________________ प्रथम स्थान ] पर भी इसका निर्देश किया गया है / वहाँ पर वेदना का प्रयोग सामान्य कर्म-फल का अनुभव करने के अर्थ में हुआ है और यहाँ उसका अर्थ पीड़ा विशेष का अनुभव करना है / यह वेदना सामान्य रूप से एक ही है। ३४–एगे छेयणे / ३५-एगे भेयणे। छेदन एक है (34) / भेदन एक है (35) / विवेचन--छेदन शब्द का सामान्य अर्थ है-छेदना या टुकड़े करना और भेदन शब्द का सामान्य अर्थ है विदारण करना / कर्मशास्त्र में छेदन का अर्थ है---कर्मों की स्थिति का घात करना / अर्थात् उदीरणा करण के द्वारा कर्मों की दीर्घ स्थिति को कम करना / इसी प्रकार भेदन का अर्थ हैकर्मों के रस का घात करना / अर्थात उदीरणाकरण के द्वारा तीव्र अनुभाग को या फल देने की शक्ति को मन्द करना / ये छेदन और भेदन भी सभी जीवों के कर्मों की स्थिति और फल-प्रदानशक्ति को कम या मन्द करने की समानता से एक ही है। ३६-एगे मरणे अंतिमसारोरियाणं / ३७-एगे संसुद्ध प्रहाभूए पत्ते। अन्तिम शरीरी जीवों का मरण एक है (36) / संशुद्ध यथाभूत पात्र एक है (37) / विवेचन—जिसके पश्चात् पुनः नवीन शरीर को धारण नहीं करना पड़ता है, ऐसे शरीर को अन्तिम या चरम शरीर कहते हैं / तद्-भव मोक्षगामी पुरुषों का शरीर अन्तिम होने की समानता से एक है / इस चरम शरीर से मुक्त होने के पश्चात् आत्मा का यथार्थ ज्ञाता द्रष्टारूप शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है, वह सभी मुक्तात्माओं का समान होने से एक कहा गया है। ३८--'एगे दुक्खे' जीवाणं एगभूए / ३६-एगा अहम्मपडिमा, 'जं से' आया परिकिलेसति / ४०-एगा धम्मपडिमा, जं से आया पज्जवजाए। जीवों का दुःख एक और एकभूत है (38) / अधर्मप्रतिमा एक है, जिससे आत्मा परिक्लेश को प्राप्त होता है (36) / धर्मप्रतिमा एक है, जिससे आत्मा पर्यय-जात होता है (40) / / विवेचन–स्वकृत कर्म-फल भोगने की अपेक्षा सभी जीवों का दुख एक सदृश है / वह एक भूत है अर्थात् लोहे के गोले में प्रविष्ट अग्नि के समान एकमेक है, आत्म-प्रदेशों में अन्तःप्रविष्ट–व्याप्त है। प्रतिमा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं तपस्या विशेष, साधना विशेष, कायोत्सर्ग, मूर्ति और मन पर होने वाला प्रतिबिम्ब या प्रभाव / प्रकृत में अधर्म और धर्म का प्रभाव सभी जीवों के मन पर समान रूप से पड़ता है, अत: उसे एक कहा गया है / अभयदेवसूरि ने पडिमा का अर्थ-प्रतिमा, प्रतिज्ञा या शरीर किया है / पर्यवजात का अर्थ प्रात्मा की यथार्थ शुद्ध पर्याय को प्राप्त होकर विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना है। इस अपेक्षा भी सभी शुद्धात्मा एकस्वरूप हैं / ४१–एगे मणे देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि / ४२–एगा वई देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि / ४३–एगे काय-वायामे देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि / ४४-एगे उट्ठाण-कम्म बल-वीरिय-पुरिसकार-परक्कमे देवासुरमणुयाणं तंसि तसि समयंसि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org