________________ प्रथम स्थान ] [11 मान दूसमा। १३४–एगा उस्सप्पिणी। १३५–एगा दुस्सम-दुस्समा जाव। १३६--एगा दुस्समा / 137 --एगा दुस्सम-सुसमा / १३८-एगा सुसम-दुस्समा। १३६-एगा सुसमा] / १४०-एगा सुसम-सुसमा। अवसर्पिणी एक है (127) / सुषम-सुषमा एक है (127) / सुषमा एक है (126) / सुषमदुपमा एक है (130) / दुषम-सुषमा एक है (131) / दुषमा एक है (132) / दुषम-दुषमा एक है (133) / उत्सपिणी एक है (134) / दुषम-दुषमा एक है (135) / दुषमा एक है (136) / दुषमसुषमा एक है (137) / सुषमा-दुषमा एक है (138) सुषमा एक है (136) / और सुषम-सुषमा एक है (140) / विवेचन-कालचक्र अनादि-अनन्त है, किन्तु उसके उतार-चढ़ाव की अपेक्षा से दो प्रधान भेद किये गये हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी काल में मनुष्यों आदि की बल, बुद्धि, देह प्राय-प्रमाण प्रादि की तथा पदगलों में उत्तम वर्ण, गन्ध आदि की क्रमशः हानि होती है और उत्सर्पिणी काल में उनकी क्रमश: वृद्धि होती है। इनमें से प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं, जो छह प्रारों के नाम से प्रसिद्ध हैं और जिनका मूल सूत्रों में नामोल्लेख किया गया है / अवसर्पिणी काल का प्रथम पारा अतिसुखमय है, दूसरा सुखमय है, तीसरा सुख-दुःखमय है, चौथा दुःख-सुखमय है, पांचवां दुःखमय है और छठा अतिदुःखमय है। उपिणी का प्रथम आरा अति दुःखमय, दूसरा दुःखमय, तीसरा दुःख-सुखमय, चौथा सुख-दुःखमय, पाँचवां सुखमय और छठा अति-सुखमय होता है। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि इस कालचक्र के उक्त पारों का परिवर्तन भरत और ऐरवत क्षेत्र में ही होता है, अन्यत्र नहीं होता। १४१–एगा मेरइयाणं वग्गणा। १४२----एगा असुरकुमाराणं वग्गणा जाव / १४३--[एगा णागकुमाराणं वग्गणा / १४४–एगा सुवण्णकुमाराणं वग्गणा / १४५–एगा विज्जुकुमाराणं वग्गणा / 146 –एगा अम्गिकुमाराणं वग्गणा। १४७–एगा दीवकुमाराणं वग्गणा। १४८–एगा उहिकुमाराणं वग्गणा। १४६-एगा दिसाकुमाराणं वग्गणा। १५०--एगा वायुकुमाराणं वग्गणा / १५१–एगा थणियकुमाराणं वग्गणा। १५२-एगा पुढविकाइयाणं वग्गणा। १५३--एगा प्राउकाइयाणं वगणा। १५४-एगा तेउकाइयाणं वगणा। १५५---एगा वाउकाइयाणं वग्गणा / १५६–एगा वणस्सइकाइयाणं वग्गणा। १५७-एगा बेइंदियाणं वग्गणा। १५८–एगा तेइंदियाणं वग्गणा / १५६–एगा चरिदियाणं वग्गणा / १६०--एगा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वग्गणा / १६१–एगा मणुस्साणं वग्गणा। १६२–एगा वाणमंतराणं वग्गणा। १६३–एगा जोइसियाणं वग्गणा] / १६४----एगा बेमाणियाणं वग्गणा। ___ नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (141) / असुरकुमारों की वर्गणा एक है (142) / नागकुमारों की वर्गणा एक है (143) / सुपर्णकुमारों की वर्गणा एक है (144) / विद्युतकुमारों की वर्गणा एक है (145) / अग्निकुमारों की वर्गणा एक है (146) / द्वीपकुमारों को वर्गणा एक है (117) / उदधिकुमारों की वर्गणा एक है (148) / दिक्कुमारों की वर्गणा एक है (146) / वायुकुमारों की वर्गणा एक है (150) / स्तनित (मेघ) कुमारों की वर्गणा एक है (151) / पृथ्वीकायिक जीवों की वर्गणा एक है (152) / अप्कायिक जीवों की वर्गणा एक है (153) / तेजस्कायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org