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MUSOM
श्री योगीन्दुदेवविरचित -
योगसार टीका।
PRATHAMPAIP414041-48|MP444414141PMPAINMD4-41414141414141414141414124TANIK
भाषा टीकाकार .. श्रीमान् ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजी | [श्ववनसार, नियमसार, समयसार, तन्त्रसार, पंचास्तिकाय, स्वयंभूस्तोन, तलभावना, समाधिशतक, इष्टापदेश, सरजसुखसाधन, जैनधर्म प्रकाश, जैनधर्ममें अहिंसा आदि २ के
टीकाकार व संपायनकर्ता]
प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगंवरजनपुस्तकालय, गांधीचौक-सूरत।
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...
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इबका (पादरा, बड़ौदा) निवासी स्व० संठ कालीदास अमधाभाई स्मारक फंडस उनके मुपुत्र सेठ सोभागवादी औरसे "जनमित्र" के
४१ वें वर्षके ग्राहकोंको भेट ।
प्रथमावृत्ति ]
[प्रति १२५०
वीर सं० २४१७ मूल्य-रु० १-१२-०
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9 भूमिका।
___ यह योगसार ग्रंथ आत्मा मननको परम उपकारी है । इसमें निश्चयनयकी प्रधानतामे अपने ही आत्माको परमात्मा समान 'श्रद्धान करके, उसीके ध्यानका उपदेश है | आत्माका अनुभव ही मोक्षका मार्ग है । पद पदापर यही भाव झलकाया है । परमश्रुतप्रभावकमण्डल बम्बई द्वारा प्रकाशित परमात्म प्रकाशमें योगसारकी मामान्य शब्दार्थ टीका है, अल्पज्ञोंके लिये भाव प्रगट करने में बहुत संकुचित है । दुसरी कोई बड़ी भाषादीका न देखकर हमने विस्तारसे भाव खोलनेका उद्यम किया है। अल्पबुद्धि होने पर भी महान साहस करके अध्यात्म मननके हेतुसे इस कार्यका सम्पादन किया हैं । बुद्धिर्वक प्राचीन जिन आगमके अनुकूल ही विवेचन किया है। प्रमादसे व अज्ञानसे कहीं पर त्रुटि हो तो विद्वान क्षमावान होकर शुद्ध कर लेंगे ऐसी आशा है।
इस ग्रंथके मूलकर्ता श्री योगेन्द्र आचार्य है, जैसा अन्तिम दोहा गाधाले प्रगट है | यह बड़े योगिराज थे। इनका रचित बृहत् ग्रंथ परमात्म प्रकाश है, जिसकी संस्कृत टीका बहादेवकृत व भाषाटीका पं. दौलतरामजी कृत बहुत ही बढ़िया है | योगसार पर कोई संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं है।
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[४] इन परम अध्यात्मरमी योगिराज कृत दो ही ग्रंथ प्राप्त हैं । श्रीयुत पं० आदिनाथ उपाध्याय एम० ए० ने परमात्म शकी विद्वत्तापूर्ण भूमिकामें प्रगट किया है । वही यह भी चर्चा है कि योगेन्द्राचार्यका समय क्या था । स्पष्ट लेख न मिलनेस मान किया गया है कि श्री पूज्यपादके पीछे इनका समय छठी हाब्दी होगा।
पाठकगणोंको उचित है कि एक एक दोहा गाथाका म्यानसे मनन करें | एक एक दोहाका व्याख्यान एक स्वतंत्र लेख रूप ही है, जिसके पढ़ने आत्मज्ञान व आनन्दका लाभ होगा ।
बम्बई, धाचिकाना..
आमरसप्रेमी,
ब. सीतलप्रसाद
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निवेदन। *-- -
- करीब १४०० वर्ष पहले दिल जैन समाजमें अध्यात्मप्रेमी महान आचार्य श्री योगीन्दुदेव होगये हैं, जिन्होंने श्री परमात्मप्रकाश, योगसार, आध्यान्मसंदोह, सुभाषिततंत्र, तत्वार्थटीका, नौकार श्रावकाचार मादि ग्रन्थ अपभ्रंश व संस्कृत भाषामें रचे थे, जिनमें परमात्मप्रकाश और योगसाद में दोनों पक्षमा पाषा में उनका दि. जैन समाजमें विशेष आदर है तथा ये दोनों ग्रन्थ संस्कृत छाया व हिंदी अनुवाद सहित प्रकट होचुके हैं। लेकिन योगसार टीका जो कलकत्तासे प्रकट हुई थी, कई वर्षीसे नहीं मिलती थी। तथा बम्बईसे अभी योगसार प्रकट हुआ है, उसमें सिर्फ संस्कृत छाया व शब्दार्थ है। है । अतः योगसार प्रश्रकी टीका प्रकट होनेकी आवश्यक्ता थी
और श्री सीतलप्रसादजीको अध्यात्म ग्रन्थों पर ही विशेष प्रेम है और आप किसी न किसी अध्यात्मग्रन्थका अनुवाद व टीका करते ही रहते हैं। अत: यद्यपि आप कंपवायुसे दो वर्षसे पीड़ित होरहे हैं तौं भी आपने दाहोद, अगास व बड़ौदामें ठहरकर इस ग्रन्थके १-१ श्लोककी टीका नित्य लिखनेका नियम करके उसे पूरा किया था जो आज प्रकाशमें आरहा है। धन्य है आपकी अध्यात्म मचि !
आज दि जैन समाजमें आप जैसे कर्मण्य ब्रह्मचारी दूसरे नहीं हैं । अभी आप लखनऊमें विशेष रोगग्रसित हैं तो भी आपका अभ्यामप्रेम कम नहीं हुआ है और जैनमित्रके लिये अध्यात्मिक १-१
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[६] लेख दूसरेसे लिखवाकर भी प्रकट करवाते रहते हैं। तथा कुछ दिनः हुए " जैन धर्ममें दैव व पुरुषार्थ " ग्रन्थ भी रात्रिको उठ२ कर लिख कर व लिखवाकर तैयार किया है यह जानकर किसे प्रसन्नता न होगी? लेकिन साथमें दुम्स भी होगा कि आपका कंपवायु रोग अच्छा नहीं होता । अतः आपको अधिकाधिक शारीरिक कष्ट होरहा है। आप शीघ्र ही आरोग्यलाभ करके चिरायु हों यही हमारी श्री जिन्द्रदेवसे प्रार्थना है।
इस ग्रन्थराजके रचयिता श्री योगीन्दुदवको संक्षिप्त परिचय भी अन्यके प्रारम्भमें दिया है जो श्री पं० पामेष्ठिदासजी न्यायतीर्थनः "परमात्मप्रकाश' की प्रस्तावनासे संकलित किया है।
इस ग्रन्थको प्रकट करके “जैनमित्र " के ४१३ वर्षके ग्राहकों को भेट देनेकी जो व्यवस्था का निवासी नृसिंहपुरा जातिके अध्यात्मप्रेमी सेठ सोभागचंदजीने अपने स्व० पूज्य पिताश्री सेठ कालीदास अमथाभाईक स्मारककंडगेसे की है उसके लिये वे अतीच धन्यवादके पात्र हैं। तथा ऐसे ही शायदानकी जैनसमाजमें आवश्यक्ता है। आशा है आपके शास्त्रदानका अनुकरण अन्य श्रीमान भी करेंगे। ओ जैमित्र के ग्राहक नहीं हैं उनके लिये इस ग्रंथकी कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं। आशा है कि उनका भी शीघ्र प्रचार होकर इसकी दूसरी आवृत्ति प्रकट करनेका मौका प्राप्त होगा।
निवेदकसूरत-वीर सं० २५६ । मूलचन्द किसनदास कापड़िया, कार्तिक मुदी ..१५ गुरुवार 'ता.-१४-११-४० )
-प्रकाशक ।
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[ ७ ]
योगसार के कर्ता
श्रीमद् योगीन्दु देव |
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जैन साहित्य में ओ योगीन्दु देवका बहुत ऊँचा स्थान है । उनने उच्चकोटिकी रचनाओंमें प्रयुक्तकी जानेवाली संस्कृत तथा प्राकृत भाषाको छोड़कर उस समयकी प्रचलित भाषा अपभ्रंशको अपनाया और उसीमें अपने ग्रंथ निर्माण किये थे । प्राचीन ग्रंथकाने जो कुछ संस्कृत और प्राकृत में लिया था उसे ही योगीन्दवने बहुत सरल ढंगसे अपने समयकी प्रचलित भाषामें गृधा था। योगीन्दुदेवने श्री कुन्दकुन्दाचार्य और श्री वज्यवाद बहुत कुछ लिया था ।
यह बड़े ही दुःखकी बात है कि जोइन्दु ( योगीन्दु ) जैसे महान अध्यात्मवेत्ताके जीवन के सम्बंध में विस्तृत वर्णन नहीं मिलना । नसागर उन्हें भट्टारक लिखते हैं, किन्तु इसे केवल आदर सूचक शब्द समझना चाहिये। उनके ग्रंथों में भी उनके जीवन तथा स्थानके बारमें कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनकी रचनायें उन्हें आध्यात्मिक राज्यके उन्नत सिंहासनपर बिराजमान एक शक्तिशाली आत्माके रूप में चित्रित करती हैं। वे आध्यात्मिक उत्साह के केन्द्र हैं ।
"
परमात्मप्रकाशमें उनका नाम जोइन्दु आता है। श्री०जय सेनने “ तथा योगीन्द्रदेवैरायुक्तम" करके परमात्मप्रकाशसे एक पत्र उद्धृत किया है। ब्रह्मदेवने अनेक स्थानोंपर ग्रंथकारका नाम योगीन्द्र लिखा है । " योगीन्द्रदेवनाम्ना भट्टारकेण " लिखकर श्री श्रुतसागर एक पय उद्धत करते हैं। कुछ प्रतियों में योगेन्द्र भी पाया जाता है। इसप्रकार उनके नामका संस्कृतरूप 'योगीन्द्र' बहुत प्रचलित रहा है
शब्दों तथा भावकी समानता होनेसे योगसार भी 'जोइन्दु' की रचना माना गया है। इसके अन्तिम पयमें मंथकारका नाम
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[<]
'जोगिचन्द्र' लिखा है, किन्तु यह नाम योगीन्द्रसे मेल नहीं खाता । अतः मेरी राय में ' योगीन्द्र के स्थान में 'योगीन्दु ' पाठ है, जो 'योगिचन्द्र' का समानार्थक है ।
:
ऐसे अनेक
हैं,
म इन्दु और चन्द्र आपस में बदल दिये गये हैं। जैसे भागेन्दु और भागचन्द्र तथा शुभेन्दु और शुभचन्द्र । गलती से जोहन्दुका संस्कृतरूप योगीन्द्र मान लिया गया और वह प्रचलित होगया । ऐसे बहुत से प्राकृत शब्द हैं जो विभिन्न लेखकोंके द्वारा गलत रूपमें तथा प्रायः विभिन्न रूपों में संस्कृत में परिवर्तित किये गये हैं। योगसार के सम्वादकने इसका निर्देश किया था, किन्तु उन्होंने दोनों नामोंको मिलाकर एक तीसरे 'योगीन्द्रचन्द्र नामकी सृष्टि कर डाली, और इसतरह विद्वानोंको हंसनेका अवसर दे दिया। किन्तु यदि हम उनका नाम जोइन्दु योगीन्दु रखते हैं, तो सब बातें ठीक ठीक घटित होजाती है ।
योगीन्दुकी रचनाएँ - श्री योगीन्दुदेव के रचित निम्नलिखित ग्रन्थ कहे जाते हैं- १ परमात्मप्रकाश ( अपभ्रंश ), २ नौकार श्रावकाचार (अप), ३ योगसार (अप) ४ अध्यात्म सम्मोह (संस्कृत), ५ सुभाषित तंत्र ( ० ). ६ टीका (i) | इनके सित्राय योगीन्दुके नामपर ३ और धन्य भी प्रकाशमं आचुके हैं - एक दोहा
पाहुड (अप), दूसरा अमृताशीनि (सं०) और तीसरा निजात्माएक
(प्रा० ) इनमें से नं० ४ और ५ के बारेमें कुछ मालूम नहीं है और नं० ६के बारेमें योगदेव, जिन्होंने सत्यार्थपर संस्कृत में टीका बनाई हैं, और योगीन्दुदेव नामोंकी समानता सन्देह में डाल देती है । योगसार इसका मुख्य विषय परमात्म प्रकाशका सा ही है। इसमें संसारकी प्रत्येक वस्तु आत्माको सर्वश्रा प्रथक अनुभवन करनेका उपदेश दिया गया है। ग्रंथकार कहते हैं कि संसारस
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भयभीत और मोक्षके लिये उत्सुक प्राणियोंकी आत्माको जगाने के लिये जोगिचन्द्र साधुने इन दोहींको रचा है | ग्रंथकार लिखते हैं कि उनने प्रेथको दोहोंमें रचा है, किन्तु उपलब्ध प्रतिमें एक चौपाई और दो सोरठा भी हैं। इसमे अनुमान होता है कि मम्भवतः प्रतियों पूर्ण सुरक्षित नहीं रही हैं।
अन्तिम पयामें ग्रंथकर्ताका नाम जोगिचन्द्र (जोइन्दु योगीन्दु ) का उल्लेख, आरंभिक मंगलाचरणकी सदृशता, मुख्य विषयकी एकता, वर्णनकी शैली और वाक्य तथा पंक्तियोंकी समानता बतलाती है कि दोनों प्रन्ध एक ही कर्ता जोईदकी रचना है। पहले योगसार मा शिकचन्द्र अन्धमा बबईसे प्रकाशित हुआ था, किन्तु उसमें अनेक अशुद्धियां हैं । यदि उसके अशुद्ध पाठौंको दृष्टि में न लाया जाये नी भाषाकी दृष्टिसे दोनों ग्रन्थोंमें समानना है । केवल कुछ अन्तर, जो पाठक हदयको स्पर्श करते है. इस प्रकार हैं-योगसारमें एक वचनमें प्रायः 'हु' और 'ह' आता है, किन्तु परमात्मप्रकाशमें 'है' आना है। योगसारमें वर्तमान कालफे. द्वितीय पुरुष एक बचनमें हु' और 'डि' पाया जाता है, किन्तु परमात्मप्रकाश में केवल हि' आता है । पंचाग्निकायक्रो टीकामें नीजयमेनने योगसारमें एक पद्य भी उड़न किया है । अनेक प्रश्रन्ट अनुमानोंम योगीन्दुदेवका समय ईसाकी छठी शताब्दी निर्धारित किया गया है ।*
परमेष्टीदास जैन न्यायतीर्थ, मुरत । • गुग्यप्रमाबय मान द्वारा प्रकाशित परमात्सप्रकादमें प्रीतम 1. न उपाध्याय द्वारा निम्वित ८८ पृष्ठकी वो जपूर्ण प्रताधना ( अंग्रेजी ) का मानस हिन्दी ३० पृटम ५० कैलाशचन्द्र जी . शास्त्रीने लिखा है. उससे यह मार में लिया है। विशेष जाननेके रिस्य परभारमनकाश मंगाकर इस्त्रना चाहिये । . प. अन ।
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पृष्ठ
२५२
[१४] क्रम विषय ४७. बाहरी क्रियामें धर्म नहीं है .... ४८. आत्मस्थ होना धर्म है
१११ ४५. आशा तृष्णा ही संसारभ्रमणका कारण हैं. ५५. आत्मप्रेमी ही निर्वाणका पात्र है, ५१. शरीरको नाटकघर जानो ....
.... .. ५२. जगतकं धन्धों में उलझा प्राणी आत्माको नहीं पहचानता २८३ ५३. शास्त्रपाठ आत्मज्ञान विना निष्फल है ५४. इन्द्रिय व मनक निरोधमे सहज ही आत्मानुभव होता है २०९ ५५. पुद्गल ब जगतक व्यवहारस आत्माको भिन्न जाने ...... ५६. आत्मानुभत्री ही संसारगे मुक्त होता है ५७. आत्माके ज्ञानके लिये नौ दृष्टान्त हैं. ५८. देहादिरूप में नहीं है, अहो ज्ञान मोक्षका बांज हे .... ५५. अाकाशके समान होकर भी में चंतन हूं ६०. अपने भीतर ही मोक्षमार्ग है .... ६१. निमोही होकर अपने अमृतीक आत्माको देखो ६२, आत्मानुभवका फल .... ६३. परभावका त्याग संसारत्यागका कारण है ६४. त्यागी आत्मध्यांनी महात्मा ही धन्य है ६५. आस्मरमण सिद्धमुखका उपाय है
२४१ ६६. तत्वज्ञानी विरले होते हैं।
२४५ ६७. कुटुम्ब-मोह त्यागने योग्य है .... ६८. संसारमें कोई अपना नहीं है .... ६९. जीव सदा अकेला है १०. निर्मोही हो आत्माका ध्यान कर . ..... २५५
२५० २५३
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[ १६ ]
क्रम
विषय
७१. पुण्यको पाप जाने वही ज्ञानी है ७२. पुण्यकर्म सोनेकी बेड़ी है ७३. भाव नियंथ ही मोक्षमार्गी है ७४. देहमें भगवान होता हैं
पृष्ठ
२५८
२६०
२.६३
२६६
७५. आप ही जिन हैं, यह अनुभव मोक्षका उपाय है २६५
२७१
२.७४
७६. आत्माके गुणोंकी भावना करे ७७. दोको छोड़कर दो गुण विचारे ७८. तीनको छोड़ तीन गुण बिचारे. ७९. चारको त्याग चार गुण सहित व्यावे
:
८०. पांच के जोड़ोंस रहित व दश गुण सहित आत्माको ध्यावे २८२ ८१. आतारमण में तप त्यागादि सब कुछ है ८२. परभावोंका त्याग ही सन्यास है
२.८४
२८७५
२९.०
८३. त्नत्रय धर्म ही उत्तम तीर्थ है ८४. रत्नत्रयका स्वरूप....
२५३
२९५
२९८
८५. आत्मानुभव में सब गुण हैं ८६. एक आत्माका ही मनन कर ८७. सहज स्वरूपमें रमण कर ८८. सम्यग्दृष्टि सुमति पाता है ८९. सम्यग्दृष्टीका श्रेष्ठ कर्तव्य
२०५
९०. सम्यक्ती ही पंडित व मुखिया हैं ९१. आत्मामें स्थिरता संवर व निर्जराका कारण है
...
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९२. आत्मरमी कर्मोंस नहीं बंधता...
९३. समसुखभोगी निर्वाणका पात्र है ९४. आत्माको पुरुषाकार भ्यावे
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३२०
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[१६] नम
विषय ५.५. आत्मज्ञानो सत्र शास्त्रका ज्ञाता है ५६. परभावका याग कार्यकारी है ५७. परम समाधि शिवसुग्वका कारण है
४. आत्मःयाल चार प्रकार है ... ९५. सामायिक चारित्र कथन ... १०८. रागद्वेष ग्राग सामायिक है ... १५१. छेदीपस्थापना चास्त्रि १०२. पबिहारविशुद्धि चारित्र १०३. यथान्यात मयम १०४, आत्मा ही पंचपरमेष्ट्री है १५.११. आत्मा ही ब्रह्मा विष्णु महेश है १०६. परमात्मा इत्र अपने ही देह में है ५८७. आत्माका दशन ही सिद्ध होने का उपाय है. १०८. ग्रंथकनीकी अन्तिम भावना ... १०९. टीकाकारको प्रशस्ति
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श्री योगीन्द्रचन्द्राचार्य कृतयोगसार टीका।
मोका झान दज्ञ सुख वीर्यमय, परमातम सशरीर । अहेत वक्ता आप्त नम, पहु, भवदधितीरः ॥६॥ सिद्ध शुद्ध अशरीर प्रभू, वीतराग विज्ञान । नित्य मगन निज रूपमें, वंदई सुखकी खान ॥२॥
आचारज मुनिराजघर, दीक्षा शिक्षा देत। . शिव-मग नेता शांतिमय, चंद भाव समेत ॥ ३ ॥ श्रुतधर गुणधर धर्मधर, उपाध्याय हत भार । ज्ञान दान कतार मुनि, नमहु समामृत धार ॥ ४॥ साधन निज आतम सदा, लीन ध्यानमें धीर । साधु अमङ्गल र क.र, हरह सकल भव पार ।। ५ ।। जिनवाणा सुखदायनी, सार नवकी खान । पढ़त धारणा करत ही, हाय पापकी हान ॥ ६॥ योगिचन्द्र मुनिराज कृत, योगसार सत ग्रन्ध | भाशमं टीका लिखें, चलूं स्थानुभव पन्थ ! H.
(ब. सीतल, बा० १३-२-३९,)
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योगसार टीका।
सिद्धोंको नमस्कार । णिम्मलहाणपरिट्टिया कम्मकलंक डहेवि । अप्या लढूउ जेण परु तं परमप्प णवेवि ॥१॥
अन्वयार्थ (जण) जिन्होंने (णिम्मलझाणपरिडिया) शुद्ध ज्यानमें स्थित होते हुए ( कम्मकलंक डहेवि ) कोंक मलको जला डाला है (परु अप्पा लद्रउ ) तथा उत्कृष्ट परमात्म पदको पा लिया है ( त परमण णवेवि) उन सिद्ध परमात्माओंको नमस्कार करता हूं।
भावार्थ-यहाँ ग्रंथकाने मङ्गलाचरण करते हुए सर्व मिद्धाको नमस्कार किया है | सिद्धपद शुद्ध आत्माका पद हैं। जहां आत्मा अपने ही निजस्वभावमें सदा मगन रहता है । आत्मा शुद्ध आकासक समान निर्मल रहता है। आत्मा द्रव्य गुणोंका अभेद समूह है। सर्व ही गुण वहाँ पूर्ण प्रकाशिन रहने हैं | सिद्ध भगवान पूरा ज्ञानी हैं, परम वीतराग हैं, अतीन्द्रिय सुखके सागर हैं, अनन्तवीर्यधारी हैं, जड मंग रहित अमृतक है, सर्व कर्ममल रहित निमल है । अपनी ही स्वाभाविक परिणनिक की हैं, परमानन्द भाता हैं, परम कृतकृत्य है | सब इच्छाओंमे शून्य हैं, पुरूपाकार हैं। जिस शरीरम सिद्ध हुये हैं उस शरीरमें जसा आत्माका आकार था चैसा ही आकार विना संकोच विस्तारके सिद्धपदमें रहता है, प्रदेशोकी मापसे असंख्यात प्रदशी हैं | सिद्धको ही परमेश्वर. शिव, परमात्मा, परमदेव कहते हैं । वे एकाकी आत्मारूप है, जैसा मृलमें आत्मद्रव्य है वैसा ही सिद्ध स्वरूप है। सिद्ध परमात्मा अनंक हैं, जो संसारी आत्मा शुद्ध आत्माका अनुभव पूर्वक ध्यान करता है । मुनिपदमें अन्तर बाहर निग्रंथ होकर पहले धर्मभ्यान फिर शा
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योगसार टीका |
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क्यानको ध्याता है। इस शुक्ल ध्यानके प्रतापसे पहले अरहंत होता है फिर स क जलाकर सिद्ध होता है। मन स्वभावले लोकके अग्रमें जाकर सिद्ध आत्मा ठहरता है। धर्मद्रव्यके विना arathiarat Tir नहीं होता है। सर्व ही सिद्ध उस सिद्ध क्षेत्र में अपनीर सत्ताको भिन्न रखते हैं। सर्व ही अपनेर आनन्दमें मगन हैं, चे पूर्ण वीतराग है। इससे फिर कभी कर्मबंधसे बंधते नहीं । इसीलिये फिर संसार अवस्थामें कभी आते नहीं । वे सर्व संसारके देशांन मुक्त रहते हैं । वे ही निर्वाण प्राप्त हैं। सिद्धोंके समान जो कोई अपने आत्माको निश्रयमे शुद्ध आत्मद्रव्य मानकर व रागद्वेष व्याग कर उसी निज स्वरूप में मगन होजाता है नहीं एक दिन शुद्ध होजाता है।
कर्ता सिद्धों को सबसे पहले इसीलिये नमस्कार किया है कि भावों में सिद्ध समान आत्माका बल आज्ञावे । परिणाम शुद्ध क वीतराग होजावे । शुद्धोपयोग मिश्रित शुभ भाव होजावे जिससे दिनकारक कर्मों का नाश हो व सहायकारी पुण्यका बन्ध हो । मङ्गल उसे ही कहते हैं जिससे पाप गये व पुण्यका लाभ हो । मङ्गलाचरण करनेसे शुद्ध आत्माकी विनय होती है त्याय होता है। परिणाम कोमल होते हैं। काय होता है ।
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उद्धताका व मानका शांति व सुखका अन्द्र
यह अव्यात्मीक ग्रंथ है-आत्माको साक्षात् सामने दिखानेवाला है | शरीर के भीतर बैठे हुए परमात्मदेवका दर्शन करानेवाला है ।इसलिये ग्रंथकर्ताने सिद्धोंको ही पहले स्मरण किया है। इसमे 'झलकाया है कि सिद्ध पदको पानेका ही उद्देश है। ग्रंथ लिखनेसे और किसी फलकी वांछा नहीं है- सिद्ध पदका लक्ष्य ही सिद्ध पदपर पहुँचा देता है।
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योगसार टीका। परम योगी-श्री कुन्दकुन्दाचार्यजीने भी समयसार अन्धकी आदिमें सिद्धोको ही नमस्कार किया है। वे कहते हैं---
वंदित्तु सव्व सिद्धे धुक्ममलमणोवमं गदि पते । वोच्छामि समय पाहुड़ मिणमो सुदकेवली भणिद ॥१॥
भावार्थ-नित्य, शुद्ध, अनुपम, सिद्धगतिको प्राप्त, सर्व सिद्धोंको नमन करके मैं श्रुतकेवली कथित समय प्राभृतको कहूंगा।
योगेन्द्राचार्यने परमात्मप्रकाश ग्रंथको प्रारम्भ करते हुए इसी तरह पहले सिद्धोंको ही नमन किया है।
जे जाया झाणग्गियाए, कामकलंक डहेवि । णिच्च जिरंजन णाणमय ते परमप्प णवेवि ॥ १ ॥
भावार्थ-जो ध्यानकी आगसे कर्म-कलंकको जलाकर नित्य, निरंजन, नथा ज्ञानमय होगये हैं, उन सिद्ध परमात्माओंको नमन करता हूं।
श्री पूज्यपादस्वामीने भी समाधशतकको प्रारम्भ करते हुए. पहले सिद्ध महाराजको हो नमन किया है ।
येनात्मा बुभ्यतास्मैच परत्वेनैव चापरम् । अक्षयानन्तबोधाय तस्मै सिद्धात्मने नमः ॥ १ ॥
भावार्थ-जिसने अपने आस्माको आत्मारूप व परपदार्थको पररूप जाना है तथा इस भेद विज्ञानस अक्षय व अनन्त कंवलज्ञानका लाभ किया है, उस सिद्ध परमात्माको नमस्कार हो ।
श्री देवसेनाचार्य ने भी तत्वसारको प्रारम्भ करते हुए सिद्धोंको ही नमस्कार किया है।
झाणग्गिदड़कम्मे णिम्मलविसुद्धलद्धसन्माने । प्रमिऊण पमसिद्धे सु तबसारं फ्वोच्छामि ॥ १ ॥
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योगसार टीका। [५ भावार्थ-ध्यानकी आगसे कर्माको जलानेवाले व निर्मल शुद्ध निज सनाबको प्रांत करनेवाले सिद्ध परमात्माको नमन करके सत्वसारको कहूंगा। पूज्यपादस्वामीने इष्टोपदेश ग्रंथकी आदिमें ऐसा ही किया है
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभाके कृत्स्नकर्मणः ।
तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ।। १॥ भावार्थ-सर्व फौंको क्षय करके जिसने स्वयं अपने स्वभा. बका प्रकाश किया है उस सम्यग्ज्ञान स्वरूप सिद्ध परमात्माको नमन हो। नमस्कारके दो भेद हैं-भाव नमस्कार, द्रव्य नमस्कार । जिमको नमस्कार किया जावे उसके गुणोंको भावों में प्रेमसे धारण करना भाय नमस्कार है । बचनोसे व कायसे उस भीतरी भावका प्रकाश द्रव्य नमस्कार है । भाव सहित द्रव्य नमस्कार कार्यकारी है ।
अरहंत भगवानको नमस्कार। घाइचउकह किउ विलउ अणतचउक्कपदिड । तहि जिणाईदह घय णविवि अक्समि कब्बु सुइट ॥२॥
अन्वयार्थ-(घाइच उबई विल कित) जिसने चार । घातीय काँका क्षय किया है (अणंतचउपदिद) तथा अनंतचतुष्टयका लाभ किया है (तहि जिणइंदर पय ) उस जिनेन्द्रक पदोंको ( णविकि) नमस्कार करके (सुइट कच्छु) सुन्दर प्रिय काव्यको ( अक्खमि ) कहता हूं ।
भावार्थ-अरहंत पदधारी तेरहवे गुणस्थानमें प्राप्त सयोग व अयोग केवली जिनेन्द्र होते हैं । जब यह अज्ञानी जीव तत्वज्ञानका
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योगसार टीका। मनन करके मिथ्यात्व कर्मको व सम्यग्मिध्यात्व व सम्यक्त प्रकृति कर्मको अर्थात् तीनों दर्शन मोहनीयकर्मीको तथा चार अनन्तानुबंधी कषायोंको उपशम, क्षयोपशम या क्षय कर देता है, तय चौधे अविरत सम्यक्त गुणस्थानमें प्राप्त हो जिन कहलाता है। क्योंकि उसने संसार भ्रमणके कारण मिथ्यात्वको व मिथ्यात्व सहित रागद्वेष विकारको जीत लिया है, उसका उद्देश्य पलट गया है, वह संसारसे वैराग्यवान व मोक्षका परमप्रेमी होगया है। उसके भीतर निर्वाणपद लाभकी तीन रुचि पैदा होगई है। क्षायिक सम्यक्ती जीव श्रावक होकर या एकदम मुनि होकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थानतक धर्मध्यानका अभ्यास पूर्ण करता है। फिर अपकणी पर आरूढ़ होकर दसवे सूक्ष्ममोह गुणस्थानक अन्तमे चारित्रं मोहनीयका सर्व प्रकार क्षय करके बारहवे गुणस्थानमें क्षीणमाह जिन हो जाता है।
चौथे से बारहवें गुणस्थान तक जिन संज्ञा है, फिर बारहवेक अन्तमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय तीन शेष घातीय कर्मीका अय करके भरहन्त सयोग केवली हो, तेरहवे गुणस्थानमें प्राप्त होता है तब वह जिनेन्द्र कहलाते हैं। यहां चारों घातीय काँका अमात्र है। उनके अभावसे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतमोग, अनंतउपभोग, अनंतवीर्य, क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक चारित्र ये नौ केवल लब्धियों तथा अनंतसुख प्राप्त हो जाते हैं ! इन दशको चार अनंत चतुष्टयमें गर्भित करके अनंतज्ञान, अनंत. दर्शन, अनन्तवीर्य व अनन्तसुखको यहां प्राप्त करना कहा है । सम्यक्त व चारित्रको सुखमें गर्मित किया है। क्योंकि उनके बिना सुख नहीं होता है व अनन्तदानादि चारको अनन्तवीर्यमें गर्भित किया है, क्योंकि वे उसीकी परिणतियाँ हैं । इसतरह अनन्त चतुष्टयमें
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यांगसार टीका |
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दश गुण गर्भित हैं। सयोग केवली अवस्थामें अरहन्त धर्मोपदेश करते हैं उनकी दिव्यवाणीका अदभुत प्रकाश होता है, जिसका भाव सर्व ही उपस्थित देव, मानव व पशु समझ लेते हैं। सबका भाव निर्मल व आनन्दमय व सन्तोषी हो जाता है ।
उसी वाणीको धारणा में लेकर चार ज्ञानधारी गणधर मुनि आचासंग आदि द्वादश अंगोंमें ग्रंथते हैं। उस द्वादशांग वाणीको परंपरामे अन्य आचार्य समझते हैं। अपनी बुद्धिके अनुसार धारणा में रखकर दिव्य वाणीके अनुसार अन्य ग्रन्थोंकी रचना करते हैं । उन ग्रंथोंसे ही सत्यका जगतमें प्रचार होता है । सिद्धोंके स्वरूपका ज्ञान भी व धर्म सर्व भेदों का ज्ञान जिनवाणीसे ही होता है। जिसके मूल वक्ता अरहंत हैं । अतएव परमोपकार समझकर अनादि मूल मंत्र णमोकार मंत्रमें पहले अरहन्तोंको नमस्कार किया है, फिर सिद्धोंको नमन किया है | अरहंत परी तीर्थकर व समय केवल दोनों होते हैं ।
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कर नामकर्म एक विशेष पुण्यप्रकृति है। जो महात्मा दर्शनविशुद्धि आदि षोडशकारण भावनाओंको उत्तम प्रकार ध्याय कर तीर्थकर नामकर्म बांधते हैं वे ही नीकर केवली होते हैं। ऐसे तीथेकर परिमित ही होते हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में हरएक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी कालमें चौबीस चौवीस होते हैं। विदेहोंमें सदा ही होते रहते हैं। वहां कमसे कम वीस व अधिक से अधिक एक सौ साठ होते हैं। भरत व ऐरावतके तीर्थंकरोंके गर्भ जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण पांचों कल्याणक उत्सव इंद्रादि देव करते हैं, क्योंकि वे पहले ही तीर्थकर कर्म बांधते हुए गर्भमें आते हैं। विदेहोंमें कोई २ महात्मा श्रावक पदमें कोई २ साधु पदमें तीर्थकर कर्म बांधते हैं। इसलिये वहां किन्होंके तप, ज्ञान, निर्वाण तीन व किन्होंके ज्ञान, निर्वाण दो ही कल्याणक होते हैं ।
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योगसार टीका ।
तीर्थंकरों के विशेष पुण्यकर्मका
होता है उसे समताणकी विशाल रचना होती है। श्री मण्डपमें भगवान की गंधकुटी के चारों तरफ बारह सभाएं भिन्नर लगती हैं उनमें कमसेकम बारह प्रकारके प्राणी नियमसे बैठते हैं ।
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समवसरण स्तोत्र में विष्णुमेन मुनि कहते हैंऋषिकल्पजवनितार्या ज्योतिर्वनभवन युवतिभावनजाः । ज्योतिकल्पदेवा नरतित्रो वति तेष्वनुपूर्वम् ॥ १९ ॥
भावार्थ — उन बारह सभाओं में क्रमसे १ ऋषिगण, २ स्वर्गवासी देवी, ३ आर्यिका साध्वी, ४ ज्योतिपियोंकी देवी, ५ व्यंतर देवियां, ६ भवनवासी देवियां, ७ भवनवासी देव, ८ व्यंतरदेव, ९ ज्योतिषी देव १० स्वर्गवासी देव, ११ मनुष्य १२ तिर्यच बैठते हैं। इससे सिद्ध है कि आर्यिकाओंकी सभा अन्य श्राविकाओंसे भिन्न होती है उनकी मुद्रा श्वेत वस्त्र व पीछी कमण्डल सहित निराली होती है । शेष सर्व श्राविकाएं व अन्य स्त्रियां ग्यारहवें मनुष्य के कोटमें बैठती हैं। साधारण सर्व श्री पुरुष मनुष्य कोटमें व सर्व तिची व तिच पशुओं में बैठते हैं ।
सामान्य केवलियकि केवल गंधकुटी होनी है। सर्व ही अरहंतों के अठारह दोष नहीं होते हैं व शरीर परमोदारिक सात धातु र रहित स्कटिक के समान निर्मल होजाता है जिसकी पुष्टि योग बलसे स्वयं आकर्षित विशेष आहारक वर्गणाओंसे होती है। भिक्षासे ग्रास रूप भोजन करनेकी आवश्यक्ता नहीं होती है। जैसे वृक्षों की पुष्टि लेपाहारसे होती है। वे जैसे मिट्टी पानीको आकर्षण करते हैं योगबल से पुष्टिकारक स्कन्ध अरहंत के शरीर में प्रवेश करते हैं । उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती है, नख व केश नहीं बढ़ते हैं।
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यांगसार टीका। आम-स्वरूपमें कहा है -
नष्टं छास्थविज्ञानं नष्ट केशादिवर्धनम् | नष्टं देहमलं कृला नष्टे घालिचतुष्टये ॥ ८॥ नष्ट मर्यादविज्ञानं नष्टं मानसगोचरम् । नष्टं कर्ममलं दुष्टं नष्टो वर्णात्मको ध्यानः ॥ ५॥ नष्टाः क्षुत्तङ्मयम्वेदा नष्टं प्रत्येकबोधनम् । . नष्ट भूमिगतम्पर्श नष्टं चन्द्रियजं सुखम् ॥ १० ॥ नष्टा सदेहजा छाया नाटा चेन्द्रियजा प्रभा । नया सूर्यप्रभा तत्र सूनेऽनन्तचतुष्टये ॥ ११ ।। तदा स्फटिमका तेजोमू लिये वः । जायते क्षीणदोषम्य सप्तधातुविवर्जितम् ॥ १२ ॥ शुधा तृषा मयं द्वषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जस रूजा च मृत्युश्च स्वतः खेदो मदो रतिः ॥ १५॥ विभयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥ १६ ॥ पतैषिविनिमुक्त: सोऽयमाप्तो निरञ्जनः ।
विद्यन्ते येषु ते नित्यं नेऽत्र संसारिणः स्मृताः ॥१७॥ भावार्थ-ज्ञानावरणादि चार घातीय कोंके भय होजानेपर अल्पज्ञानीकामा ज्ञान नहीं रहता, केश नखादि नहीं बढ़ते, शरीरका सर्व मल दूर होजाता है, ज्ञान मर्यादा रूप नहीं होकर अमर्यादारूप अनन्त होजाता है, मनका संकल्प विकल्प नहीं होता है,
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योगसार टीका । दुष्कर्ममल नाश होजाता है, अक्षरमय वाणी नहीं होती हैं, मेयकी गजनाके समान निरक्षरी ध्वनि निकलती है। भूख, प्यास, भय, पसीना नहीं होता है। हरएक प्राणीको समझानेकी क्रिया नहीं होती है । साधारण श्वनि निकलती है | भूमिका स्पर्श नहीं होता है ! इन्द्रियजनित सुख भी नहीं रहता है । अतीन्द्रिय स्वाधीन सुख होता है। शरीरकी छाया नहीं पड़ती है ! इन्दियोंकी प्रभा नहीं रहती है। आतापकारी मूर्यकी भी प्रभा नहीं होती है। वहाँ अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं, तब स्फटिक समान तेजस्वी शरीरकी मूर्ति होजाती है । सात धातुएं नहीं रहती हैं। दोपोंका क्षय हो जाता है। १ भूस्त्र,
प्यास, ३ भय, ४ राग, ५ द्वेष, ६ मोह, चिन्ता, ८ जरा. ९ रोग, १० मरण, ११ पसीना, १२ रनेद, १३ मद. १४ रति, १५ आश्चर्य, २६ जन्म, १५ निद्रा, ५.८ विषाद ये अठारह दोष तीन जगतके प्राणियों में साधारण पाए जाते हैं। जिनमें ये दोष होते हैं. उनको संसारी प्राणी कहते हैं । जो इन दोसि रहित हैं वही निरञ्जन आप्त अरईत होता है।
समवसरण स्तोत्रमें उक्तं च गाथा है
पुवढे मज्झते, अवरहे मज्झिमाय रत्तीए । व्हायडियाणिगायदिवझुण्णी कहइ सुतस्थे ॥१॥
भावार्थ-समवसरणमें श्री तीर्थकर भगवानकी दिव्यवाणी सबेरे, दोपहर, सांझ, मध्यरात्रि इसतरह चार दफे छः छः घड़ी तक सूनार्थको प्रगट करती हुई निकलती है।
तेरहये गुणस्थानको सर्वांग इसलिये कहते है कि वहाँ योगशक्तिका परिणमन होता है जिससे कर्म नोकर्मवर्गणाओका ग्रहण होता है, आत्माके प्रदेश चश्चल होते हैं । इस चञ्चलताके निमित्त
