________________ प्रथम स्थान [5 विवेचन--संसारी जीवों को शरीर की प्राप्ति शरीर-नामकर्म के उदय से होती है। ये शरीर-धारी संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी। जिस एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है, उसे प्रत्येकशरीरी जीव कहते हैं। जैसे-देव-नारक आदि / जिस एक शरीर के स्वामी अनेक जीव होते उन्हें साधारणशरीरी जीव कहते हैं। जैसे जमीकन्द, आलू, अदरक यादि / प्रकृत सूत्र में प्रत्येकशरीरी जीव विवक्षित है। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि 'एगे आया' इस सूत्र में शरीर-मुक्त आत्मा विवक्षित है और प्रस्तुत सूत्र में कर्म-बद्ध एवं शरीर-धारक संसारी जीव विवक्षित है। १८-एगा जीवाणं अपरिपाइत्ता विगुब्वणा / जीवों की अपर्यादाय विकुर्वणा एक है (18) / विवेचन-एक शरीर से नाना प्रकार को विक्रिया करने को विकुर्वणा कहते हैं। जैसे देव अपने-अपने वैक्रियिक गरीर से गज, अश्व, मनुष्य प्रादि नाना प्रकार की विक्रिया कर सकता है / इस प्रकार की विकुर्वणा को परितः समन्ताद वैक्रियसमधातेन बाह्यान पुदगलान आदाय गहीत्वा' इस निरुक्ति के अनसार बाहिरी पदगलों को ग्रहण करके की जाने वाली विक्रिया पर्यादाय-विकर्वणा कहलाती है। जो विकर्वणा बाहिरी पदगलों को ग्रहण किये बिना ही भवधारणीय शरीर से अपने छोटे-बड़े आदि आकार रूप की जाती है, उसे अपर्यादाय-विकुर्वणा कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में इसी की विवक्षा की गयी है। यह सभी देव, नारक, मनुष्य और तियंच के यथासंभव पायी जाती है। १९--एगे मणे / २०---एगा वई / २१-एगे काय-वायामे। मन एक है (16) / वचन एक है (20) / काय-व्यायाम एक है (21) / विवेचन-व्यायाम का अर्थ है व्यापार / सभी जीवों के मन वचन और काय का व्यापार यद्यपि विभिन्न प्रकार का होता है। यों मनोयोग और वचनयोग चार-चार प्रकार का तथा काययोग सात प्रकार का कहा गया है, किन्तु यहां व्यापार-सामान्य की विवक्षा से एकत्व कहा गया है / २२---एगा उप्पा / २३-एगा वियती। उत्पत्ति (उत्पाद) एक है (22) / विगति (विनाश) एक है (23) / विवेचन-वस्तु का स्वरूप उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप है। यहां दो सूत्रों के द्वारा आदि के परस्पर सापेक्ष दो रूपों का वर्णन किया गया है। २४----एगा वियच्चा। विगतार्चा एक है (24) / विवेचन संस्कृत टीकाकार अभयदेवसूरिने 'वियच्चा' इस पद का संस्कृतरूप 'विगतार्चा' करके विगत अर्थात् मत और अर्चा अर्थात् शरीर, ऐसी निरुक्ति करके 'मतशरीर' अर्थ किया है। तथा 'विवच्चा' पाठान्तर के अनुसार 'विवर्चा' पद का अर्थ विशिष्ट उपपत्ति, पद्धति या विशिष्ट वेशभूषा भी किया है। किन्तु मुनि नथमलजी ने उक्त अर्थों को स्वीकार न करके 'विगतार्चा' पद का अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org