माताजी ने सभी प्रतिष्ठाचार्यों से अलग-अलग जानकारी ली तथा प्रतिष्ठापाठों में आचार्यों के द्वारा बताये गये विषय पर स्पष्टीकरण कर ऐसा समाधान किया कि मानो पूज्य माताजी स्वयं प्रतिष्ठाचार्य हों। सिद्धान्त एवं क्रियान्वयन पर भी प्रकाश डाला। पू० माताजी ने प्रतिष्ठाचार्यों का ध्यान संस्कृत व्याकरण, ज्योतिष एवं वास्तुसार के ग्रन्थों की ओर आकर्षित कराया। पू० माताजी को हम लोगों ने प्रतिष्ठापाठ लिखने के लिए निवेदन किया तो माताजी ने कहा कि आचार्यों द्वारा लिखे गये प्रतिष्ठापाठ ही मान्य हों अन्यथा प्रतिष्ठा विधान में कई प्रकार की नवीन विचारधाराओं का समावेश होने से आगम का अनादर होगा। इससे स्पष्ट है कि माताजी की श्रद्धा प्राचीन आचार्यों के प्रति भक्तिपूर्ण है। आज के विद्वान् नये-नये प्रतिष्ठापाठ लिखकर सूरिमंत्र जैसे मुख्य विषय को नवीन रूप प्रदान कर रहे हैं। सिद्धान्तवेत्ता- पू० माताजी का विशद अध्ययन, चारों अनुयोगों का सांगोपांग ज्ञान, संस्कृत, व्याकरण, साहित्य, न्याय, धर्म, ज्योतिष आदि समस्त विषयों का ज्ञान होने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि "यथा नाम तथा गुण" ज्ञानमती वास्तव में जिनकी बुद्धि में अलौकिक ज्ञान भरा है। ऐतिहासिक जम्बूद्वीप-त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप रचना आपके अनुभव का जीता-जागता उदाहरण है। पू० माताजी का अपना सम्पूर्ण जीवन धर्मध्यान, ज्ञान का प्रचार एवं समाज सेवा के लिए अर्पण है। हम लोगों को सदैव सिद्धान्त या क्रियाकाण्ड के प्रति जो वात्सल्यभाव है उसके लिए समग्र विद्वद्जन प्रभावित हैं। निश्चय एवं व्यवहार दोनों ही प्रश्न में माताजी युग-युग तक स्मरणीय रहेंगी। विद्वानों के प्रति सहानुभूति- अप्रैल सन् १९९० में जम्बूद्वीप स्थल पर विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हेतु मुझे प्रतिष्ठाचार्य के पद पर आमंत्रित किया और जो मुझे मातृस्नेह, वात्सल्यभाव एवं सम्मान दिया, शायद ही किसी स्थान पर ऐसा योग मिला हो। पू० माताजी की विद्वत्ता, दूरदर्शिता एवं उनकी जिनेन्द्रभक्ति के कारण भारत में प्रमुख आर्यिका का स्थान प्राप्त है। हम उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से यह संस्मरण लिख रहे हैं।
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