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योगसार टीका। [५१. सात प्रकार योग होते है-सन्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्य वचनयोग, अनुभ्य वचनयोग, औदारिक काययोग; फेवलि समुद्घानमें ही होनेवाले औदारिक मिश्र काययोग और कार्मणयोग | भाव मनका काम नहीं होता है, क्योंकि श्रुतज्ञान य चिन्ता व तर्कका कोई काम नहीं रहता है । मनोवगणाका ग्रहण होनेपर द्रव्य मनमें परिणमन होता है। इसी अपेक्षा मनोयोग कहा है । वाणी खिरती. है, बिहार होता है | केवली समुद्रातमें लोकाकाश प्रमाण आत्मप्रदेश फैलते हैं । यह तेरहवां गुणस्थान आयुपर्यंत रहता है । जय इतना काल आयुमें शेष रहता है जितना काल अ, इ, उ, ऋ, लू इन पांच लघु अक्षर के बोलने में लगता है तब अयोग केवली जिन होजाते हैं, चौदहा गुणस्थान होजाता है। यहां योग काम नहीं करता है, अन्तके दो समयमें चार अघातीय कर्मोकी ८५ प्रकृतियोंका क्षय करके सिद्ध व अशरीर होकर मिहनारें जाकर विराजते हैं । तेरहवे गुणस्थानमें १४८ कर्मप्रकृतियोंमेंस ६३ कर्मप्रकृतियों का नाश हो चुकता है वे ६३ हैं
४७ चार घातियाकी-- ज्ञा+ ९ दर्शना०+२८ मोह + ५ अंत० तथा १६ अघातीयको जरक तियच देवायु ३ + नरकगति + नरक गत्यानुपूर्वी, + तिर्यंचगति, + लियंचगत्या • + एक, दो, तीन, चार इंद्रिय जाति ४ + उद्योन + आतप + साधारण + सूक्ष्म + स्थावर
ग्रंथकर्ताने अपने शालझानक मुल श्रोत रूप अरहंत भगवानको परोपकारी जान कर नमस्कार किया है व ग्रंथको कहनेकी प्रतिज्ञा की है
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१२] योगसार टीका ।
ग्रन्थको कहनेका निमित्त व प्रयोजन। संसारहं भयभीयाहं मोक्खह लालसियाह । अप्पासंबोहणकयइ कय दोहा एकमनाई ॥ ३ ॥
अन्वयार्थ (संसारहं भयभीयाह) संसारसे भय रखनेवालोंके लिये व (मोक्ख लालसिया) मोक्षकी लालसा धारण करनेवालोंके लिये (अप्पासंबोहणकयइ) आत्माका स्वरूप समझाने के प्रयोजनसे ( एक्कमणाई) एकान मनसे (दोहा कय) दोहोकी रचना की है। - भावाथ - जिसमें अनादिकालसे चार गतियोंमें संसरण या भ्रमण जीवोंका होरहा हो उसको संसार कहते हैं। चारों गतियों में लेश व चिंताएं रहती है, शारीरिक व मानसिक दुःख जीवको कमौके उदयसे भोगने पड़ते हैं। जन्म व मरणका महान क्लेश तो चारों ही गतियों में है, इसके सिवाय नरक आगमके प्रमाणसे तीन शारीरिक व मानसिक दुःख जीवको बहुत काल सहने पड़ते हैं। वहां दिन रात मार थाइ रहती है, नारकी परस्पर नाना प्रकार शरीरकी अपृथग़ विक्रियासे पशु रूप व शास्त्रादि बनाकर दुःख देते हैं व सहते हैं । तीसरे नरक तक संदेश परिणामोंक धारी असुरकुमार देव भी उनको लड़ाकर क्लेश पहुंचाते हैं। बैंक्रियिक शरीर होता है। पारेके समान गलकर फिर बन जाता है । तीन भूख प्यासकी वेदना सहनी पड़ती है । नारकी नरकके भीतर रत नहीं होते हैं, इसीलिये वे स्थान नरत व नरक कहलाते हैं।
तिच गतिमें एकेन्द्रिय स्थावर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदिक प्राणियोंको पराधीनपने व निर्मलतासे घोर कष्ट सहने पड़ते हैं। मानव पशुगण सर्व ही इनका व्यवहार करते हैं । वे बार बार
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योगतार श्रीका।
[ १ जन्मते मरते हैं। ट्रेन्द्रिय लट आदि, तेइन्द्रिव चींटी खटमल आदि, चौन्द्रिय मस्त्री, पतंग आदि ये तीन प्रकार विकस्त्रय महान कष्टमें जीवन बिताते हैं । मानवो व पशुओंके वर्तनसे इनका बहुधा मरण होता रहता है। पंचेंद्रिय पशु थलचर गाय भैसादि, सलचर मच्छ कछुवादि, नभचर कबूतर मोर काकादि व सादि पशु कितने कष्टसे जीवन बिताते हैं सो प्रत्यक्ष प्रगट है। मानवोंके अत्याचारोंसे अनेक पशु मारे जाते है। भार बहन, गर्मी, शदी, भूस्त्र, प्यासके व परस्पर वैर विरोधके घोर कष्ट सहते हैं।
मानवगतिमें इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, रोग, दारिद्र, अपमानादिके घोर शारीरिक व मानग्निक कष्ट सहने पड़ते हैं, सो सबको प्रत्यन ही है । देवगतिमें मानसिक कष्ट अपार है । छोदे देव बड़ोंकी विभत्ति देखकर कुढ़ते हैं । दवियोंकी आयु थोड़ी होती है, देवोंकी बड़ी आयु होती है, इसलिये देवियोंके वियोगका बड़ा कष्ट होता है । मरण निकट आनेपर अज्ञानी देवोंको भारी दुःख होता है। इसतरह चारों गतियों में दुः ख ही दुःख विशेष हैं। संसारमें सबस बड़ा दुःख वृष्णाका है । इन्द्रियांक भोगोंकी लालसा, भोगोंके मिलनेपर भी बढ़ती ही जाती है ! इस चालकी दाहस सर्व ही अज्ञानी संसारी प्राणी दिनरात जलते रहले हैं । जब शरीर जराग्रस्त व असमर्थ होजाता है तब भोगोंको भोगनेकी शक्ति नहीं रहती है, किन्तु तृष्णा बड़ी हुई होती है, इच्छित भोगकि न मिलनेसे घोर कष्ट होता है। इष्ट पदार्थों के छूटनेपर महती वेदना होती है। मियारष्टी संसारासक्त प्राणियोंको संसार-भ्रमणमें दुःख ही तुःख है। जब कभी कोई इच्छा पुण्यके उदयसे तृप्त होजाती है तब कुछ देर सुखमा झलकता है, फिर तृष्णाका दुःख अधिक होजाता है । संसार-भ्रमणासीन, मोक्षप्रेमी सम्यग्दृष्टी जीवोंको संसारमें क्लेश कम होता |
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योगसार टीका । वे तृष्णाको जीत लेते हैं। तृष्णाक नीत्र रोगसे पीड़ित सर्व ही अज्ञानी प्राणियोंको वोर कष्ट होता है । इसलिये विचारवान को अपने आत्मापर करुणाभाव लाना चाहिये। व यह भय करना चाहिये कि हमारा आत्मा संसारके लेगोको न महन करे | यह आत्मा भववनमें न भ्रमे, भवसागरमें न दूत्र, जन्म जरा मरणके घोर दा न सहन करें।
श्री पद्मनन्दिमुनि धम्मरसायण ग्रन्थमें कहते हैंउपाणसमयपहुदी आमरणत महति दुक्खाई । अच्छिणिमौल्यमेनं सावक ा लहंति णेरझ्या ॥ ७२ ॥
भावार्थ-वरक गतिमें नारकी प्राणी उत्पनिके समयमलकर मरण पचन दुःश्याको सहन करने रहते हैं। वे विचार आंग्नके टिमकार मात्र भी समय तक सुख नहीं पाते हैं।
ईदिए पंचमु अयोगीनु वी रियविहणो । मुंजनी पावले. चिरकालं. हिडाए जीत्रो ।। ७८ ॥
भावार्थ-नियंचम्पतिमें एकन्द्रियस पंचेन्द्रिय नककी अनेक योनियोंमें जन्म लेकर दाक्तिहीन होते हुए प्राणी पापका फल दुग्न भोगने हार चिरकाल भ्रमण करते रहते हैं। अनंतकाल वनम्पति निगोदमें जाता है।
बहुवेयपाउला सिरियगई। मित्त चिरकालं । माणुसहत्र वि पावइ पावस फलाई दुक्खाई॥८॥ धणुबंधविप्पणी भिक्खं नमिण भुंजए णिच्च । पुनस्यपावकम्मो सुगुणो वि गा यच्छा सोक्ख ॥ ८॥
भावार्थ-चिरकालतक नियँच गतिमें महान वेदनाओंमे आकुलित हो भ्रमण करके मनुष्यभयमें जन्मकर पापके फलसे यह
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योगसार टीका |
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प्राणी दु:ग्बोंको पाता है । अनेक मानव पूर्वकृत पापके उदयसे धनरहित, कुटुम्बरहित होकर सदा भिक्षासे पेट भरते घूमते हैं, उनका कोई सम्बन्धी भी उनको सुखकी सामग्री नहीं देता है । छम्माला उगसेसे विलाइ माला विणस्स छाए
*पति कप्परखा होइ विरागो य भोयाणं ॥ ९० ॥
भावार्थ -- देवगति में छः मास आयुके शेष रहने पर माला - मुरझा जानी है, शरीरको कांति मिट जाती है, कल्पवृक्ष कांपने हैं. भोगोंसे उदासीनना छा जाती है ।
एवं अगाइकाले जीओ संसारसारे घोरे । परिहिंडतो धम्मं सव्वण्हुपण्णत्तं ॥ ९४ ॥
भावार्थ - इसतरह अनादिकालमे यह जीव सर्वज्ञ भगवान के धर्मको न पाकर के भयानक संसार - सागर में गोते लगाया
कम हुए करना है ।
श्री अमितगति आचार्य बृहत सामायिकपाठ में कहते हैं
भ्राणामविसमेत रहितं दुर्जल्पमन्योन्यजं ।
दाहच्छेदविभेदना दिजनितं दुःखं तियां परं ॥ नृणां रोगवियोगजन्नमरणं स्वर्गेकसां मानसं । विश्वं वीक्ष्य संदेति कटकलितं कार्यामतिर्मुक्तये ॥ ७१ ॥ भावार्थ- नारकियों को असहनीय, परस्परकृत, अनन्त दुःख ऐसा होता है जिसका कहना कठिन है। तिर्यचांको अलने का, छिनेका भिदनेका आदि महान दुःख होता है । मानवोंको रोग, वियोग, जन्म, मरणका घोर कष्ट होता है | देवीको मानसीक केश रहता है । इसतरह सारे जगतके प्राणियोंको सदा ही कसे पीड़ित
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योगसार टीका । देखकर बुद्धिमानको उचित है कि इस संसारसे मुक्ति पानेके लिये बुद्धि स्थिर करे ।
संसारमें तृष्णाका महान रोग है। बड़े २ सम्राट भी इच्छित भोगोंकी भोगत है परंतु तृष्णाको मिटानकी अपेक्षा उस अधिक अधिक बढ़ाते जाते हैं । शरीर के छूटनेके समयतक तृष्णा अत्यन्त बढ़ी हुई होती है । यह तृष्णा दुर्गनिमें जन्म करा देती है।
इसीलिये स्वामी समन्तभद्राचार्यने स्वयंभूस्तोत्रमें ठीक कहा हैस्वास्थ्य प्रदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगरात्मा । तृषोऽनुषकान्न च तापशांतिरितीदमाख्यद् भगवान् सुपार्श्वः ।। ३१ ॥ __भावार्थ-हे सुपार्श्वनाथ भगवान ! आपने यही उपदेश दिया है कि प्राणियोंका उत्तम हित अपने आत्माका भोग है जो अनन्न कालतक बना रहता है । इन्द्रियोंका भोग सञ्चा हित नहीं है | क्योंकि वे भोग क्षणभंगुर नाशवंत हैं, तथा ताणाके रोगको बढ़ानेवाले हैं। इनको किनना भी भोगो, चाहकी दाह शांत नहीं होती है ।
इसलिये बुद्धिमानको इस दुःखमय संसारसे उदास होकर मोक्षपद पानेकी लालसा या उत्कण्ठा या भावना करनी चाहिये । मोक्षपदमें मर्व सांसारिक कष्टोंका अभाव है, रागद्रेप मोहादि विकारोंका अभाव है. सर्व पाप पुण्य कर्माका अभाव है, इसीलिये उसको निर्वाण कहते हैं । वहा सर्व परकी शून्यता है परन्तु अपने आस्माके द्रव्य गुण पर्यायोंकी शून्यता नहीं है । मोक्षमें यह आत्मा अपने शुद्ध स्त्रभावमें सदाकाल प्रकाश करता हैं, अपनी सत्ता बनाए रखता है ! संसारदशामें शरीर सहित मोक्षपदमें शरीरोंसे रहित होजाता है । निरन्तर स्वात्मीक आनन्दका पान करता है । जन्म मरणस रहित होजाता है।
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यागसार टीका। · श्री अमृतचन्द्राचार्य पुरुपार्थसिद्धयुषाय ग्रंथमें कहते हैं
नित्यमपि निरूपलेपः म्वरूपसमवस्थितो निरूपयातः । गगनमिव परमपुरुषः परमपदे म्फुरति विशदतमः ॥ २२३ ।। कृतकृत्यः परमपदे परमात्मः कलविषयविषयाःनः । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानम्यो नन्दति सदेव ।।२।।
भावार्थ-स्म पुरुष मोक्ष परम पदमं सदा ही कर्मक लेएरहित व बाधारहित अपने बरूपमें स्थिर आकाशक समान परम निर्मल प्रकाशमान रहते हैं । वह परमात्मा अपने परम पदमें कृतकृत्य व सब जाननेयोग्र विषयोंक झाता व परमानन्दमें मगन सदा ही आनन्दका भोग करते रहते हैं । श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्डारकाचाग्में कहते हैं
मजरमाचा शाकमयम ! काठागतानुग्न विद्याविभव विज मन दनणा: :०॥
भावार्थ-लन्यग्रूटी महात्म” परम आनन्द व परम ज्ञानको विभूतिमे पूर्ण शिवपदको बने हैं. जहा जरा नहीं. न अप नहीं, बाधा नहीं. रोक नहीं, मल नहीं का नहीं रहती है :
भी योगेन्द्र चाय संसो बरामी ब मोक्षपट-अनुफ प्रशियोंके लिये आमाका स्वभाव समायो । क्योंकि अरसा जन ही आत्मानुभव होम में, गई मोक्षका उपाय है :
मिथ्यादर्शन संभारका कारण है। कालु अभाइ अपाजीर भवसायक जि अणतु । मिच्छादसण्वमोहियड प के मुह दुक्त जि पत्तु ॥४|| अन्वयार्थ--(कालु अणाइ) काल अनादि है (जित
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१८!
योगसार टीका। अणादि) संसारी जीव अनादि है (भव सायरु जि अणंत) संसारसागर भी अनादि अनन्त है (मिच्छादसणमोहिया) मिथ्यादर्शन कर्मके कारण मोही होता हुआ जीव (सुहण चि दक्ख जि पत्तु) सुख नहीं पाता है, दुःख ही पाता है ।
भावार्थ-कालका चक्र अनादिम चला आ रहा है। हरसमय भूत भात्री वर्तमान तीनों काल पाए जाते हैं, कभी ऐसा सम्भव नहीं है कि काल नहीं था। जब काल अनादि है तब कालके भीतर काम करनेवाले संसारी जीव भी अनादि हैं। जीव कभी नवीन पैदा नहीं हुए । प्रवाहरूपसे चले ही आरहे हैं। वास्तवमें यह जगत जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल इन छः सत् द्रव्यांका समुदाय है । ये द्रव्य अनादि हैं तत्र यह जगत भी अनादि है । जगतमें प्रत्यक्ष प्रगट है कि कोई अवस्था किसी अवस्थाको बिगाड़कर लेती है परंतु जिसमें अवस्था होती है अह बना रहता है । सुवर्णकी उलीको गलाकर कड़ा बनाया गया, तब डलीकी अवस्था सिटी, कड़की अवस्था पैदा हुई, परंतु सुवर्ण बना रहा । कभी कोई सुवर्णका लोप नहीं कर सक्ता हैं। सुवर्ण पुद्गलक परमाणुओंका समुह है, परमाणु सब अनादि हैं।
संसारी जीत्र अनादिस संसारमें पाप-पुण्यको भोगता हुआ भ्रमण कररहा है। कभी यह जीव शुद्धधा फिर अशुद्ध हुआ ऐसा नहीं है। कार्मण और तैजस शरीरीका संयोग अनादिसे हैं, यद्यपि उनमें नाए स्कंध मिलते हैं, पुराने स्कंध छूटते हैं। इसलिये संसारीजीवोंका संसार-भ्रमणरूप संसार भी अनादि है। तथा यदि इसीतरह यह जीव कर्मबन्ध करता हुआ भ्रमण करता रहा तो यह संसार उस मोही अज्ञानी जीवके लिये अनन्त कालतक रहेगा । मिथ्यादर्शन नामकर्मके उदयसे यह संसारीजीव अपने आत्माके सधे स्वरूपको
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योगसार टीका।
[१९ भूल रहा है, इसलिये कभी सचे सुम्पको नहीं पहचाना, केवल इंद्रियोके द्वारा वर्तता हुआ कमी मुख, कभी दुःख उठाता रहा । इंद्रिय सुख भी आकुलताका कारण है व नागाबद्धक है, इसलिये दुःखरूप ही है।
मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयका एक भेद मिथ्यात्त्रकर्म है । चारित्रमोहनीयके भेदोंमें चार अनंतानुबन्धी कषाय है । इन पांच प्रकृतियोंके उदय या फलके कारण यह संसारीजीव मोही, मूह, बहिरात्मा, अज्ञानी, संसारासक्तः, पर्यायरत, उन्मत्त व मिथ्यापि होरहा है । इसके भीतर मिथ्याच भाव अन्धेरा किये हार है, जिसमें सम्पन्दर्शन गुणका प्रकाश रुक बहा है | मिथ्यातभाव दो प्रकारका हैं- एक अग्रहीत, दूसरा ग्रहीत । अग्रहीत मिथ्यात्व वह है जो प्रमादमे विभाव रूप चला आरहा है। जिसके कारण यह जीव जिस शरीरको पाता है उसमें ही आपापन मान लेता है। शरीरके जन्मको अपना जन्म, शरीरके मरताको अपना मरण, शरीरकी स्थितिको अपनी स्थिति मान रहा है। शरीरसे भिन्न मैं चेतन प्रभु हूं यह ग्वर इसे बिलकुल नहीं है । काँक उदयसे जो भावोंमें क्रोध, मान, माया, लोभ या राग द्वेष मोह होते हैं उन भायोंको अपना मानता है । में क्रोधी, मैं मायावी, मैं लोभी, मैं रागी, मैं ढेपी, मैं मोही, इसी तरह पाप पुण्यके उदयसे शरीरकी अच्छी या बुरी अवस्था होती है. उसे अपनी ही अच्छी या बुरी अवस्था मान लेता है। जो धन, कुटुम्ब, मकान, भूषण, उम्म आदि परद्रव्य हैं उनको अपना मान लेता है। इसतरह नाशवंत कर्मोदयकी भीतरी व बाहरी अवस्थाओंमें अहंकार में ममकार करता रहता है।
अपने स्वभावमें अहंधुद्धि व अपने गुणोंमें ममता माव बिल
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योगसार टीका |
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कुल नहीं होता है । जैसे कोई मदिरा पीकर बावला होजावे व अपना नाम व अपना घर ही भूल जावे वैसे यह मोही प्राणी अपने स स्वभावको हुए हैं। चारों गतियोंमें जहां भी जन्मता है वहां ही अपनेको नारकी, निच, मनुष्य या देव मान लेता है। जो पर्याय छूटनेवाली है उसको स्थिर मान लेता है, यह अग्रहीत या निसर्ग मिथ्यात्व है। इस मिध्यात्व के कारण तत्वका श्रद्धान नहीं होता है । श्री यामीने सर्वार्थसिद्धि में कहा हैमियान विधि नसर्गिकं परोपदशकं च । तत्र परीपदेशमन्तरेण मिध्यात्वकर्मादिद्यवशात् आविर्भवति तत्वार्थाश्रद्धानलक्षणं नैसर्गिक
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भावार्थ - मियादर्शन दो प्रकार है- एक नैसर्गिक या अगृहीत. दूसरा अधिगमज या परोपदेश पूर्वक जो परके उपदेशक बिना ही मियात् कर्मके उदयके वा जीव अजीव आदि तत्वोंका अश्रद्धान प्रगत होता है वह सर्गिक है । यह साधारणता ही एकेन्द्रियमे पंचेन्द्रिय जीवोंमें पाया जाता है । जबतक मिध्यात्व कर्मका उदय नहीं मिटेगा तबतक यह मिथ्यात्व मात्र होता ही रहेगा । दूसरा पर्व पांच प्रकार है-एकान्त, विपरीत, संशय.. चैनयिक, अज्ञान, मिथ्यादर्शन। ये पांच प्रकार सैनी जीयोको परके उपदेश होता है. तब संस्कार बश असैनीक भी बना रहता है । इनका स्वरूप नहीं कहा है
(१) पुरुष एवेद
इदमेव इत्यमेवेति धर्मिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः या नित्यमेवेनि । "
b
जो द्रव्य व धर्म जो उसके स्वभाव उनको ठीक
ऐसी ही है । वस्तु धर्मरूप वा एकनि
भावार्थ
न समझकर यह न करना कि वस्तु यही है व अनेक स्वरूप अनेकात होते हुए भी उसे एक
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[ २१
मानना एकांत मिथ्यात्व है । जैसे जगत छः द्रच्चका समुदाय हैं । ऐसा न मानकर यह जगत एक ब्रह्म स्वरूप ही है, ऐसा मानना या वस्तु द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है व पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है ऐसा न मानकर सर्वथा नित्य हो मानना या सर्वथा अनित्य ही मानना एकान्त मिध्यात्व है । "सग्रंथी निर्मन्थाः केवली कलाहारी, स्त्री सिद्धयतीत्येवमादिः विपर्ययः ।"
भावार्थ- जो वान संभव न हो- विपरीत हो उनको ठीक मानना विपरीत मिध्यात्व हैं जैसे परिधारी साधुको निन्य मानना, केवली अरहंत भगवानको ग्रास लेकर भोजन करना मानना, खोके शरीरसे सिद्धगति मानना, हिंसामें धर्म मानना इत्यादि विपरीत मिथ्यात्व है । वस्त्रादि बाहरी व कोधादि अंतरंग परिग्रह रहित ही निर्मथ साधु होता है, केवली अनंतबदी परमोदारिक सात धातुरहित हशरीर रखते हैं, मोहकर्मको क्षय कर चुके हैं, उनको मुखकी बाधा होना- भोजनकी इच्छा होना व शिक्षार्थ भ्रमण करना व भोजनका खाना सम्भव नहीं है। वे परमात्मपद में निरन्तर आत्मानन्दामृतका वाद लेते हैं, इन्द्रियोंके द्वारा स्वाद नहीं लगे हैं । उनके - मतिज्ञान व ज्ञान नहीं है ।
कर्मभूमी स्त्री का शरीर पनाराच संहत बिना हीन मंहनना होता है इसीसे वह न तो भारी पाप कर सक्ती है न मोक्षके लायक ऊँचा ध्यान ही कर सक्ती है । इसलिये वह मरकत १६ स्वरीके ऊपर ऊर्द्ध लोकमें छठे नर्कमे नीचे अधोलोकमें नहीं जाती हैं। हिंसा या परपीड़ा पापबन्ध होगा कभी पुण्यबन्ध नहीं होक्ता | उल्टी प्रतीतिको ही विपरीत मिध्यावर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि किं मोक्षमार्गः स्याह न बेत्यन्य
तरपक्षापेक्षा परियहः संशयः " सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र रत्नत्रय धर्म
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२२] . योमसार टीका। मोक्षमार्ग हैं कि नहीं है ऐसा विकल्प करके किसी एक पक्षको नहीं ग्रहण करना संशय मिथ्यादान है।
"सर्वदेवताना सर्वसमयानां च समदर्शनं वनायकम्सर्व ही देवताओंको व सर्व ही दर्शनोंको या आगमोंको (विना स्वरूप विचार लिये ) एक समान श्रद्धान करना वनयिक मिथ्यादर्शन है।
हिताहितपरीक्षाविरहोजानिकत्वं हित अहितकी परीक्षा. नहीं करना, देखादेखी धर्मको मान लेना, अज्ञान मियादर्शन है। सम्यग्दर्शन वास्तवमें अपने शुद्धात्माके स्वरूपकी प्रतीति है, उसका न होना ही मिथ्यादर्शन है । जीव. अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा मोक्ष इन सात तत्त्वों में श्रद्धान न होना तथा वीतराग सर्वज्ञ देवमें, सत्याध आगममें च सत्य गुरुमें अद्भानका न होना व्यवहार मियादर्शन है। यह सब गृहीत या अधिगमज या परोपदेश पूर्वक मिल्यादान है।
अपनेको औरका और शारीर रूप मानना अगृहीत या नैसर्गिक मिन्यादर्शन है | भिण्यादर्शनके कारण इस जीवको सच आत्मीक मुरत्रकी तथा सजे शुद्ध आत्माके स्वभावकी प्रतीति नहीं होती है । इसकी बुद्धि मोहसे अच्छी होती है । यह विषयभोग सुखको ही सुख समझकर प्रतिदिन उसके उद्योगमें लगा रहता है । परपीड़ा पहुंचाकर भी स्वार्थ साधन करता है, पापोंको बांधता है, भवभवमें दुःख उठाता फिरता है । मिथ्यादर्शनके समान जीवका कोई वेरी नहीं है । मिथ्यानसे बढ़कर कोई पाप नहीं है। देहको अपना मानना ही दह धारण करनेका चीज है। समाधिशतफमें श्री पृज्यपादस्वामीने कहा है
न तदस्तीन्द्रियार्थेगु यत् क्षेमकरमात्मनः । तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥ ५५ ॥
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भावार्थ - इंद्रिय भोगोंके चीर जालाक दिल नहीं है को भी मिध्यादृष्टी अज्ञानकी भावनाएं उन्होंमें रमण करता रहता है। चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः कुयोनिषु ।
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जायति ॥ ५६ ॥ भावार्थ अनादिकालसे मृढ़ आत्माएं अपने स्वरूप में सोई हुई हैं. खोटी योनियों में भ्रमण करती हुई स्त्री पुत्रादि परपदार्थोंको क अपने शरीर व रागादि विभावोंको अपना मानकर इसी विभामें जाग रही हैं।
देहान्तरगते बजे देहेऽस्मिन्नाभावना ।
बीजं विदेह निष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥
भावार्थ - इस शरीर में आपा मानना ही पुनः पुन देह ग्रहका बीज है। जबकि अपने आत्मामें ही आपा मिलना देने छूट जानेका बीज है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैंमिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः ।
तस्मात्तदेव मोक मोक्षसौख्यं जिघृक्षुणा ॥ ५२ ॥ भावार्थ - इस दुष्ट संसारका परम बीज एक मिथ्यादर्शन है इसलिये मोक्ष सुखकी प्राप्ति चाहनेवालोंको मिथ्यादर्शनका त्याग करना उचित है |
सम्यत्तत्रेन हि युक्तस्य धुवं निर्वाणसंगमः !
मियाशोऽस्य जीवस्य संसार भ्रमणं सदा ॥ ४१ ॥ भावार्थ- सम्यग्दृष्टी जीवके अवश्य निर्वाणका लाभ होगा, किन्तु मिध्यादृष्टी जीवका सदा ही संसार में भ्रमण रहेगा ।
अनादिकालीन संसारमें यह संसारी जीव अनादिसे हो सिभ्यादर्शनसे अन्वा होकर भटक रहा है, इसलिये इस मिथ्यात्वका त्याग जरूरी है ।
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मोक्षमुखका कारण आत्मध्यान
है I
जड़ बीउ चरगइगमणु तउ परभाव चवि ।
अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिवसुक्ख लहेवि ||५|| अन्वयार्थ - (जइ) जो (चउगइगमणु बीहड) चारों गतियो के भ्रमण भयभीत है (उ) (पराव ) परभावों को छोड़ दे ( स्पिड अप्पा झायहि ) निर्मल आत्माका ध्यान कर ((जेम) जिससे (सिक्ख लहेोहे) मोक्षके सुखको तु पासके ।
भावार्थ- जैसा पहले दिखाया जाचुका है चारों ही गतियोंमें शारीरिक व मानसिक दुःख हैं । सुखकारी व स्वाभाविक गति एक मोड़ गति हैं, जहाँ आत्मा निश्चल रहकर परमानन्दका भोग निरंतर करता रहता है, जो आत्मा बिलकुल शुद्ध निराला योगला रहता है । मन सहित प्राणीको अपना हित व अति ही विचारना चाहिये । यदि आत्मा के ऊपर दयाभाव है तो इसे दुकबीच नहीं डालना चाहिये। इसे भव-भ्रमण से रक्षित करना चाहिये | और इसे जितना शीघ्र होसके, मोक्षके निराकुल भाव में पहुंच जाना चाहिये । तब इसका उपाय श्री गुरुने बताया है कि अपने ही शुद्ध आत्माका ध्यान करो ।
२४]
ज्ञान शक्ति अपने आत्माके साथ जिन जिनका संयोग है उन उनको आत्मा नित्य विचार करके उनका मोह छोड़ देना चाहिये। मोक्ष अपने ही आत्माका शुद्ध स्वभाव है त उसका उपाय भी केवल एक अपने ही शुद्ध आमाका व्यान है । जैसा घ्यावे या होजाये। यदि हम एक मानवको आत्माका भेदविज्ञान करें तो यह पता चलेगा कि यह तीन प्रकारके शरीरोंके साथ है। वे
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योगसार टीका। [२५ तीनों शरीर पुतुल द्रव्य बने हुये हैं, आत्माके स्वभावसे बिलकुल विपरीत है। ___स्थल दीखनेवाला औदारिक शरीर है जो माता, पिताके रज वीर्य से बना है। दो अनादिकालसे प्रवाह रूपसे चले आनेवाले तेजस शरीर और कर्मिण रीर है। आट कममय कार्मणशरीरक विषाकसे जो जो फल । अवस्था व विकार आत्माकी परिणतिमें होते हैं वे सबकी आत्माके स्वभावसे भिन्न हैं । झानावरणादि चार घातीय कमांक कारण अज्ञान व मोह, रागद्वेष आदि भाषकर्म होते हैं व अघातीय काँक कारण शरीर व चनन अचेतन पदार्थों का सम्बन्ध होता है, वे मब ही भिन्न हैं। जीयोंकी उन्नति करनेकी चौदह सीढ़ियां है, जिनको गुणस्थान कहते हैं, वे सब भी शुद्ध आत्मासे भिन्न हैं।
गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संशित्व, आहार ये चौदह मार्गणार हैं सो भी शुद्ध जीवका स्वभाव नहीं है | शुद्ध जीव अग्लंड व अमेद है। सहज झान व सज दान ध सहज वीथ व सहज मुक्का अमिट व अभेद समृा है। सांसारिक अवस्थाई शुद्ध आत्मामे भिन्न हैं। इन्द्रपद, चक्रवर्तीपद, तीर्थकरपद ये सब कर्मकृत उपाधियां हैं। आत्मा इन सबमे भिन्न निरञ्जन प्रभुदेव है।
तत्वार्थस्त्र में जीरोंके पांच भाव व उनके भेद वेपन भाव वताए हैं, उनमें शुद्ध आत्माके केवल क्षायिक भार और पारणामिक भाव है-औपशामिक, क्षयोपशमिक, औदायिक तीन भाव नहीं है। पनमें से जो जायिक भाष अर्थात नौ लब्धियों व एक जीवत्व पारिणामिर भात्र, इसतरह केवल दस भात्र जीवके हैं शंप ४३ नेतालीस नी हैं।
सिद्धके समान आस्माका व्यान करना चाहिये । भेद विज्ञानके
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२२]
योगसार टीका । प्रतापसे ध्यान करनेवाला आप ही अपनेको परमात्मा रूप देखता है । जैसे दूधपानी मिले हुए हों तो दुध पानीस अलादीलता में व गर्म पानीमें जल व अग्मिका स्वभाव अलग दीखता है । व्यजनमें लवण व तरकारीका स्वाद अलग दीखता है। लाल पानीमें पानी व लाल रंगका स्वभाव अलग दीखता है | तिलोंमें भूसी व तेल अलग दीखता है। धान्यमें तुप और चावल अलग दीखता है | दालमें छिलका व दालका दाना अलग दीखना है । वरन ही ज्ञानीको अपना
आत्मा रागादि भावकमसे, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मसे व शरीरादि नोकर्मसे भिन्न दीखना है । जैम ज्ञानीको अपना आत्मा सर्व पर भावोंसे जुदा दीखता है वैसे ही अन्य संसारी प्रत्येक आत्मा सर्व परभावोंमे भिन्न दीखता है।
सर्व ही सिद्ध व संसारी आत्मा एक-समान परम निर्मल, वीतराग, ज्ञानानन्दमय दिखती हैं। इस दृटिको सम्यक व यथार्थ व निर्मल व निश्चय इष्टि कहते हैं। इस दृष्टिने दखनका अभ्यास करनेवाले भावार्म समभावका साम्राज्य होजाता है। राग द्वेष, मोहका विकार मिट जाता है ।
इसी समभावमें एकाग्र होना ही ज्यान है। यही ध्यानकी आग है जिसमें कर्म बन्धन कर जाते हैं और यह आत्मा शीघ्र ही मुक्त होजाता है, तब परम सुखका भोगी बन जाता है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयपाहडमें कहते हैं । जीवस्स थि वाणणो णविगंधो पनि रसो णवि य फासो । णवि रूवं णा सरीरं णवि संटाणं ण संहाणं ॥ ५५ ॥ जीवम्स णस्थि रागो गवि दोनो णव विजदे मोहो । जो पञ्चया ण कम्मं णो कम्मं चाविस स्थि ।। ५६ ॥
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योगसार टीका |
जीवस्स णत्थि वस्गो मा वभाणा व कड्या केई । यो अज्झणाणा ण बयअणुमायाणाणि ॥ ५७ ॥ जीवra for hई जायहणा ण बन्धठाणा वा ।
दाणा माया केई ॥ ५८ ॥ यो सिद्धि पट्टाणा जीवस्स या संकिलेश ठाणा वा । व विसोहिडाणा पो संगमलद्धिठाणा वा ॥ ९९ ॥ णे वय जीवट्टाणा ण गुणहाणा य आत्म जीवस्स । जे पदे सत्वे पुगलदवस परिणामा ॥ ६० ॥
[ २७
भावार्थ - निश्चयनय से इस जीवमें न कोई वर्ण है, न कोई गंध है, न रस है, न स्पर्श है, न कोई दिखनेवाला रूप है, न कोई शरीर है, न छः संस्थानों में से कोई संस्थान है, न छः संहननों में से कोई सहनन है, न जीवके राग है, न द्वेष है, न मोह है, न सत्तावन (५ मिध्यात्व + १२ अविरति + २५ कषाय + १२ योग ) आस्व हैं, न आठ कर्म हैं, न आहारक, तैजस, भाषा, मनोवगणा आदि नौ कर्म हैं, न जीवके कोई अविभाग प्रतिच्छेद शक्तिका समूह रूप वर्ण है, न वर्गसमूहरूप वर्गणा है, न वर्गणासहरू स्पर्द्धक है, न शुभाशुभ विकल्परूप अध्यात्मस्थान है, न सुख दुःख फलरूप अनुभागस्थान है. न जीवके कोई आत्मप्रदेश हलन चलनरूप व योगशक्तिके अशुद्ध परिणमनरूप योगस्थान है, न प्रकृति आदि चार बन्धके स्थान हैं, न कर्मों के उदयके स्थान हैं, न चौदह गति आदि मार्गणाओंके स्थान हैं, न कमी स्थितिबन्धके स्थान हैं, न अशुभ भावरूप संक्लेश, स्थान है, न शुभ भावरूप विशुद्धिके स्थान हैं, न संयम की वृद्धिरूप. संयमके स्थान हैं, न एकेन्द्रियादि चौदह जीव समास हैं, न मिथ्या
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२८ ]
योगसार टीका |
दर्शनादि च गुणस्थान हैं, क्योंकि ये सब पुल द्रव्य के संयोग
- निमित्तसे होनेवाले परिणाम हैं।
श्री अमृतचन्द्राचार्य समयसारकलशमें कहते हैं -- ज्ञानादेव ज्वलनपय सोरोण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वाद भेदव्युदासः । ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः
क्रोधादेव प्रभवति भिन्दा भिन्द्रती कर्तृभावन ॥१५-३॥ भावार्थ --- मेद विज्ञानके बलमे ज्ञानीको गर्म पानी में अझिकी उष्णता व पानीकी शीतता भिन्न दीखती है। मेद विज्ञानसे ही बनी हुई तरकारीमें लवणका व तरकारीका स्वाद अलग २ स्वादमें आता है। मेविज्ञान ही दीखता है के एक रस से भरा हुआ नित्य चैतन्य धातुकी मूर्ति वीतराग है तथा यह क्रोधादि विका-रोका कर्ता नहीं है। क्रोधादि अलग हैं, आत्मा अआ है । समयसारकलशमें और भी कहा हैदर्शनज्ञानचारित्रत्रात्मा तत्त्वमात्मनः । एक एव सदा सेव्योम एको मोक्षपयो एप नियतो मित्यात्मकस्तव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेव तं चेतनि । तस्मिन्नेव निरन्तरं विरहति द्रव्यान्तराण्यसदृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥४७-१०॥ भावार्थ -- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमई आत्माका तत्व है, वहीं एक मोक्षमार्ग है। मोक्षके अर्थीको उचित है कि इसी एकका सेवन करं । दर्शनज्ञानचारित्रमय अम्मा ही निश्चय एक मोक्षका माग है । जो कोई इस अपने आत्मामें अपनी स्थिति करता है, रात दिन
मुमुक्षुणा ॥ ४६-१०॥
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[२२.
योगसार टीका। उसीको व्याता है, उसीका अनुभव करता है, उसी में ही निरन्तर विहार करता है, अपने आत्माके सिवाय अन्य आत्माओंको, सर्व पुद्गलोको, धर्माधर्माकाशकाल चार अमृतींक द्रव्यको व सर्व ही परभावोंको नर्स तक नहीं करता है वह ही अवश्य निल्य उदय कंप समयसार या परमात्माका अनुभव करता है। वास्तवमें यह आत्मा-. नुभव ही मोक्षमार्ग है, योगीको यही निरन्तर करना चाहिये ।
आत्मा तीन प्रकार है। तिपयागे अप्पा मुगहि पर अंतर बहिरपु । पर अश्यहि अंतरसहिउ बाहिरू चयहि गिर्भनु ||६||
अन्वयार्थ-(अप्पा तिघयारी मुहि ) आत्माको तीन प्रकार जानो, (परु.) परमात्मा (अंतम) अन्तरात्मा बहिरण). बहिरात्मा (भिभनु) भ्रांति या शङ्कारहित कर बाहिर चयहि) बहिरात्मानना जड़ दे ( अंतरसहिः) अन्तर::मः होकर (पर झायहि ) परमात्माका भयान का ;
भावार्थ--द्रव्यदृष्टि का शुरु निश्चयनयन सत्र हो आत्मा एकसगान शुद्धबुद्ध परमात्मा ज्ञानानन्दमय है, कोई भेद नहीं है। द्रव्यक' स्वभाव सत है, सदा रहनेवाला है व सह उत्पाद उन्धय श्रीव्यरूप है ! हाएक द्रव्य अपने सर्व सामान्य नथः विशेष गुमोजो अपने भीतर सदा बनाए रहता है, उनमें पा भी गुण कम व अधिक नहीं होता इसलिये द्रव्य व्य होता है । हरएक गुण परिणमनशील है कटस्थ नित्य नहीं है : यदि कटस्थ नित्य हो तो कार्य न कर सके । गुणोंके परिणमनसे जो समय समय हराएक गुणकी अवस्था होती है. वह उस गुणकी पयाय है। . .. .. .
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३० ]
योगसार टीका
एक गुणमें समय समय होनेवाली ऐसी अनन्त पर्याय होती हैं। पर्याये सब नाशवंत हैं । जब एक पर्याय होती है तब पहली पर्यायको नाश करके होती है । पर्यायोंको अपेक्षा हरसमय द्रव्य उत्पाद व्यय स्वरूप हैं अर्थात पुरानी पर्यायको बिगाड़ कर नवीन पर्यायको उत्पन्न करता हुआ द्रव्य अपने सर्व गुणोंको लिये हुए बना रहता है । इसलिये द्रव्यका लक्षण गुणपर्ययवत् द्रव्यं गुण पर्यायवान द्रव्य होता है ऐसा किया है।
हरएक द्रव्यमें जितनी पर्यायें सम्भव होसकती हैं उन सबकी -शक्ति रहती है, प्रगटता एक समय में एककी होती है। जैसे मिट्टीकी डली में जितने प्रकारके वर्तन, खिलौने, मकान आदि बनने की शक्ति है, वे सब पर्याय शक्ति हैं, प्रगटता एक समय में एक पर्याय हो - होगी । जैसे मिट्टी से प्याला चनाया, प्याला तोड़कर मटकेना बनाया, I - मटकेना तोड़कर एक पुरुष बनाया. पुरुष तोड़कर स्त्री बनाई आदि । इन सब पर्यायों में मिट्टी वहीं हैं व मिट्टी के सब गुण भी दे ही हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णमय मिट्टी सदा मिलेगी ।
द्रव्य जगतमें छ: हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, और कालागु इन चारों द्रव्यों में एकसमान सदृश स्वभाव पर्यायें ही होती रहती हैं। उनके परके निमित्तसे विभाव पर्यायें नहीं होसती हैं । वे सदा उदासीन पड़े रहते हैं ।
सिद्धात्माओं में भी स्वभावसदृश पर्यायें होती हैं क्योंकि उनके ऊपर किसी पर द्रव्यका प्रभाव नहीं पड़ सक्ता है । वे पूर्ण मुक्त है । परंतु संसारी आत्माओं में फर्मोका संयोग व उदय होनेके कारण विभाच पर्याय व अशुद्ध पर्यायें होती हैं । परमाणु जो जघन्य अंश स्निग्ध व रूक्ष गुणका रखता है, किसीसे बन्धता नहीं है, उस - परमाणुमें भी स्वभाव पर्यायें होती हैं, जब यही सिग्ध व म
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योगसार टीका । [३१ गुणोंके बढ़नसे दूसरे परमाणुफे साथ बन्धयोग्य हो जाता है तब उसमें विभाय पर्याय होती हैं।
पर्यायें दो प्रकारकी हैं-अयं पांय व व्यंजन पर्याय । प्रदेशगुण या आकारके पलटनेको व्यंजन पर्याय व अन्य सर्व गुणों के परिणमनको अर्थ पर्याय कहते हैं | शुद्ध द्रव्योंमें व्यंजन व अर्थ पर्याय' समानरूपसे शुद्ध ही होती हैं। अशुद्धसे अशुद्ध अर्ध पर्याय व आकारकी पलटन रूप अशुद्ध या विभाव व्यंजन पर्याय होती है। संसारी आत्मा अशद्ध हैं तो भी हरगर आप अपने गले ही गुणोंके शुद्ध या अशुद्ध परिणमनकी शक्तिये हैं । जबतक वे अशुद्ध हैं तबतक अशुद्ध पयांये प्रगट होती हैं | शुद्ध होनेपर शुद्ध पर्याय ही प्रगट होती हैं। शुद्ध आत्माओंमें भी शुद्ध व अशुद्ध पयायोंके होनेकी शक्ति है परंतु शुद्ध पर्याय ही प्रगट होती है क्योंकि अशुद्ध पायीं होनेके लिये पुद्गलका कोई निमित्त नहीं है। एक परमाणुमें सर्व संभवित पयायोंके होनेकी शक्ति है वैसे एक आत्मामें निगोदसे लेकर सिद्ध पर्याय तक मर्च पर्यायोंमें होनेकी शक्ति है, यह वस्तुस्वभाव है।
सिद्ध भगवानों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा तीनोंकी पर्यायों के होनेकी शक्ति है | उनमेंसे परमात्मापने की शक्ति व्यक्त या प्रगट है । शेष दो शक्तियां अप्रगद हैं। इसी तरह संसारी आत्माओंमें जो बहिरात्मा हैं उनमें बहिरात्माकी पर्यायें तो प्रगट हैं, परन्तु उसी समय अन्तरात्मा व परमात्माकी पर्याय शक्तिरूपसे अप्रगट हैं । यद्यपि तीनोंकी शक्तियों एक ही साथ हैं।
अन्तरात्मामें अन्तरात्माकी पर्यायें जो प्रगट हैं उसी समय बहिरात्मा व परमात्माकी पर्याय शक्तिरूपसे अप्रगद हैं। वास्तवमें द्रव्यको शक्तिकी अपेक्षा देखा जावे तो हरएक आत्मामें अहिरास्मा,
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१२]
योगसार टीका। अन्तरात्मा व परमात्मा तीनों ही शक्तियां हैं। उनमेंसे किसी एककी प्रगदता रहेगी तब दोकी अप्रगटता रहेगी। असे पानी में गर्म होनेकी.. लाल हरे पीले व निर्मल होनकी व ठंढा रहनेकी आदि शक्तियां हैं। जब परका निमित न होगा तब वह पानी निर्मल ठंढा ही प्रगट होगा। उसी पानीको अग्निका निमित्त मिले तब गर्म होजायगा तब गर्मपनेकी दशा प्रगट होगी, शीतपनेकी अप्रगट रहेगी ।
मलका निमित्त मिलने पर मैला, लालरंगका निमित्त मिलनेपर लाल, हरे रंगका निमित्त मिलनेपर हरा होजायगा तथ निर्मलपना शक्तिरूपसे रहेगा।
किसी पानीको फरका निमित्त न मिले तो बह सदा ही निर्मल. व ठंढ़ा ही झलकेगा | परंतु म र जलीन + रंगीन होली सति योंका उस पानी मेंसे अभाव नहीं होजायगा | सिद्ध परमात्माओंमें कदियका निमित्त न होनार ये कभी भी अन्तरात्मा व बहिरास्मा न होग, परंतु इनकी शक्तियोंका उनमें अमात्र नहीं होगा। अभव्य जीब कभी भी अन्तरात्मा व परमात्मा न होग-बहिरात्मा ही बने रहेंगे नोभी उनमें अन्तरात्मा व परमात्माकी शक्तियों का अभाव नहीं होगा । इसलिये श्रीपूज्यपादस्वामीने समाधिशतकमें कहा है--
बहिरन्तः परश्चति निधारमा सर्वदाहिए।
उपेयातत्र पमं मध्योपायाहूहिस्त्यजेत् ।। ४ ।। भावार्थ--सर्व ही प्राणियों में बहिरामा, अन्तरात्मा ब पर. मारमा तीन प्रकारपना है, उनमेंगे बहिरात्मा' ना छोड़े। अन्तरात्माक उपायम परमात्मापनकी सिद्धि करे, यही योगेन्द्राचार्य परमात्मप्रकाशमें कहते हैं
अप्पा तिविहु मुणवि बहु मूर मेलहि भाउ । मुणि सणाणे णाणमउ जो परमध्य सहाट ॥ १२ ॥
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भावार्थ - आत्माको तीन प्रकारका जानकर बहिरात्मस्वरूप भावको शीघ्र ही छोड़े और जो परमात्माका स्वभाव है उसे स्वयंवेदन ज्ञानसे अन्तरात्मा होता हुआ जान । वह स्वभाव केवलज्ञानकर परिपूर्ण है।
मिथ्यादर्शन आदि चौदह गुणस्थान होते हैं, इनकी शक्ति सर्व ही है। एक समय एक गुणस्थानकी संसारी आत्माओं में रहेगी । यद्यपि ये सर्व चौदह गुणस्थान संसारी आत्माओंमें होते हैं, सिद्धों में कोई गुणस्थान नहीं हैं नौभी संसारी जीवोंका बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा तीन अवस्थाओं में विभाग होता है। जो अपने आत्माको यथार्थ न जाने न श्रद्धान करे न अनुभवे वह बहिरामा है । मिथ्यात्य, सासादन व मिश्र गुणस्थानवाले सब बहिरात्मा हैं । जो अपने आत्माको सच्चा जैसेका तैसा श्रद्धान करे, जाने व अनुभव को वह अन्तरात्मा है। जहांका नहीं वहां तक बाँधे अविग्न सम्यक्तमे लेकर ५ देश विरत ६ प्रमुखविरत, ७ अप्रमत्त विश्व ८ अपूर्वकरण, ९ अनिवृतिकरण १० लोभ, २२ मोह १२ क्षीणमोह पर्वत व गुणस्थानवाली च सात्मा अन्तरात्मा सभ्य है। योग केवल जिन तेरहवें अयोग केवली जिन गुणस्थानवाले अरहंत परमात्मा हैं ।
इन दोनों गुणस्थानवालोंको संसारी इसलिये कहा है कि आयु, नाम, गोत्र, वेदमीय चार अवतीयकमका उदय है य नहीं हुआ है । यथार्थमें सिद्ध ही शरीर रहित परमाता हैं। अरहंत शरीर सहित परमात्मा है इतना ही अन्तर है। प्रयोजन कहनेका यह है कि बहरात्मापना त्यागने योग्य है । क्योंकि इस दशामें अपने आत्मा के स्वरूपका श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र नहीं होता है | उपयोग संसारासक्त मलीन होता है । तथा आत्मज्ञानी होकर अन्तरात्मा
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दशामें परमात्माका ध्यान करके अर्थात अपने ही आत्माको परमात्मा रूप अनुभव करके कमका क्षय करके परमात्मा होजाना योग्य है । धर्म साधनमें प्रमाद न करना चाहिये । सार समुचयमें कुलभद्राचार्य कहते हैं
धर्मामृतं सदा पेयं दुःखातङ्कविनाशनम् ।
यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥ ३३ ॥
भावार्थ- दुःख रूपी रोगके विनाशक धर्म रूपी अमृतको सदा पीना चाहिये, जिसके पीनेसे जीवों को सदा ही परमानन्द प्राप्त होगा।
बहिरात्माका स्वरूप |
मिच्छादंसणमोहियउ परु अप्पा ण मुणे ।
सो बहिष्पा जिणमणिउ पुण संसारु भमेह || ७ ॥ अन्वयार्थ -- (मिच्छादंसणमोहियउ ) मिथ्यादर्शनसे मोही जी (परु अप्पा ण मुणे ) परमात्माको नहीं जानता है (सो बहिरप्पा ) यही बहिरात्मा है ( पुण संसारु भमेइ ) वह वारवार संसार में भ्रमण करता है (जिणभणिउ) ऐसा श्रीजिनेन्द्र ने कहा है ।
भावार्थ - जैसे मदिरा पीकर कोई उन्मत्त होजावे तो वह Tags होकर अपने को भी भूल जाता है, अपना घर भी भूल जाता है, जैसे वह मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे मोही होकर अपने आत्मा के स्वरूपको भूले हुए हैं। आपको शरीर रूप ही मान लेता है च कर्मके उदयसे जो जो अवस्थाएं होती हैं उनको अपना स्वभाव मान लेता है ।
आत्माका यथार्थ स्वभाव सिद्ध परमात्मा के समान परम शुद्ध,
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योगसार टीका।
[ ३५ निर्विकार, निरक्षन, कृतकृत्य, इच्छारहित, शरीररहित, पचनरहित, मनके संकल्प विकल्परहित, अमूर्तीक, अविनाशी है | इस बातको जो नहीं समझता है और जो कुछ भी आत्माका निज स्वभाव नहीं है उसको अपना स्वभाव मान लेता है, वह आत्मासे बाहरकी वस्तुओंको आत्माकी मानना है । इसलिये उसको यकिरात्मा कहते हैं। अपने आत्माकी सत्ता सर्व आत्माओंमे जुड़ी है, सर्व पुगलोंसे जुदी है, धर्म, अधर्म, आकाश, कालसे जुदी है, इस बातको बहिरात्मा नहीं समझता । वह इंद्रिय सुखको ही सबा सुख मानता है। उसके जीवनका ध्येय विषयभोग व मानपुष्टि रहता है । यह धर्म भी इसी हेतुसे पालन करता है । यदि कुछ शुभ काम करता है तो मैं दानका, पूजाका, परोपकारका, श्रावकके प्रतोंका, मुनिके व्रतोंका कर्ता है। यदि कुछ अशुभ काम करता है तो मैं हिंसा कर्ता, असत्य बोलनेकी चतुराईका कर्ता, ठगीकर्ता, व्यभिचारकर्ता व हानिकर्ता प्रवीण पुरुष हूं, इस तरह के अहंकारसे मूर्छित रहता है । आत्माका स्वभाव तो न शुभ काम करनेका है, न अशुभ काम करनेका है। आत्मा स्वभावसे परका कता नहीं है। यह बहिरात्मा अपनेको परका कर्ता मान लेता है। __ उसी तरह पुण्यके उदयसे सुख मिलने पर मैं सुखका व पापके उदयसे दुख होनेपर मैं दुःस्त्रका भोगनेवाला हूं। मैंने संपदा भोगी, राज्य भोगा, पंचेन्द्रियकं भोग भोगे, इस तरह परका भोक्ता मान वैठता हूं। आत्मा स्वभावसे अपने ज्ञानानन्दका भोका है, परका भोक्ता नहीं है, इस बातको बहिरात्मा नहीं समझता है |
मन, वचन, काय, पुगलकृत विकार व कर्मोके उदयसे उनकी क्रियाएं होती हैं । यह अहिरात्मा इन तीनोंको व इनकी क्रियाओंको अपनी क्रिया मान लेता है। अनेक शास्त्रों को पढ़कर मैं पंडित, इस
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३६]
योगसार टीका 1 अभिमानमें चूर्ण होकर परफा तिरस्कार करके प्रसन्न होनेत्राला बहिरात्मा होता है । वह यह घमंड़ करता है कि मैं अमुक वंशका हूं, मैं ऊंचा हूं, मैं बत्र रूपयान हूँ, मैं बड़ा बलवान हूं, मैं बड़ा धनवान हूं, मैं बड़ा विद्वान हूं, मैं बड़ा तपस्वी हूं, मैं बड़ा अधिकार रखता हूं, में चाहे जिसका बिगाड़ कर सता हूं, मेरी कृपास सेकड़ों आदमी पलते हैं, इस अहंकारने बहिरात्मा चुर रहता है।
बहिरात्माकी दृष्टि अन्धी होती है, यह जिनेन्द्रकी मूर्तिमें स्वानुभवरूप जिनेन्द्रकी आत्माको नहीं पहचानती हैं । छनचमरादि विभूति सहित शरीरकी रचनाको ही अरहंत मान लेता है । गुरुकी पूजा भक्ति होती है, गुरु बड़े चतुर वक्ता हैं, गुरुका शरीर प्रभावशाली है, गुरु बड़े विद्वान हैं, अनेक शास्त्रांक ज्ञाता हैं, इ: गुरुमहिमाक्री तरफ ध्यान देता है। गुरु आत्मज्ञानी हैं या नहीं, इस भीतरी तत्मपर वदिशामा ध्यान नहीं देता है। . .
शालमें रखना अच्छी है, कशन मनोहर है, न्यायकी युक्तिम अकाटा है, अनेक मोम पूर्ण है, ऐसा समझना है, वह शाःत्रके कथनमें आयात्मस्तक नहीं खोजता है न उनका पान करता है । बहिगलाका नोरन विषय तथा कपायको पोखने में व्यतीत होना है | बह भाकरके भी विषयसुखको सामग्री को ही चाहना है | इसी भावनाको लिये हम भारी तपस्या साचता है।
में शुद्ध होकर सदा मान्मीक सुख भोग सरें, इस भात्रनामे शून्य होता है. : बहिरालाको मिथ्याय कम उदयवश सबा तत्वं नहीं दिखता है। यह भितर निकि शात्रोंको समझकर यथार्थ जिन भाषित तत्वोपर श्रद्धा नहीं लाता है ! लोकमें छः द्रव्योंकी सत्ता होते हुए भी केवल एक ब्राह्ममय जगत है । एक परमात्मा ईश्वरके सिवायं कुछ नहीं है, यह सब उसीकी रचना है, उसीका रूपान्तर है, उसीकी
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योगसार टीका। माया है व ईश्वर ही जगतका कर्ता है व जीवोंको सुख दुःखका फल देता है, ऐसा माननेवाला है।
गयका स्वभाव ध्रुव होकर परिणमनशील है। यदि ऐसा न हो तो कोई जगतो काम हो न स मा या तो यस्तुको सर्वथा नित्य या अपरिणमनशील मानता है या सर्वथा अनित्य या परिणमनशील मान लेता है। कभी बहिरात्मा हिंसाके कार्यों में धर्म मानकर पशुबलि करके व रात्रिभोजन करके व नदियोंमें स्नान करके धर्म मान लेता है । वीतरागताकी पूजा न करके शृंगारसहित देवताओंकी व शखादि सहिन देवताओंकी व संसारासत देवताओंकी पूजा करनेसे पुण्यबन्ध मान लेता है व मोक्ष होना मान लेता है। किन्ही बहिरात्माओंको आत्माकी पृथक सत्तापर ही विश्वास नहीं होता है | बद्द पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुसे ही आत्माकी उत्पत्ति मान लेता है।
कोई बहिरात्मा आत्माको सदा ही रागी, द्वेषी या अल्पज्ञ रहना ही मान देता है | वह कभी वीतराग सर्वज्ञ हो सकेगा ऐसा नहीं मानता है । यह पहिरामा मुद्ध होता हुआ मिश्याश्रद्धान, मिथ्याशान, मिथ्याचारित्रसे मिथ्यामाई होता हुआ संसारमें अनादिकाल भटकता आरहा है व भटकला रहेगा । जिस मानवको सागर पार करनेवाली नौका न मिले वह सागरमें ही गोते खाते २
ननेवाला है | बहिरात्माके समान कोई अज्ञानी व पापी नहीं है । जिसको सीधा मार्ग न मिले, उल्टे रास्ते पर चले वह सच्चे ध्येयपर किसतरह पहुंच सत्ता है ?
श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती गोम्मटसार जीवकांड में कहते हैंमिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महर खु रसं जहा जरिदो ॥ १७ ॥
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३८]
योगसार सका। मिच्छाइट्ठी जीवो उबइट पवयणं ण सद्दहदि । सदहदि असभा उबटुं वा अणुबइठं ॥ १८ ॥
भावार्थ-मिथ्यात्व कर्मके फलको भोगनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानी होता है । उम उसी तरह धर्म नहीं रुचता है जिस तरह ज्वरसे पीड़ित मानवको मिष्ट रस नहीं सुहाता है। ऐसा मिथ्यादृष्टी जीव जिनेन्द्र कथिल तत्वोंकी श्रद्धा नहीं लाता है | अयथार्थ तत्वोंकी श्रद्धा परके उपदेशस या विना उपदेशक करना रहता है | श्री कुन्दकुन्दाचार्य दसणपाहुडमें कहते हैं-- दसणभट्टा भट्टा दंगणभट्टम्स गस्थि णिव्वाणं । सिझंति चरियभट्टा दसणभट्टा ण सिझंति ॥ ३ ॥ सम्मत्तरयणभट्टा जाणता बहुविहाई सस्थाई । आराहणाविरहिया भमति तत्व तत्येव ॥ ४ ॥ सम्मत्तविरडिया को मुड वि उमा तवं चता । ण लहंति कोहिलाई अवि वाससहस्सकोडीहि ॥५॥
भावार्थ-जिनका श्रद्धान भ्रष्ट है वे ही भ्रष्ट है क्योंकि दर्शनभ्रम बहिरात्माको कभी निबाणका लाभ नहीं होगा। यदि कोई चारित्रभ्रष्ट हैं परंतु वहिरात्मा नहीं है तो वे सिद्ध होसकेंगे । परन्तु जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं ये कभी मोल नहीं पासकेंगे । जिनको सम्यग्दर्शनरूपी राकी प्राप्ति नहीं है, वे नानाप्रकारके शास्त्रोंको जानते हैं, तीमी स्वयकी आराधनाके विना वारवार संसारमें भ्रमण ही करेंगे । जो कोई सभ्यदर्शन में अन्य बहिरात्मा हैं वे करोड़ों वर्षतक भयानक कठिन तपको आचरण करते हुए भी रत्नत्रयक लाभको या आस्मानुभवको नहीं पासकते हैं।
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योगसार टीका। श्री नागसेन मुनि तत्वानुशासनमें कहते हैंशबदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेसु कर्मजनितेषु । आत्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ॥ १४ ॥ ये कर्मकृता भावाः परमार्थनयेन चात्मनो भिन्नाः । तत्रात्माभिनिवेशोऽहंकारोऽहं यथा नृपतिः ॥ १५ ॥ तदर्थीनिन्द्रियैगृहन् मुखति द्वेष्टि रज्यते ।। ततो बंधो भ्रमत्येवं मोहव्यूहगतः पुमान् ।। १०॥
भारार्थ-बहिरात्मा मिथ्यानी जीत्र ममकार व अहंकारके दोपोंसे लिप्त रहता है। शरीर, धन, परियार, देश-प्रामादि पदार्थ जो सदा ही अपने आत्मासे जुदे हैं व जिनका संयोग कर्मके उदयमे हुआ हैं उनको अपना मानना ममकार है । जैसे यह शरीर मेरा है। जो कर्मके उदयसे होनेवाले रागादि भाव नियनयमे आत्मासे भिन्न हैं उन रूप ही अपनेको रागी, द्वेषी आदि मानना अहंकार हैं। जैसे मैं राजा हूं, यह प्राणी इन्द्रियोंसे पदार्थोकी जानकर उनमें मोह करता है, राग करता है, द्वेष करता है, तब कौंको बांध लेता है, इसतरह यह वहिरात्मा मोड़की सेनामें प्राप्त हो, संसारमें भ्रमण करता रहता है।
अन्तरात्माका स्वरूप। जो परियाणाइ अप्प पर जो परभाव चएइ । सो पंडिङ अप्पा मुर्हि सो संसार मुण्ड ।। ८ ।। अन्वयार्थ-(जी अप्प परु परियाणइ) जो कोई आत्माको और परको अर्थात् आपसे भिन्न पदार्थोंको भलेप्रकार पहचानता है
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४०]
योगसार टीका। (जो परभार चएइ) तथा जो अपने आत्माके स्वभावको छोड़कर अन्य सब भावोंका त्याग कर देता है (सो पंडिउ) वही पंडित गेदविनापी अन्नात्मा है. वह ( अण्णा मुणाह) अपने आपका अनुभव करता है ( सो संसार मुएइ) बही संसारसे छूट जाता है ।
भावार्थ- सम्यग्दृष्टीको अन्तरात्मा कहते हैं। मिथ्यादृष्टी अज्ञानी पहले गुणस्थानस चढ़कर जब चौयमें या एकदम पांचवमें या सात गुणस्थानमें आता है तब सम्यग्री अन्तरात्मा होजाता हैं। मिथ्यात्वकी भूमिको लापकर सम्यक्तकी भूमिपर आनेका उपाय यह है कि सनी पंचेन्द्रिय जीव पांच लब्धियोंकी प्राप्ति करे ।
१-क्षयोपशम-लब्धि प्रेसी योग्यता पावे जो बुद्धि तत्वोंक समझनेयोग्य हो व जो अपने पापकर्मके उदयको समय २ अनन्तगुणा कम करला जावे अर्थात् जो दुःखोंकी सन्तानको घटा रहा हो, साताको पा रहा हो, आकुलित चित्तवारी जीव तत्य की तरफ उपयोग नहीं लगा सक्ता है।
२-विशुद्धिलब्धि-सुशिक्षा व सत् संगतिके प्रतापसे भावों में ऐसी कषायकी मदता हो कि जिससे शुभ व नीतिभय कार्योकी तरफ चलनेका प्रेम व उत्साह हो व अशुभ व अप्रीतिसे परिणाम सकता हो | इस योग्यताकी प्राप्तिको विशुद्धि लब्धि कहते हैं ।
३-देशनालञ्चि-अपने हितकी खोजमें प्रेमी होकर श्रीगुरुसे व शास्त्रोंसे धर्मोपदेश ग्रहण करे, मनन करे, धारणामें रखे । जीर, अजीब, आस्रव, बन्ध, संघर, निर्जरा, मोक्ष इन सान तत्वोंका स्वरूप व्यवहारनपसे और निश्चयनयम ठीक २ जाने । व्यवहारनन्त्रम जाने कि अजीव, आम्रव, बन्ध तो त्यागनेयोग्य हैं व जीत्र, संघर, निर्जरा, मोक्ष ये चार तत्व ग्रहण करनेयोन्य हैं । निश्चयनयाने जाने कि इन सात तत्वों में दो ही द्रव्य है-जीव व कर्मपुगल | कर्मपुल
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योगसार टीका। त्यागनेयोग्य है व अपना ही शुद्ध जीव द्रव्य ग्रहण करनेयोग्य है। तथा सच्चे देत्र, शास्त्र, गुरुका लक्षण जानकर उनपर विश्वास लाये । इसतरह आत्माको व परपदार्थों को ठीक २ समझे । शुद्ध निश्चयनयसे यह भलेप्रकार जान ले कि मैं एक आत्मा द्रव्य हूं, सिद्धके समान हूँ, ३ ले ही खत में पnिi kोबास मादि भावोंका कर्ता नहीं हूं व सांसारिक सुख व दुःखका भोगनेवाला हूं। मैं केवल अपने ही शुद्ध भावका कर्ता र शुद्ध आत्मीक आनंदका भोक्ता हूं, मैं आठ कमें शरीरादिसे व अन्य सर्व आत्मादि द्रव्योंसे निराला हूं । तथा अपने गुणोंसे अमेट है । वह अपने आत्माको ऐसा समझे जैसा श्री कुन्दकुन्दाचायने समयसारमें कहा है
जो पस्सदि अप्पाणं अबुद्धपुढे अगण्णय णियदं ।
अविसेसनसजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥ १६ ॥ भावार्थ-जो कोई अपने आत्माको पाँच तरहसे एक अग्वड शुद्ध द्रव्य समझे ।
(१) यह अवद्धस्पृष्ट है-न तो यह कौले यधा है और न बाद काशित है।
(२) यह अनन्य है-जैस कमल जलसे निर्लेप है, वह सदा एक आत्मा ही है, कभी नर नारक देव तियच नहीं है। जैसे मिट्टी अपने बने बर्तनों में मिट्टी ही रहती है ।
(३) यह नियत है-निश्चल है । जैसे पवनके कोरेक बिना समुद्र निश्चल रहता है वैसे यह आत्मा की उदयके विना निश्चल है।
(४) यह अविशष या सामान्य छै-जैसे सुवर्ण अपने पीत, भारी, चिकने आदि गुणोंसे अमेद व सामान्य है वैसे यह आत्मा झाम, दर्शन, सुख, वीर्यादि अपने ही गुणोंसे अभेद या सामान्य है, एक रूप है।
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४२]
योगसार टीका। (५) यह असंयुक्त है-जैसे पानी स्वभावसे गर्म नहीं है-ठंडा है वैसे यह आत्मा स्वभावसे परम वीतराग है-रागी, द्वेषी, मोही, नहीं है।
शुद्ध निश्चयनयको दृष्टि परसे भिन्न आत्माको देखनेकी होती.
जैसे महल होले : ..... मैत्र, पानी जुदा है, पानी निर्मल है, वैसे ही यह अपना आत्मा शरीरस, आठ कोसे व रागादिसे सर्व परभावोंसे जुदा है | इस तरह आत्माको व अनात्माको ठीक २ जानकर आत्माका प्रेमी होजावे व सर्व इन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण आदि लौकिक पदास व संसार देह भोगोंसे उदास होकर उनका मोह छोड़दे और अपने आत्माका मनन करे । आत्माके मननके लिये नित्य चार काम करे
(१) अरहंत सिद्ध परमात्माकी भक्ति पूजा करे, (२) आचार्य उपाध्याय साधु तीन प्रकारकं गुरुओंकी संवा करके तत्वज्ञानको ग्रहण करे, (३) तत्व प्रदर्शक ग्रन्थोंका अभ्यास करे, (४) एकांतमें बैठकर सबेरे सांझ कुछ देर सामायिक करें व भेदविज्ञान अपने व परकी आस्माको एक समान शुद्ध, विचारे । रागद्वेषकी विषमता मिटावे ।
__ इसतरह मनन करते हुए कम की स्थिति घटते घटते अंतः कोडाकोड़ी सागर मात्र रह जाती है तब चौथी प्रायोग्यलब्धि एक अन्तर्मुहूर्त लिये होनी है तब चौतीस चन्धाफ्सरण होते हैं । इरएक बन्धापसरण में सातसौ आठसौ सागर कौंकी स्थिति घटनी है । फिर जब सम्यक्तके लाभमें एक अन्तर्मुहूर्त बाकी रहता है तब करणलब्धिको पाता है तब परिणाम समय समय अनन्तगुण अधिक शुद्ध होते जाते हैं । जिन परिणामोंके प्रतापसे सम्यग्दर्शन रोकनेवाले अनन्तानुबन्धी चार कशय व मिथ्यात्व कर्मका अवश्य
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योगसार टीका ।
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उपशम हो जाये उन परिणामोंकी प्राप्तिको करणब्धि कहते हैं । एक अन्तर्मुहुर्तमें यह बहिरात्मा चौधे गुणस्थानमें आकर सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हो जाता है ।
अन्तरात्माको पंडित कहते हैं. क्योंकि उसको भेदविज्ञानकी पंडा या बुद्धि प्राप्त होजाती है। इसको यह शक्ति होजाती है कि जब चाहे तब अपने आत्मा शुद्ध स्वभावको ध्यानमें लेकर उसका अनुप कर सकें । यद निःक होकर मनन करता रहता है | चारित्रमोहनीयके उदयसे गृहस्य योग्य कार्योंको भलेप्रकार करता है तौभी उनमें लिप्त नहीं होता है। उन सबको नाटक जानके करता है । भीतरमे ज्ञाताच्छा रहता है । भावना यह रहती. कि कर्मका उदय हटे कि मैं केवल एक वीतराग भावका ही रमण करता रहूं । ऐसा अन्तरात्मा चार लक्षणोंसे युक्त होता है
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१- मशम - शांतभाव - वह विचारशील होकर हरएक बातपर कारण कार्यका मनन करता है, यकायक क्रोधी नहीं होजाता है । २ संवेग - वह धर्मका श्रंमी होता है व संसार शरीर व भोगोंसे वैरागी होता है । ३ अनुकम्पा - वह प्राणी मात्रपर कृपालु या दयावान होता है । ४ आस्तिक्य - उसे इसलोक व परलोकमें श्रद्धा होती है। परमात्मप्रकाशमें कहा है
देह विभिण्ण्ड णाणमउ, जो परमप्पु पिण्ड | परमसमाहि-परिडियड, पंडिट सो जि हवेह ॥ १४ ॥
भावार्थ जो कोई अपनी देह भिन्न अपने आत्माको ज्ञानमई परमात्मारूप देखता है व परम समाधिमें स्थिर होकर ध्यान करना है, वही पंडित अन्तरात्मा हैं । दंसणपाहुडमें कहा है—
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४४ ]
योगसार टीका |
छह दब्य णव पयथा पंचत्थी सत्त तच निाि । सह ताण रूयं सो सही मुणेयच्च ॥ १२ ॥ जीवादी सहहणं सम्मसे जिणवरेहिं पण्णनं । वहारा णिच्छयदो अप्पा हवइ सम्मतं ॥ २० ॥ भारार्थ - जीव, पुल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल ये छः द्रव्य हैं । कालको छोड़कर पांच अस्तिकाय हैं। जीवादि सात तत्व हैं। पुण्य पाप मिलाकर नौ पदार्थ हैं । उन सबका जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्ट्री जानना योग्य है ।
जिनेंद्रने कहा है कि जीवाहिका श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त है अपने ही आत्माका यथार्थ श्रद्धान निश्चय मम्यक्त है 1
समयसार कलशमें श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं-वर्णा वा मोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दष्टमेकं परं स्यात् ॥५- २॥
भावार्थ - त्रर्णादि व रागादि सर्व भाव इस आत्माके स्वभाबसे भिन्न हैं । इसलिये जो कोई निश्रयतत्वकी दृष्टिसे अपने भीतर देखता है उसे ये सब रागादि भाव नहीं दिखते हैं, केवल एक परमात्मा ही दिखता है |
सारसमुच्चयमें कहा है
पण्डितोऽसौ विनीतोऽसौ धर्मज्ञः प्रियदर्शनः ।
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यः सदाचारसम्पन्नः सम्यनवद्यमानसः || ४२ ॥ भावार्थ -- जो कोई सम्यग्दर्शनमें मजबूत है व सदाचारी है वही पंडित है, वही विनयवान है, वही धर्मात्मा है, उसीका दर्शन प्रिय है ।
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योगसार टीका ।
परमात्माका स्वरूप |
निम्मलु लिकलु सुद्ध जिणु विन्दु बुद्ध सिर संतु । सो परमप्पा जिणमणिउ एड जाणि नितु ॥ ९ ॥
[ ४५.
अन्वयार्थ - ( णिम्मलु) जो कर्ममल व रागादि मल रहित है (क्लुि ) जो निष्कल अर्थात् शरीर रहित हैं (सुद्ध) जो शुद्ध व अभेद एक है (जिए) जिससे आत्मा के सर्व को हम लिया है (वि) जो विष्णु है अर्थात ज्ञानकी अपेक्षा सर्व लोकालोकव्यापी है सर्वका ज्ञाता है (बुद्ध) जो बुद्ध है अर्थात स्वपर
को समझनेवाला है (सिव ) जो शिव है- परम कल्याणकारी है ( संतु ) जो परम शांत व वीतराग हैं ( सो परमप्पा ) यही परमात्मा है ( जिणणिउ ) ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ( एउ भिंतु जाणि) इस बातको शंका रक्षित जान |
भावार्थ- परमात्मा उत्कृष्ट व परम पवित्र आत्माको कहते हैं जो केवल एक आत्मा ही है उसके साथ किसी भी पाप पुण्य रूपी कर्मका संयोग नहीं है न वह किसी तरह का कपावभाव, राग, द्वेष, मोह रखता है। उसमें सांसारिक प्राणियों में पाए जानेवाले दीप नहीं हैं । संसारी प्राणी व कृष्णाशीत होकर मनसे किन्ही कामोंके करनेका संकल्प वा विचार करते हैं, वचनोंस आज्ञा देते हैं, कायगे जयम का आरंभ करते हैं। काम सिद्ध होनेपर सन्तोषी व न - सिद्ध होनेपर विवाद करते हैं, किसीपर राजी होते हैं. किसीपर नाराज होते हैं । परमात्मा के भीतर मोहका ऐश मात्र भी सम्बन्ध नहीं हैं, न मन, वचन, काय हैं इसलिये कोई प्रकारकी इच्छा या कोई प्रकारका प्रयत्न या कोई राग, द्वेष, मोड वा विकार या सन्तोष या असन्तोष कुछ भी सम्भव नहीं है। इसीलिये परमात्मामें न तो
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४६ ]
योगसार टीका |
जगतके करनेका, बनाने व बिगाड़नेका कोई आरोप किया जा सक्ता है, न मुक्दु ख कर्ममल भुगतानेका आरोप किया जा सक्ता है। वह संसारक प्रपंचजालमें नहीं पड़ता है । परम कुनकृत्य हैं।
जगत अनादि है- कर्मकी जरूरत नहीं । काम इस जगतमें या तो स्वभावसे होजाते हैं जैसे पानीका भाफ बनना, बादल बनना, पानी वरसना, नदीका बहना, मिट्टीको लेजाना, मिट्टीका जमकर भूमि बन जाना, आदि२ । किन्हीं कामोंके करनेमें इच्छावान संसारी जीव निमित्त हैं। खेती, कपड़ा, वर्तन, आदि; मनुष्य व घोसले आदि पक्षी इच्छासे बनाते हैं, इस तरह जगतका काम चल रहा है ।
पापपुण्यका फल भी स्वयं हो जाता है। कार्मण शरीर में बन्धा हुआ कर्म जब पकता है तब उसका फल प्रगट होता है । जैसे क्रोध, मान, माया या लोभ व कामभावका होजाना या नित्य ग्रहण किया हुआ भोजन पानी हवाका स्वयं रस, रुधिर, अस्थि, चरत्री, मांसादिमें - बन जाना या रोगोंका होजाना, शरीरमें चल आजाना, विष खानेसे मरण होजाना ।
यदि परमात्मा इस हिसाबको रखे तो उसे बहुत चिन्ता करनी पड़े । तथा यदि उसे जगतके प्राणियपर करुणा होतो वह सर्वशक्तिमान होनेसे प्राणियों के भाव ही बदल देव जिससे वे पापकर्म न करें। जो फल देता है-दंड देता है वह अपने आधीनोंको बुरे कामोंसे रोक भी सक्ता है। परमात्मा सदा स्वरूप में भगन परमानन्दका अमृत पान करते रहते हैं, उनसे कोई फल देनेका विकार या उद्योग संभव नहीं है । जब परमात्मा किसीपर प्रसन्न होकर सुख नहीं देता है तब परमात्माकी स्तुति, भक्ति व पूजा करनेका क्या प्रयोजन है ?
इसका समाधान यह है कि वह पवित्र है, शुद्ध गुणका धारी है, उसके नाम स्मरणसे, गुण स्मरणले, पूजा भक्ति करनेसे, भक्त
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योगसार टीका । [५७ जनों के परिणाम निर्मल होजाते हैं, राग द्वेषके मैलसे रहित होजाते हैं, भावोंकी शुद्धिसे पाप स्वयं कट जाते हैं। शुभोपयोगसे पुण्य स्वयं बंध जाता है । जैसे जड़ शास्त्रोंके पनने व सुननेसे परिणामोंमें ज्ञान व वैराग्य आजाता है वैसे परमात्माकी पूजा भक्तिसे परिणामोंमे शुद्ध आत्माका ज्ञान व संसारमे वैराग्य छाजाता है । परमात्मा उदासीन निमित्त है, प्रेरक निमित्त नहीं है। हम सब उनके आलंबनसे अपना भला कर लेते हैं। परमात्मा किसीको मुक्ति भी नहीं देते । हम तो परमात्माकी भक्तिके द्वारा जब अद्वैत एक निश्वर एपने ही भारत में होकर परम समाधिको अभ्यास करेंगे तव ही काँसे रहित परमात्मा होंगे। इस कारणसे परमात्मा निर्मल है।
परमात्माके साथ तेजस, कार्मण, आहारक, वैक्रियिक या औदारिक किमी शरीरका सम्बंध नहीं होता है तथापि वह अमूर्तीक ज्ञानमय आकारको धरनेवाला होता है । जिस शरीरसे छुटकर परमात्मा होबा है उस शरीरमें जैसा ध्यानाकार था वैसा ही आकार मोक्ष होने पर बना रहता है। आकार विना कोई वस्तु नहीं होसक्ती है। अमूर्तीक द्रव्योंका अमूर्तीक व मूर्तीक पुदल रचित द्रव्योंका मृर्तीक आकार होता है।
परमात्मा शुद्ध है, उसमें कर्ता कर्म आदिके कारक नहीं हैं तथा वह अपने अनंत गुणपयायोंका अस्यण्ड अमिट एक समुदाय है जिसमें से कोई गुण छुट नहीं सक्ता है न कोई नवीन गुण प्रवेश कर सक्ता है । उसी परमात्माको जिनेन्द्र कहते हैं। क्योंकि जगतमें कोई शक्ति नहीं है कि जो उसको जीत सके व उसे पुनः संसारी या विकारी बना सके । वह सदा विनयशील रहता है । विना कारगाके रागद्वेष में नहीं फंसता है, न पाप पुण्यको बांधता है। .
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योगसार टीका। . परमात्माका पद किसी कर्मका फल नहीं है। किंतु स्वाभाविक
आत्माका पद है । इसलिये वह कभी विभाव रूप नहीं होसता है । चही परमात्मा सञ्ा विष्णु है, क्योंकि वह सर्वज्ञ होनेमे उसके झानमें सर्व द्रव्योंके गुणपर्याय एकसाथ विराजमान है। इसलिये वह सर्वव्यापी विष्णु है, वही सचा बुद्ध है, क्योंकि जाताना है व सर्व अज्ञानसे रहित है। वहीं समा शिव है, मंगलाप हैं । उसके भजनसे हमारा कल्याण होता है । तथा वह परमात्मा परम शांत है, परम धीतराग है।
नियर सिद्ध हो जाने परमात्मा हैं। अतकी आत्मामें भी परमात्माके गुण प्रगट हैं। परंतु वे चार अचानीय कर्मसाहित हैं, शरीर रहित है। परंतु शीघ्र ही निद्ध होगे । इसलिये उनको भी परमात्मा कहते हैं । सर्वज्ञ व वीतराग दोनों ही अरहंत व सिद्ध परमात्मा है।
परमात्मा हमारे लिये आदी है, हमें उनको पहचानकर उनके समान अपनको बनानेकी चेष्टा करनी चाहिये । परमात्मपकाशमें कहा है
अप्पा लद्धड गाणपउ. कम्भविमुके जण । मेल्लिवि सन्य वि नन्नु परु, सो पर मुगाई मार्गणा ॥१५॥ णि गिरजणु माणसट, परमाणवाहा। जो पहाइ सो संतु मिर, साप मुणिजह 12 ॥ वयहि सत्यहिं इंटियहि, झो जिय मु य भाइ । णिम्मल-झागहं जो जिनउ, भो परमप्यु मलाइ ॥२३॥
भावार्थ-जिसने सर्व कर्मोंको दूर करके व सर्व देहादि परद्रव्योका संयोग हटाकर अपने ज्ञानमय आत्माको पाया है वही परमात्मा है, उसको शुद्ध मनसे जान | वह परमात्मा नित्य है, निरं
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योगसार टीका। - [४९ जन या वीतराग है, ज्ञानमय है, परमानंद स्वभावका धारी है। वही शिव है, शांत है। उसके शुद्ध भावको पहचान, जिसको वेदोंके द्वारा, शाखोंक द्वारा, इन्द्रियोंके द्वारा जाना नहीं जासकता । मात्र निर्मल भ्यानमें वह झलकता है। वही अनादि, अनन्न, अविनाशी, शुद्ध आत्मा परमात्मा है । समाधिशनको कहा है
निर्मल: केवल: शुद्धी विविक्त: प्रभुरव्ययः ।
परमेष्ठी परास्मति परमात्मश्वरो जिनः ॥ ६॥ भावार्थ-परमात्मा कर्ममलरहित हैं, केवल स्वाधीन हैं, साध्यको सिद्ध करके सिद्ध हैं. सब द्रव्योंकी सत्तासे निराली सत्ताका धारी हैं, वहीं अनन्तबीय धारी प्रश्न हैं. वही किया है. गरमसने रहनेवाला परमेष्ठी हैं. वही श्रेष्ठ आत्मा हैं. वही गुद्ध गुणरूपी ऐश्रयका धारी ईश्वर हैं, वही परम विजयी जिनेन्द्र हैं ! ___ श्री समन्तभद्राचार्य स्वयंभूस्तोत्रमें कहते हैंन पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ त्रिवान्नर ।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनातु चित्त दुरिता अनन्यः ॥५॥ • दुरितमलकलङ्कमटकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन । अभवदमवसौरममान् भवान भवतु ममापि भवोपशान्तये ।।१५।।
भावार्थ- परमात्मा वीतराग हैं, हमारी पूजासे प्रसन्न नहीं होते । परमात्मा वर रहित हैं, हमारी निन्दासे अप्रसन्न नहीं होते। तथापि उनके पवित्र गुणोंका स्मरण मनको पापके मैलर्स साफ कर देता है । अनुपम योगाभ्यासमे जिसने आठ कर्मके कठिन कलङ्कको जला डाला है व जो मोक्षक अतीन्द्रिय सुरुका भोगनेवाला है वही परमात्मा है | मेरे संसारको शांत करने के लिये वह उदासीन सहायक हैं। उसके ध्यानसे मैं संसारका क्षय कर सकंगा ।
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योगसार टीका। बहिरात्मा परको आप मानता है। देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाणु मुणेई । सोबहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसार भभेइ ॥ १० ॥
अन्वयार्थ (दहादिर जे पर कहिया) शरीर आदि जिनको आत्मासे भिन्न कहा गया है (ते अप्पाणु मुणेइ) तिन रूप ही अपनेको मानता है (सो बाहिरप्पा) वह बहिरात्मा ई (जिणभणिउ) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है (पुणु संसार भमंइ) वह वारवार संसारमें भ्रमण करता रहता हैं।
भावार्थ-आत्मा वास्तवमें एक अखंड अमूर्तीक ज्ञानस्वरूपी न्य है। इसका स्वभाव परम शुद्ध है । निर्मल जलके समान यह परम वीतराग व शांत व परमानंदमय है। जैसा सिद्ध परमात्मा सिद्धक्षेत्रमें एकाकी निरंजन शुद्ध द्रव्य है वैसा ही यह अपना आत्मा शरीरके भीतर है। अपने आत्मा और परमात्मामें सत्ताकी अपेक्षा अर्थात प्रदेशोंकी या आकारकी अपेक्षा बिलकुल भिन्नता है परंतु गुणोंकी अपेक्षा बिलकुल एकता है । जितने गुण एक आत्मामें हैं उतने गुण दुसरे आत्मामें हैं। प्रदेशोंकी गणना भी समान है। हरक असंख्यात प्रदेश धारी हैं । ___ इस तरहका यह आत्मा द्रव्य है। जो कोई ऐसा नहीं मानता किन्तु आत्माके साथ आठ काँका संयोग सम्बंध होनेमें उन काँके उदय या फलमे जो जो अशुद्ध अवस्था आत्माकी झलकती हैं उनको आत्माका स्वभाव जो मान लेता है वह बहिरात्मा है।
जैसे पानी में भिन्न २ प्रकारका रंग मिला देनेसे पानी लाल, हरा, पीला, काला, नीला दिखता है । इस रंगीन पानीको कोई असली पानी मानले तो उसको मूढ़ व अलानी कईगे तथा वन
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योगासाका 'पानीक. स्थानमें . रंगीन पानी पीकर पानीका असली स्वाद नहीं पा सकेगा, उसीतरह जो कमकि उदयसे होनेवाली विकारी अवस्थाओंको आत्मा मान लेगा और उस आत्माका ग्रहण करके उसका ध्यान करंगा उस अज्ञानीको असली आत्माके नानानन्द स्वभावका स्वाद नहीं मिलेगा, वह विपरीत स्वादको ही आस्माका स्वाद मान लेगा । ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, अन्तरायके क्षयोपशमसे जो अल्प व अशुद्ध ज्ञानदर्शनवीर्य संसारी जीवोंमें प्रगट होता है वह इन ही तीन प्रकारके कर्मोके उदयसे मलीन हैं।
जहाँ सर्वाती कर्मस्पर्द्धकोका उदयाभाव लक्षण क्षय हो, अर्थान् विना फल दिये झड़ना हो तथा आगामी उद्या आनेवालोंका सत्तारूप उपशम हो तथा देशमाती स्पर्द्धकोंका उदय हो उसको क्षयोपशम कहते हैं । इस मलीन अल्प हान दर्शन वीर्यको पूर्ण ज्ञानदर्शन वीर्य मानना मिथ्या है। इसीतरह मोहनीय कर्मक उदषसे क्रोध, मान, माया, लोभ भाव या हाम्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा व स्त्रीवेद, पुंवेद व नपुंसकंवंद भाव होता है | कभी लोभका तीन उदय होता है तब उसको अशुभ राग कहते हैं, कभी लोभका मन्द उदय होता है तब उसे शुभ राग कहते हैं।
___ मान, माया, क्रोधके तीत्र उद्यको भी अशुभ भाव व मन्द उदयको जो शुभ राराका सहकारी हो, शुभ भाव कहते है । पूजा, भक्ति, दान, परोपकार, सेवा, क्षमा, नम्रता, सरलना, सत्य, सन्तोष, संयम, उपवासादि तप, आहार, औषधि, अभय व विद्यादान, अल्प ममत्व व ब्राह्मचर्य पालन आदि भाषोंको शुभ भाव या शुभोपयोग कहते हैं । ऐमे भावोंसे पुण्यकमका पन्ध होता है।
हिमा, असत्य, चोरी, कुशील, मूर्छा, आखेलना, मांसाहार, मदिरापान, शिकार, वैश्यासेवन; परस्सीसेवन, परका अपकार, दुष्ट
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गोगनार टीशा। व्यवहार, इंद्रियोंकी लोलुपता, तीन अहंकार, कपटसे ठगना, तीत्र क्रोध, तीन लोभ, जीत्र काममाव आदि भावोंको अशुभ भाव या अशुभोपयोग कहते हैं। इन अशुभ भावोंसे पापकर्मका बंध होता है। इन मोहनीय कर्मजनित मलीन व अशुचि, आकुलताकारी, दुःखप्रद, शांतिविघातक भावोंको आत्माका भाव मानलेना मिथ्या है ।
अघातीय काँमें आयुकर्मके उदयसे नरक, तिथंच, मानव, देव चार प्रकार शरीरोस आत्मा केद रहता है। इस केदखानेको आत्माका धर मानना मि' या | नामकर्मके उदयसे शरीरकी सुन्दर, असुन्दर,. निरोगी, सरोगी, बलिष्ठ, निर्वल आदि अनेक अवस्थाएं होती हैं उनको आत्मा मानना मिथ्या है । गोत्रकर्मके उदयसे नीच य ऊंच कुलवाला कहलाता है। उन कुलोंको आत्मा मानना मिथ्या है । वेदनीयकर्मके उदयसे साताकारी व असाताकारी शरीरकी अवस्था होती है या धन, कुटुम्ब, राज्य, भूमि, बाइन, घर आदि बाहरी अच्छे व खुरे, वेतन व अचेतन पदाधीका सम्बन्ध होता है, उनको. अपना मानना लिया है।
चाहिरात्मा अज्ञानस कर्मजनित दशाओंक भीतर आपापना मानकर अपने आत्माके सच्चे स्वभावको भूले हुए कभी भी निर्माणका भय नहीं पा सक्ता । निरन्तर शुभ अशुभ कर्म बांधकर एक गलिसे दूसरीमें, दूसरीन लीसरीमें इस तरह अनादि कालसे भ्रमण करता चला आया है।
यदि कोई साधु या गृहस्थका चारित्र पाले और इसे भी · आत्माका स्वभाव जानले व में साधु में श्रावक ऐसा अहंकार करे
तो वह भी बहिरामा है। . यद्यपि ज्ञानी मात्रक व साधुका आचरण पालता है तौभी वह उसे विभाव जानता है, आत्माका स्वभाष नहीं जानता । परम
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योगसार टीका ।
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शुद्धोपयोग भावरूप ही आत्मा है। शुकुध्यान जो साधुके होता है वह परम शुद्धोपयोग नहीं है, क्योंकि दशवे गुणस्थान तक तो मोहका उक्ष्य मिला हुआ है। ग्यारहवें बारहवें में अज्ञान है, पूर्ण ज्ञान नहीं, - इसलिये इस अपरम शुद्धोपयोगको भी आत्माका स्वभाव मानना मियाभाव है। श्री समयसार में कहा है -
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परमाणुमित्तियं वि हु रागाद्रीण तु विज्जदे जस्स ।
वि सो जाणदि अप्पा गयं तु सव्यागमधरो वि ॥ २१४॥ भावार्थ - जिसके भीतर परमाणु मात्र थोड़ासा भी अज्ञान सम्बंधी रागभाव है कि परद्रव्य या परभाव आत्मा है वह श्रुतकेवली के समान बहुत शास्त्रोंका ज्ञाता है तौभी वह आत्माको नहीं
| पहचानता है, इसलिये बहिरात्मा है ।
पुरुषाधीसद्धपायमें श्री अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैंपरिणममाणो नित्यं ज्ञानविवत्तैरनादिसन्तत्या | परिणामानां स्वेषां स भवति कर्त्ता च भोक्ता च ॥ १० ॥ जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ २२ ॥ परिणममाणस्य चितचिदात्मकैः स्वयमपि स्वर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौगलिकं कर्म तन्यापि ॥ १३ ॥ एवमयं कर्मकृतैमासमा हिलोऽपि युक्त इव ।
प्रतिभाति वालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ॥ १४ ॥ भावार्थ - यह जीव अनादिकालकी परिपाटी से ज्ञानावरणादि कर्मो के उदय के साथ परिणमन या व्यवहार करता हुआ जो अपने अशुद्ध परिणाम करता है उनहीका यह अज्ञानी जीव अपनेको कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है कि मैंने अच्छा किया या बुरा किया, या
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योगसार टीका। मैं सुखी हूं या दुःखी हूं ! इस अमानमई जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर दूसरी पौगलिक कर्मवर्गणाएं स्वयं कर्मरूप होकर बन्ध जाती. हैं। जब यह जीव स्वयं अपने अशुद्ध भावोंमें परिणमन करता है तब उस समय पूर्वमें बांधा पौगलिक कर्म उदयमें आकर उस अशुद्ध भावका निमित्त होना है। इसतरह कर्मफल भावोंको व कर्मों के बंधको व कर्मके उदयको बोहरात्मा अपने मान लेता है। निश्यमे आत्मा इन सर्व कर्मकृत भावोस जुदा है । तौभी अज्ञानी बहिरात्माओं के यही प्रतिभाम या भ्रम रहता है कि वे सब भाव या विकार या दशा मेरी ही है। कर्मकृत परिणामोंको या रचनाको जो नियस पर है, अपनी स्वाभाविक परिणति या दशा मान लेना संसारभ्रमणका बीज है यह बीज संसार-वृक्षको बढ़ाता है।
बहिरास्मा अन्धा मोही होकर संसार-बनमें भटकता रहता है |
ज्ञानीको परको आत्मा नहीं मानना चाहिये।
देहादिउ जे परकहिया ते अधाणु ण होहिं । इर जाणेविणु जीव तुई अप्या अप्य मुणेहि ॥ ११ ॥
अन्वयार्थ-(दहादिउ जे परकहिया) शरीर आदि अपने आत्मासे भिन्न कहे गये हैं (ते अपाणु ण हाहि ) वे पदार्थ आत्मा नहीं होसक्के व उन रूप आत्मा नहीं होसक्ता याने आत्माके नहीं होसक्ते (इउ जाणविण) ऐसा समझकर (जीव) हे जीव ! (तुहूं अप्पा अप्प मुदि) अपनेको आत्मा पहचान, यथार्थ आत्माका बोध कर।
भावार्थ-बहिरात्मा जब पर वस्तुओंको व परभावोंको अपना आत्मा मानता है तब अन्तरारमा ऐसा नहीं मानता है। वह मानता
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हैं कि आत्मा आत्मारूप ही है। आत्माका स्वभाव सर्व अन्य आत्माओं व पुलादि पांच द्रव्योंसे व आठ कर्मोसे व आठ कर्मों के फलसे, सर्व रागादि भावोंसे निराला परम शुद्ध है। भेदविज्ञानकी कलासे वह आत्माको परसे बिलकुल भिन्न थान रखता है। भेदविज्ञानकी शक्तिसे ही भ्रमभावका नाश होता है। हंस दूधको पानी मे भिन्न ग्रहण करता है, किसान धान्यमें चावलको भूसीसे अलग जानता है । सुकी माला में सर्राफ सुवर्णको धागे आदि भिन्न समझता है, पकी हुई सागभाजीमें लवणका स्वाद सागसे भिन्न समझदारको आता है। चतुर एक गुटिका में सर्व औषधियोंको अलग २ समझता है । इसीतरह ज्ञानी अन्तरात्मा आत्माको सर्व देहादि पर क्योंसे भिन्न जानता है ।
आत्मा वास्तव में अनुभवगम्य है। मनसे इसका यथार्थ चितवन नहीं होसकता, बचनोंसे इनका वर्णन नहीं होता, शरीरसे इसका स्पर्श नहीं होता | क्योंकि मनका काम क्रम किसी स्वरूपफा विचार करना है । वचनोंसे एक ही गुण या स्वभाव एक साथ कहा जासक्ता है | शरीर मृतक स्थल द्रव्यको ही स्पर्श कर मक्का है जब कि आत्मा अनन्तगुण व पर्यायोंका अखण्ड पिंड है । केवल अनुअब ही इसका स्वरूप आसक्ता हैं । वचनों से मात्र संकेतरूपसे कहा जासक्ता है । मनके द्वारा क्रमसे ही विचारा जासक्ता है | इसलिये यह उपदेश है कि पहले शास्त्रोंके द्वारा या यथार्थ गुरुके उपदेश से आत्मा द्रव्य के गुण व पर्यायोंको समझ लें, उसके शुद्ध स्वभावको भी जाने तथा परके संयोगजनित अशुद्ध स्वभावको भी जाने अर्थात द्रव्यार्थिकनय से तथा पर्यायार्थिकनय या निश्चयजयस तथा व्यवहारनयसे आत्माको भलेप्रकार जाने ।
इस आत्माका सम्बन्ध किसी भी परवस्तुसे नहीं है। यह
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योगसार टीका। आत्मा अपने ही शान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोंका स्वामी है । इसका धन इसकी गुणसम्पदा है, इसका निवास या घर इसीका स्वभाव है । इस आस्माका भोजनपान आदिक आनन्द अमृत है। आत्मामें ही सम्यग्दर्शन हैं, आत्मामें ही मभ्यग्ज्ञान है, आत्मामें ही सम्यक्चारित्र है, आत्मामें ही सम्यक् नप है, आत्मामें ही संयम है, आत्मामें ही त्याग हैं, आस्मामें ही संबर तत्व है, आत्मामें ही निर्जरा है, आत्मामें ही मोक्ष है । जिसने अपने उपभोगको आत्मामें जो विषा उसने मागको लिया
आत्मा आपहीसे आपमें क्रीड़ा करता हुआ शन; २ शुद्ध होता हुआ परमात्मा होजाता है । जितनी मन, वचन, कायकी शुभ व अशुभ क्रियाएँ हैं वे सब पर हैं, आत्मा नहीं हैं | चौदह, गुणस्थानकी सीढ़ियां भी आत्माका निज स्वभाव नहीं है । आत्मा परम पारणामिक एक जीवत्वभावका धनी है, जिसका प्रकाश कमरहित सिद्ध गतिमें होता है । जहाँ सिद्धत्वभाव है वहाँ जीवत्वभाव है । अंतरात्मा अपने आत्माको परभावोंका अकती व अभोक्ता दरखता है। वह जानता है कि आत्मा ज्ञानचेतनामय है .अर्थात् यह मात्र शुद्ध ज्ञानका स्वाद लेनेवाला है। इसमें रागद्वेषरूप कार्य करनेका अनुभत्ररूप कर्मचेतना तथा सम्बदुःख भोगनेरूप कर्मफलचेतना नहीं हैं।
आत्माका पहचाननेवाला अन्तरात्मा एक आत्मरसिक होजाता है, आन्मानन्दका प्रेमी होजाना है, उसके भीतरसे विषयभोगानित सुत्रकी श्रद्वा मिट जाती है, वह एक आत्मानुभत्रको ही अपना कार्य समझता है, उसके सिवाय जो व्यवहारमें गृहम्ध या मुनि अंतरात्माको कर्तव्य करना पड़ता है वह सब मोहनीय कर्मक उदयकी प्रेरणा होता है। इसीलिये ज्ञानी अन्तरात्मा सब ही थर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थकी चेष्टाको आत्माका स्वाभाविक धर्म नहीं मानता है।
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योगसार टीका । [५७ आत्मा तो स्वभावसे सर्व चेष्टारहित निश्चल परम कृतकृत्य है।
इसतरह आत्माको केवल आत्मारूप ही टंकोत्कीर्ण झातादृष्टा 'परमानन्दमय समझफर उसने रमया सरनेका अत्यन्त प्रेम होजाना अन्तरात्माका स्वभाव बन जाता है | तीन लोककी संपत्तिको वह आदरसे नहीं देखता है, उसका प्रतिष्ठाका स्थान केवल अपना ही शुद्ध स्वभाव है । इसी कारणसे सम्यम्हटी अन्तरात्माको जीवमुक्त कहते हैं । यह यथार्थ ज्ञानसे व परम वैराग्यसे पूर्ण होता है। परम तत्वका एक मात्र रुचिबान होता है । उसकी दृष्टि एक शुद्ध आत्मतत्वपर जम जाती है । समयसारमें कहा है
पुमालकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हयदि एसो । ण हु एस मज्झ भावो जाणगभावी दु अमिको ॥ २०७॥ उदयविवागो विविहो कम्माणं वरिणदो जिपवरेहिं । णदु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ।। २१० ॥ उप्पण्णोदयभागे विओगबुद्धीय तस्स सो णिचं । कंखामणागदम्सथ उदयास ण कुव्वदे णाणी ॥ २२८ ।।
भावार्थ-राग एक पुद्गलकम है, उसके फलसे आत्मामें राग भाव होता है । यह कर्मकृत विकार है, मेरा स्वभाव नहीं है, में तो एक ज्ञायक भावका धारी आत्मा हूं। जिनेन्द्रोंने कहा है कि कर्मों के उदयस जो नाना प्रकारका फल होता है वह सब मेरे आत्माका स्वभाव नहीं है। मैं तो एक ज्ञायक भाषका धारी आत्मा हूं। कर्मोदयसे प्राम वर्तमान भोगोंमें भी ज्ञानीके आदर नहीं है वियोग बुद्धि ही है । तब ज्ञानी आगामी भोगोंकी इच्छा कैसे कर सकता है ?
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योगसार टीका ।
समयसारकलशमें कहा हैइति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः 1 रागादीनात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ॥ १४ ॥
भावार्थ -- ज्ञानी अपनी आत्म वस्तुके स्वभावको ठीक ठीक जानता है, इसलिये रागादि भावोंको कभी आत्माका धन नहीं मानता हैं, आप उनका कर्ता नहीं होता है, वे कर्मोदयसे होते हैं, यह उनका जाननेवाला है ।
५८ ]
बृहत् सामायिक पाठ श्री अभितिगति आचार्य कहते हैंनाहं कस्यचिदस्मिकथन न मे भावः परो विद्यते मुक्त्वात्मानमपास्तकर्म्मसमिति ज्ञानक्षणालंकृति । यस्यैषा मतिरस्ति चेतसि सदा ज्ञातात्मतत्त्वस्थिते
स्तस्य न मंत्रितस्त्रिभुवनं सांसारिक बंधनेः ॥ ११ ॥ भावार्थ - अंतरात्मा ज्ञानी विचारता है कि मैं तो ज्ञान नेत्रों अलंकृत व सर्व कर्म-समूहसे रहित एक आत्मा द्रव्य हूं। उसके सिवाय कोई परद्रव्य या परभाव मेरा नहीं है न में किसीका संबंधी हूं। जिस आत्मीक तत्यके ज्ञाताके भीतर ऐसी निर्मल बुद्धि सदा रहती है उसका संसारीक बंधनोंसे बंधन तीन लोकमें कहीं भी नहीं होता । नागसेन मुनि तत्वानुशासनमें कहते हैं-सद्द्रव्यमस्मि चिदहं ज्ञाता द्रष्टा सदाप्युदासीनः । स्वोपारादेहमात्रस्ततः पृथग्गगनबदमृतः ॥ १५३ ॥
भावार्थ - मैं सत भाव द्रव्य हूं, चैतन्यमय हूं, ज्ञाता दृष्टा हूँ । सदा ही वैराग्यवान हूं । यद्यपि शरीर में शरीर प्रमाण हूं तो भी शरीरसे जुदा हूँ | आकाशके समान अमृतक हूं ।
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योगसार टीका |
आत्मज्ञानी ही निर्वाण पाता है ।
अप्पा अप्पर जड़ मुणहि तउ णिव्वाण लहेहि । पर अप्पा जउ मुणिहि तुहुं तहु संसार भमेहि ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ - ( जइ ) यदि (अप्पा अपन मुहिनो आत्मा समझेगा ( तो शिव्याण लहेहि ) तो निर्माणको पावेगा (जउ ) यदि ( पर अप्पा मुणहि ) परपदार्थोंको आत्मा मानेगा ( तह तुहं संसार भमेहि) तो तू संसार में भ्रमण करेगा |
भावार्थ -- निर्वाण उसे कहते हैं जहां आत्मा सर्व रागद्वेप, मोहादि दोषों से मुक्त होकर व सर्व कर्म-कलंक मे छूटकर शुद्ध सुवर्णके समान पूर्ण शुद्ध होजावे और फिर सदा ही शुद्ध भावोंमें ही कल्लोल करे व निरन्तर आनन्दामृतका स्वाद लेवे। वह आत्माका स्वाभाविक पद हैं | इस निर्वाणका साधन भी अपने ही आत्माको आत्मारूप समझकर उसीका वैसा ही ध्यान करना है ।
{ ५९:
हरएक कार्यके लिये उपादान और निमित्त दो कारणोंकी जरूरत है। मूल कारणको उपादान कारण कहते हैं जो स्वयं कार्यरूप होजावे । सहायक कारणोंको निमित्त कारण कहते हैं। बड़े बनाने में मिट्टी उपादान कारण है, कुम्हार चाक आदि निमित्त कारण हैं । कपड़े. बनाने में कपास उपादान कारण है, चरखा करधा आदि निमित्त कारण हैं। सुवर्णकी मुद्रिका बनाने में सुवर्ण उपादान कारण है. सुवर्णकार, उसके शस्त्र व अग्नि आदि निमित्त कारण हैं।
इसीतरह आत्मा शुद्ध होने में उपादान कारण आत्मा ही है, निमित्त कारण व्यवहार रत्नत्रय हैं, मुनि व श्रावकका चारित्र है, बारह तप हैं, मन, वचन, कायकी क्रियाका निरोध है । निमित्तके होते हुए उपादान काम करता है। जैसे अग्निका निमित्त होते हुए
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६.]
योगसार टीका। चावल भातक रूपमें बदलता है, दोनों कारणोंकी जरूरत है । माधकको या मुमुक्षुको सबमे पहले व्यवहार सम्यग्दर्शन द्वारा अर्थान परमार्थदेव, शास्त्र, गुरुके श्रद्धान नथा जीवादि सात तत्वोंके श्रद्धानद्वारा मनन करके भेदज्ञानकी दृढ़त्तासे अपने आत्माकी प्रतीतिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनको प्राप्त करना चाहिये । तब ही आत्मझानका यथार्थ उदय हो जायगा, वीतरागताका अंश झलक जायगा, संघर व निर्जराका कार्य प्रारंभ हो जायगा, मोक्षमार्गका उदय हो जायगा | कोका बन्ध जब रागद्वेष मोहसे होता है तथ काका क्षय वीतराभादा होता है ! वीतरागभाव अपने ही
आत्माका रागद्वेष मोह रहित परिणमन या वर्तन हैं । मुमुक्षुका 'कर्तव्य है कि वह घुद्धिपूर्वक परिणामोंको वीतरागभावमें लानेका 'पुरुषार्थ करे | तब कर्म स्वयं झड़ेगे व नवीन कर्मक, आम्रवका संबर होगा।
राग, द्वेष, मोहर पैदा होनेमें भीतरी निमित्त मोहकर्मका उदय है। बाहरी निमित्त दूसरे चेतन व अचेतन पदार्थीका संयोग व उनके साथ व्यवहार है । इसलिये बाहरी निमित्तोंको हटाने के लिये श्रावकके बारह ब्रोंकी प्रतिज्ञा लेकर ग्यारह प्रतिमाकी पूर्तितक बाहरी परिग्रहको घटाले घटाते एक लंगोट मात्रपर आना होता है । फिर निर्मच दशा धारण करक चालकके समान नन्न हो जाना पड़ता है, साधुका चाचित्र पालना पड़ता है, कोतमें निवास करना पड़ता है, निर्जन स्थानों में आसन जमाकर आत्माका ध्यान करना पड़ता है, अनशन ऊनोदर रस त्याग आदि तपसे ही इच्छाका निरोध करना पड़ता है। सर्व श्रावकका या साधुका व्यवहारचारित्र पालते हुए बाहरी निमित्त मिलाते हुए साधककी दृष्टि उपादान कारणको उच्च बनानेकी तरफ रहनी चाहिये । अर्थात अपने ही शुद्धात्माकं
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यांगसार टीका ।
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स्वभाव में रमण करनेकी व स्थिर होनेकी परम चेष्टा रहनी चाहिये । साधकको बाहरी चारित्र में निमित्त मात्रले सन्तोष न करना चाहिये। जब आत्मा आत्मसमाधिमें व आत्मानुभव में वर्तन करे तब ही कुछ फल हुआ, तब ही मोक्षमार्ग सा ऐसा भाव रखना चाहिये। क्योंकि जबतक शुद्धात्मध्यान होकर शुद्धोपयोगका अंश नहीं प्रगट. होगा तबतक संवर व निर्जरा के तत्व नहीं प्रगट होंगे। तबतक आत्माकी एकदेश शुद्धि नहीं होगी। निश्रयसे ऐसा समझना चाहिए कि निर्माणका मार्ग एक आत्मध्यानकी अमिका जलना है, एक आत्मानुभव है; आत्माका आत्मारूप ज्ञान है. आप ही आपको शुद्ध करता है, उपादान कारण आप ही हैं। यदि परिणामों में आत्मानुभव नहीं प्रगटे तो बाहरी चारित्रमे शुभ भावोंके कारण ग्रंथ होगा, संसार बढ़ेगा. मोक्षका साधन नहीं होगा ।
इसके विरोध में जब कि आत्माका यथार्थ ज्ञान नहीं होगा जबतक आत्माको अन्यरूप मानता रहेगा, जैसा उसका जिनेन्द्र भगवान कथित स्वरूप है वैसा नहीं मानेगा, आत्माको सांसारिक विकारका कर्ता व भोक्ता मानेगा व जनतक परमाणु भाव भी मोह अपने आत्माके सिवाय परपदार्थों में रहेगा तक मिध्यात्वकी कालिमा नहीं मिटी ऐसा समझना होगा |
मिथ्यात्वकी कालिमाके होते हुए बाहरी साधुका व गृहस्वका चारित्र पालते हुए भी संसार ही बढ़ेगा। विशेष पुण्य बांधकर शुभ-गतिमें जाकर फिर अशुभ गतिमें चला जायगा। जहांतक आत्माका आत्मारूप श्रद्धान नहीं होगा वहांतक मिध्यादर्शनका अनादि रोग दूर नहीं होगा | पर्यायवृद्धिका अहंकार नहीं मिलेगा । विषयभोगेकी कामनाका अंश जब तक नहीं मिटेगा तब तक मिथ्या भव नहीं. हटेगा । विषयभोगोंका सुख त्यागने योग्य है, यह श्रद्धान जब तक न होगा तय तक मिथ्यात्व न हटेगा।
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६२] योगसार टीका।
मिन्दादति उचिपूर्वक भालशिसे भिषय भेषा करना है। सम्यक्ती गृहस्थ अनासक्तिसे व कर्मों के उदयमें लाचार होकर विषयभोग करता है व भावना भाता है कि यह कर्मका विकार शीघ्र दूर हो तो ठीक है। भोगोंसे पूर्ण वैराग्य भाव ज्ञानीके होता है। अज्ञानीक व मिथ्यारपिके तप करते हुए भी भोगोंसे राग भाच रहता है, इसीसे उसका संसार बढ़ता है। वह संसारसे पार होनेका .मार्ग नहीं पाता है।
समयसारजीमें कहा हैरत्तो बंधहि कम्मं मुंचदि जीवो विराग संपण्णो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेनु मा रज्ज ।। १६० ।। परमट्टो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी । तम्हि टिदा सम्भावे मुगिणों पार्वति णित्याणं ।। १६१ ॥ परमम्मिय अठिदो जो कुणदि तच रदं च धारयदि । तं सन्वं बालतवं बालबदं विति सत्याहु ॥ १६२ ॥
भावार्थ-श्री जिनेन्द्रका ऐसा उपदेश है कि रागी जीव कर्मों में यन्धता है। वैराग्यसे पूर्ण जीव कर्मोंसे छूटता है । इसलिये बंधक कारक शुभ व अशुभ कार्योंमें राग नहीं करो।
निश्रयसे परम पदार्थ एक आत्मा है। वहीं अपने स्वभावमें एक ही काल परिणमन करनेसे व जाननेसे समय है, वही एक ज्ञानमय निर्विकार होनेसे शुद्ध है, वही स्वतन्त्र चैतन्यमय हुनेसे केवली है, बही मननमात्र होनेसे मुनि है, वही ज्ञानमय होनेसे ज्ञानी है । जो मुनिगण ऐसे अपने ही आत्माके स्वभावमें स्थिर होते हैं, आत्मस्थ होते हैं वे ही निर्वाणको पाते है। जो कोई परम पदार्थ अपने आत्माकी स्थिति न पाकर तप तथा व्रत पालता है इस सर्व तप या
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यांमसार टीका। व्रतको जो आत्मज्ञान या आत्मानुभवकी चेष्टासे शुन्य है, सर्वज्ञ भगवानने अज्ञान तप व अज्ञान त कहा है।
समयसार कलशमें कहा है-- पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलामुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाबलात्कलयितुं यततां सततं जगत् ॥११-७॥
भावार्थ-निर्वाणका पद शुभ क्रियाओंफे करनेसे कभी प्राप्त नहीं होसक्ता । वह तो सहज आत्मज्ञानकी कलासे सहजमें मिलता है। इसलिये जगत्फे मुमुक्षुओंका कर्तव्य है कि वे आत्मज्ञानकी कलाके बलसे सदा ही उसीका यन करें । तत्वानुशासनमें कहा है ...
पश्यन्नात्मानमैकारग्रामपयत्यार्जितान्मलान् ।
निरस्ताहंममीभावः संवृणोत्यप्यनागतान् ॥ १७८ ।। भावार्थ-~-जो कोई परपदार्थोमें अहंकार ममकारका त्याग करके एकाग्रभावसे अपने आत्माका अनुभव करता है यह पूर्व संचय किए हुए कर्ममलोंको नाश करता है तथा नवीन कर्मोंका संयर भी करता है।
इच्छारहित तप ही निर्वाणका कारण है। इच्छारहिउ सब करहि अप्पा अप्प मुहि । सउ लहु पावइ परमगई पुण संसार ण एहि ॥१३ ।।
अन्वयार्थ-(अप्पा) हे आत्मा ! (इच्छाराहियउ तव करहेि) यदि तू इच्छा रहित होकर तप करे ( अप्प मुणेहि) व आत्माका अनुभव करे (तउ लहु परमगई पावइ) सौ तु शीघ्र ही परम गतिको पावे (पुण संसार ण पहि) फिर निश्चयसे कभी ' संसारमें नहीं आवें ।
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६६ ]
योगसार टीका ।
गुरु द्वारा दण्ड लेकर करते रहना । जैसे कषड़ेपर कीचका छोटा पड़ने से तुर्त धो डालनेमे वस्त्र साफ रहता है, वैसे ही मन, वचन, काय द्वारा दोष होजाने पर उसको आलोचना, प्रतिक्रमण तथा प्रायश्चित्त लेकर दूर कर देना चाहिये, तम परिणाम निर्मल रह सकेंगे।
(२) विनय--बड़े आदरसे ज्ञानको बहाना, श्रद्धानको पक्का रखना, चारित्रको पालना व पूज्य पुरुषोंमें विनयसे वर्तना, उनके गुण स्मरण करना विनय तप हैं।
(३) वैयावृत्य - माधु, आर्यिका श्रावक, श्राविका आदिकी मंत्रा करना | रोग, अन्य परीषद व परिणामोंकी शिथिलता आदि होनेपर शरीर व उपदेशसे या अन्य उपायसे आकुलता मेटना
,
स्वात्य या सेवा तब है। इससे ग्लानिका अभाव, बात्सल्य गुण, धर्मकी रक्षा आदि नप होता है। महान पुरुषों की सेवामे न्यान व स्वाध्याय की सिद्धि होती है।
(४) स्वाध्याय -- ज्ञानभावना व आलस्य त्यागके लिये पांच प्रकार स्वाध्याय करना योग्य है
(१) निर्दोष को पढ़ना व पढ़ाना व सुनाना व सुनना (२) संशय छेद व ज्ञानकी ताके लिये प्रश्न करना, (३) जाने हुए भावका वारम्वार विचारना, ( ४ ) शुद्ध शब्द न अर्थको घोलकर कण्ठ करना, (५) धर्मका उपदेश देना वाचना, गुरुना, आनुप्रेक्षा, आम्नाय धर्मोपदेश ये पांच नाम हैं। इसमें ज्ञानका अतिशय बढ़ता हैं, परम वैराग्य होता है व दोनोंकी शुद्धिका ध्यान रहता है।
(५) व्युत्सर्ग-- बाहरी शरीर धन गृहादिसे व अंतरंग रागादि भाबस विशेष समताका त्याग करना, निर्हेप होजाना, असंगभावको पाना च्युत्सर्ग तप है ।
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योगसार टीका। [६७ (६) ध्यान-किसी एक ध्येयमें मनको रोकना ध्यान है। धमन्यान तथा शुक्लन्यान मोझके कारण हैं, उनका अभ्यास करना योग्य है । आर्तध्यान व रौद्रध्यानसे बचना योग्य है।
तप करन्या व तएका आराधन निर्माणके लिये बहुत आवश्यक । निश्श्य तपकी मुख्यतासे तप किये बिना कौकी निर्जरा नहीं होती है । तपसे सवर व निर्जरा दोनों होते हैं। • समयसारमें कहा है
आप्पागमप्पगोहंभिदण दोग्नु पुग्णावोगेसु । दममणाणम्हि टिको इच्छाविरदो य अण्णामि ॥ १८०॥ को सवसंगमुसो आयदि अप्पागमप्पणो अप्पा । पवि कामं गोकम्मं चेदा दिदि एयत्तं ॥ १८१ ॥ अप्पा झायता दंगणाणाणमाओ अणायामणो । लहदि अरिण आप्पाणयेव सो कम्मणिम्भुकं ॥ १८२ ॥
भावार्थ-पुण्य व पाप बंधक कारक शुभ व अशुभयोगोंसे अपने आत्माको आत्माके द्वारा रोककर जो आरमा अन्य परद्रव्योकी इलामे विरक्त हो व सत्रं परिग्रहकी इच्छामे रहित हो, दर्शनज्ञानमई झारमा रियर बैठकर आपमे अपनेको ही ध्याता है। भारकर्म, द्रव्यकर्म, नोकमको संच मान स्पर्श नहीं करता है, केवल एक शुद्ध भावका ही अनुभव करता है, वह एकान मन हो स्वयं दर्शन ज्ञानमय होकर आत्माको ध्याते ध्याते थोड़े ही कालमें सर्व कर्मरहित आत्माको वा मोक्षको पा लेता है। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें कहते हैंज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादन्युतिमाकांक्षन् माधयेझामभावमाम् ॥ १७४ ।।
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६८] योगसार टीका।
-मोहबीजादतिद्वषो जीजान मुलांकुर. विष । लामाहाना मिन दाये उदेन निधि 12६ वधीत्य स्कले श्रुतं चिमुशास्त्र यो यो। यदीच्छसि भलं तयोरिह है लभजादिका ॥ छिनसि सुलपा. प्रसवगंब अन्याशयः । कार्य समुपलालासे सुरसमस्य धकं फलम् ॥ १.८० ॥
भावार्थ-आमाका स्वभाव ज्ञानमय है | उस्ल स्वभावकी प्राप्तिको ही मोक्ष कडून हैं, इसलिये मोक्षके छिकको ज्ञानकी भावना भानी चाहिये । जैसे वीजसे मूल व अंकुर होते हैं वैसे मोहके बीजमे रागद्वेष पैदा होते हैं । इसलिये जो इन गागडेपोको जलाना चाह उमे ज्ञानकी आग जलाकर उनको भत्म कर देना चाहिये । हे भव्य ! तु सर्व शास्त्रोको पढ़कर व चिरकालतक घोर तप तपकर यदि इन दोनोंका ल सांसारिक लाभ या पुजा प्रतिष्ठा आदि चाहता है नी तू जड़बुद्धि होकर सुन्दर सपम्पी वृक्षकी सड़को ही काट रहा है, किसतरह तु रसीले पके फलको अर्थात मोक्षक फलको पा सकेगा ?
श्री कुन्दकुन्दाचार्य भावपाहुडमें कहते हैंबाहिरसंगचाओ गिरिसरिदरिदण्ड आवासी। सबलो झागाझयमो निरसओ भंवर यायं ॥ ८॥
भावार्थ-जिनका भाव शुद्ध आत्मामें स्थिर नहीं है उनका बाहरी परिप्रहका स्याम पहाड़, नदी, नट, गुफा, कन्दरा, आदिका रहना, ध्यान व पठन पाठन सघ निरर्थक हैं :
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योगमार टीका। [६१ परिणामोंसे ही कंध व मोक्ष होता है !
परिणामें बंधुति कहिद मोक्य नि सजि वियाणि । '. इउ जाणेविणु जीव तुई तह भावह परियाणि ॥१४॥
अन्वयार्थ--(परिणाम बंधुनि कहिट) परिणामोंसे ही कर्मका बंध कहा गया है. (तह जि मोक्ख वि वियाणि तसे ही परिणामि ही माझको जान (जीव) ई आत्मन् ! ( इउ जाणे विणु) ऐसा समझकर (तुहूं बह भाबहु परियाणि) तू उन भावोंकी पहचान कर
भारार्थ-आमा अाप है। अपने भाषर्कका कर्ता है। स्वभावसे यह शुद्ध भावका ही कता है । यह आत्मद्रव्या परिणमनशील है। यह मटिकमगिक समान है। स्मारकमपिके नीचे नंगका संयोग हो तो वह इस रंग कप लान्ट, होली, काश, अलकती है। यदि पर वस्तुका संयोग न हो तो वह स्फटिक निर्मल स्वरूप में झलकती है। इसी तरह इम आत्मामें ककि जुन्यक लिमिनसे विभावों में चा औपाधिक अशद्ध भादोंमें परिगमनकर्क शक्ति है : यदि कम्रे उदयका निमित्त हो तो वह अपने निर्मल शुद्ध भावमें ही परिणमन करता है । मोहनीय कर्मके उदयसे विभाव भाव होने हैं : उन औदायिक भावाने ही बन्ध होता है।
अशुद्ध भावोंफा निमित्त पाकर स्वयमं कर्मवर्गणा आठ कर्मरूप या सात कर्म या जाती हैं। उन्धकारक भाव दो प्रकारके होते हैं-शुभ भाव या शानोपयोग, अशुभ भाव वा अशुभोपयोग। मन्द कषायरूप भावोंको भोपयोग कहते हैं, ती कषायका भावको अशुभोपयोग कहते हैं। दोनों ही प्रकारके भाव अशुद्ध है, बन्धक ही कारण हैं | जहांतक कपायका रंच मार भी सदा है वहांतक कर्मका
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योगसार टीका। वन्ध है। दसवें सूक्ष्मलोभ गुणस्थानतक बन्ध है।
रागट्टेप, मोह, भाव, बन्धहीके कारण है । ज्ञानीको यह भलेप्रकार समझना चाहिये। मुनित्रत या प्रायफके इतका राग या आपका राग या भक्तिका बाग या पठनपाठनका राग या मन्त्रोंके जपका राग यह सब राग बन्धहीका कारण है। साधुका कठिन कटिन चारित्रको राग सहित पालना हुआ भी बन्धको ही करता है । मोक्षका का भाव एक वीतरागभाव है. या शुद्धोपयोग है या निश्चय बत्नत्रय है । शुद्धात्माका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, शुखात्माका जान सम्यगजान है, शुद्धात्माका ध्यान सम्यकचारित्र है । यह गलत्रय धर्म एकदेश भी हो तौभी बन्धका कारण नहीं है।
ज्ञानीको यह विश्वास रखना चाहिये कि मेरा उपयोग जब सर्व चिंताओंको त्यागकर अपने ही आत्माके स्वभायमें एकाग्र होगा ऐसा तन्मय होगा कि जहां ध्याता, भ्यान, टोयका भेद न रहे, गुण गुणीके भेदका विचार न रहे, बिलकुल स्व रूपमें उपयोग ऐसा घुल जावे कि जैसे लवणको डली पानीमें घुल जाती है। आत्मसमाधि प्राप्त होजाये या स्वानुभव होजावे । इसहाको ध्यानकी अग्नि कहते हैं । यह एकाग्र शुद्धभाव मोनका कारण है, मंबर व निर्जराका कारण है। इस भावकी प्राप्तिकी कला अविरत सम्प्राष्टि चौधे गुणस्थान प्राप्त होजाती है ।
___ चौथे, पांच देशविरन तथा छठे प्रमत्तविरत गुणस्थानमें प्रवृत्ति मार्ग भी है, निवृत्ति भाग भी है। जब ये गृहस्थ तथा साधु ध्यानस्थ होते हैं तब निवृत्ति मार्गमें चढ़ जाते हैं। जब गृहस्थ धर्म, . अर्थ, काम पुरुषार्थ साधते हैं या साधुका व्यवहार चारित्र, आहार विहार, स्वाध्याय, धर्मोपदेश आदि पालते हैं तय प्रवृत्तिमाग है । निवृत्ति मार्गमें उपयोग एक शुद्धारमाके सन्मुख ही रहता है । प्रवृत्ति
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योगसार टीका। मार्गमें चारित्रकी अपेक्षा उपयोग पर द्रव्योंके सन्मुख रहता है। सातवेंसे ट्रेकर दसवें गुणस्थान तक साधुके निवृत्तिमार्ग ही है, प्रवृत्ति नहीं है, भ्यान अवस्था ही है | ___ इस तरङ् चौधेसे दश गुणस्थान तक दोनों निवृत्ति व प्रवृत्तिमार्ग यथासंभव होते हुथे भी अप्रत्यारण्यागादि कपायका उदय, चौधेमें प्रत्याख्यानादि कषायका उद्य, पचित्र में संम्बटन कषायका तीन उदय, छठेमें संचलनका मंद उदय, सातवेसे दश तक रहता है । भ्यानके समय इन कषायोंका उदय बहुत मंद होता है । प्रनिके समय सीब होता है । तथापि जितना कषायका अदय होता है वह तो कर्मको ही बांधता है। जितना रत्नत्रय भाव होता है वह संवर व निर्जरा करता है । बंध व निरा दोनों ही धाराण. साथ साथ चलती रहती हैं।
हरएक जीव गुणस्थानके अनुसार बन्धयोग्य प्रकृतियोंका बंध अवश्य करता है । निवृत्ति मार्गमें आस्थह होनेपर घानीय कौकी स्थिनि व उनका अनुभाग बद्भुत कम पड़ता है व अघातीयोंमें केवल शुभ प्रकृतियोंका ही अन्ध होता है, उनमें स्थिति कम व अनुभाग अधिक पड़ता है। प्रवृत्ति मार्गमें शुभोपयोगकी दशामें तो ऐसा ही होता है, किन्तु तीन करोयके उदयले अशुभोपयोग होनेपर घातीय कौंमें स्थिति व अनुभाग अधिक पड़ेगा न अघातीयमें पापकर्मीको अधिक स्थिति व अनुभाग लिये हुए बाँधेगा।।
प्रयोजन मह है कि शुभ या अशुभ दोनों ही भाव अशुद्ध है बन्धहीके कारखा हैं । मोक्षका कारण एक झुद्ध भाव है, वीतरागभाव है, शुद्धात्माभिमुख भाव है ऐसा प्रधान ज्ञानीको रखना चाहिये।
समयसारमें कहा हैअझवसिदेण बन्धो सते मारे हि माब मारे हिं । एसो बन्धसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।। २७४ ॥
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योगसार टीका। वत्थु पनि त पुण अझवसाणं नु होदि जीवाणं । पहिलो हु भो थाम्यवसागर बंधोति ॥ २७७ ।। एदागि गस्थि जेसिं अज्झक्साणाणि एबमादीणि ।
ते असुहेण सुहेण य कम्मेन मुणी या लिपति ॥२८॥ भावार्थ--हिंसक परिणाममें बन्ध अवश्य होगा, चाहे प्राणी मरो या न मरो। वास्तवमें जीवोंको कर्मका बंध अपने विकारी भावों मे होता है, यही बंधका तत्व है । यद्यपि बाहरी पदार्थोके निमित्तसे अशुद्ध परिणाम होता है । तथापि बाहरी वस्तुओंके कारण बंध नहीं होता है । बंध तो परिणामोंसे ही होता है । जिनके शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकारके परिणाम नहीं हैं ये मुनि पुण्य नथा पापकर्मास नहीं बंधते हैं । समयसारकलशामें कहा है
यावत्याकमुपैति कर्मविरतिनित्य सम्यक न सा कर्नज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न आधिक्षतिः । कि खत्रानि समुल्लसत्ववशतो यकर्म कन्धाय तःमोक्षाय स्थितसेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११-४॥
भावार्थ-जस्तक मोहनीय कर्मका उदय है तक्तक ज्ञानमें पुर्ण वीतरागता नहीं होती है, तबतक मोहका उदय और सम्यम्हान दोनों ही साथ २ रहते हैं, इसमें कुछ हानि नहीं है, किन्तु यहां जितना अंश कर्मके उनसे अपने वश बिना राग है उतने अंश बंध होगा तथा परसे मुक्त जो परम आत्मज्ञान है वह स्वयं मोक्षका ही कारण है। रत्नत्रयका अंश अंधकारक नही है, राग अंश बंधकारक है। श्री बुन्दनन्दाचार्य भावपाहदमें कहते हैं
भावं तिविदयार सुहासुई सुद्धमव जायव्यं । अनुहं का अमृतई सुह धम्म जिगवरिंदेति ॥ ७६ ॥
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योगसार टीका ।
[७३ सुद्धं सुद्धसहारं अध्त अपमितं च पाकर । इदि जिणवरेहि य यं । सत करा :
भावार्थ-जीवोम तीन प्रकारके भाव जानने चाहिये । अशुभ, शुभ. शुद्ध आई व नद्रयान अशुभभाव है, धर्मध्यान शुभभार है।
शुद्ध भाव आल्माका शुद्ध स्वभाव हैं, जर आत्मा आत्मामें रमण करता है पमा लिनेन्द्र ने कहा है। जिससे कल्याण हो उसको आचरण कर । प्रयोजन यहाँ वा है कि जब भीतरी आशयमें इन वियोग, अनिष्ट संयोग. पीड़ा, चितवन व भोगाकाक्षा निदानभाव है ग. हिमानन्द, कृपानन्द, नौयानन्द. परिप्रदानन्दछ इसतरह चार प्रकार के अन या चार प्रकारचे. अद्रध्यानमें से कोई भाव है तो वह अभभाव है : म पन्नाय है उनमें प्रेमभाव रामभाव है । निर्विकल्प आत्मीक भाष शुभार है।
इससे यह भी झालयावा है कि सभ्यराष्टी ज्ञानीक ही शुद्धभाव होता है : मिथ्यादृष्टीक मन्द कएचको व्यवहारमें अभभात्र कहते हैं परंतु उसका आशय असम हारेमे उसमें कोई न कोई आत व रौद्रध्यान होता है ! इमलिये में अभभावमें है। गिना है । मोक्षका कारपा एक शुद्ध भाव ही है. यह आमानुभव रूप है ।
पुण्यकर्म मोक्ष-सुख नहीं दे सक्ता। अह पुणु अप्पा कवि मुणहि पुण्णु वि करइ असेसु । सउ वि णु पावड सिसह पुणु संसार भमेसु ॥१५॥
अन्वयार्थ-(भा एणु अप्पा ण वि मुहि) यदि तू आरमाको नहीं जानेगा (असंस पुष्णु वि करइ) सर्व पुण्य
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७५]
योगसार टीका। कर्मको ही करता रहंगा (तर वि सिद्धि मुह ण पाचइ) तौ भी तू सिद्धके सुखको नहीं पायेगा (पुणु संसार भमेसु) पुनः पुनः संसारमें ही भ्रमण करेगा ।
भावार्थ-मक्षिका सुख या सिद्ध भगवानका सुत्र आत्माका इलामविक न अतीन्दिर है ! मह दिला परमानंद हरएक
आत्माका स्वभाव है | उसका आवरण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहत्तीय, अन्तराय चारी ही घानीय कर्मोंने कर रखा है | जब इनका नाश होजाता है तब अनंत अदौद्धि सुख अरहंत केवली प्रगट हो जाता है, बही सिद्ध भगवानमें या मोक्षमें रहता है । इस मुखके पानेका उपाय भी अपने आत्माका अद्भान, ज्ञान व आचरण है। सम्यग्दृष्टीको अपने आत्माके सच्चे स्वभावका पूर्ण विश्रास रहता है | इसलिये वह जब उपयोगको अपने आत्मामें ही अपने आत्माके द्वारा तहीन करता है तब आनंदामृनका पान करता है । इस ही समय वीतराग परिणतिसे पूर्वबद्ध काँकी निर्जरा होती है व नवीन काँका संबर होता है | आत्मा आप ही साधक है, आप ही सान्य है। उस तत्वका जिसको श्रद्धान नहीं है यह पुण्यबंधक कारक शुभ मन वचन काय द्वारा अनेक कार्य करता है और चाहता है कि मोक्ष-सुख मिल सके, सो कभी नहीं मिल सक्ता हैं । जहा मन वचन कायकी क्रियापर मोट हैवहीं परसे अनुराग है। आस्मास दूरवर्तीपना है वहां बंध होगा, निर्जरा नहीं होगी।
कोई मानर कठिनसे कठिन तपस्या वा ब्रतादि पाले व आप भी पुण्यबंधके अनेक कार्य करे, वह संसार मार्गका ही पधिक है व निर्माणका पथिक नहीं । वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है। यह द्रव्यलिंगी साधुका चारित्र पालता है। शास्त्रोक्त व्रत समिति गुप्ति पालता है, तप करता है। आत्मज्ञान रहित तपसे वह महान पुण्य'
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योगसार टीका। बांधकर नौमें प्रवेशिकमें जाकर अमिंद्र होजाता है । आत्मज्ञान विना वहांस चयकर संसार-भ्रमणमें ही रुलता है।
शुधोपयोग ही पाराव ने कार है। इस नत्वको भले प्रकार श्रन्दानमें रखकर अन्तरात्मा मोक्षमार्गी होता है तब इसकी दृष्टि हरसमय अपने आत्मामें रमणकी रहती है। यह आत्माको शांत गङ्गामें स्नान करना ही धर्म समझता है। इसके सिवाय सब ही मन, वचन, का यकी प्रवृत्तिको अपना धर्म न समझकर बंधका कारक अधर्म समझता है । व्यवहारमें शुभ क्रियाको धर्म कहते हैं परन्तु निश्चयस जो बन्च करे वह धर्म नहीं होसक्ता ।
जिस समय सम्यग्दर्शनका लाभ होता है उसी समय वह सर्व शुभ प्रवृत्तियोले उसी तरह उदास होजाता है। जैसा वह अशुभ प्रवृत्तियोंसे उदास है, वह न मुनिके व्रत न आत्रकके व्रत पालना चाहता है। परन्तु आत्मबलकी कमीमे जब उपयोग अपने आत्माके भीतर अधिक कालतक विर नहीं रहता है तब अशुभमे बचके लिये वह शुभ कार्य करता है। परन्तु उसे बंधकारक ही जानता है । भीनरी भावना यह रहती है कि का मैं फिर आत्माके ही साधमें रमण कर । मैं अपने चरसे छूटकर पर घरमें आगया, अपराधी हो गया। सम्यक्ती बन्धकारक शुभ कार्यों से कभी मोका साधन नहीं मानता है।
जिस साधनमे वीतराग परिणति झलके उसे ही मोक्षमार्ग जानता है । इसलिये वह शुभ कामोंको लाचारीमे करता हुआ भी मोक्षमार्गी है । निश्चय रत्नत्रय हो धर्म है, व्यवहार रत्नत्रय यद्यपि निश्चय रत्नत्रयके लिये निमित्त है नथापि बंधका कारण होनेसे वह निश्चयकी अपेक्षा अधम है | ज्ञानी आत्माके कार्य सिवाय अन्य कार्यमें जानेको अपना अपराध समझता है । ज्ञानमें ज्ञानकै रमणको
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योगसार टीका । ही अपना सषा हित जानता है। हानी सम्परपी चौथे अविरत गुणस्थानमें भी है तोभी वह निरन्तर आत्मानुभवका ही खोजक कता रहता है। यह व्यवहार धर्म पूजा पाट, जप तप, स्वाध्याया व्रत
आदि जो कुछ भी पालता है उसके भीतर बह घुण्यकी खोज नहीं करता है, वह पुण्यको चाहता है . वर प्रहार धर्म के निमित्तसे निश्श्यधर्मको ही खोजता है । जबतक नहीं पाता है तबतक अपना भयहार धर्मका साधन फेवल पुण्यगंध करेगा ऐसा समझता है ।
जैसे चतुर व्यापारी केवल धनको कमानेका प्रेमी होता हैवह हाटमें जाता है, माल खरीदता है, रमता मटाता है, तोलता न एता है, विक्रय करता है। जब धनका लाम करता है सब ही अपना सर्व प्रयास सफल मानता है। यदि अनेक प्रकार परिश्रम करनेपर भी धनकी कमाई न हो तो वह अपनेको व्यापार करनेवाला नहीं मानता है।
सर्व उदाम कमानेका करता हुआ भी वह, जस उद्यमको धनका लाभ नहीं मानता है । पनका लाभ ही उसका ध्येय है, उस ध्येयकी मिद्धिका उदम निमित्त है इसलिये यह उनाम करता है। परन्तु रात दिन चाहना एक धनके लाभकी है । धनको वृद्धिको ही अपनी सफलता मानता है। इसी तरह सम्यग्रष्ट. झानी आत्मानुभवके लाभको ही अपना लाभ मानता है, वह रात दिन आत्मानुभवको ही खोजमें रहता है | इसी हेतुसे बाहरी व्यवहार धनका उद्यम करता है कि उसके सहारमे परिणाम फिर शीघ्र ही आत्मामें जाकर आत्मन्ध हो जाये । पदाहरणार्थ एक सम्यग्दष्टः गृहस्थ भगवानकी मजा करता है, गणानुबाद गाता है, अरहस्त र सिद्धये आत्मीक गुणोंका वर्णन करते हुए अपने आत्मीक गुणोंकः वर्णन मानता है। अश्य अपने आत्मापर होते हुए. पह पूजाके कार्यो मध्यमें कभी
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योगसार टीका |
[ ७७
कभी अत्यन्त अल्पकालके लिये भी आत्मामें रमण करके आत्मानुभवको पा लेता है आत्मानन्दका भोगी हो जाता है ।
इसीतरह सामायिक करते हुए, पाठ पढ़ते हुए, जप करते हुए, मनन करते हुए आत्मामें थिरता पानेकी खोज करता है। जब उसे कुछ देर भी आत्मानुभव हो जाता है तब यह यात्रादिक करना सफल जानता है । व्यापारी धनका खोजक है, सम्यक्ती आत्मानुHEET खोजक है । आत्मानुभवकी प्राप्तिकी भावना विना शुभ कार्य केवल बन्धड़ीके कारण हैं। आत्मानुभवका लाभ ही मोक्षके कारणका लाभ है, क्योंकि वहां निश्रय सम्यक्क, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्यक्चारित्र तीनों गर्भित हैं। मोक्षकी दृष्टि रखनेवाला मोक्षमार्गी है। संसाको दृष्टि वाला कारनामों
जो संसारकी दृष्टि रखके मूलसे उसे मोक्षकी दृष्टि मान ले वह मिथ्यादृष्टी है। सम्यग्टी मोक्षकी दृष्टि रखते हुए शुभ भावको बन्धका कारक व शुद्ध आत्मीक भावको मोक्षका कारक मानता है। इसी बात को इस दोहे योगीन्द्राचार्यने प्रगट किया है कि व्यवहार धर्ममें उलझकर विश्व धर्मको प्राधिको भुला न दो । यदि आत्मानुभवका स्वरूप चला गया तो भवभवमें अनन्तवार साधुकर चरित पालते हुए भी संसार ही बना रहता है। वह एक कदम भी मोक्षमार्गपर नहीं चल सका इसलिये पुण्य बन्धन कारक भावको मार्ग कभी नहीं मानना चाहिये । समयसार में कहा है--- वदणिमानवता सीराणि तहा तवं च कुव्र्व्वता । परमवादिराजेन तेण ते होंति अण्णाची ।। १६- ॥ परमदुवा हिरा जे ते अण्णाणेण पुष्णमिच्छति । संसारगमहेतु विमखहेतुं जयागंता ॥ २६९ ॥
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योगसार टीका। भावार्थ-जो व्रत नियम धार, शील पाले, तप करे, परन्तु निश्चय आत्म-स्वभावके धर्मसे बाहर हो तो ये सब अज्ञानी बहिमात्मा है | परमार्थ आत्मतत्व में जो नहीं समझते वे अज्ञानमे संसार. भ्रमणकं कारण पुण्यकी ही वांछा करते हैं | क्योंकि उनको मोक्षके कावधाका ज्ञान ही नहीं है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य माझपाहडमें कहते हैंकि काहिदि बहिक कि काहिदि बहुविहं च खवणं तु । कि काहिदि आदाय आदसहावस्स विचरीदो ॥ १० ॥
भावार्थ-जो आमाके समापस करे, कोही अर करता है उसके रिये बाहरी क्रियाकाण्ड क्या फल देता है। नाना प्रकार उपवासादि नप क्या कर सत्ता है | आनापन योग आदि कायझेश क्या कर सन्ता है । अर्थात मोक्ष साधक नहीं हो सकते। मोक्षका साधन एक आत्मज्ञान है | समाधिशतकम कहा है
यो न देति पर हादेवमात्मानमव्ययम् 1 लभते न स नि तप्वापिं परमं तपः ॥ ३३ ॥
भावार्थ-जो कोई शरीरादिस मिन्न इस प्रकारकं ज्ञाता दृष्टा अविनाशी आत्माको महीं जानता है वह उत्कृष्ट तप तपते हुये भी निवांणको नहीं पाता है।
आत्मदर्शन ही मोक्षका कारण है। अादसग इक्क पर आ ण किं पि वियाणि । मोक्लह कारण जोईया पिच्छह एहउ जाणि ।।१६।।
अन्वयार्थ-(जोईया.) हे. योगी ! (इक अम्पादसण मोक्खड कारण) पक आत्माका दर्शन ही मोक्षका मार्ग है (अण्णु
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योगसार टीका। परु ण कि पि वियाणि ) अन्य पर कुछ भी मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा जान (णिच्छह एहज जाणि) निश्चयनयमेत ऐसा ही समय !
भावार्थ-निश्चयनयमे यथाथ कथन होना है । अथवा इस नयसे उपादान कारणका वर्णन होता है। निश्चयनयसे मोक्षका मार्ग एक अपने आत्माका ही दर्शन है, इसके सिवाय कोई और मार्ग नहीं है। यदि कोई परक आश्रय वर्तन कर व इसीसे मोक्ष होना माने नो वह मिमात्र है | मन बचन काय तीनों ही आत्मासे या आत्माके मूल स्वभाव मिन्न हैं । आत्माका मिन्न स्वभाव सिद्धके समान है, जहां न मनके संकल्प विकल्प हैं न पचनका व्यापार है न कायकी चेष्टा है । व्यवहार धर्मका सर्व आचरण मन, वचाई कायके आधीन है, इसलिये पराश्रय है ! निमित्त कारण तो होसक्ता है परंतु उपादानका कारण नहीं होसक्ता है।
जो कुछ स्वाश्रेय हो, आत्माके ही आधीन हो वही उपादान कारण है | जब उपयोग मात्र एक उपयोगके धनी आत्माक्री तरफ हो अभेद व सामान्य एक आत्मा ही देखने योग्य हो व आप ही देखनेवाला हो, कहनेको दृष्टा व दृश्य दो हों, निश्चय एक आत्मा ही हो । इस निर्विकल्प समाधिभारको या स्वानुभवको आत्मदर्शन कहते हैं। यह आत्मदर्शन एक गुप्त तन्व है, वचनसे अगोचर है, मनसे चितवन योग्य नहीं है, केवल आपसे ही अपनेको अनुभवने योग्य है ।
__ आत्मा गुण पयांयवान एक अग्रण्ड द्रव्य है। मनके द्वारा व वचनके द्वारा खंड रूप होजाता है, आत्माका पूर्णस्वरूप लक्ष्यमें नहीं आसक्ता | इसी लिये सर्व ही मनके विचारोंको छोइनेकी जरूरत है । जो कोई मौनसे स्वरूप गुप्त होगा वही आत्माके भीतर रमण कर जायगा । गुण गुणीके भेद करनेसे भी आत्माका म्वरूप
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८०]
योगसार टीका । हाथमें नहीं आयगा | जितना कुछ व्यापार मन वचन कायका हैं उससे विमुख होकर जब आत्मः आत्मामें हो विश्राम करता है तब आत्मदर्शन होता है । वापर एक सहजज्ञान है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल ये ज्ञान के मंदाका कोई विकल्प नहीं है।
साधकको पहले तो यह उचित है कि आत्माके स्वभावका व विभावका निश्चय शास्त्रकि द्वारा कर डाले । आत्मा किस तरह कौंको बांधना है, काँके उदय से क्या र अवस्था होती है, कर्माको कैसे रोका जावे, कर्मोंका भय कम हो, मोन क्या वस्तु है, इसतरह जीवादि सात तत्वोंका झाल अलेप्रकार प्राप्त करना चाहिये । संशय रहित अपने आत्माको कमरोगको अवस्थाको जान लेना चाहिये । सायग्निद्धि, गोम्मटसार जीवकांउ कर्मकांडका ज्ञान आवश्यक है। नया न्यबहार चारित्रको भी जानना चाहिये | साधु व श्रावकके आधारका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । पश्चात निश्चय से आत्माके स्वभावक ज्ञान होनेके लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित पंचास्तिकाय, अवचनसार, समत्रसारको या नियमसारका, अपाहुडको समझकर निश्चय आत्मतत्यको जानना चाहिये कि यह मात्र अपनी ही शुद्ध परिणतिका कता है वे अपनी ही शुद्ध परिणतिका ही भोक्ता है। यह परम वीतराग व परमानन्द स्वभावका धारी है !
व्यवहार रत्नत्रयका ज्ञान मान मिमिन कारग होनेक लिये सहायकारी हैं, निश्चय तत्वका ज्ञान स्वानुभवके लिये हितकारी है। साधकको उचित है कि व्यवहार चारित्रके आधार जैनधर्मका आचार पाले । जिससे मन, वचन, कायका वर्तन हानिकारक न हो उनको वशमें रखा जासके फिर ध्यानका अभ्यास किया जाये ! एकांतमें बैठकर आसन जमाकर पहले तो आत्माको द्रव्याथिक नयसे अभेदरूप विचारा जाये।
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योगसार टीका। [८१ स्वरूपका मनन शास्त्रकी पद्धतिसे किया जावे । फिर प्रयत्न करके मननको अन्द करके मौनसे ही तिष्ठकर उपयोगको स्वभावके नान श्रद्धानमें एकाग्र किया जावे । निज आत्माकी झांकी की जावे। अभ्यास करनेवालेको पहले वहुत अल्प समय तक थिरता होगी । अभ्यास करते करते थिरता बढ़ती जायगी। आत्मप्रभुका दर्शन अधिक समयतक होता रहेगा । जिस भावसे नवीन कर्मोका संवर हो व पुराने संचित कर्मोंकी निर्जरा हो यही भाव एक मोनमार्ग हो सक्ता है | आत्माके दर्शन व आत्मानुभवमें ही वीतरागभाजकी धारा बहती है । सम्यग्दर्शन झान चारित्रकी एकता रहती हैं। वहीं संबर व निर्जरातत्व झलकते हैं | गृहस्थ हो या त्यागी हो उसे यदि निर्वाणक पदकी भावना है तो आत्माके दर्शन पानेका अभ्यास करना चाहिये ।
जिसने आत्माका दर्शन पा लिया उसने ही समा, बीतराग भगवानका दर्शन पाया, उसने ही सची आराधना श्री अरहन्तदेव व सिद्ध परमात्माकी की । उसने ही श्रावक या साधुका वन पाला । वही सबा निर्वाणका पथिक है, यही आत्मदर्शन मोक्षमार्ग है । यह श्रद्धान जबतक नहीं है तबतक सम्यग्दर्शनका प्रकाश नहीं है, मिथ्यादर्शन है । आत्मदर्शन ही वास्तवमें सम्यग्दर्शन है।
समयसारमें कहा हैपण्णाय पित्तव्यो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेति यादब्या ।। ३२० ॥
भावार्थ-भेदविज्ञानसे जो कुछ ग्रहण करने योग्य है वह मैं ही चेतनेवाला हूं, यही निश्चयतत्व है । शेष जितने भाव है वे मेरे स्वभावसे भिन्न हैं ऐसा जानकर उनको त्याग देना चाहिये । आपसे आपमें ही रमण करना चाहिये। ..
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योगसार टीका ।
मोक्षपाहुड में श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैंजो देहे रियेक्खो दियो णिम्ममो णिरारंभो । आदसहारे सुरओ जोई सो लहड़ णिव्वाणं ।। १२ । सद्दद्व्यरओ सबणो सम्माइट्ठी हवे सो साहू | सम्मत्तपरिषदो उण खबेह दुकम्माई ॥ १४ ॥ आदसहाचादष्णं सचिता चित्तमिस्सिय हवइ । तं परदव्यं मणि अतित्यं सव्वदरसीहिं ॥ १७॥ दुकम्मर हियं अणोवमं णागविभा णि ।
८२ ]
सुद्ध जिहिं कहिये अमाणं हवइ सव्वं ॥ १८ ॥ जे झायंति सव्वं परद्रव्यपरम्हा हु सुचरिता |
ते जिणवराण मी अणुमा लहूदि णिव्वाणं ॥ १९॥ भावार्थ सो कोई शरीर से उदास हो, इन्द्र या रागद्वेपसे रहित हो, समकारसे परे हो, सर्व लौकिक व धार्मिक आरंभसे रहित हो, केवल एक अपने आत्माके स्वभावमें भलेप्रकार छीन हो, वही योगी निर्वाणको पाता है। जो अपने ही आत्माके द्रव्यमें लीन हैं यही साधु या श्रावक सम्स्ट्री है, वही दुष्ट आठों कर्मका क्षय करता है । अपने आत्माके स्वभावसे अन्य सर्व चेतन या अचेतन या मिश्र द्रव्य परद्रव्य है ऐसा यथार्थ कथन सर्वदर्शी भगवानने बताया है । दुष्ट आठ कर्मों से रहित, अनुपम ज्ञानशरीरी, नित्य, शुद्ध अपना आत्मा ही स्वद्रव्य है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। जो अपने आत्मद्रव्यको ध्याते हैं, परदोंसे उपयोगको हटाते हैं तथा सुन्दर चारित्रको पालते हैं व जिनेन्द्रके मार्गमें भलेप्रकार चलते हैं वे ही निर्वाणको पाते हैं ।
समाधिशतक में कहा है
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योगसार टीका। [८३ तथैव भावयेदेहादसावृत्यात्मानमात्मनि । यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ।। ८२ ।।
भावार्थ-शरीरादिसे हटकर अपने आत्माके भीतर अपने 'आत्माको इसतरह ध्यावे कि स्वनमें भी कभी शरीरादिमें अपना मन नहीं जोड़ें। सदा अपने अमाको शुद्ध, परद्रव्यके संगसे रहितध्यावे।
मार्गणा व गुणस्थान आत्मा नहीं है। मग्गणगुणठणइ कहिया क्वहारेण वि दिहि । णिच्छहणइ अप्या मुणहु जिय पान परमेट्ठि ॥ १७॥
अन्वयार्थ-(ववहारेण वि दिट्टि) केवल व्यवहारनयकी दृष्टिसे ही ( मग्गणगुणठाणइ कहिया) जीवको मार्गणा व गुणस्थानरूप कहा है (पिच्छइणइ ) निश्चयनयसे (अप्पा मुणहु) अपने आत्माको आत्मारूप ही समझ (जिय परमेष्टि पाबहु ) जिससे व सिद्ध परमेष्टीके या अरहंत परमेष्ठीके पदको पा सके ।
भावार्थ-व्यवहारनय पराश्रित है। दूसरे द्रव्यकी अपेक्षासे आत्माको कुलका कुछ कहनेवाला है। निश्चयनय स्वाचित है। आत्माको यथार्थ जैसाका तैसा कहनेवाला है। निश्चयनयते आत्मा म्वयं अरहन्त या सिद्ध परमात्मा है । आत्मा अभेव एक शुद्ध ज्ञायक है जैसे सिद्ध भगवान हैं। अपनेको शुद्ध निश्चयनयसे शुद्धरूम ध्याना ही साक्षात् परमात्मा होनेका उपाय है, यही मोक्षमार्ग है क्योंकि . जैसा ध्यावे वैसा ही हो जाये । समयसारमें कहा है
सुद्धं तु वियाणतो सुद्धमेवष्णय लहदि जीवो। जाणंतो दु असुद्ध असुद्धमेवप्पय कादि ॥ १७६ ॥
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योगसार टीका। भावार्थ-शुद्ध आत्माको अनुभव करनेसे यह जीव शुद्ध. आत्माको पालेता हैं या शुद्ध होजाता है । जो कोई अपने आत्माको अशुद्ध रूपमें श्याता है उसको अशुद्ध आत्माका ही लाभ होता है वह कभी शुद्ध नहीं होसकता । इसलिये शुद्ध आत्मा है ऐसा बतानेवाला निश्चयनय है, सो ग्रहण करनेयोग्य है, व्यवहारनय ग्रहण करने योग्य नहीं है, केवल जाननयोग्य है | आत्माका कर्मसे संयोग अनादिसे चला आरहा है । इस संयोगसे आत्माकी क्या २ अत्रस्था होसकती हैं उनका जानना इसलिये जरूरी है कि उनके साथ वैराग्य होजावे । उनको अपने आत्माकी स्वाभाधिक अवस्था न मान लिया जाने । व्यवहार नय हीमे यह कहा जाता है कि यह आत्मा मार्गणा व गुणस्थानरूप है।
सांसारिक सर्व प्रकारकी अवस्याओंका बहुतसा ज्ञान चौदह मार्गणाओंमे तथा चौदह गुणस्थानोम होता है।
श्री गोम्मटसार जीवकांड के अनुसार उनका स्वरूप पाठकोंके ज्ञान हेतु यहां दिया जाता है
जाहि वं जासु व जीवा ममिगज्जेते जहा तहा दिट्टा । ताओ चोइस जाणे सुयणाणे मग्गणा होति ।। १४१ ।। गइईदियेसु काये जोगे वेद कसायणाणे य । संजमदंसणलेस्साभवियासम्मत्तसण्णिआहारे ॥ १४२ ॥
भावार्थ-जिन अवस्थाओं के द्वारा व जिन पर्यायोंमें जिसतरह जीव देखे जाते हैं वैसे ही हूंड़ लिये जावें, ज्ञान लिये ज्ञा, उन अवस्थाओंको मार्गणा कहते हैं, ये मार्गणाएं चौदह हैं
१ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ वेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, १ दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्य, १२ सम्यक्त, १३ संझी, १४ आहार ।
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योगसार टीका। प्रायः संसारी जीवोंमें ये चौदह दशाएं हर समय पाई जाती हैं या इनमें खोजनेसे हरएकमें संसारी जीव मिल जावेगे | इनका स्वरूप व भेद ऐसा है
१-गति मार्गणा चार प्रकारगइउदयजपज्जाया चङगइगमणस हेउ वा हु गई । णारयतिरिक्खमाणुसदेवगइत्ति य हो चदुधा ।। १४६ ॥
भावार्थ-गति कर्मके उदयसे जो पर्याय होती है या चार गतियों में जानेका कारण जो उसे गति कहते हैं। वे चार हैं-सरकगति, तिचगति, मनुश्यगति, देवगति | हराएक संसारी जीव किसी न किसी गनिमें मिल जायगा | जब एक शरीरको छोड़कर जीव दुसरे शरीरमें जाता है तब बीचमें विग्रहगतिक भीतर उसी गतिका उदय माना जायगा जिसमें जारहा है |
२-इन्द्रिय मार्गमा पांच प्रकारउहमिदा जह देवा अबिसेस अहमहत्ति माता । ईसंति एकमकं ईदा व इन्द्रिय जाण ॥ १६४ ॥ .
भावार्थ-अहमिन्द्रोफे समान जो बिना किसी विशेषके अपनेको भिन्न अहंकारम्प माने व जो इन्द्रोंके समान एक एक अपना भिन्न २ स्वामीपना रंग, पाक सरेके साथी न हों, जो भिन्न काम करें उनको इन्द्रिय कहते हैं। वे पांच हैं-स्पर्शन, रसना, माण, चक्षु, श्रोत्र । इसीलिये संसारी जीत्र एकेन्द्रिय, वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, व पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जिनक आगेकी इन्द्रिय होगी उनके पिछली अवश्य होगी। जिनके श्रोत्र होंगे उनके पिछली चार अवश्य होगी।
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योगसार टीका। ३-काय मार्गणा छह प्रकार-- जाईनिण भावीतसथानर उदयजो हदे कायो । सो जिष्णमदमि भणिओ पुढवीकादिकम्भेयो ॥ १८॥ .
भावार्थ-जाति कर्मक साथ अवश्यमेय रहनेवाले स्थावर तथा त्रस कर्मके उदयसे जो शरीर हो उसकी काय कहते हैं, उसके छः भेद जिनमतमें कहे गए हैं नाव काय, जलकाय, अग्नि या सेजकाय, घायुकाय, वनस्पतिकाप, लसकाय, छहाँकी शरीरकी रचनामें भेद है, इसलिये छः कायधारी जीव भिन्न होते हैं। मांसादि बस कायमें ही होता है, स्थावर शेष पांच में नहीं । बनस्पनिकाय व त्रसकायकी रचनामें पृथ्वी आदि चार काय सहायक हैं ।
४-योग मार्गणा पंद्रह प्रकार--- पुग्गलबिवाइदेहोदयेण मशवयाणकायजुसम्म । जीवस्स भा हु सत्ती कम्मागमका जोगो ॥ २१६ ॥
भावार्थ-मन, वचन, काय नीन सहित या वचनकाय दो सहित या मात्र काय सहित जीवके भीतर पुद्गलविपाकी शरीर कर्मके उदयसे जो कर्म व नोकर्मत्रगणाओंको ग्रहण करनेकी शक्ति है उस शक्तिको योग कहते हैं। वह शक्ति जीवमें होती है परंतु इसका काम शरीर नामकर्मकं उदयसे होता है | पंद्रह योगासे किसीतक योगकी प्रवृत्ति होते हुए योगशक्ति हरसमय जहांतक अयोग केवली जिन न हो वहानक काम करती रहती है । विग्रहगतिमें कमबर्गणाओंको व तेजस वर्गणाओंको, शेप समय इन दोनोंके साथ साथ आहारक वर्गणाओंको, भाषा वर्गणाओंको (द्वंद्रियादिक ), मनोवर्गणाको (सैनीके ) ग्रहण करती रहती है।
४ चार मनके-सस्य, असत्य, उभय, अनुभव (जिसे सत्य व असत्य कुछ नहीं कह सकते)।
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योगसार टीका।
४ चार वचनके-सत्य, असत्य, उभय, अनुभय ।
७ सान कायके औदारिक, औदारिक मिश्र (अपर्याप्तके ) वैकिायक, वैक्रियिक मिश्र (अपर्याप्तके ), आहारक, आहारक मिश्र, कार्मण-मनुष्य व तियचोंके औदारिक दोनों, देवनारकियोंके पैक्रियिक दोनों, छटे गुणस्थाचयती मुनिक आहारक दोनों, विग्रहगतिमें कामण योग होते हैं तथा केवली समुद्घातमें भी तीन समय कार्मण योग होता है।
५ बंद मागणा ३ तीन प्रकार--- पुरुसिंच्छिसंढवेदोदयेण पुरुसिंच्छिसंढओ भावे । णामोदयेण दवे पाएण समा कहि विसमा ॥ २७० ॥ वेदस्मुदीरणाप परिणामम्स य हवेज संमोहो । संमोहेण ण जाणदि जीको हु गुणं व दोमं वा ॥ २७१ ।।
भावार्थ-पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, नोकषायों उद. यसे जो क्रमस पुरुष, स्त्री या नपुंसक कैसे परिणाम होते हैं उनको भाव बंद कहते हैं तथा नामकर्मके उदयग्ने जो तीन प्रकारकी शरीर रचना होती है उसको द्रव्यवंद कहते हैं । प्रायः भाव वेद व द्रव्य वेद समान होते हैं, कहीं २ विसम होते हैं । देव, नारक व भोगभृमियोंमें जैसा त्र्यवेद होता है वैना ही भाववेद होता है। किंतु कर्मभूमिके मानष तथा पशुओंमें एक द्रव्य वेदक साथ तीनों ही प्रकारका भाववेद हो सक्ता है । मागणामें भाववेदकी मुख्यता है । पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, नोकपायकी उदीरणाम्मे जीवके परिणाम मोहित या मुर्छित होजाते हैं तब यह मोही जीव गुण या दोषका विवेक नहीं रखता है। यह कायभाव अनर्थका कारण है ।
(६) कषाय मार्गणा–पञ्चीस प्रकार
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८८] योमसार टीका ।
सुहुदुक्खसुबहुसस्स कम्मरम्वेत्तं कसेदि जीवस्स । संसारदरमेर तेण कसाओत्ति पंति ॥ २८१ ।। सम्मत्तदेससयलचरित्तजडकरवादचरणपरिणामे । पादति वा कसाया चउसोलअसंखलोगमिदा ॥ २८२ ||
भावार्थ-जीवके कर्मरूपी श्वेतको जो कोमर्याद संसार भ्रमण रूप है व जिसमें सुख दुःख रूपी बहुत धान्य पैदा होते हैं जो कसता है या हल चलाकर बोने योग्य करता है उसको कपाय कहने है । अधवा सम्बग्दर्शन व म्वरूपाचरण घात करनेवाले अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ चार कषाय हैं, व देश संयमफे घातक अप्रत्याख्यान क्रोधादि चार हैं, व सकल संयमके घातक प्रत्याख्यान क्रोधादि चार हैं, व यधात्यात चारित्रक परिणामोंको घात करनेवाले संज्वलन क्रोधादि चार व नो नोकषाय (हाम्य, रनि, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवंद, नपुंसकवेद ) हैं, इसलिये उनको कषाय कहते हैं । इसकं मूल चार या सोलह या पच्चीग्न आदि असंख्यात्त लोकप्रमाण भेद हैं। (७) ज्ञान मार्गणा आठ प्रकार
जाणइ लिंकालविरग, दगुणे पजा य बहुभेदे । पचकवं च परंकाव अगेण णाणत्ति णं ति ॥ २४ ॥
भावार्थ-जो भुत, भविष्य, वर्नमान, नीन काल सम्बंधी सर्व द्रव्योंके गुणोंको व उनकी बहुत पर्यायीको एक काल जानता है उसको ज्ञान कहते हैं । मन व इन्द्रियों के द्वारा जो जाने सो परोक्ष ज्ञान है : मति, श्रुत, कुमति, कुश्नुत, आत्मा स्वयं जाने सो प्रत्यक्ष ज्ञान है । अवधि, कुअवधि, मनःपय तथा केवलज्ञान, सम्यग्दर्शन सहित भात्र सम्यग्ज्ञान है, मिथ्यादर्शन सहित तीन कुज्ञान हैं।
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11
योगसार टीका |
(८) संयम मार्गणा सात प्रकारवदसमिदिकसायाणं दण्डाण तहिंदियाण पंचपटं । धारणपालणणिगृहचागजओ संजमो भणियो । ४६४ ॥ भावार्थ — पांच व्रत धारना, पांच समिति पालना, पचीस कषायोंको रोकना, मन, वचन, काय तीन दण्डोंका त्याग करना व पांच इन्द्रियोंका जीतना, सो संयम कहा गया है। असंयम, देशसंयम, सामायिक छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय, यथाख्यात, ये सात भेद हैं।
(९) दर्शन मार्गणा चार प्रकार
—
जं सामरणं गहूणं भावाणं व कट्टुमायारं ।
अविसेसिण अहे सणमिदि मण्णवे समये ॥ ४८१ ॥
[
भावार्थ — जो पदार्थों का सामान्य ग्रहण करना, उनका आकार न जानना, न पदार्थका विशेष समझना सो दर्शन आगममें कहा गया है । चक्षु, अचनु, अवधि, केवल ये चार भेद हैं-(१०) लेश्या भार्गणा छः प्रकार —
लिप अप्पीकर एटीए पियअगुण्णपुष्णं च । जीवोत्ति होदि लेम्सा लेस्सागुणजाणयऋखादा ॥ ४:८ ॥ जोगपती लेखा कसा उदयारा होई ।
ततो दोष्णं कबन्ध
समुह ॥ ४८९ ॥
भावार्थ - जिन परिणामक द्वारा जीव अपनेमें पुण्य तथा पापकर्मको लेपना है या ग्रहण करता है उनको लेया श्याके गुणोंके झायकोंने कहा है। कपायोंके उदयसे रंगी हुई योगोंकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। उससे पुण्य व पापका प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग चार प्रकारका बन्ध होता है ।
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९०]
योगसार टीका। कृष्ण, नील, कापोत, तीन अशुभ व पीत, पन, शक्ल तीन शुभ लेश्याएं हैं। (१२) भव्य मार्गणा दो प्रकार
भविया सिद्धी जेसि जीवाणे ते हवंति भवसिद्धा । तबिवरीया भव्या संसारादो ॥ सिझंति ॥ ५५६ ।।
भावार्थ- जीन जीवोंमें सिद्ध होने की योग्यता है ये भव्य हैं। जिनमें यह योग्यता नहीं है वे अभव्य हैं। (१२) सम्यक्त मार्गणा छ: प्रकार
छप्पञ्चणयविहाग असा गवरोलगः । अगाए, अहिगमेण य सहण होइ सम्मत्तं ।। ५६० ॥
भावार्थ-छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय, नव पदार्थोंका जैसा जिनेन्द्रने उपदेश किया है वैसा अद्धान आज्ञाने या प्रमाणनयके द्वारा होना सम्यक्त है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, बेदक, क्षायिक ये छः भेद हैं। (१३) संज्ञी मार्गणा दो प्रकार- ..
णोइन्दियआवरणखओपसम तज्जवोहण सम्णा । सा जम्स सो दु साणी इदरो सेसिदिअवबोहो ।। ६५२ ॥ सिक्वाकिरियुषदेसालावग्गाही मणोवलंघेण । जो जीवो सो सण्णी तब्दिवरीयो असणणी दु ।। ६६० ॥
भावार्थ-नो इंद्रिय जो मन उसको रोकनेवाले ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जो बोध होता है उसको संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा जिसको हो वह संझी है । जो केवल इंद्रियोंसे ही जाने वह असंज्ञी है। शिक्षा, क्रियाका उपदेश, वार्तालाप, संकेत वा जो मनके अलंबनसे
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योगसार टीका |
[ ९१
कर सके वह जीव सेक्षी है जो इनको ग्रहण नहीं कर सके वह
असदी है।
(१४) आहार मार्गणा दो प्रकारउदयावणसरीरोदयेण तद्देहवयणचित्ताणं ।
णोकणं गणं आहारयं गाम ॥ ६६३ ॥
भावार्थ - उदय प्राप्त शरीरकर्मके उदयसे उस शरीर सम्बन्धी या भाषा या सन सम्बन्धी नो कर्मणाओं को जो ग्रहण कर वह आहारक है, जो कहा है।
ह
जेहिं रखित उदयादि संभवहि भावेहिं । जीवा ते गुण गिट्टिा सम्वदरसीहिं ॥ ८ ॥
भावार्थ - मोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षयोपशम या क्षयके होनेपर संभव होनेवाले जिन भावोंसे जीत्र पहचाने जाने उनको सर्वज्ञने गुणस्थान कहा है। ये मोक्षमार्गको चौदह सीढियां हैं। मोह व योग सम्बंधसे होती हैं। उनको पार कर जीव सिद्ध होता. है । एक समय में एक जीवके एक गुणस्थान होता है ।
मिच्छा साग मिस्सो अभिसम्म यसविरदो य 1 विरदा व उतरी अपुच अणिय सुमो ॥ २ ॥ उवसंतखीणमोहो संजोगकेवलिजिणो अजोगी च । चउदस जीवसमासा कमेण सिद्धा यादवा ॥ १० ॥ भावार्थ - १ - मिध्यात्व २- सासादन, ३ - मित्र, ४- अविरक्त सम्यक्त, ५ - देशविरत, ६ - प्रमत्तविरत ७- अप्रमत्तविरत, ८अपूर्वकरण, ९ – अनिवृत्तिकरण, १० सूक्ष्मलोभ, ११ - उपशति मोह, १२- क्षीण मोह, १३ सयोग केवली जिन, १४ - अयोग केवली जिन । इन चौदह गुणस्थानको पार करके सिद्ध होते हैं ।
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९२]
योगसार टीका। __चौदह गुणस्थान स्वरूप(१) मिथ्यात गुणस्थान
मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसहहणं तु तच्च अत्थाणं । एयंत विवरीयं विणयं संसदिमण्णाम् ॥ १५ ॥
भावार्थ--मिथ्यादर्शन कर्मके उदयले मिथ्यात्व भाव होता है तब तत्वोंका व पदार्थोंका श्रद्धान नहीं होता है, उसके पांच भेद हैं। एकांत (अनेक स्वभावोंमेंसे एकको ही मानना), विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान | (२) सासादन गुणस्थान--
आदिमसम्मत्तद्धा समयादो छावलित्ति वा सेसे । अणअण्णदरुदयादाणा सियसम्मात्ति सासखो सो ॥१०॥
भावार्थ-उपशम सम्यक्त के अनमुटूत कालके भीतर जब एक समयसे लेकर छ: आरली काल शेप रहे तम अनंतानुबन्धी चार कषायों में किसी एक उदयसे सम्यक्तमे छूट कर मिथ्यात्त्रकी तरफ गिरता है तब नीवमें सासादन भाव होता है | (8) मिश्र गुणस्थान--
सम्माभिमुहुदोण य जत्तरसव्वघादिकजग । ॥ य सम्म मिच्छपि य समिम्मो हदि परिणाम ॥ २१ ।।
भावार्थ-जात्यंतर सर्व घाति सम्बग्मिथ्यात्व प्रकृतिक उदयसे न तो सम्यक्तकं भाव होते हैं न मिथ्यात्त्रके, किन्तु दोनौके मिले हुए परिणाम होते हैं। (४) अविरत सम्यक्त गुणम्यान--
सत्ताहूं उयसमदो उबससमम्मो ख्यादुः खइओ य । निदियकसायुद्धयादा असंजदो होदि सम्मो य ॥ २६ ॥
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योगसार टीका। [२३ भावार्थ-अनंतानुबन्धी चार कषाय व मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त प्रकृति इन सात कर्मों के उपशमसे उपशम सम्यक्त व उनके क्ष्यसे क्षायिक सम्यक्त व छड्के उदय न होनेमे केवल सम्यक्तकं उदयसे वेदक सम्यक्त इस परवा में होता है. ला झपायके उदयसे असंयम भी होता है। (५) देशविरत--
पञ्चकवाणुइयादो संजनभावो ण होदि गरि दु । थोववदो होदि तदो दसवदो होदि पञ्चमओ ॥ ३० ॥
भावार्थ-प्रत्याभ्यान कषायके उदयसे यहां संयम नहीं होता है, किन्तु कुछ या एकदेशस्त होता है । इसलिये देशवत नामका पंचम गुणस्थान है। (६) प्रमसविस्त गुणस्थान
संजला कसायागुदादो संजमा हो जाला । मलजाणणापमादविय तहमा हु पमत्तविरदो सो ।। ३२ ॥
भावार्थ · संज्मलन कषायं चार व नौ नोकषायों उदयसे संयम होता है परंतु अतीचार उत्पन्न करनेवाला प्रमाद् भी होता है इसलिये उसे प्रमत्तविरत कहते हैं। (७) अप्रमत्तविस्त गुणस्थान
गट्ठासेसपमादो वयगुणसोलोलिमंडिओ गाणी । अणुवसमओ अखबओ झाणणिलीणो हु अपमत्तो ॥ ४६॥ .
भावार्थ-सर्व प्रमादोंसे रहित, बन, गुण, शीलम मंडित, . शानी, उपशम व क्षपकश्रेणीके नीचे ध्यानलीन साधु अप्रमत्तविरत है। (८) अपूर्वकरण गुणस्थान- :
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२४] योगसार दीका।
अन्तो मुहुनकाहं गमिऊण अधापवत्तकरम तं । पडिसमय सुझंतो अगुव्यस्थ समल्यिा ॥ ५० ॥
भावार्थ-सातवे गुणस्थानमें एक अन्नमुहूर्ततक अधःप्रवृत्त• करण समाप्त करके जब प्रति समय शुद्धि बढ़ाता हुआ अपूर्व परिणामोंको पाता है तब अर्धकरण गुणस्थान नाम पाता है । (९) अनित्तिकरण गुणस्थान
पकमि कालसन्य संटाणादीहि जड़ णिति । ण णिवदृति तहावि य परिणामहि मिट्टी के हु ॥ ५६ ॥ होति अणियट्टिण ते पडिसमयं जेस्सिमकपरियामा । विमलयरझाणहुक्कासिहाहि जिद्द डिकम्मवपन्न ।। ५७ ।।
भावार्थ-शरीरके आकारादिसे भिन्नता होनेपर भी जहां एक समयके परिणामोंमें परस्पर साधुओंके भिन्नता न हो व जिनके हरसमय एकसे ही परिणाम निर्मल बढ़ने हुए हों वे अनिवृत्तिकरण गुणास्थानधारी साधु हैं, जो अति शुद्ध ध्यानकी अग्निकी शिखाओंसे झमके वनको जलाते हैं। (१०) सूक्ष्मलोभ गुणस्थान--
अणुलोहं वेदंतो जीवो उचसामगो व खयागे या । सो मुहुमसंपराओ सहखादेणूणो किंचि ।। ६०॥
भावार्थ---जो सूक्ष्मलोमके उदयको भोगनेवाला जीव उपशम या झपक श्रेणी में हो वह सूक्ष्मसापराय गुणस्थानधारी है, जो यथाख्यात संयमीसे कुछ ही कम है। (११) उपशांतमोट गुणस्थान
कदकफलजुदजलं वा सरए सरबाणिय व णिम्भलयं । सयलोबसन्तमोहो उबसन्तक्सायओ छोदि ॥ ६ ॥
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योगसार टीका। भावार्थ-कनकपल गेरे हुए जलके समान या शरद् कालमें निर्मल सरोवरके पानीकं समान जब सर्व मोहकर्म उपशम हो तब यह साधु उपातिकपाय नाम गुणस्थानधारी होता है। (१२) क्षीणमाह गुणस्थान
णिम्सेसखीणमाहो फलिहामलमावणुदयसमचित्तो । सीजससानो भदि यो बीयरायहि ॥ १२ ॥
भावार्थ-सर्व मोहको नाश करके जिसका भाव स्फटिकमणिके वर्तनमें रक्खे हुए जलके समान निर्मल हो वह निग्रंथ साधु क्षीणकषाय है ऐसा वीनराग भगवानने कहा है। (१३) सयोगकवलीनिन गुणस्थान
केवलणाणदिवायरकिरणकलाबप्पणासियष्णाणो । पाबकेवललझुगमरजाणिवपरमप्पवचएसो ॥ ६३ ॥ असहायगाणदसणसहिषो इदि केवली हु जोगेगा । जुत्तोत्ति सामिजिणो अणाणिहणारिसे उत्तो ॥ ६ ॥
भाशर्थ-जिसने फेवलज्ञान रूपी सूयकी किरणोंसे अज्ञानका नाश कर दिया है व नौ केवललब्धिके प्रकाशसे परमात्मा पद पाया है व जो सहाय रहित केवलज्ञान केवल दर्शन सहित केवली है , योग सहित है उनको अनादि निधन आगममें सयोग केवली जिन कहा है | अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य, क्षायिक सम्यक्त, क्षायिक चारित्र ये नौ केवल सन्धियां हैं।
(१४) अयोगकेवलि जिन गुणस्थान
सीसि संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो । . कम्मरविष्पमुको गयजोगो केवली होदि ॥६५॥
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योगसार टीका । भावार्थ चारित्रके ईशपनेको प्राप्त व सर्व आम्रवोंसे मुक्त व धातीय कर्मरजसे रहित जीव अयोगवलि जिन होते हैं ।
पहले पांच गुणस्थान गृहस्थोंके छः से बारह तक साधुओंके व तेरह चौदह दो गुणस्थान परमात्मा अरहनके होते हैं। ___अनादि मिथ्यादृष्टी जीव चार अनन्तानुबंधी कपाय और मिथ्यात्त्रकर्मको उपशम कर लेने पटक मात्र अद था कोई भी प्रत्याख्यानकवायका भी उपशम करके एकदम पांचवेमें आकर या कोई प्रत्याख्यान कपायका भी उपशम करके एकदम सातवमें आकर उपशम सम्यक्ती एक अन्तमुहर्त के लिये होता हैं बह मिथ्या. त्वकमय तीन खंड कर देता है-मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यकप्रकृति रूप ।
इसी कालमें छ: आवली तक शेष रहनेपर यदि अनन्तानुबंधी किसी कषायका उदय होजावे तो दूसरे सासादनमें गिरना है. फिर नियमसे पहलेमें आजाता है । यह गुणस्थान उपशमन गिर करके ही होता है । यदि उपशम सम्यक्तीके मिश्रका उदय आजाये तो तीसरे मित्र गुणस्थानमें गिरता है | एक दफे मिथ्यात्वमें गिरा हुआ फिर यहांसे तीसरमें जासक्ता है | यदि सम्यक्त मोहनीयका उदय होजाय तो उपशममे वेदक सम्यक्ती होजाता है । वेदकसे क्षायिक सम्यक्ती चौथेसे सातवे तक किसीमें होसक्ता है ।
चौथसे पांचवे में या सातवमें जासक्ता है। पांचवेमे सातवे चला जाता है, छठेमें नहीं । सातवेसे छठे में गिरता है। साधुके छठा सातवां झारखार हुआ करता है। इस पञ्चमकाल में सात गुणस्थान ही हो सकते हैं। आगेके गुणस्थान उत्तम संहननवालोंके होते हैं। पंचमकालमें तीन नीचेके संहनन ही होते हैं।
धर्मध्यान सांतवे तक होता है, शुबध्यान 'आठवेसे होता है, सातबेके आगे दो श्रेणियाँ हैं-उपञ्चम श्रेणी नहीं मोहका उपशम
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योगसार टीका [९७ किया जाता है, उसके गुणस्थान चार है-आठवा, नौका, दशा, ग्यारहयो । फिर नियमसे कमसे पतन होता है। संपक श्रेणी जहां मोहका भय किया जाता है, इस श्रेणीपर ववृषभनाराच संहननधारी ही चढ़ सकता है। उसके चार गुणस्थान हैं-आठवां, नौया। दशवा, ग्यारह्वा ।
फिर बारहवां गुणत्यागधारी तीन दो या तीन कर्म का करके तेरहवेमें जाकर अरहन्त परमात्मा जिनेन्द्र हो जाता है। उसी गुणस्थानमें विहार व उपदेश होता है | आयुके भीतर जब अ, इ, उ, ॐ, ऋ, ल, लघु पंच अक्षर उकारण मात्र काल शेष रहता है तब चौदहा गुणस्थान होता है. फिर जीव सिद्ध हो जाता है।
छटे, पांचवें, चौथेसे गिरकर एकदम किसी भी नीचेके गुणस्थानमें आ सकता है, तीसरे व दुसरेसे आकर पहलेमें ही जायगा, तीसरेमें वक्षपकश्रेणीमें व केवलीके तेरहवेमें मरण नहीं होता है । पहले, चौथे, पाचवें, तेरहवेका काल उत्कृष्ट बहुत है । शेष सर्व गुणस्थानोंका काल एक अन्तर्मु र्तने अधिक नहीं है।
एक जीवके चौदह मार्गणा, एक साथ पाई जायगी व गुणस्थान एक ही होगा | एक प्रमसविरत साधुके उपदेश देते हुए इसप्रकार मार्गणाएँ होंगी
१ मनुष्य गति, २ पंचेन्द्रिय, ३ त्रसकाय, ४ वचनयोग, ५ पुंवेद, ६ लोभ कषाय, ७ श्रुतज्ञान, ८ सामायिक संयम, १ चक्षु अचक्षुदर्शन, १० शुभ लेश्या, १६ भन्यत्व, १२ वेदक सम्यक्त, १३. संझी, १४ आहारक ।
कौकी अपेक्षा ही वे गुपस्थान व मारणा है । इसलिये व्यवहारमयस काही हैं, नियमअमेति इनसे सीमा है। .. समयसार में कहा है. . . . .
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योगसार दीका। यवहारा दु पदे जीवरस हवंति बण्णमादीया । गुणटाणन्ताभावा ण दु केई णिच्छयणायस्स ॥ ६ ॥
भावार्थ-वर्णादि, मार्गणा, गुणस्थानादि सर्व भाव व्यवहारनयन जीबके कहे गए हैं। निश्चयनवसे ये कोई जीवके महीं हैं। यह तो परम शुद्ध है।
गृहस्थी श्री निर्माणमार्ग चलमत्ता है। गिहिवाचार परहिआ हेयाहेउ मुर्णति । अणुदिणु झायहि देउ जिणु लहु गिश्वाणु लहति ।।१८।।
अन्वयार्थ--(गिहियावार परट्टिया) जो गृहस्थ के व्यापारमें लगे हुए है ( हेयाहेड मुणति ) तथा हेय उपादेयको त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्यको जानते हैं : अणुदिणु जिणु देउ झायहि ) तथा रात दिन जिनेन्द्र देवका ध्यान करते हैं ( लहू णिव्वाणु लहंति ) चे भी शीय निर्वाणको पाते हैं।
भावार्थ-निर्वाणका उपाय हरएक भव्यजीव करसक्ता है। यहां यह कहा है कि गृहस्थकं व्यापार धंधे में उलझा हुआ मानव भी निर्वाणका साधन करसक्ता है। यह बात समझनी चाहिये फि निर्वाण आत्माका शुद्ध स्वभाव है, वह तो यह आप है ही उस पर जो कर्मका आवरण है उसको दूर करना है । उसका भी साधन एक मात्र अपने ही शुद्ध आत्मीक स्वभावका दर्शन या मनन है | निर्वाणका मार्ग भी अपने पास ही है।
. : सम्यादृष्टी अन्तरात्माके भीतर भेद विज्ञानकी कला प्रगट हो जाती है, जिसके प्रभावसे वह सदा ही अपने आत्माको सर्च कर्मजालसे निराला वीतराग विज्ञानमय शुद्ध सिद्धके समान श्रद्धान
ARम्मान
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योगसार टीका ।
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करता है, जानता है तथा उसका आचरण भी करता है | जिसकी रुचि होजाती है उस चित्त स्थिर होता है। आत्मस्थिरता भी करने की योग्यता अविरत सम्यक्ती गृहको होजाती है। वह जब चाहे तब सिद्धके समान अपने आत्माका दर्शन कर सका है। आत्मचीन हम्य तथा माधु दोनों ही कर सके हैं। गृहस्थ अन्य कार्यों की चिन्ता कारण बहुत थोड़ी देर आम्मदर्शन के कार्य में समय इसका है जब कि साधु गुड़ी काय निवृत्त है। उस साधुको यह अनेक कार्यो को -
साधुपदमें
न्तर आत्मदर्शन कर सका है। निर्वाणकालात् हो होता है, गृहस्थ में एकदेश साधन होता है ।
I
धर्मका भी इंद्रिय
हरएक तलझानी अन्ताना गृहस्थको चार पाकर साधन आवश्यक है । मोक्ष या निर्वाणक पुरुषार्थको व्यरूप या सिद्ध करने योग्य मानके निर्माण प्रातिका लक्ष्य रखके अन्य तीन पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, कामका साथ करता है। दोनों निरोधन पहुंचे इसतरह तीनोंकी एकता का करता है ! साधन नहीं करता है जो द्रव्यको न पैदा कर सके भोग न कर सके ! इतना द्रव्य कमाने से नहीं जाता है जो धर्मको साधन न कर सके व शरीरको रोगी बनाल जिसमे काम घुषार्थ न कर सके | इतना इंद्रिय भोग नहीं करता है जिससे धर्मसाधनमें हानि पहुंचे व का लाभ न कर सके ।. अर्थ पुरुषाफे लिये अपनी योग्यता अनुसार नीचे लिखे छः कर्म करता है व इनमें सहायक होता है
·
(१) असिकर्म-रक्षाका उपाय शस्त्र धारण करके रक्षाका काम।
(२) मसिकर्म - हिसाब किताब जमाखर्च व पत्रादिः लिखनेका
काम 1.
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१००] योगसार टीका ।
(३) कृषिकर्म-खेती करने व करानेका व प्रबन्ध करनेकी व्यवस्था!
(४) वाणिज्यकर्म-देश परदेशमें मालका क्रय विक्रय करना
१५ शिल्पकर्म नाना प्रकारके उद्योगोंसे आवश्यक वस्तुओंको बनाना।
(६) विद्याकर्म-गाना, बजाना, नृत्य, चित्रकारी आदिक हुनर ।
काम पुरुषार्थमें वह न्यायपूर्वक व धर्मका खण्डन न करते हुए पांचों इन्द्रियोंक भोग भोगता है ! स्पर्शन इन्द्रियके भोगमें अपनी विवाहिता स्त्री सन्तोष रखता है, रसना इन्द्रिय भोगमें शुद्ध व स्वास्थ्यवर्धक भोजनपान ग्रहण करता है, प्राण इन्द्रियके भोगमें शरीररक्षक सुगर लेता है, चक्षु इन्द्रियके भोगमें उपयोगी ग्रन्थोंका व वस्तुओंका अवलोकन करता है, कण इन्द्रियके भोगमें उपयोगी गानादि सुनता है।
धर्म पुरुषार्थ में वह गृहस्थ नित्य छ: कमका साधन करता है:देवपुजा गुरूपान्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चंति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिन दिने ।
(पमनंदि श्रावकाचार) (१) देवपूजा ---अरहन्त व सिद्ध परमात्मा-जिनेन्द्रकी भक्ति करना । उसके छ: प्रकार हैं-१-नाम लेकर गुण स्मरण नाम भक्ति है.। २-स्थापना या मुर्ति द्वारा पूजन, दर्शन व जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल इन आठ द्रव्योंसे पूजन स्थापना भक्ति है। ३-अरहान व सिद्धके स्वरूपका विचार द्रव्य भक्ति है। ४-अरहन्त व सिंदके भावोंका मनन भाव भक्ति है । ५-जिन स्थानोंसे महान पुरुषोंने जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाणको पाया उन
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योगसार टीका !
१०१ ..
सभीके द्वारा गुणा स्मरण क्षेत्र भक्ति है । ६-जिन समयों में जन्म, सप, शालिक निर्वाः मानना हातों बार गुण स्मरण काल भक्ति है। छः प्रकारमें देवपूजा होती है। यथासम्भव नित्य करे।
(२) गुम भक्ति-आचाचं, चपा याय, माधुली विनय, सेवा, उनसे उपदेशा ग्रह यदि प्रत्यक्ष न हो तो परोक्ष जनकी शिक्षाको मान्य रचना गुरुसेवा है।
(३) स्वाध्याय-तत्वज्ञान पुर्व अध्यात्मिक शास्त्रोको पढ़ना व सुनना व विचारना ।
(४ संयम-नियनित भाहारा दि करना, स्वच्छंद वर्तन म करना।
(५) नप–प्रातःकाल ६ संन्याकाल कुछ देर तक आत्मध्यानका अभ्यास करता. सामायिक पाठ पढ़नः, आत्माका स्वरूप विचारना ।
दान-मस्तिपूर्वक कमन्स. नुन्नि, आर्यिका, श्रावक आधिकाको व दवाभबसे प्रार्ण मात्रको आहार, औषधि, अभय व ज्ञान दान देना । तया अार मुगुमोको पालना ! ई मलगुण भिन्न भिन्न आचारीक मदम को प्रकार हैं:
ममांसमजुन्यागें: माहातपंचलन । अट्री मल्लगाना ः निमोनमः ॥६६॥ (रल श्रा०)
भावार्थ-१-मदिग नह रीना, २ मांस नहीं खाना, ३-मधु नहीं खाना, क्योंकि मविषयोंका बालक है ब हिंमाकारक है । इन तीन मकारोंको नहीं मेछा, तभा पांच अप्रलोको पालना ।
(१) अहिंसा अगुवन-संकल्पी हिंसा नहीं करना । जैसे शिकारको मांसाहारके लिये धर्माध पबिध, वृथा मौजशौकों प्राणी
A
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१०२)
योगसार टीका पीड़ा करका आदि, बारामी "हसा जो अर्थ व काम पुरुषार्थक साककमें आ क है, ननको वह साधारमा गाइन्धी त्याग नहीं कर सत्ता है, यथा आम्भी भी नहीं करता है।
२) सत्य अपना-सत्य बोलता है पर डाकारी बचत ही बोलता ! म निजी मारा न ओटदा है । आरम्भ. साधक बलोंको त्याग नहीं कर सकता।
(३ मनाय अगुवन-गिरी पड़ी व भी हुई क्रितीकी बम्नु नहीं हो पाया है , टपाट, विभागवान बबना है ।
( ब्रह्मचर्य आश्रत-काली सन्दीप पखक बीकी रक्षा करता है ।
(५. पारग्रह न्या. अभवत-तणांक मदान के लिये सम्प.. तिका प्रमाण करता : उतना मर्यादा पुर्व जिपर परोपकार व घार्थ जीवन बिताता है।
यह गृहस्थी इस भाक्यर यान रखता हैसमेव हि जैनान सर लोबिक विधिः । या सम्यान का न त ।
भावार्थ-जन इलस्थ उन सर्व लौकिक नियमको मात्र कर लेगा कि जिनसे अपने असले पाच अप्रत में बाधा नहीं आने । सामाजिक नियम का हरिबस्न उस आधारसर कर सकता है।
श्री जिनसनाचार्य महापुराणमें कहते है-- हिंसा सत्याचा अहवारेण्याच्च बादरभेदात । हातान्मांमान्मयादिति हिमोऽसूलमाः ।।
भावार्थ-स्थल हिंसा: असत्य, चोरी, अग्रहा. परिग्रहका त्याग तथा अभा नहीं ज्वलन, मांस नहीं खाना, मदिरा नहीं पीना, ये गृहस्थीके आठ मूलगुण हैं।
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योगसार टीका |
पण्डित आशाघर सागारमामृत में कहते हैंमद्यपलमधुनिशाशनपञ्चफली विरतिपञ्चकानुनी । जीवदया जमानमिति च कचिदमूलगुणाः ॥ १८२ ॥ भावार्थ - ये भी आठ मूलगुण हैं - ( १ ) मदिरा त्याग, (२)
मांस त्याग, (३) मधु त्याग, (४) रात्रिभोजन त्याग, (५) पांच फ्ल पाकर वह गोपीर त्याग (६) पांच परमेष्टी भक्ति, (७) जीव दया, (८) जल छानकर पीना | पुरुषार्थसिद्धपाय में कहा है-
म मांसं क्षौद्रं पोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसायुपरताव्यानि प्रथममेव ॥ ६१ ॥
[ १०३
भावार्थ – हिंसा से बचनेवालेको प्रथम ही मदिरा, मांस, मधुको त्यागना व ऊपर कड़े पांच फल न खाने चाहिये ।
आत्मज्ञानी गृहस्थ जिनेन्द्रका व अपने आत्माका स्वभाव एक समान जानता है इसलिये निरन्तर जिनेन्द्र के ध्यानसे वह अपना ही ध्यान करता है। गृहस्थ सम्यही आत्माके चितवनको परम रुचिसे करता है । शेष कामों को कमोंके उदयवश लाचार होकर करता हैं। उस गृहस्थ के ज्ञानचेतनाकी मुख्यता है। गृहस्थकं रागद्वेषपूर्वक कामों व कर्मफलभोग में भीतर से समभाव है । भावना यह रखता हैं कि कब कसैका उदय टले जो मैं गृह प्रपंचसे हूं ।
समाविशतक में कहा है
आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेचिरम् ।
कुर्यादिवशात् किंचिद्वाकायाभ्यामतत्परः ॥ ५० ॥
भावार्थ - ज्ञानी सम्बन्ष्टी आत्मज्ञान के सिवाय अन्य कार्यको बुद्धिमें देरतक नहीं धारता है । प्रयोजनवश कुछ काम कहना हो
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योगसार टीका ।
समें आसक्त न होकर वचन व कायसे कर लेता है | समयसार कलसमें कहा है
नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना । ज्ञानवैभवविरागताबलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥ ३–७ ॥
भावार्थ - ज्ञानी विषयोंको सेवन करते हुए भी विषय सेवनके फलको नहीं भोगता है । वह तत्वज्ञानको विभूति व वैराग्य के बलसे सेवते हुए भी सेवनेवाला नहीं है । समभावसे कर्मका फल भोगनेपर कमेकी निर्जरा बहुत होती है, बन्ध अल्प होता है, इसलिये सम्यष्टी गृहस्थ निर्वाणका पथिक होकर संसार घटाता है। उसकी दृष्टि स्वतन्त्रतापर रहती है, संसारसे उदासीन है, प्रयोजनके अनुकूल अर्थ व काम पुरुषार्थ साधता है व व्यवहार धर्म पालता है, परंतु उन सबसे वैरागी है। प्रेमी मात्र एक अपने आत्मानुभवका है, उससे यह शीघ्र ही निर्वाणको पानेकी योग्यताको बढ़ा लेता है ।
जिनेन्द्रका स्मरण परम पदका कारण है । जिण सुमिरहू जिण चितबहु जिण झायहु सुमणेण । सो झातह परमपर लम्भ एकरणेण ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ -- (मुमणेण ) शुद्धभावसे ( जिण सुमिरहु ) 'जिनेन्द्रका स्मरण करो ( जिण चिंतबहु ) जिनेन्द्रका चितवन करो ( जिण झायह) जिनेन्द्रका ध्यान करो ( सो झाहतह ) ऐसा ध्यान करनेसे ( एक्कखणेण ) एक क्षण में ( परमपड लभइ ) परमपद प्राप्त होजाता है ।
भावार्थ --- जिनेन्द्रके स्वभावमें व अपने आत्माके मूल स्वभा में कोई प्रकारका अन्तर नहीं है । सम्यग्दृष्टी अन्तरात्मा आत्माके
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योगसार बनी १०५ उत्कृष्ठ पदका परमंप्रमी होजाता है। उसके सिर यह अनुकम्पा पैदा होजाती है कि जिनके समान होते हुए भी इसे भवभवमें जन्म मरणके कप्प सहने पड़े यह बात ठीक नहीं है। इसे तो जिनके समान स्वतंत्र व पूर्ण व पवित्र रमा देना चाहिये । यह पर्यायकी अपेक्षा अपने आत्माको अशुद्ध रागी द्वेषी, अज्ञानी, कर्मबद्ध, शरीरमें कैद पाता है व श्री जिनेन्द्र भगवानको शुद्ध वीतरागी, शानी, कर्ममुक्त व शरीरसे रहित देखता है तब गाढ़ प्रेमाल व उत्साहित होजाता है कि शुद्ध पदमें अपने आत्माको शीघ्र पहुंचा देना चाहिये । वह जिन पदको आदर्श या शुद्धताका नमूना मानके हरसमय उनको धारणामें रखता है। ___गृहस्थीके काम व आहार विहारादि करते हुये भी बार बार जिनदेवको स्मरण करता है । कभी देवपूजादि व सामायिक समय जिनपदके स्वरूपका-जिनकी गुणावलीका चिन्तवन करता है । चिन्तवन करते करते क्षणमात्रके लिये स्थिर होता है। आपको जिन भगबानके स्वरूपमें जोड़ देता है । दोको पकी भावमें कर देता है। अनके गुढ़ भात्रमं एकतान होजाता है नब वास्तव में उसी क्षण आत्माका साक्षात्कार पाकर निर्वाणकासा आनन्द अनुभव करता हैं। न्यानमें थिरना कम होने पर फिर ध्यानस छूटकर चिन्तवन करने लगना है। फिर ध्यानको पालेता है। फिर आनंदका अमृत पीने लगता है | इसतरह जिन समान अपने आत्माका ध्यान ही परमपदके निकट लेजानेका वाहन होजाता है । यदि कोई साधु बनवृपभनाराच संहननका धारी लगातार एक मुहूत या ४८ मिनदसे कुछ कम समयनक ध्यान में एकतान होजावे तो चारों घातीय कर्मोंका क्षय करके अरमेन परमात्मा होजावे। फिर उस शरीरके पीछे शरीररहित सिद्ध होजावे ।
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१०६ ]
योगसार टीका |
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जैसे कोई स्त्री पतिके परदेश जानेपर अपना घरका काम करती हुई भी बार बार पतिको स्मरण करती है, कभी स्थिर बैठकर पति गुणांक व विचार करती है । विश्वारले २ कभी प्रेममें आसक्त हो पति निलनेकासा सुख अनुभव करती है । इसी तरह जिनेन्द्र पदका प्रेमी अन्तरात्मा ज्ञानी गृहस्थ हो या साधु आत्मा कार्य सिवाय अन्य कामको करते हुये जिनेन्द्रका बार बार स्मरण करता है | कभी कति स्थिर बैठकर गुणोंको विचारता है, कभी ध्यान में लीन होजाता है । उसका जितना प्रेम जिन भगवानके स्वरूप हैं उतना किसी वस्तु नहीं है, ज्ञानी अंतरात्मा शुद्ध पौनराग भावसे जिन भगवानका स्मरण, चिन्तयन व उनका ध्यान करता है | किसी प्रकारकी वांछा व फलकी चाहना नहीं रखता है | उसके भीतर संसारके सर्व क्षणिक पदोंस पूर्ण वैराग्य हैं । वह इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पोंको भी नहीं चाहता है। न वह इंद्रि योंके तृष्णा भोगोंको चाहता है, न वह अपनी पूजा या प्रसिद्धि चाहता है। वह कपाय कालिमाको बिलकुल मेटना चाहता है, बीतराग होना चाहता है, न्यानुभव प्राप्त करना चाहता है, निजानंद इस पान करना चाहता है । इसलिये वह मुमुक्षु शुद्ध निर्लेप भावने जिनेन्द्र भगवानका स्मरण चितवन व ध्यान करता है । यह उसको ज्ञान है कि भक्ति करने या सविकल्प चितवन करनेसे या निर्वि कल्प ध्यान करने में जितना अंश राग भाव होगा, वह कर्मबन्ध करेगा, पुण्यको भी बांधगा व पुण्यका फल भी होगा । परंतु वह ज्ञानी पुण्यको व पुण्यके फलको बिलकुल चाहता नहीं है । वह तो कर्म रहित पदको ही चाहता है ।
इस ज्ञानीके भीतर सम्यग्दर्शन के आठ अंग भलेप्रकार अंकित रहते हैं । वह ज्ञानो इन आठ अंगों का मनन इसतरह रखता है कि
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योगसार टीका । [१०७ मुझे अपने आत्माके शुद्ध स्वभावमें या जिनपरमात्मामें कोई संशय नहीं है, न मुझे मरणका गंगादिका व किसी अकस्मात्का भय है। मेरा आत्मा अमुक अमेघ अछेव अविनाशी है। इसका कोई बिगाड़ कर नहीं सक्ता हैं | इसतरह स्वरूपमें निशंक ब निर्भय होकर निःशंकित अंग पालता है | इस ज्ञानीको कमौके आधीन क्षणिक, तृष्णाबद्धक, पापबन्धकारी इन्द्रिय सुखोंकी रंचमान्न लालसा या आसक्ति नहीं होती है । यह पूर्णपने वैरागी है । केवल अपने अती. न्द्रिय आनन्दका प्यासा है। उस परमानन्दक सिवाय किसी प्रकारके अन्य मुलकी क सागमवके पिकास अन्य किसी व्यवहार्मली या मोक्षपदके निज पदकं सिवाय अन्य किसी पदकी बांका नहीं रखता है। वे चाह लो शुद्ध भाव रखता हुआ निष्कांक्षित अङ्गको पालता है । ज्ञानी छः द्रव्योंको व उनके गुणोंके व उनकी होनेवाली स्वाभाविक व वैभाविक पर्यागोंको पहचानता है | सर्व ही जगतकी व्यवस्थाको नाटकके समान देखता है । किसीको बुरी व भली माननेका विचार न करके घृणाभावकी कालिमासे दूर रहकर व समभावकी भूनिमें तिगुकर निर्विचिकित्सित अङ्गको पालता है।
वस्तु स्वरूपको ठीक ठीक जाननेवाला ज्ञानी जैसे अपने आत्माको द्रव्याधिक व पर्यायार्थिक नयसे एक व अनेकरूप देखता है वैसे अन्य जगतकी आत्माओंको देखता है, वह किसी वानमें मूलभाव नहीं रखता है। वद् धर्म, अधर्म, आकाश, काल चार द्रव्योंको स्वभावमें मदा परिणमन करते हुए देखता है। पुद्गलकी स्वाभाविक व वैभाषिक पर्यायोंको पुगलकी मानता है । जीवकी स्वाभाविक व वैभाविक वैमित्तिक पर्यायोंको जीयकी जानता है । उपादेय एक अपने शुद्ध द्रव्यको ही जानता है । इसतरह ज्ञानी वस्तु स्वभावका ज्ञाता होकर अमूह दृष्टि अंग पालता है । ज्ञानी.
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योगसार टीका ।
सर्व रागादि दोषोंसे परे रहकर व कषायके मैलको मैल समझकर उनसे रहित अपने वीतराग स्वभाव के अनुभव में जमकर अपने भीतर अनन्त शुद्ध गुणोंको प्रकाश करता है, दोषोंसे उपयोग घटाकर आत्मीक गुणोंमें अपनेको झलकाता हुआ उपगूहन या उपबृंहन अंगको पालता है ।
ज्ञानी जानता है कि रागद्वेषोंकी पवन लगनेसे मेरा आत्मीक समुद्र चंचल होगा | इसलिये वीतरागभाव में स्थिर होकर व ज्ञान चेतनामय होकर आत्मानंदके स्वादमें तन्मय हो स्थितिकरण अङ्गको पाता है । अपने उपयोगकी आत्माको भ्रमिमें रमनेसे बाहर नहीं जाने देता है। ज्ञानी जीव सर्व जगतको आत्माओंको एकसमान शुद्ध व परमानंदमय देखकर परम शुद्ध प्रेमसे मरकर ऐसा प्रेमाल होजाता है कि सर्व विश्वको एक शांतिमय समुद्र बनाकर उस समुद्र में गोते लगाता है। शुद्ध विश्व प्रेमको रखकर वात्सल्य अङ्ग पास्ता है | वह ज्ञानी अपने निर्मल उपयोगरूपी रथमें परमात्माको विराजमान करके ध्यानके मार्ग में रथको चलाकर अपने आत्माकी परम शांत महिमाको विस्तार करके प्रभावना अङ्ग पाळता है। इस तरह आठ अंगों से विभूषित ज्ञानी शुद्ध भाव से श्री जिनेन्द्रका स्मरण, चिन्तन व ध्यान करता हुआ निर्वाणके अचल नगरको प्रयाण करता है । समाविशतक में कहा है
मिनात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशाः ।
बर्तिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥ २७ ॥
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भावार्थ — जैसे बत्ती दीपकसे भिन्न है तौभी दीपकको सेवा करके स्वयं दीपक होजाती है वैसे यह भिन्न परमात्माकी उपासना करके स्वयं परमात्मा हो जाता है ।
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योगसार टीका ।
भावपाहुडमें श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं--- णाणम्मविमलसीयसलिलं पाऊण भविय भाषेण । बा हिजरमरण वेयणाहविमुक्का सिवा होति ॥ १२५ ॥ भावार्थ - भव्यजीव शुद्धभाव से ज्ञानमई निर्मल शीतल जलको पीकर व्याधि, जरा, मरणकी वेदनाकी दाहसे छूटकर शिवरूप मुक्त होजाते हैं। आप्तस्वरूपमें कहा है कि -
रागद्रेादयो येन जिताः कर्ममहाभटाः । कालकाविनिर्मुक्तः स जिनः परिकीर्तितः ॥ २१ ॥
[१०९
भावार्थ - जिसने रागद्वेपादिको व कर्मरूपी महान क्रीडाओंको जीता है व जो मरण के चक्र से रहित है वही जिन कहा गया है।
अपनी आत्मामें व जिनेन्द्र में भेद नहीं ।
सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि । मोक्खह कारण जोईया णिच्छर एउ वियाणि ॥ २० ॥ अन्वयार्थ - ( जोईया) हे योगी ! (सुद्धप्पा अरु जिणवरहं किमपि भेउ म त्रियाणि) अपने शुद्धात्मामें और जिनेन्द्र में कोई भी भेद मत समझी (मोक्खह कारण णिच्छ एउ वियाणि) मोक्षका साधन निश्चयनयसे यही मानो ।
भावार्थ - मोक्ष केवल एक अपने ही आत्माकी परके संयोगरहित शुद्ध अवस्थाका नाम है। तब उसका उपाय भी निश्चयनयसे या पर्याय यही है कि अपने आत्माको शुद्ध अनुभव किया जावे साधा श्री जिनेन्द्र अरहंत या सिद्ध परमात्माके समान ही अपनेको: माना जावे |
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योगसार टीका। जब ऐला माना जायगा तब अनादिकी मिथ्या वासनाका अभाव होगा । अनादिसे यही मियाधुद्धि थी कि मैं नर हूँ, नारकी हूं, तिथंच हूं या देव हूं या में रागी हूं, वेषी हूं, मोधी हूं, मानी हूं, मायावी हूं, लोभी हूं, कामी हूं, रूपत्रान हूं, बलवान हूं, रोगी हूं, निरोगी ई, बालक हूं; युवान हूं, वृद्ध है। मैं जन्मा, मैं वृद्ध हुआ, मैं मरा, आठ काँके उद्घके विधाकन जो विमान दशा आत्माकी होती थी उसीको यह अज्ञानी अपनी ही मूल दशा मान लेता था । कर्मकृत रचनामें अईबुद्धि, रग्बना श्रा, शरीरके सुखमें सुखी व शरीरके दुःखमें दुःखी मानता था । जैस कोई सिंहका बालक सिंह होके भी दीन पशु बना रहता है मे ही अज्ञानसे वह अपनेको दीन हीन संसारी मान रहा था [ श्री गुरुके प्रसादन, या शाम्रो ज्ञानसे या स्वयं ही उसकी जय झानकी आंख खुली उसको यह प्रनीति हुई कि मैं तो स्वयं भगवान प्रश्न परमात्मा हूं । मेरा स्वभाव सिद्ध परमात्मासे रंच मात्र कम नहीं है। मैं तो संसारके अपंचोंसे रहित हूं, मैं कौसे अलिप्त हूं, परम वीनरागी हूं, परमानन्दमय हूं, जितने अनन्तगुण सिद्ध, परमात्मामें है वे सब मेरे आत्मामें हैं। मैं अमूर्तीक अखण्ड ज्ञानमूर्ति हूं, केवल आपसे आपमें आरहीके लिये आपसे आपको आप ही परिणमाता हूं।
में ही अपनी शुद्ध परिगतिका कर्ता हूं, शुद्ध परिणाम ही मेरा कर्म है। शुद्ध परिणाम ही कारण है । यही संप्रदान है, अपादान है, यही अधिकरण है, प्रथमामें इन छहों कारकों के विचारसे रहित एक अभेद स्वरूप हूं, मैं स्वयं रागादिक भावोंका या पुण्य पापकर्मका कर्ता नहीं हूँ, मैं फेवल अपने ही शुद्ध व अतीन्द्रिय सहज आनंदका भोगनेवाला हूं। मैं सांसारिक सुखका या दुःस्वका भोगनेवाला नहीं हूँ।
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योगसार टीका। [१११ में सिद्ध के समान परम निश्चल है, भोगी चंचलना रहित हूं, मन बचन कायके पंद्रह योगोंने अन्य हूं, में कम तथा गोकर्मका आकर्षण करनेवाला नहीं । न मेरेमें अजीव लाव ग आस्त्रत्र तत्व है, न यन्ध तत्व है, न मात्र है, न निजरा है, न मोक्ष तत्व है । मैं तो सदा ही शुद्ध जीवत्वका धारी एक जीत्र है । मुरक, सत्ता, चैतन्य (स्वानुभूति), बोच ये चार ही मेरे निज प्राण है जिनसे में सदा जीवित हूं।
जैसे सिद्ध भगवान कृतकृत्य हैं वैसे मैं कृतकृत्य है | न चे जगतकं चिनेवाले हैं न मैं जगतका रचनेवाला है. न ये किसीको मुख या दुःख देते हैं, न मैं किसीको सुख वा दुःख देता हूं, वे जगतके प्रपंच निराले, मैं भी जगतके प्रपंच निराला हूं, वे असंख्यातप्रदेशी अखण्ड है, में भी असंख्यातप्रदेशी अखण्ड हूं । के अन्तिम शरीरप्रमाण आकारधारी हैं, मैं अपने शरीरप्रमाण आकारधारी हूं परंतु प्रदेशोंकी संग्यामें कम नहीं हूं । वे सिद्ध भगवान सर्व गुणस्थामकी श्रेणियोंसे बाहर हैं। मैं भी गुणस्थानोंसे दृरवर्ती हूं। सिद्ध भगवान चौदह मार्गणासि परे हैं, मैं भी चौदह मार्गणाओस जुदा हूं ।
सिद्ध भगवान तृष्णाकी दाहसे रहित हैं, में भी तृष्णाकी दाइसे रहित हूं । सिद्ध भगवान कामवासनासे रहित हैं, मैं भी कामविकारसे रहित हूं । सिद्ध भगबान न ली है, न पुरुष है, न नपुंसक है। मैं भी न स्त्री हूं, न पुरुष हूं, न नपुंसक हूं। सिद्ध भगवान क्रोधकी कालिमासे रहित परम क्षमावान है, निन्दकपर रोष नहीं करते। मैं भी क्रोधके विकारमे रहिन परम क्षमावान हूं, निन्दकपर समभारका चारी हूं। सिद्ध भगवान कुल, जाति, रूप, बल, धन, अधिकार, तप, विधा इन आठ मदोंसे रहित परम कोमल परम मात्र गुणधारी हैं।
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११२
पंगसाधना। मैं भी आठों मदोंसे रहित पूर्ण निरभिमानी च परम कोमल मार्दव भारका धनी हूं। सिद्ध भगान मायाचारकी यकतासे रहित परम सरल सहज आर्जव गुण धारी हैं, मैं भी कपट-जालसे शुन्य परम निष्कपट सरल आर्जव स्वभाव धारी हूं।
सिद्ध भगवान् असत्यकी वक्रतासे रहित परम सत्य अमिट एक स्वभावधारी है । मैं भी सर्व असत्य कल्पनाओंसे रहित परम-पवित्र सत्य शुद्ध धर्मका धनी हूं | सिद्ध भगवान लोभके मलसे रहित परमपवित्र शौच गुणके धारी हैं; मैं भी सर्व लालसासे शुन्य परम सन्तोपी व परम शुद शौच स्वभावका स्वामी हूं। सिद्ध भगवान् मन व इन्द्रियोंके प्रपंचसे व अद्याभावसे रहित पूर्ण संयम धर्मके धारी हैं, मैं भी मन व इन्द्रियोंकी चञ्चलतासे रहित व परमस्वदयाल पृण परम संवम गुणका धारी हूं। सिद्ध भगवान आपसे ही अपनी स्वानुभूतिकी तपस्याको निरंतर तपते हुए परम तप धर्मके धारी हैं । मैं भी स्वात्माभिमुख होकर अपनी ही स्वात्मरमणताकी अनिमें निरन्तर आपको तपाता हुआ परम इच्छा रहित तप गुणका स्वामी हूं | सिद्ध भगवान परम शांतभावसे पूर्ण होते हुए व परम निर्भयताको धारते हुए विश्व में परम शॉति व अभय दानको विस्तारते हुए परम त्याग धर्मके धारी हैं | मैं भी सर्व विश्वमें चन्द्रमाके समान परम शांत अमृत वर्षाता हुआ व सर्व जीवमात्रको अभय करता हूं, परम त्याग गुणका स्वामी हूं। - सिद्ध भगवान एकाकी निस्पृह निरंजन रहते हुए परम आकिंचन्य धर्मके धारी हैं, मैं भी परम एकांत स्वभावमें रहता हुआ व परके संयोगसे रहित परम आकिंचन्य गुणका स्वामी हूं । सिद्ध भगवाम् परमशील स्वभावमें व अपने ही ब्रह्मभावमें रमण करते हुए परम ब्रह्मचर्य धर्मक धारी है। मैं भी अपने ही शुद्ध शील स्वभावमें
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योगसार टीका। [११३ निर्विकारतासे स्थिर होता हुआ व ब्रह्मभावका भोग करता हुआ परम ब्रह्मचर्य गुणका स्वामी हूं । सत्ताधारी होते हुए भी स्वभावकी व गुणोंकी अपेक्षा मेरे आत्माकी व सिद्ध परमात्माकी पूणे एकता है। जो वह सौ में, जो में सो वह, इस तरह जो योगी निरन्तर अनुभव करता है वही मोक्षका साधक होता है।
परमात्मप्रकाशमें कहा हैजेहउ शिम्मलु गाणमङ, सिद्धिहिं णिवसइ देउ । तेहर णिवसइ भुपरु, देहहं मंकरि भेट ॥ २६ ॥
भावार्थ-जैसा निर्मल ज्ञानमय परमात्मादेव सिद्ध गतिमें निवास करते हैं, परमब्रल परमात्मा इस अपने शरीरमें निवास करता है, कुछ भेद न जाने | बृहद् सामायिकपाटमें कहते हैं
गौरो रूपधरी ज्ञः परिहटः स्थूलः कृशः कर्कशी। गीर्वाणो मनुजः पशुनरकभूः पंडः पुमानंगना ॥ मिथ्यात्वं विदधामि कल्पनमिदं मूढोऽविबुध्यात्मनो । नित्यं ज्ञानमयस्वभावममलं सर्वव्यपायच्युतं ॥ ७० ॥
भावार्थ-हे मूह प्राणी ! तु अपने आत्माको नित्य, ज्ञानमय स्वभावी, निर्मल व सर्व आपत्तियोंसे व नाशसे रहित नहीं जानके ऐसी मिथ्या कल्पना करता रहता है कि मैं गोरा हूं, रूपवान , बलिष्ट हूं, निबल हूं, मोटा हूं. पतला हूं, कठोर हूँ, मैं देव हूं, मनुष्य हूं, पशु हूं, नारकी हूं, नपुंसक हूं, पुरुप हूं, व स्त्री हूं।
मोक्षपाइडमें कहा हैजो इच्छइ णिस्सरिदं संसारमहप्णयाउ रुदाओ। कम्भिधणाण हणं सो झायद भम्पयं सुद्धं ॥ २६ ॥
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११४ ]
योगसार टीका |
भावार्थ- जो जीव भयानक संसार-समुद्रसे निकलना चाहता है तो वह शुद्धात्माको व्यावे । उसीसे कर्म इंधन भरम होगा ।
आला ही जिन है, यही सिद्धांतका सार है । जो जिए सो अप्पा मुहु इह सिद्धं सारु । इंठ जाणेविण जो लंड मायाचारु ।। २१ ।। अन्वयार्थ - ( जो जिष्णु सो अप्पा भुणहु ) जो जिनेन्द्र है वही यह आत्मा है ऐसा मनन करो (इव सिद्धंतहु सारु ) यही सिद्धांतका सार है । (इउ जाणविण) ऐसा जानकर ( जोगड़हु ) हे योगीजनो ! (मायाचार खंड ) मायाचार छोड़ो।
भावार्थ — पीर्थंकरोंके द्वारा जो दिव्यध्वनि प्रगट होती है वही सिद्धका मूल श्री है। उस वाणीको गणधरादि मुनि धारणा में लेकर द्वादशांगकी रचना करते हैं, फिर उसीके अनुसार, अन्य आचार्य ग्रंथ रखते हैं। उनका विभाग चार अनुयोगोंमें किया गया है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग इन चारों होके पढ़ने का सार इतना ही है जो अपने आत्माको परमात्मा के समान समझ लिया जावे।
श्री रत्नकरंड श्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्र कहते हैंप्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ ४३ ॥
भावार्थ - प्रथमानुयोग उसको कहते हैं जिसमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंका कथन हो, महापुरुषों के जीवनचरित्र हो, चौवीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, नौ बलभद्र ऐसे शशलाका पुरुषोंके चरित्र हों, जिसके पढ़नेसे
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योगसार टीका |
[ ११५
पुण्यका हो, जो नकी प्राप्ति व समाधिका भंडार हो, जो सम्यक प्रदर्शक हो । निश्चय व समाधि अपने ही शुद्धात्माको परमात्मा रूप निश्चय करनेसे होती हैं । प्रथमानुयोग में बताया है कि जिन्होंने अपनेको शुद्ध समझके पूर्ण वैरागी होकर आत्मध्यान किया था से ही निर्वाणको पहुंचे हैं। इसलिये वह अनुयोग भी आत्मतत्व झल्कनेवाला है। लोकालोकविभत्तेर्युगपरिवृत्तैश्चतुर्गां ।
आदर्शमव तथामतिवैति का च ॥ ४४ ॥
भावार्थ-करणानुयोग में लोक अलोकके विभागका, काळके गुणोंके पल्टनेका व चारों गतियोंकी भिन्न भिन्न जीवोंकी अवस्थाओंका, विणा व गुणवानका दर्पण के समान ठीक २ वर्णन हैजिससे सम्मज्ञानका प्रकाश होता है। कम के संयोग सांसारिक अवस्था व विभाव परिपतियाँ किसतरह होती हैं उन सबका सूक्ष्म कथन करके यह झटकावा है कि जहाँतक कमका संयोग नहीं हटेगा भवभ्रम नहीं हटेगा व आत्मा तो मापसे कर्मरहित शुद्ध है।
ग्रहमध्यनगाराणां चारित्रोत्परिवृद्धिरथाङ्गम् ।
चरणानुयोगसमयं सन्यज्ञानं विजानाति ॥ ४५ ॥
भावार्थ - जिसमें गृहस्ती व साधुओंके चारित्र की प्राप्ति वृद्धि च रक्षाका उपाय बताया हो व जो सम्यग्ज्ञानको प्रगट करे वह चरणानुयोग है। इसमें भी निश्चय चारित्र खात्मानुभवको बताते हुए उसके लिये निमित्त साधनरूप श्रावक व मुनिके व्यवहार चारित्रके पाटनका उपाय बताया है व यह समझाया है कि निश्चय आस्मतत्वके भीतर चर्या विना व्यवहार चारित्र केवल मोक्षमार्ग नहीं है। आत्माको परमात्मा रूप अनुभव करेगा तब ही सम्यक्चारित्र होगा।
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योगसार टीका |
जीवाजीवतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । योगीपः श्रुतविद्यालोकमतनुते ॥ ४६ ॥
११६ ]
भावार्थ- द्रव्यानुयोग वह है जो दीपकके समान जीव अजीब तत्वोंको, पुण्य पापको बंध व पोको तथा भाव अज्ञान के प्रकाशको प्रगट करे । इसमें व्यवहारनयसे सात तत्वोंका स्वरूप बताकर फिर निश्चयनयसे पताकर यह झलकाया है कि यह अपना आत्मा ही परमात्मा है, यही ग्रहण करनेयोग्य हैं। मोक्षका उपाय एक शुद्ध आत्माका ज्ञान है |
'जो आत्माको लोकर समझना चाहे व आत्माको निर्वाण पथपर ले जाना चाहे उसका कर्तव्य है कि वह चारों ही अनुयोगों का ममी हो व चारों दीमें अपने आत्मा के शुद्ध तब पूर्ण निद्रय हो जायगा कि मोक्षमार्ग व दशांग वाणीका सार एक अपने श्री आत्माको शुद्ध परमात्मा के समान अनुभव करना है ।
की झांकी करे |
समयसारमें कहा है
जो हि देणाभिगच्छदि जम्मणमिणतु केवलं शुद्धं । तं मुदके व लिमिसिणो भर्णति लोगण्पदीया: ॥ ९ ॥
भावार्थ-द्वादशांग वाणीके द्वारा अपने आत्माको परके संयोग रहित केवल शुद्ध अनुभव करता है उसीको लोकके ज्ञाता महाऋषियाने निश्वयसे श्रुतकेवली कहा है. सर्व ग्रंथोंका सार यही है कि फटको छोड़कर यथार्थ यह जान ले कि मैं ही परमात्मा देव हूँ, आपही ध्यान से शुद्धता प्राप्त होगी ।
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योगसार टीका । [११७
मैं ही परमात्मा है। जो परमा सो जि हल जो हले सो परमाणु । इड जाणविगु जोइआ अण्णु म कर लिया ॥२२॥
अन्वयार्थ (जोइआ) हे योगी ! (जो परमाया सो 'जि ह) जो परमात्मा है वहीं मैं हूं (जो एवं सो परमम्पु) तथा जो मैं हूँ सो ही परमात्मा है (इउ जाणेविणु)सा जानकर (अण्णु वियप्प म करह) और कुछ भी विकल्प मत कर |
भावार्थ-गृहां और भी दर लिया है कि महाग करना ऑको छोड़कर केवल एक शुद्ध निश्वयनयस अपने आत्माको पहचान । तब आप ही परमाना दीखेगा । अपने शारीररूपी मन्दिरमें परमात्मादेत्र साक्षात् दिख पड़ेगा । शास्त्रोका ज्ञान संकेत मात्र है । शास्त्र के ज्ञानमें ही जो उलझा रहेगा उसको अपने आःमाका दर्शन नहीं होगा।
यह आत्मा को शब्दोंसे समझमें नहीं आता, मन विचारमें नहीं आता । इन्द को ऋम क्रमसे एक एक गुण व पर्यायको कहते हैं। मन भी कम एक पक गुण व पर्यायका विचार करता है | आल्मा तो अनन्नाप व पर्यायोंका एक अखपतु पिंड़ है। इसका सबा बोध तव ही होगा कि जब शारुतीय चर्चाओंको छोड़कर व सर्व गुणस्थान व मार्गणाओंके विचारको बन्द करके व सर्व कर्मवन्ध व मोक्षक उपायोंकि ऽयंचको त्याग करके व सर्व कामनाओंको दुर करके व मर्च पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे परे होकरके व सर्व मनके . द्वारा उटनेवाले विचार को रोक करके बिलकुल अभंग होकरके अपने ही आत्माको अपने ही आत्माके द्वारा ग्रहण किया जायगा तवं अपने आत्माका सादात्कार होगा। वह आत्मनत्य निर्विकल्प है अभेद है।
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१५८ ]
योगसार टीका ।
इसलिये निर्विकल्प होनेसे ही हाथमें आता है। जब तक रं मात्र भी माया, मिथ्या निदानकी राज्य भीतर रहेगी कोई प्रकास्की कासना रहेगी व कोई मिथ्यात्वकी गंध रहेगी तब तक आत्माका दर्शन नहीं होगा। यही कारण है जो व्यारह अंग नौ पूर्वक धारी द्रव्यलिंगी मुनि शास्त्रों का ज्ञान रात हुये भी व घोर तपश्वरण करते हुये भी अज्ञानी मिया हो रहा है। क्योंकि शुद्धात्माकी
श्रद्धा पर अनुभव मे पूर्ण हो नहीं पहुंचते हैं, उनके भीतर कोई मिथ्यास्वकी शल्य व निदानकी शह ऐसी सूक्ष्म रहजाती है जिसको केवलज्ञानी ही जानते हैं । शास्त्रोंका ज्ञान आत्माकं स्वरूपको समझने के लिये जखती है । जाननेके पीछे व्यवहार नयके वर्णनको छोड करके शुरू पिने काम करते समय भी मनका आलम्बन है। मनन करते करते जब मनन बंद होगा व उपयोग स्वयं स्थिर हो जायगा जब स्वानुभव होगा, तब ही आत्माका परमात्मा रूप दर्शन होगा व परमानंदका स्वाद आयगा | मैं ही परमात्मा हूँ ऐसा विकल्प न करते हुये भी परमामापनेका अनुभव होग | परदेशसे कोई फल ऐसा आया है जिसके स्वादको हम नहीं जानते हैं, हमने उसका स्वाद लिया नहीं हैं, तत्र हमारा पहले तो कर्तव्य है कि हम के गुण दो किमी जान कारसे जिसने स्वयं स्वाद लिया है पूछ कर ठीक २ समझ कि यह फल गुणकारी है, स्वास्थ्यवर्द्धक है, मि है, इत्यादि। जानने के पीछे हमको उस फलके संबंध की चर्चा या विचारावली छोड़कर फलको रसना के निकट लेजाकर व अन्य ओरसे उपयोगको रोककर उस उपयोगको फल स्वाद देनेमें जोड़ना दोगा, तब हमको एकाय होनेपर ही उस फलके का यथार्थ बोध होगा । परि हम उस फलको खाते नहीं हम कभी ओ उस फलके स्वादको नहीं पहचान पाते ।
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योगसार टीका । [११९ लाखों आदमियोंसे फलके गुण सुननेपर भी व पुस्तकोंसे फलके गुण जाननेपर भी हम कभी फलको ठीक नहीं जान पाते । जैसे फलका स्वाद अनुभवगम्य है वैसे ही आप परमात्मा अनुभत्रगम्य है।
समयसारकलशमें कहा हैभूत भान्तमभूतमेव रमसा निमिद्य नई सुधीयद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति न्याहल मोई हटात् । आरमात्मानुभवकाम्यमहिमा व्यक्तोऽयापास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्चतः ।। १२-१॥
भावार्थ-जो कोई बुद्धिमान विवेकी भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालके कर्मबंधको अपनेस एकदम दूर करके व सर्व मोहको बलपूर्वक त्याग करके अपने ही भीतर नियसे अपनेको देखता है तो उसे साक्षात् यह देखनेमें आयगा कि मैं ही सर्व कर्मकलङ्ककी कीचसे रहित अविनाशी एवं परमात्मा देव हूं जिसकी महिमा उसीको विदित होती है जो स्वयं अपने आत्माका अनुभव करता है। तत्वानुशासनमें कहा है--
कर्मजेभ्यः समस्तेभ्यो भावेभ्यो भिन्नमन्वहं ।
ज्ञस्वभावमुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ॥ १६४ ॥ भावाय-मैं सदा ही कर्मोक निमितसे या समतासे होनेवाले सर्व ही भात्रोंसे जुदा हूं, ऐसा जानकर अपने ही आत्माके द्वारा अपने आत्माको देखे कि यह परम उदासीन एक ज्ञायक स्वभाव है।
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१२० योगसार टीका ।
आत्मा असंख्यातप्रदेशी लोकप्रमाण है। सुद्धपएसह पूरियउ लोयायासपमाणु । सो अप्पा अणुदिण मुणहु पावहु लहु णिव्याशु ॥२३॥
अन्वयार्थ-(लोयायासपमाणु सुद्धपएसह पूरियर) जो लोकाकाशप्रमाण असंख्यात शुद्ध प्रदेशोसे पूर्ण है (सो अप्पा) यही यह अपना आत्मा है ( अणुदिण मुणह ) रातदिन ऐसा ही मनन करो व अनुभव करो (णिन्नाण ला पावह) निर्वाण शीघ्र ही प्राप्त करो।
भावार्थ-पहले वारंवार कहा है कि आत्माका दर्शन निर्वाणका मार्ग है। यहां बताया है कि आत्माका आकार लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है। कोई भी वस्तु जो अपनी सत्ता रखती हैं कुछ न कुछ आकार अवश्य रखती है। आकार विना वस्तु अवस्तु है । हरएक द्रव्यमें छः सामान्य गुण पाए जाते हैं
(१) अस्तित्व-वस्तुका सदा ही बना रहना । हरएक वस्तु सदास है, उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप सत्पनेको लिये हुए हैं। वे पर्यायके उपजने विनशनेकी अपेक्षा उत्पाद व्यय व बने रहनेकी अपेक्षा घौटय है।
(२) वस्तुत्व-सामान्य विशेष स्वभावको लिये हुए हराएक वस्तु कार्यकारी है, व्यर्थ नहीं है।
(३) व्यत्व-स्वभाव या विभाव पर्यायोंमें हरएक वस्तु परिणमनशील है तो भी अखण्ड बनी रहती है ।
(४) प्रमेयत्व-वस्तु किसीके द्वारा जाननेयोग्य है | यदि जानी न जावे तो उसकी सत्ता कौन बतावे ।
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योगसार टीका |
[ १२१
(५) अगुरुलघुत्व - वस्तु कभी अपने भीतर पाए जानेवाले गुणको कम या अधिक नहीं करती है। मर्यादा मे कम या अधिक नहीं होती है।
(६) प्रदेश-एक वस्तु कुछ न कुछ आकार रखती है, प्रदेशको रखती है. क्षेत्रको घेरती है। जितने आकाशको एक अविभागी पुल पर रोकता है उतने सूक्ष्म आकाशको एक प्रदेश कहते हैं । वह एक नाम है। इस मापसे लोकव्यापी छः की मी तो एक जीव द्रव्य, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश चारों समान असल्यात प्रदेशधारी हैं। आकाश अनंत प्रदेशवारी है। काला एक प्रदेशधारी है।
संख्यात अलग २ स्केचप में सर्वत्र हैं ।
अनंत आकाशके मध्य लोकाकाश है, उसमें छहीं द्रव्य सयंत्र हैं। धर्म, अ एक एक लोकव्यापी है, काला हैं, सब लोक पूर्ण हैं। पुल परमाणु व जीव सूक्ष्म शरीरवारी एकेन्द्रिय सर्वत्र हैं, चाहर कहीं कहीं हैं। कोई स्थान इन छ: बिना नहीं है । जीवद्रव्य अखण्ड होनेपर भी मापसे लोकाकाश प्रमाण असंख्यातप्रदेशी है। जैन सिद्धांत में अल्प या बहुत्वका ज्ञान करानेके लिये गणनाके २१ मे बताए हैंसंख्यान तीन प्रकार-जयन्त्र, मध्यम उत्कृष्ट | असंख्यात ३ प्रकारपरीतासंख्यात फासंख्यात असंख्यासाख्यान हरएक जधन्य, मध्यम उत्कृष्ट नौ प्रकार, अनंत नौ प्रकार परीतानंत युक्तानंत अनंतानंत हरएक जघन्य मध्यम, उत्कृष्ट तीनों प्रकार | मनुष्यकी बुद्धि अल्प हैं इससे क्रम व अधिकका अनुमान होनेके लिये २१ भेद गणना बताए हैं |
हरएक आत्मा अखंड असंख्यात प्रदेशी है तथा यह परम शुद्ध है। सर्व ही प्रदेश शुद्ध हैं, स्वभावसे स्फटिकके समान निर्मल हैं।
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१२२] योगसार टीका । कर्ममल, नोकममल, रागादि भाव कर्ममलसे रहित हैं, स्त्रके समान परम प्रकाशमान है, ज्ञानमय है, पानीका समान सब जाननेयोग्यको झलकानेवाले हैं, आकाशके समान निलेप है । अपने आत्माको शुद्ध असंख्यातप्रदेशी ल्यानमें लेकर अपने शरीरके भीतर ही देखना चाहिये । यद्यपि यह आस्मा शरीरके भीतर व्याप्त है, शरीर प्रमाण आकारधारी है तथापि प्रदेशोंमें असंख्यात ही है।
___ इस आत्मामें संकोच विस्तार शक्ति हैं | नामकर्मके उदयस शरीरप्रमाण आकारको प्राप्त हो जाता है। जैसे दोपकका प्रकाश छोटे थड़े वर्तनमें रक्खा हुआ वर्तनक समान आकारका हो जाता है । साधकको अपने भीतर ऐसे आत्माकै आकारको शुद्ध देखना चाहिये। अपनी ही मूर्ति के समान आत्माकी मूर्तिको तदाकार देखना चाहिये। जिस आसनसे ध्यान करे उसी आसनरूप पद्मासन या पयंकासन या कायोत्सर्ग अपने आत्माको शुद्ध देखना चाहिये । सिद्धका आकार भी अंतिम शरीरप्रमाण पद्मासन आदि किसी आकार रूप है। प्रदेश अमूर्तीक द्रव्योंके अमूर्तीक व मृतक पुलके मूतीक होते हैं। जीप वर्ण, गंध, रस, स्पर्शस रहित अमूर्तीक है । उसके सर्व प्रदेश भी. अमूर्तीक हैं। गोम्मटसार जीवकांडमें कहा है
आगासं वजित्ता सब्बे लोगम्मि चेव गरिय बहिं । वावी धम्माधम्मा अवदिदा अल्दिा णित्रा ॥ ५८२ ॥ लोगस्स असंखेजदिभागप्पहुदि तु सल्बलोगोत्ति । अप्पपदेसविसप्पणसंहारे वावडो जीवो ॥ ५८३ ॥ पोमालदवाणं पुण प्रयपदेसादि होति भजणिज्जा । एकको दु पदेसो कालागुण भुवो होदि ॥ ५८४ ॥
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योगसार टीका। संखेजार्सखेज्डाणता वा होति पोकालपदेसा । लोगागासेव टिदी एगपदेसो आगुस्स हो ॥ ८ ॥ लोगागासपईसा छद्दबेहि फुडा सदा होति । सबलोगागासं अण्णेहिं शिवजिर होदि ॥ ५८६ ॥
भावार्थ-धर्स, अधर्म द्रव्य स्थिर चंचलता रहित लोक व्यापी हैं, लोकके बाहर नहीं हैं | जीव अपने प्रदेशोंको संकोच विस्तारके कारण लोकके अनख्यातवे भाग लेकर सर्वलोकी भर हैं । पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशको लेकर सर्वत्र हैं। स्कंधकी अपेक्षा उमकं प्रदेश परमाणुकी गणना सन्ध्यान असख्यात तथा अनंत होते हैं। कालाणु एक एक प्रदेश रखते हुए ध्रुव अन्नख्यात है। लोकाकाशके प्रदेश छः द्रव्यसे भरे हुये सदा रहते हैं। अलोकाकाशमें अन्य पांच द्रव्य नहीं है । इसतरह नित्य बने रहनेवाले लोकमें अपने आत्माको शुद्ध आकारमें देखना चाहिये। तत्वानुशासनमें कहा है
तशा हि चेतनोऽसंख्यादेशो मूर्तिवर्जितः ।
शुद्धात्मा सिद्धरूपोऽस्मि ज्ञानदर्शनलक्षणः ।। १४७ ॥ भावार्थ-अपने आत्माको ऐसा भ्यावे कि यह चेतन है, असंख्यात प्रदेशी है, वर्णादि मूर्ति रहिन है, शुद्ध स्वरूपी है, सिद्धक समान है व ज्ञान दर्शन लक्षणवान है ।
व्यवहारसे आत्मा शरीरप्रमाण है। णिच्छह लोयपमाण मुणि ववहारइ सुसरीरु । एहउ अप्पसहाउ मुणि लहु पावहु भवतीरु ।। २४ ।।
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१२४]
योगसार टीका। अन्वयार्थ (णिच्छइ लोयफ्माण कबहार मुसरीरु मुणि) आत्माको लोकप्रमाण व व्यवहार नयसे अपने शरीरके प्रमाण जानो (एहन अप्पसहाउ मुणि) पेसे अपने आत्माके स्वभावको मनन करते हुए ( भवतीरु लड्डु पावह ' यह जीव गमारक तरको शीष्ट ही पालेता है अर्थात् शीघ्र ही संसार-सागरने पार होजाता है।
भावार्थ--यह आत्मा देव हरएक संसारी जीवके भीतर उसके शरीरभरमें व्यापकर रहता है, उसके असंख्यात प्रदेश संकोचकर शरीरप्रमाण होजाते हैं। आत्मामें संकोच विस्तार शक्ति है जो नामकर्मसे उदयसे काम करती है | एक छोटा बालक जन्मके समय अपने छोटे शरीरमें उत्तने ही प्रमाणमें अपने आत्माको रखता है। जैसे २ उसका शरीर फैलता है आत्मा भी फैलता है । लोकमें सबसे छोटा शरीर लमध्यपर्यातक सूक्ष्म निगोद जीवका होता है । जो 'धनांगुलक असंख्यात- भाग है व सबसे बड़ा महामत्स्यका होता है, जो मत्स्य अन्तिम समुद्र स्वयंभूरमणमें होता है । मध्यलोकमें असंख्यात द्वीप व समुद्र हैं । एक दूसरेसे दुने दूने चौडे हैं । पहला मध्यमें जम्बुद्वीप है जो एक लाख योजन चौड़ा है । । ___ यह मच्छ एक हजार योजन लम्बा होता है । बीचकी अवगाहनाके अनेक शरीर होते हैं। एक मूक्ष्म निगोद शरीरधारी जीव संसारमें भ्रमण करते हुए कभी महामत्स्य होसकता है व महात्म्य भ्रमण करते हुए कभी सूक्ष्म निगोद होसकता है । तौभी आत्माके प्रदेश असंख्यातस कम नहीं होते हैं। जैसे एक कपड़े की चादर पचास गजकी हो, उसको तह कर डाले तो एक गजक विस्तारमें होसकती है, मापमें ५० गजसे कम नहीं है । इसीतरह आत्माके प्रदेश संकोचसे कम प्रदेशके देहमें आजाते हैं। अतएव निश्चयनयसे तो यह जीव असंख्यात प्रदेश ही रखता है, व्यवहारमें शरीरप्रमाण कहते हैं।
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योगसार टीका। [ १२५ शरीरमें रहते हुए भी सात प्रकारके समुदघातके समय जीव शरीरके. प्रदेशोंको फैलाकर शरीर के बाहर होता है, फिर शरीरप्रमाण होजाता है।
गोम्मटसार जीकांडमें कहा है-- मूलसरीरमछडिय उत्तरदेहस्स जीवपिण्डस्स । णिग्गमणं देहादो होदि सनुग्घावणामं तु ॥ ६६७ ।। वेयणकसायगुम्चियो य मरणतियो समुग्वादो । तेजाहारी छटो सत्तमओ केवलीणं तु ॥ ६६६ ॥
आहारमारतियदुर्गपि णियमेग एगदिसिंग तु। दसदिसि गदः हु संसा पंच समुग्धादया होति ॥ ६६८ ॥
भावार्थ-मुल शरीरक न छोड़कर उत्तर देह अर्थात कामण, तेजस देह सहित आस्माके प्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलनेको ममुद्घात कहते हैं। उसके सान भेद हैं:.--
(2) वेदना-तीन रागादिके कसे शरीरको न छोड़कर प्रदेशोंका बाहर होना ।
(२) कपाय-तीन कपायके उद्यसे परके घातके लिये प्रदेशोंका बाहर जाना।
(३) विक्रिया-अपने शरीरको छोटा या बड़ा करते हुए या एक शरीरके भिन्न अनेक शरीर न करते हुए आत्माके प्रदेशोंका फैलाना, जैसा देव, नारकी, भोगभूमिवासी तथा चक्रवर्तीको या, ऋद्धिधारी साधुको होता है।
(४) मारणांतिक-मरणके अंतिम अंतर्मुहूर्तमें जहांपर मरके जन्म लेना हो उस क्षेत्रको स्पर्श करनेके लिये आत्माके प्रदेशोका बाहर जाना फिर लौट आना तब मरना ।
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१२६] योगसार टीका।
(५) तेजस-इसके दो भेद है-अशुभतेजस, शुभ तैजस । किसी अनिष्ट कारणको देखकर क्रोधसे संतप्त संयमी महामुनिके मृलशारीरको न छोड़कर सिंदूरके वर्ष बारह योजन लम्या नव योजन चौड़ा सूच्यंगुलके संख्यात भाग मोटा अशुम आकृति सहित बाए कसे युलपाकार विलय भिम वस्तुपो मल र पि.र उस मुनिको भी भस्म कर दे व उसे दुर्गति पहुँचाये सो अशुभ तैजस है । जगतको रोग व दुर्मिन आदिसे पीड़ित देखकर जिस मन्बनी मुनिको करुणा उत्पन्न होजावे उस दाइने कंधेसे पूर्वोक्त प्रमाणधारी शुभ आकारवाला पुरुषाकार निकलकर रोगादि भेटकर फिर शरीरमें प्रवेश कर जावे सौ शुभ नेजस है।
(६) आहार-ऋद्धिधारी मुनिको कोई तखमें संशय होनेपर व दूर न हो सकने पर उसकें. मस्तक शुद्ध स्फटिकके रंगका एकहाथप्रमाण पुरुषाकार निकलकर जहाँ कहीं केवली हों उनके दर्शन करनेसे संशयको मिटाकर अन्तर्मुहूर्तक भीतर लौट आता है।
(७) केवलि-आयुकभकी स्थिति कम व शेष कर्मोकी स्थिति अधिक होनेपर केवलज्ञानीक आत्मप्रदेश लोकव्यापी होकर फिर शरीरप्रमाण हो जाते है, आहार व मारणांतिक समुद्यानों में एक दिशा ही की तरफ प्रदेशोंका फैलाय होकर गमन होता है, जब कि शेष पांचोंमें दशों दिशाओंमें गमन होता है।
इन ऊपर सात कारणों के सिवाय जीव शरीरप्रमाण रहता है व सिद्ध भगवानका आत्मा भी अन्तिम शरीरप्रमाण रहता है। नामकर्मका नाश हो जानेके पीछे उसके उदयके विना प्रदेशोंका संकोच या विस्तार नहीं होता है।
इष्टोपदेशमें पूज्यपाद महाराज कहते हैं
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योगमार नीला। स्वसंवेदनमुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अान्यतसहिष्यवाना मा लोकालोकविलोकनः ॥ २१ ॥
भावार्थ-ह. आत्मा लोकालोकको देखनेवाला अत्यंत सुखी नित्य द्रव्य है, स्वानुभवसे ही इसका दर्शन होला है | व अपने शरीरके प्रमाण हैं । अापत्र परमानंदपद अपने शुद्ध आत्मादेवको शरीरके प्रमाण आकारधारी मनन करे व ध्यावे तो शीव ही निर्वाण पाये।
जीव सम्यक्त विना ८४ लाख योनिमें भ्रमण
करता है। चरालीलपरवाह मिनिट काल अणाइ अणंतु। पर सम्मत्त ग ल जिउ एहउ जाणि णिमंतु ॥२५॥
अन्वयार्थ--(अणाइ काल) अनादिकालसे (चउरासी लक्खद फिरि ) यह जीव ८४ लाख योनियोंमें फिरता आरहा है । अणंतु ) व अनंतकाल तक भी सम्यक्त बिना फिर सक्ता है। (पर सम्मत्त ण लाद । परन्तु अबतक इलने सम्यग्दर्शनको नहीं पाया (जिउ है जीव ! (णिभंतु एहर जाणि) निःसंदेह इस यातको जान ।
भावार्थ-- सानपदार्थों का समूह होने से यह लोक तथा संसार अनादि-अमंत है। संसारी जीय अनादिसे ही कर्मबन्ध से ग्रसित हैं व नए कर्म बांधते हैं, पुराने कर्मोको छोड़ते हैं। मोहनीयकर्मके उदयसे मिथ्याष्ठी अज्ञानी, असंयमी होरहे हैं। उनको शरीरका व इंद्रियोंक सुखोंका व इंद्रियसुखके सहकारी पदार्थीका तीन मोह रहता है। इसीसे वे संसारमें नाना शरीरोको धार करके भ्रमण किया करते हैं।
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१२८ ] योगसार टीका । सम्यग्दर्शन आत्माका स्वभाव यलका देता है । इंद्रिय सुखस श्रद्धा हटा देता है । नसार शरीर भोगोंम वैराग्यभाव पैदा कर देना है, स्वाधीनता या पोका मातो बन्लाना है तो न्यि मामा भोक्ता कर देता है । सम्यनकं प्रकाशम संसारके भ्रमणसे अरुचि होजाती है | एक इफे सम्यक्त होजानेपर यह जीव संसार दशामें अर्द्धपुगलपरिवर्तन कालम अधिक नहीं रहता है । यद्यपि वहां भी अनंतकाल है नथापि सीमित है । समयको सीन ही निवाणका भागी होजाता है।
सम्यसके बिना यह जीब नरकके भवाम दशहजार वर्षकी आयुसे लेकर अनीस सागर तक, लियचगतिक भवामें एक अंतर्मुहूतसे लेकर तीन पत्यकी आयु तक मनु यगतिक नवों में एक अंतमुहूर्तमे लेकर तीन पल्य: आयु तक, देवमतिके भवामें दशहजार वर्षकी आयुमे लेकर नौमें वे रिस्कके इकनोस सामगरको आयु तकक सर्व जन्म वारवार धारण कर चुका है । न अबेनिकम ऊपर नौ अनुदिश व पाच अनुत्तरों में व मोक्षमें सम्पन्द्रष्टी ही जाता है। संसारभ्रमणकी योनियां चौरासीलाख है । जहां संसारी जीव उत्पन्न होते हैं उसको योनि कहते हैं, वे मुलमें नौ हैं।
श्री मोमट्टसार जीवकांड में कहा हैसामागा व गवं पव जोगी इनि विस्था । लक्लाण चरसीदी जोणीओ होति णियमेण ।। ८८ ॥ णिच्चिदरधदुसत्त व तरुदम् वियलिदियम् उच्चव । सुरणिश्यतिरियचउरो चोइस मशुए सदसहम्सा ॥ ८१ ॥
भावार्थ-मूल भेद योनियोंके गुणों के सामान्यमे नौ होते हैंसचिस, अचित्त, मिश्र तीन; शीत, उष्ण, मिश्र तीन; संवृत (हकी),
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योगसार टीका।
[ १२२ विकृत (खुला) व मि तीन । हरएक योनिम तीनोंमेंसे एक एक गुण रहेगा । जैसे सचिस, शीत व संवृत हो या अचित्त शीत संवृतं हो इत्यादि । इसीके ८४ लाख मंद गुणोंकी तरतमताकी अपेक्षासे हैं। वे इसप्रकार हैं(१) नित्य निगोद साधारण वनस्पति जीवोंकी ७ लाख योनियां (२) चतुर्गति या इतरनिगोद साधा वन०, ७ , , (३) पृथ्वीकायिक जीवोंकी (४) जलकायिक जीवोंकी (५) अग्निकायिक जीवोंकी (६) वायुकायिक जीवोंकी (७) प्रत्येक वनस्पति जीवोंकी (८) द्वेन्द्रिय जीवोंकी (९) तेन्द्रिय जीवोंकी (१०) चौन्द्रिय जीवोंकी (११) देवोंकी (१२) नारकिवाकी (१३) पंचेन्द्रिय निर्यचौकी (१४) मनुष्योंकी
कुल र लाख योनियां श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें सायतकी महिमा बताई है - न सम्याल्वमन किश्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यति । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ॥ ३४ ॥ सम्यग्दर्शनशुद्धानारकतिर्यवनपुंसकत्रीत्वानि । . दुष्कुल बिकृताल्पायुदेरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यतिकाः ।। ३५॥
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१३०१ योगसार टीका
भावार्थ-तीन लोफमें व तीन कालमें सम्यग्दर्शनक समान जीवका कोई भी हितकारी नह: है तथा मिध्यादर्शनके समान जीवका कोई भी बुरा करनेवाला नहीं है । सम्यग्दर्शनको शुद्ध पालनेवाले जीव पांच अहिंसादि ब्रतोस रहित होनेपर भी मरकरके नारकी, पशु ल नासन व श्री नीद कुरमाने, अंग रहित, अल्प आधुवारी व दरिद्री नहीं होते हैं । यदि सम्यक्तके पहले नरक, नियंच या अल्प आयु बांधी हो तो पहले नकर्म, व भोगभूमिमें जाचंगे।
साधारण नियम है कि देव व नारकी सम्यक्ती नरके मनुष्य होंगे व मनुष्य व पशु सम्यक्ती मरके स्वर्गवासी देव होंगे, मनुष्यणी व देवी नहीं होंगे । आत्मदर्शन सम्बक्तीको होजाता है, यही निर्माण पहुंचा देता है।
शुद्ध आत्माका मनन ही मोक्षमार्ग है। सुद्ध सच्चेपणु युद्ध जिणु केवलणाणसहाउ । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइ चाहउ मिवलाहु ॥२६॥
अन्वयार्थ—( जइ सिवलाहु चाहर ) यदि मोक्षका लाभ चाहते हो तो (अशुदिणु सो अप्पा मुणह) रात दिन उस आत्माका मनन करो जो ( मुद्ध) शुद्ध वीतराग निरंजन कर्मरहित है ( सच्चेयणु ! चेतना गुणधारी है, या ज्ञान चेतनामय है (बुद्ध) जो स्वयं बुद्ध है. (जिणु ) जो संसार-विजयी जिनेन्द्र है ( केवलणाणसहाउ) व जो केवलज्ञान या पूर्ण निराधरण ज्ञान स्वभावका धारी है।
भावार्थ-यहां निर्वाणको शिष कहा है। क्योंकि निर्माणपद् परम कल्याणरूप व परमानन्दमय है। एक दफे आत्मा शुद्ध होजाता है, फिर अशुद्ध नहीं होता है। जैसे चना भूना हुआ फिर उगता
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योगसार टीका ।
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नहीं है । ऐसे त्रिपदके लाभका उपाय रातदिन अपने आत्माके स्वभावका मनन है | आत्मा स्वयं मोक्षरूप है। आत्मा स्वयं परमा - त्मा है। अपने शरीररूपी मन्दिरमें अपने आत्मादेवको देखना ही चाहिये कि यह शरीरप्रमाण है तथा यह शुद्ध है। इसमें कार्मण, तेजस, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, पाँचों पुरचित शरीरोंका सम्बन्ध नहीं है । न इसमें कोई संकल्प विकल्परूप मन में न फुल रचित वचन है | इसमें कोई कर्मके उदयजनिन भाव राग, द्वेष, मोह आदि नहीं है, यह परमवीतराग है। इसने कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण ये छःकारक विकल्प नहीं है न इसमें गुणगुणीक भेद हैं। यह एक अखण्ड अभेद सामान्य पदार्थ है । यह ज्ञान स्वभाव है, सहज सामायिक ज्ञानका भण्डार है। इसमें कोई अज्ञान नहीं है । इसका स्वभाव निर्मल दर्पण के समान पर प्रकाशक हैं । सर्व जाननेयोग्यको झलकानेवाला, एक समय में खण्डरहित सबैको विषय करनेवाला यह अद्भुत ज्ञान है । विना प्रयास ही ज्ञानमें .झे झलकते हैं ।
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यह आत्मा निरन्तर ज्ञानचेतनामय है । अपने शुद्ध ज्ञान स्वभावका ही स्वाद लेनेवाला है, निरन्तर स्वानुभवरूप है | यह पुण्य-पापकर्म करने के प्रपंचसे व सांसारिक सुखदुःख भोगने के किकरूपसे दूर हैं । कर्मचेतना और कर्मफलचेतना दोनों चेतनाएं अज्ञान'चेतना हैं | आत्मा ज्ञानचेतनामय है । यही सत्य बुद्धदेय है। आपसे ही आपको जाननेवाला स्वयं बुद्ध है और कोई बौद्धोंका देवता युद्ध नहीं है। सचा बुद्धदेव यह आत्मा ही है, यही सच्चा जिन है । सर्व आत्माके रागादि व कर्मादि शत्रुओंको जीतनेवाला है और कोई समवसरणादि लक्ष्मी सहित जिन है सो व्यवहार जिन है। वहां भी विश्वय जिन जिनराजका आत्मा ही है।
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१३२ ]
योगसार टीका ।
इसतरह निज आत्माको परम शुद्ध एकाकी मनन करना चाहिये तब कोई लौकिक कामना नहीं रखना चाहिये कि कोई चमत्कार सिद्ध हो व कोई ऋद्धिसिद्धि हो व लोकमें मान्यता हो व प्रसिद्धि हो । केवल एक अपने आत्मा विकासकी भावना रखके आत्माको ध्याना चाहिये । ध्यानकी शक्ति बढ़नेसे स्वयं कर्मोकी निर्जरा होती जायगी, नवीन कमौका सेवर होता जाएगा और यह आत्मा स्वयं शुद्ध होता हुआ शिवरूप हो जायगा । समयसार कलशामें कहा है
चिच्छतिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयं ।
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावा: पौद्धलिका अमी ॥३-२ ॥ सकलमपि विहायहाय चिच्छक्तिरिक्तं
नववि
इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात्
कलयतु परमात्मानमात्मन्यनन्तं ॥ ४२॥ भावार्थ-यह जीव चैतन्य शक्तिसे सर्वांगपूर्ण है। इसके सिवाय सर्व ही रागादि भाव पुगलकी रचना है। वर्तमानमें चैतन्यशक्तिके सिवाय सबै ही पापको छोड़कर व चैतन्य शक्तिमात्र भावके भीतर भले प्रकार प्रवेश करके सर्व जगतके ऊपर भले प्रकार साक्षात् प्रकाशमान अपने ही आत्माको जो अनंत है, अनंतगुणांका भंडार है, अपने ही भीतर आत्मारूप होकर आत्माको अनुभव करना योग्य है। आपने ही आपको व्याना चाहिये ।
मोक्षपाहुडुमें कहा है- .
अप्पा चरितवंतो दंसणणाण संजुदो अप्पा |
सो झायो णि णाऊ गुरुप्रसारण ।। ६.४. ॥. --
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योमसार टीका। [१३३ भावार्थ--यह आत्मा दर्शनज्ञान माहित है, वीतराग चारित्रबान है, इसको गुरुके प्रसादसे जानकर सदा स्याना चाहिये ।
निर्मल आत्माकी भावना करके ही मोक्ष होगी।
जाम ण भावहु जीव तुटुं गिम्मलअप्पसहाउ। तामण लम्भइ सिगमणु जहिं भानहु नाहि जाउ ॥२७॥
अन्वयार्थ (जीर हे जीव (जाम तुहूं णिम्पल अप्प सहारण भावह ) जबतक द निमल भात्माके स्वभावकी भावना नई करता । नाम सिगमणु ण लगभइ ) तबतक न भोश नहीं पासकना ( जाई भावह नाहि जाउ । जहां चाहे वहा तू जा।
भावार्थ-यही फिर भी दृढ़ किया है कि शुद्ध आत्माके स्वभावकी भावना ही पल, संसार-सागरसे पार करनेवाली नौका है । वह निश्चय रत्नत्रय बाप है, शुद्धात्मानुभव स्वरूप है । यही भाव संवर व निर्जरातन्त्र है | इस भावकी प्राप्रिय लिये जो जो साधन किये जाने हैं. उसको व्यवहार धम सा निमिन कारण कहते हैं। कोई अज्ञानी व्यबहार व हमें उलझ जात्र, निम्बर धर्मका लक्ष्य छोड़ दे तो यह एक पा भी नोक्षपथ पर नहीं चल सका।
_ निश्चय धर्म तो अपने ही भीतर है बाहर नहीं है, परन्तु उसको जात करनेके लिये गृहस्योंको यह उपदेश है कि श्री जिनमंदिरोंमें जाकर देवका दर्शन व पूजन करो, गुरु महाराज की सेवामें जाकर वयात्य करो | शास्त्रभवनमें जाकर स्वाध्याय करो, सम्मेदशिखर, गिरनार, पावापुर, बाहुबली, मांगीतुंगी, मुक्तागिरि आदि तीर्थस्थानों की यात्रा करो, सामायिक करनेफे लिये एकांत स्थान उपवन, नदी, तर, पर्वत आदिमें बैठो। प्रोग्धशालामें बैठकर उपवास करो। ये सब
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योगसार टीका। कार्य निमित्त मात्र हैं । कोई अज्ञानी कैथल निमित्त मिलानेकोही मोक्षमा झालेले पर इसकी सूये। मन्दतदिन तीर्थादि व प्रतिमादिके आलम्बनमे अपने भीतर आत्माका दर्शन व पूजन या आत्माम्मी नार्थकी यात्रा की जाये तब ही निमित्तोंका मिलाना' सफल है।
इसीतरह साधुओंको उपदेश है कि एकांत वन, पर्वत, गुफा, नदी, तट, ऊजड़ मकान, पर्वतका शिखर व अत्यन्त ही शुन्य स्थलमें बैठकर ब आसन लगाकर ज्यानका अभ्यास करो, कामको पुष्ट न करो, इन्द्रियदमन करो, चातुर्मासके सिवाय नगरके बाहर पांच दिन व ग्रामके बाहर एक दिनमे अधिक न ठहरो, गृहस्थक घर भिक्षा लेकर तुर्न वनमें लौट जाओ, नग्न रहकर शीत, उष्ण, डांस, मच्छर, नग्नना, बी आदिको बाईस परीपह सहन करो, मौन रहो, मन, वचन, काय गुमिको पालो, मार्गको निरखकर चलो | मुनियोंकी संगतिमें रही. शास्त्रपाठ करो, तत्वोंका मनन करो, नीर्थयात्रा करो।
ये सब निमित्त हैं। इनको मिलाकर साधुको शुद्धास्माका अनुभव करना चाहिये । कोई अज्ञानी साधु इन बाहरी क्रियाओंको ही मोक्षमार्ग मानकर सन्तोषी हो जाये और अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका दर्शन ममन व अनुभव न करे तो वह मोक्षमार्गी नहीं है, वह संभारवर्द्धक है, पुण्य बांधकर भवमें भ्रमण करनेवाला है।
__ वास्तवमें अपने आस्माकी निर्मल भूमिमें चलना ही चारित्र है, यही मोक्षमार्ग हैं, ऐसा दृढ़निश्चय रखके साधकको इसी तत्व लाभका उपाय करना योग्य है । समाधिशतकमें कहा है
ग्रामोऽयमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम् । दृष्टालना निवसन्तु विवितात्मैव निश्चलः ॥७३॥
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सांगसारक। भावार्थ-जो आत्माको न देखनेवाले बहिरात्मा हैं उनको यह दोप्रकारका विकल्प होता है कि ग्राममें न रहो वनमें ही रहो, क्नमें रहनेसे ही हित होगा। वे बननिवाससे ही सन्तोषी होजाते हैं। परंतु आत्मा के देखनेवालोंका निवास परभावोस भिन्न निश्चल एक अपना शुद्धात्मा ही है, वे निमित्त कारण मानसे मंतुष्ट नहीं होते हैं। आत्मामें निवासको ही अपना सचा आसन जानते हैं। माक्षपाड़में कहा है
जो इच्छद हिम्मरिद संसारम्हाणवाट रहाओ। कम्भिवणाण इलणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ॥ २६॥ .
भावार्थ-जो कोई इस भयानक संसार सागरसे पार होना चाहे व कर्म-ईंधनको जलाना चाहे तो उस अपने शुद्ध आत्माका ध्यान करना चाहिये । आत्माका ध्यान ही मोक्षमार्ग है । जो आत्मरसिक है वही मोक्षमार्गी है।
त्रिलोकपूज्य जिन आत्मा हो है। जो तइलोयह अंउ जिणु सो अप्पा णिरु बुत्तु । पिछयणइ एमइ भणिउ एहउ जाणि गिभंतु ॥ २८ ।।
अन्वयार्थ (जो तइलोयह झेड जिणु) जो नीनलोकके प्राणियों के द्वारा ध्यान करने योग्य जिन है (Ar अप्पा णिरु वुभु। वह यह आत्मा ही निश्वयसे कहा गया है । णिच्छयणइ एमड़ भाणउ ) निश्चयनय ऐसा ही कहती हैं ( एहर णिभंतु जाणि :) इस बातको संदेह रहित ज्ञान ।
भावार्थ-यहाँ यह बताया है कि यह आत्मा ही वास्तषमें श्री जिनेन्द्र परमात्मा है जिसको तीनलोकके भत्तजन व्याते है, पूजते
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१३६ ] योगसार टीका। है, मानते हैं तो इन्द्र प्रसिद्ध है जैसा इस गाथामें कहा है। ये सब अरहंत परमात्माको नमन करते हैं।
भवणालय चालीसा वितर देवाण होंति बनीला । कष्पामर चौवीसा चन्दा नूरा गरो लिरिओ।
भावार्थ-भवनवाली देव, असुर कुमार, नागकु०, विशुतकु०, सुवर्णकु.८, अग्निकु०, वाताः, स्तनितकु०, उदधिकु०, द्वीपकुछ, दिककुमार ऐस दश जातिके होते हैं। हरएकमें दो दो इंद्र, दो दो प्रत्येन्द्र होते हैं । इसतरह चालीस इन्द्र हुए | व्यंतर देव आठ प्रकाके होते हैं-किन्नर, किंपुरुष, नहोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाघ । इनमें भी दो दो उन्द्र, दो दो प्रत्येन्द्र इसतरह बत्तीस इन्द्र हुए। सोलह स्वर्ग में प्रथम चारमें चार, मध्य आठमें चार, अन्त चारमें चार ऐसे बारह इन्द्र, शारद प्रत्येन्द्र इसत्तरह २४ हुए | ज्योतिषी देवोंमें चन्द्रमा इन्द्र, मुय प्रत्येन्द्र, मनुष्यों में इन्द्र चक्रवर्ती, पशुओंमें इन्द्र अष्टापद, नब १०० इन्त्र नमस्कार करते हैं।
नमस्कार दो प्रकारका होता है. व्यवहार नमस्कार, निश्चय नमस्कार | जहां शरीरादि बहरी पदार्थों की प्रशंसाकं द्वारा स्तुति हो, वह व्यवहार ननकार है । जहाँ आत्माकं गुणोंकी स्तुति हो वह निश्चय नमस्कार है । में अवहन्तके शरीरकी झोभा कहना कि वे परम देदीप्यमान हैं, १७०८ लक्षणोंके धारी हैं, निरक्षरी वाणी प्रगट करते हैं, समवसरण सहित हैं, बारह सभामें बैठे प्राणियोंको उपदेश देते हैं । यह सब ठसवहार स्तुति है।
भगवान अरहन्त अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त बीर्यके धारी है, परम वीतराग हैं, परमानन्दमय है, असंख्यात प्रदेशी हैं, अमूर्तीक है, इत्यादि | आत्माश्रित स्तुति सो
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योगसार टीका। [१३७ निश्चय स्तुति या नमस्कार है | अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पांच परमेष्टीकी आत्माकी स्तुति सोहरएक आत्माकी स्तुति हैं। क्योंकि निश्चयसे हरएक आत्मा आत्मीक गुणोंका भण्डार है। जगतकी सब आत्माएं निश्चयनयसे ममान शुद्ध है अतएव तीन लोकके प्राणी जिसको व्याले हैं, पूजते हैं व वंदते हैं. वही परमात्मा या आत्मा हैं, वही में है। मैं ही त्रिलोकपृय परमात्मा जिनेन्द्र हूँ ऐसा भ्रान्ति रहित निश्चत्रमे जानना चाहिये । तश और किसी दूसरे परमात्माकी ओर दृष्टि न रखकर दो भिन्न २ व्यक्तियोंमें ध्याता व भ्येयकी कल्पना न करणं आपहीको भ्याता व ध्येय मानके अद्वैत कक ही भावमें तल्लीन हो रही मोक्षमार्ग है । समयसारमें कहा है
यवहारो भासन जनो देह मल को । ण दु णिच्छयास जीवो देहो य कदावि एकहो ॥ ३२ ॥ इणमण्णं जीवादो देहं पुमालमय शुणितु मुणी । मरणदि हु संशुद्धः शदिदो मए केवली भयवं ॥ ३३ ॥ तं णिच्छयण जुलदि ण सरीरगुणा लि होति केवालणो । केवलिगुणो श्रुष्णादि जो सो त केवलि त्रुणदि ॥ ३४ ॥ जो मोहं तु जिणिना, जाण सहावाभियं मुणदि आदं । तं जिद मोह साहुँ, परमविमाणका वेति ॥ ३७॥
भावार्थ-व्यवहारनयसे ऐसा कहते हैं कि शरीर और आत्मा 'एक है। परंतु निश्चयनयम आत्मा व शरीर एक पदार्थ नहीं है । मुनिगण केवली भगवानके पुद्गलमय शरीरकी स्तुति व्यवहारनयसे करके मानते यही है कि हमने केवली भगवानकी ही स्तुति या यंदना की । परंतु निश्चयनयसे यह स्तुति ठीक नहीं है। क्योंकि शरीरके गुण केवली भगवानकी आत्माके गुण नहीं हैं, निश्चयसे जो ।
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१३८]
योगसार दीका। केवली भगवानकी आत्माकी स्तुति है वहीं केवलोकी यथार्थ स्तुति है। जैसे कहना कि जो मोहको जानकर ज्ञानस्वभाबसे पूर्ण आत्माका अनुभव करता है वह जितमोह है ऐसा परमायके ज्ञाता कहते हैं । निश्चय स्तुति आसपर नाश्य रिसाती है इसलिये माश है।
मिथ्यादृष्टीक व्रतादि मोक्षमार्ग नहीं। वयतवसंजममूलगुण मुहह मोक्स गिवृत्तु । जाम ण जाणइ इक परु सुद्धउभाउपवित्तु ।। २९ ।।
अन्वयार्थ - (जाम इक्क परु मुद्धउपविच भाउ ण जाणइ) जवतक एक परम शुद्ध व पवित्र भावका अनुभव नहीं होता ( मृहह चयतवसंजम मूलगुण मौकरव णिवुत्तु) तबतक मियादृष्टी अज्ञानी जीवोंके द्वारा किये गये उत, तप, संयम व मुलगण पालनको मोनका उपाय नहीं कहा जासक्ता ।
भावार्थ-निश्चय शुद्ध आत्माका भाव ही मोक्षका माग है। शुद्धोपयोगकी भावनाको नभाकर या शुद्ध तत्वका अनुभव न करते हुये जो कुछ व्यवहारचारित्र है वह मोक्षमार्ग नहीं है संसारमार्ग है ,पुष्यबधका कारक है। मिथ्याष्टी आत्मज्ञान शुन्य बहिरात्मा बाहर में मुनिभेष धरकरके यदि पांच महावत पाले.बारह तप तप, इंद्रिय प्राणिमयमको साधे नीचे लिखे प्रमाण अट्ठाईस मूलगुण पाले तौभी वह संवर व निर्जरा तत्वको न पाकर कर्मोमे मुक्ति नहीं पासता । ऐसा द्रव्यलिंगी साधु पुण्य आंधकर नौवें वेयिक तक जाकर अहमिंद्र होसक्ता है परन्तु संसारसे पार करनेवाले सभ्यरदर्शनके बिना अनन्त संसारमें ही भ्रमण करता है । व्यवहार चारित्रको निमित्त मात्र व बाहरी आलम्बन मात्र मानके व निश्चय चारित्रको उपादान कारण मानके जो
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यांगसार टीका। [१३१ स्वानुभवका अभ्यास करे नो निर्माणका मार्ग तय कर सके ।
प्रवचनसारमें श्री कुन्दकुन्दाचार्य अट्ठाईस मूलगुण कहते हैंबदसमिनिंदयरोधो लोचावासयमचेलमाहाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभाषण में गमतं च ॥ ८ ॥
गदे खलु मूलगुणा सम्णाणं जिणवरहिं पण्यत्ता । ... तेसु पमत्तो समायो लेदो वट्ठारयो दि ॥ ५ ॥
भावार्थ----पांच महात्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग।
पांच सामाति-इयां दिखकर चलना), भाषा, प्रपणा ( शुद्ध आहार ), आदाननिक्षेपग, युतमर्ग (मल भूत्र देखकर करना)।
पांच इंद्रिय विषय निरोध-छः आवश्यक नित्यकर्मसामायिक, प्रतिक्रमण ( पिछले दोषका निराकरण ), प्रत्याख्यान (सागकी भावना ), स्तुति. वन्दना, फायोत्सर्ग ! सात अन्य१ केशोंका लोंच, २ नम्मपना, ३ स्वान न करना, ४ भूमिपर शयन, ५ दन्तवन न करना, ६ खड़े होकर हाथमें भोजन लेना, ७ दिनरानमें एक दफे दिन में भिन्ना लेना से २८ मूलगुण साधुओंके हैं ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है उनमें प्रमाद हो जानेपर दोपस्थापन या प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिये । समयसारमें कहा है
बदसमिदीगुत्तीओ मीलन जिणवरेहि पपणतं । कुलवंतोयि अभचिंग अण्णाणी निच्छदिट्ठीय ।। २०.१ ॥ मोक्ख असद्दहन्तो अभचियसत्तो दु जो अधोएज । पाठो ण करेदि गुणं असदहन्तस्स णाणं तु ॥ २९२ ॥
भावार्थ-जिनेन्द्रोंने कहा है कि अभव्य जीव व्रत, समिनि, गुप्ति, शील, तपको पालते हुए भी आत्मज्ञानके बिना अज्ञानी व
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जमा
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१४.]
यांगसार टीका। 'मिथ्यादृष्टी ही रहता है। मोमके स्वरूपकी श्रद्धा न रखता हुआ अभव्य जीव कितना भी शास्त्र पढ़े, इसका पाट गुणकारी नहीं होता है, क्योंकि उसको आत्माके सम्यग्ज्ञानकी तरफ विश्वास नहीं आता है।
भावपाइडमें कहा है कि भावमें आत्मज्ञानी ही सच्चा साघु हैदेहादिसगरहिओ माणकसारहिं सवलपरिचत्तो । अप्पा अप्पम्मि रओस भावलिंगी हय साहू ॥५६ ॥
भावार्थ---जो शरीराविकी ममतारहित हो व मानकपायसे बिलकुल अलग हो जालाको कारवायें हीन हे कही नानलिंगी साच होता है।
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वतीको निर्मल आत्माका अनुभवकरना योग्य है।
जो जिम्मल अप्पा मुगाइ श्यसंजमुसंजुत्तु । तो लड्डु पाबइ सिद्ध सुहु इउ जिणणाहह वुत्तु ॥३०॥
अन्वयार्थ-(जो बयसंजमुसंजुनु पिम्पल मुणइ) जो व्रत, संयम सहित निर्मल आत्माका अनुभव कर (नो सिद्ध सङ्घ लहु 'पात्रइ) तो सिद्धि या मुक्तिका सुख शीन ही पाचे (इज जिणणाहह धुत्त) ऐसा जिनेन्द्रका कथन है। ___ भावार्थ-हरएक कार्यकी सिद्धि उपादान व निमित्त कारणसे होती हैं । अपादान कारण दो अवस्थाको पलटकर अवस्थांतर हो जाता है । मूल द्रव्य बना रहता है । निमित्त कारण दूर ही रह जाते हैं। मिट्टीका घड़ा बना है | घड़े रूपी कार्यका पादान कारण मिट्टी है। मिट्टीका पिंड ही पड़ेकी दशा में पलटा है | निमित्त कारण चाक व कुम्हारादि बड़े बनने तक सहायक हैं । घड़ा बन जानेपर ये सब दूर रह जाते हैं।
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संगणकावर विका।
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इसी तरह निर्वाण रूपी कार्यके लिये उपादान कारण अपने ही शुद्ध आत्माका ध्यान है । निमित्त कारण व्यवहार व्रत संयम तप आदि हैं । व्रत संयम तप आदिके निमित्तमे व आलम्बनसे जब आत्माका ध्यान होगा व भावोंमें शुद्धता बढ़ेगी तब ही संवर व निर्जरा तत्व होगा । इसलिये यहां कहा है कि व्रत संयम सहित
कर निर्मल आत्माका ध्यान सिद्ध सुखका साधन है | व्यवहार चारित्रकी इसलिये आवश्यक्ता है कि मन, वचन, कायको वश रखनेकी जरूरत है। जबतक ये तीनों चञ्चल रहेंगे तबतक आत्माका ध्यान नहीं हो सकता |
आत्माके ध्यानके लिये एकांत स्थानमें ठहरकर शरीरको निश्चल रखना होगा, वचनोंका त्याग करना होगा, जगतके प्राणियोंसे वार्तालाप छोड़ना होगा, पाठ पढ़ना छोड़ना होगा, जप करना छोड़ना होगा,. बिल्कुल मौनमें रहना होगा: मनका चिन्तन छोड़ना होगा, यहांतक कि आत्माके गुणोंका विचार भी छोड़ना होगा । जब उपयोग मन, वचन, कायसे हट करके केवल अपने ही शुद्धात्मा के भीतर श्रुतज्ञानके बलसे या शुद्ध निश्रयनयके प्रतापमे जमेगा तब ही मोक्षका साधन बनेगा, तब ही स्वानुभव होगा, तब ही वीतरागता होगी, तब ही आत्मा कर्ममलमे रहित होगा। ध्यान के समय मनके भीतर बहुत से विचार आजाते हैं ।
उनमें जो गृहस्थ सम्बंधी बातोंके विचार हैं वे महान बावक हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रहकी चिन्ता, ध्यानमें हानिकारक है। इसलिये साधुजन पांचों पापोंको पूर्णपने त्याग देते हैं, गृहस्थका व्यापारादि कुछ नहीं करते हैं। साधु केवल धार्मिक व्यवहार करते हैं। जैसे- शास्त्र पठन, उपदेश, बिहार, शिष्योंको शिक्षा, सन्तोषपूर्वक आहार | ध्यानके समय ये शुभ कामोंके विचार आ
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१४२]
यांगसार टीका। सकते हैं। ये विचार ध्यानक जमानेके लिये कभी २ निमित्त साधक होजाते हैं परन्तु इन विचारोंके भी बंद हुप विना ध्यान नहीं होगा।
यदि कोई व्यवहार चारित्रको नहीं पाल, लौकिक व्यवहारमें लगा रहे तो आत्माक भीतर उपयोग स्थिर नहीं हो सकेगा । इसी कारण परिग्रह त्यागी निग्रंथ मुनि ही उत्तम धर्मध्यान तथा शुलध्यान कर सक्त हैं । गृहस्थको भी मन वचन कायकी क्रियाको स्थिर करनेके लिये बारह व्रतोंका संयम जरूरी होता है । जितना परिग्रह कम होगा उतनी मनमें चिन्ता कम होगी। केवल व्यवहार चारित्रसे, मुनि व श्रावकके भेषम, मोनका कुछ भी साधन नहीं होगा। मोक्ष नो आत्माका पूर्ण स्वभाव है ! तब उसका साधन इसी स्वभावकी भावना है, आत्मदर्शन है, निश्वय रत्नत्रय है, खानुभत्र है । स्वानुभक्के लाभ लिये निमिन व्यवहार चारित्र है ।
समयसारमें कहा है - णवि एस मोक्खममो पाखंडी मिहमयाणि लिंगाणि । दसणणाणचरिताधि मोक्त्रममा जिणा विति ॥ ४३२ ।। जमा जहित लिंगे सागारणगारि पनि वा गाईदे । दसणणाणचरित्ते अप्माण झुंज मोक्खरहे ॥ ४३३ ॥
भावार्थ-साधुके ब गृहस्थ के मेप व व्यवहार चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्षमार्ग है ऐसा जिनेन्द्र कहते हैं । इसलिये गृहस्थक व साधुके भेषमें या व्यवहार चारित्रमें ममता त्यागकर अपनेको निश्चय रजत्रयमई मोक्षमार्गमें जोड़ दे। समयसार कलशमें कहा है...
व्यवहारविमूहदृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः । . सुषषोधविमुझबुद्धयः कलमन्तीह तुषं न तन्दुलम् ।। ४८-१०॥
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योगसार टीका |
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भावार्थ -- जो मानव व्यवहार चारित्रमें ही मृढ़ हैं उससे मोक्ष मानते हैं और परमार्थ या निश्चय रत्नत्रय या स्वानुभवको मोनमार्ग नहीं समझते हैं ये पुरुष बैसे ही मृढ़ हैं जैसे जो सुपको नंदु समझकर तुपको चावलोंके लिये कुटे | वे कभी चावल्लका लाभ नहीं कर सकेंगे। व्यवहार चारित्र तुप है निश्चय चारित्र तंदुल है। तंदुल बिना तुप वृथा है, निश्चय चारित्रविना व्यवहारचारित्र वृधा है ।
अकेला व्यवहारचारित्र वृथा है ।
जयनवर जमुसील जियस कच्छु । जाए ण जागह इक्क परु सुद्रउ भाउ पवितु ॥ ३१ ॥
अन्वयार्थ ( जिय) हे जीव ! ( जाणइ इक्क परु सुद्धउ पवित्र भाउ ण जाणइ ) जबतक एक उत्कृष्ट शुद्ध वीतराग भावका अनुभव न करें ( वयतत्र संजम सील ए सच्चे अकलु ) तत्रतक व्रत, तप, संयम, शील ये सर्व पालना इथा है, मोक्षके लिये नहीं है। पुण्य बांधकर संसार बढ़ानेवाले हैं।
भावार्थ-व्यवहारचारित्र निश्चयचारित्रके विना निर्वाणके लिये व्यर्थ है। निर्वाण कर्मके क्षयसे होता है उसका उपाय वीतरागभाव है जो शुद्धात्मानुभव में प्राप्त होता है। निश्चय चारित्र र समयरूप है, आत्माहीका एक निर्मल भाव है। जहां इस भावपर लक्ष्य नहीं है वह मोक्षमार्ग नहीं है ।
व्यवहार तादि पाल्नमें मन, वचन, कायकी शुभ प्रवृत्ति होती है। शुभोपयोग या मन्द काय है । सम्यग्दर्शनके बिना मन्द कषायक भी वास्तव में शुभोपयोग नहीं कह सक्ते है सौ मी जहाँ
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१४४ ] योगसार टीका। मन्द कषायसे शुभ प्रवृत्ति है, दयाभावमे वर्तन है, परोपकार भाव है, शास्त्रोंका विचार है, जीवादि तत्वोंका मनन है, वही अशुभ भाव न होकर शुभभाव है जो पुण्यबन्धका कारक है ।
द्रव्यसंग्रहमें कहा हैअसुहादो विणिवित्ती मुहे पवित्ती य जाण चारित । बदसमिदिगुतिरुत्रं यवहारणया दु जिम भणिय ।। ४५॥
भावार्थ-अशुभसे छूटकर शुभमें प्रवृत्ति करना व्यवहारनयसे जिनेन्द्रने चारित्र कहा है-वह पांच महाजन, पांच समिति तीन गुमिरूप है 1 व्यवहार पत्रित है। +, बपा, काके मत है इसलिये वहां उपयोगपर मुखाकार है. अपने आत्मासे दूर है इसलिये बन्धका कारक है, निश्चय स्वाश्रय है। आत्मा ही पर उपयोग सन्मुख है वहीं शुद्ध भावना है जो निर्माणका कारण है। यदि कोई सम्यग्दृष्टी नहीं है और वह केवल व्यवहारचारित्रसे मोक्षमार्ग मान ले तो यह उसकी भूल है, यह संसारका ही मार्ग है ।।
बाहरी आलम्बनको या निमित्तको उपाशन मानना मिथ्यात्व है। करोड़ों जन्मोंमें यदि कोई व्यवहार चारित्र पाले तब भी वह मोक्षके मार्गपर नहीं है । शुदात्मानुभवके प्रतापसे अनादिका मिथ्यादृष्टी जीत्र सम्यक्ती व संचमी होकर उसी भवसे नित्रांणका भागी होसकता है । समयसार कलशामें कहा है
वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानम्म भवनं सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मे शहेतुस्तदेव तत् ॥ ७ ॥ वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ॥ ८-४ , भावार्य-आस्माका ज्ञान स्वभाषसे वर्मना, सदा आत्मीक
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योगसार टीका । [१४५ ज्ञानमें रहना है, यही मोक्षका साधन है | क्योंकि यहाँ उपयोग एक ही आत्मा द्रव्यके स्वभावमें तन्मय है। शुभ क्रियाकांडमें वर्तना आत्माके ज्ञान में परिणमन नहीं है, यह मोक्षका कारण नहीं है। क्योंकि अन्य द्रव्यके स्वभावपर यहाँ लक्ष्य है, आत्मापर ध्यान नहीं है । माक्षपाहुडमें कहा है--
जो पुण परदब्बरओ मिच्छादिट्टी हुवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुकम्मेहिं ।। १५ ।।
भावार्थ-जो कोई आत्माको छोड़कर परद्रव्यमें रति करता है वह मिध्यादृष्टी है । मिथ्या श्रद्धानसे परिणमता हुआ दुष्ट आठों कौंको बांधना रहता है।
पुण्य पाप दोनों संसार है । पुर्णिण पावट् सम्ग जिउ पात्रइ गरयणिवासु । वे छडिवि अप्पा मुमइ त लभइ सिक्वासु ॥ ३२॥
अन्वयार्थ----(जिउ पुरिणं सग पावइ। यह जीय पुण्यसे स्वर्ग पाता है ( पावइ णरयाणिवासु) पापसे नर्फमें जाता है (वे छंडिवि अप्पा मुणइ) पुण्य पाप दोनोंसे ममता छोड़कर जो अपने आत्माका मनन करे ( तउ सिववासु लन्मइ तो शिय महलमें वास पाजावे।
भावार्थ-पुण्य व पाप दोनों ही कर्म संसार-भ्रमणके कारण हैं। दोनों ही प्रकार के कर्मोंके बन्धके कारण कषायभाव है । मन्दकषायसे पुण्य कर्मका बन्ध होता है, तीव्र कषायसे पापका बंध होता है । पुण्य कर्म सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र है। इनका. बंध प्राणी मात्रपर दयाभाव, आहार, औषधि, अभय व प्रिया
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योगसार सका। चार प्रकार दान, श्रावक व मुनिका व्यवहार चारित्र, क्षमाभाव, सन्तोप, सन्तोषपूर्वक आरम्भ, अल्प ममत्व, कोमलता, समभावसे कष्ट सहन, मन, वचन, कायका सरल कपट रहित बर्तन, परगुण प्रशंसा, आत्मदोप निन्दा, निरभिमानता आदि शुभ भावोंसे होता है । असालावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, नीचोत्र व ज्ञानावरणादि चार घातीय कर्म पापकर्म है। उनका बन्ध ज्ञानके साधनमें विन्न करनेसे, दुःखित, शोकित होनेसे, मदन करनेस, परको कष्ट देनेस, परका बात करनेसे, सच्चे देव गुरु धर्मकी निन्दा करनेले, तीन कपाय करनेने, अन्यायपूर्वक आरम्भ करनेसे, बहुत मृच्छी रखनेसे, कपटसे वर्तन करनेमे, मन पराको कल बल नेरी, झाला करो, परनिन्दा व आत्म प्रशंसाले, अभिमान करनेसे, मानादिमें विघ्न करनेमे, अन्यका बुरा चिंतमनसे, कठोर व असत्य वचनसे, पांच पापोंमें बर्तनसे होता है।
दोनोंके फलसे देव, ममुष्य, तिर्यच, नरक गतियों में जाकर सांसारिक सुख व दुःखका भोग करना पड़ता है। प्रत. तप, शील, संयमके पालनमें शुभ राग होता है, पुण्यका बन्ध होता है । उससे कर्मका क्षय नहीं हो सक्ता है । इसलिये यहां कहा है कि पुण्य घ पाप दोनों ही प्रकारके कमाको बेड़ी समझकर दोनोंहीके कारण भावोंसे राग छोड़कर एक शुद्ध आत्मीक भावका अनुभव करना योग्य है। ___ मोक्षका कारण एक शुद्धोपयोग है। पाप व पुण्य दोनोंके बन्धका कारण एक कषायभाव है। दोनोंका स्वभाव पुद्गलकर्म है । दोनोंका फल सुखदुःख है जो आत्मीक सुखको विरोधी है । दोनों ही अन्ध मार्ग हैं। ऐसा समझकर ज्ञानीको सर्व ही पुण्यपापसे पूर्ण मैराग्य रखना चाहिये । केवल एक अपने शुद्ध आत्माका ही दर्शन
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योगसार टीका |
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- करना चाहिये | परिणामोंकी थिरता न होनेसे यदि कदाचित् व्यचहारवारित्र पालना पड़े तो उससे मोक्ष होगी ऐसा मानना नहीं चाहिये ।
व्यवहार चारित्रको चन्वका कारण जानकर उसको त्यागने योग्य समझना चाहिये। जैसे कोई सीढ़ीपर चढ़ता है उसे त्यागने योग्य समझकर छोड़ता ही जाता है। निश्य वारित्रपर पहुंचकर व्यवहारका स्मरण भी नहीं रहता है। जैसे कोरे के ऊपर पहुंचकर फिर सीढ़ीको कौन याद करता है ? सीढ़ी तो ऊपर आनेके निमित्त थी | इसी तरह व्यवहार चारित्रका निमित्त निश्चयका साधक हैं । निवत्र प्राप्त होनेपर वह स्वयं भावोंसे छूट जाता है, व्यवहार चारिनका राग नहीं रहता है । समयसार में कहा है -
कन्ममहं कुत्रं सुदकम्मं नाति जा
वह तं होदि सुसील जं संसारं वेदि ॥ १५२ ॥ सोवण शिव बंधदि कालायसं च ज पुरिसं । बंधन्दि एवं जीवं हमसुहं या कदं कर्म ॥ १५३ ॥ लाद मीहि राय माकाहि माव संसी । साहिणो हि विणासो कुसी संसगरायेति ॥ १५४॥
भावार्थ - अशुभ कर्म कुशील है, शुभ कर्म सुशील है, अच्छा
है ऐसा व्यवहारी लोग कहते हैं । आचार्य कहते हैं कि शुभ कर्मको
-सुशील हम नहीं कह सकते। क्योंकि यह संसार में भ्रमण कराता है। जैसे लोहेकी बेड़ी पुरुषको बांधती है वैसे ही सोनेकी बेड़ी बांधती है। उसी तरह शुभ व अशुभ दोनों ही किये गये काम जीवको बांधते ही हैं।
इसलिये पुण्य पाप दोनोंको कुशील व खोटे समझकर उनले राग व उनकी संगति करना योग्य नहीं है । क्योंकि कुशीलोंकी
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१५८] योगसार दीका। संगतिसे व रागसे आत्माकी स्वाधीनताका नाश होता है। समयसार कलशमें कहा है
हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः। तद्वन्धमार्गाश्रितमेकमिट स्वस्य समस्तं खलु बन्ध हेतुः।। ३-४॥
भावार्थ-पुण्य व पाप दोनोंका हेतु स्वभाव फल व आस्रव एक रूप ही हैं, कुछ भेद नहीं है । दोनों ही बंधके मार्ग हैं, दोनोंको सर्वको बंधका कारण जानना चाहिये। .
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निश्चय चारित्र ही मोक्षका कारण है।
उतउसंजमुसील जिय इय सम्बई काहारु । मोक्खह कारण एक मुणि जो तइलोयह सारु ॥३३॥
अन्वयार्थ-(जिय) हे जीव ! (वउनउसंजमुसील इय सव्यइ चवहार) व्रत, तप, संयम, शील ये सब व्यवहार चारित्र हैं (मोक्खा कारण एक मुणि) मोक्षका कारण एक निश्चय चारित्रको जानो (जो तइलायहु सारु) वहीं तीन लोकमें सार वस्तु हैं।
भावार्थ-तीनलोकमें सार वस्तु मोक्ष है, जहां आत्मा अपना स्वभाव पूर्णपने प्रगट कर लेता है, कर्मबन्धसे मुक्त होजाता है । परमानन्दका नित्य भोग करता है । क्या मोक्षका उपाय भी तीन लोकमें सार है । वह उपाय भी अपने ही शुद्धारमाका सम्यक्त श्रद्धान, ज्ञान व उसी में आचरण है । निश्श्य रत्नत्रयरूप स्वसमय, स्वरूपसंवेदन या आत्मानुभव है । यही एक ऐसा नियमरूप उपाय है। जैसा कार्य या सांध्य होता है वैसा ही उसका कारण या साधना
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योगसार टीका। [१४९. होता है । इस आत्मानुभवके लिये जो बाहरी साधन व्रत, तप आदि व्यवहारचारित्र किया जाता है वह मात्र व्यवहार है, निमित्त है। यदि कोई व्यवहार ही चारित्र पाले तो भ्रम है, वह निर्वाणका साधन नहीं करता है।
आचार्य वाखार इसी बातकी प्रेरणा करते हैं कि हे योगी ! नु मन, वचन, कायकी क्रियाको मोक्षका उपाय मत जान । जहाँ किंचिन भी विकल्प है या कुछ भी परपदार्थपर दृष्टि है वहीं शुभ राग है, वह बन्धका कारण है, कसकी निर्जराका कारण नहीं है। इसलिये तू सर्व प्रपंचजाल व चिता छोड़कर निश्चित होकर एक अपने ही आत्माकी तरफ लौ लगा, उसीको ध्याव, उसीका मनन कर, उसीमें सन्तोष मान, एक शुद्ध आत्माके अनमत्रसे उत्पन्न आनन्दामृतका पान का।
व्यवहारचारित्रको व्यवहार मात्र समझ | बिना निश्यचारित्रके उसका कोई लाभ मोक्षमार्गमें नहीं है । व्यबहार मुनिका या श्रावकका संयम ठीक २ शास्त्रानुसार पालकर भी यह अहकार मत कर कि में मुनी हूं, मैं क्षुल्लक श्रावक हूं, मैं ब्रह्मचारी हूं. मैं धर्मात्मा गृहस्थ हूं | ऐसा करनेसे उसके मेपमें व व्यवहार में ही मुनिपना या गृहस्थपना मान लिया सो ठीक नहीं हैं । शुद्धात्मानुभव' ही मुनिपना हैं । बही श्रावकपना है, वही जिनधर्म है, ऐसा समझकर ज्ञानीको शरीराश्रित क्रियामें अहंकार न करना चाहिये । जो निश्चयनयकी प्रधानतासे अपनेको सिद्ध भगवानके समान शुद्ध तीन कालके सर्व कर्म रहित, विभाव रहित, विकल्प रहिन, मतिज्ञानादि भेद रहित, एक सहज ज्ञान या आनंदका समूह मानकर सर्व अन्य भासे अदास होजायगा वही निर्वाणमार्गपर आरूढ़ समझा जायगा।
भावपाहुइमें कहा है
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JI.
योगसार टीका ।
जीववियुको सओ दसमुको य होइ चलसवओ जो लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ १४३ ॥
सब
जह तारण चंद्रो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहं
सम्पत्ती रिसिसा वयदुविधम्माणं ॥ १४४ ॥ भाषार्थ - जीव रहित मुर्दा होता है। आत्मदर्शनरूप सम्यक्त के विना प्राणी चलता हुआ मुर्दा है। मुर्दा लोकमें माननीय नहीं होता.. जला दिया जाता है, चलनेवाला व्यवहार चारित्रवान मुर्दा परमाअपूज्य है। शोभता है, पशुओम सिंह शोभता है वैसे मुनि व श्रावक दोनोंके धर्ममें सम्यग्दर्शन शोभता हैं । इस आत्मानुभव विना सर्व व्यवहार मलीन ही हैं ।
सारसमुच्चय में कहा है
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ज्ञानभावनचा जीवो लमते हितमात्मनः । विचारसम्पन्न विषयेषु पराङ्मुखः ॥ ४ ॥
भावार्थ --- जो जीव पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे उदास होकर धर्मकी विस्व धर्म आचारसे युक्त होकर आत्मज्ञानकी भावना करता है वहीं अपने आत्माका हित कर सकता है ।
आपसे आपको व्याओ ।
अन्य अप्पड़ जो मुह जो परभाव चएइ । सोपा सरगम जिपवर एउ भणे || ३४ ॥ अन्वयार्थ --- (जो परभाव चएइ) जो परभावको छोड देता हैं (जो अप्पर अप्पा मुणइ ) व जो अपने से ही अपने आत्माका अनुभव करता है ( सो सिवपुरिगमणु पावर) वही मोक्षनगर में पहुंच जाता है (जिणवर एज भणेइ) श्री जिनेन्द्रने यह कहा है.
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योगसार टीका। [१५१ भावार्थ-आत्माको आत्माके द्वारा ग्रहण कर जो निश्चल होकर आत्माका अनुभव करता है वही आत्माका दर्शन करता हुआ कर्मकी निर्जरा करता है व मोक्षनगरमें शीघ्र ही पहुंच जाता है। जब आत्मा अपने मूल स्वभावको लक्ष्यमें लेकर ग्रहण करता है तब सर्व ही पर भावोंका सर्व त्याग होजाता है ! जैसे कोई स्त्री परके घरों में जाया करती थी, जब वह अपने ही घरमें बैठ गई तब पर धरोंका गमन स्वयं बंद होगया।
जितना कुछ प्रपंच या विकल्प परदव्योंके सम्बंधसे होता है यह सब पर भाव हैं। कर्मों के उदयसे जो भावक्रम रागादि शुभ या अशुभ होता है व नोकर्म शरीरादि होते हैं वे सब परभाव हैं। चौदह गुणस्थान व चौदह मार्गणाओंके भेद तब ही संभव है जब कर्म सहित आत्माको देखा जावे । अकेले कर्म रहित आत्मामें इन सबका दर्शन नहीं होता है। अपने आत्माके सिवाय अन्य आत्माएं संसारी व सिद्ध तथा सर्व ही पुद्गल परमाणु या स्कंध, तथा धाम्लिकाय, अधमास्तिकाय, कालाणु व आकाश ये सब परमात्र हैं। मनके भीतर होनेवाले मानसिक विकल्प भी परभाव है। आत्मा निर्विकल्प हैं, अभेद है, असंग है, निलेप है, निर्विकल्प भावमें ही प्रण होता है।
भूत, भविष्य, बर्तमान तीन काल सम्बंधी सर्व कर्मोसे व विकस्पोंसे आत्माको न्यारा देखना चाहिये । यद्यपि आत्मा अनंतगुण व पर्यायोंका समुदाय है तौभी ध्यानके समय उसके गुण गुणी भेदोंका विचार भी बंद करदेना चाहिये । आत्माके स्वाद लेने में एकाग्र होजाना चाहिये । बाहरी निमित्त इसीलिये मिलाए जाते हैं कि मनकी चंचलता मिटे, मन क्षोभित न हो। मनमें चिंताएं घर न करें। निग्रंथ साधुको ही शुद्धोपयोगकी भलेप्रकार प्राप्ति होती है, क्योंकि उसका मन परिप्रहकी चिन्तासे व आरंभके झंझट से अलग है। बिलकुल एकांत
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योगसार टीका |
सेवन, निरोग शरीर, शीस, उष्ण, दंशमशककी बाधाका सहन, ये सब निमित्त कारण ध्यान में उपयोगी हैं | अभ्यास प्रारंभ करनेवालोंको परीषद न आवे इस सम्हाल के साथ ध्यान करना होता है । जब अभ्यास बढ़ जाता है तब परीपहोंके होनेपर निश्चल रह सक्ता है । साधकको पूर्णपने अपने ही भीतर रमण करना चाहिये, यही निर्वा का मार्ग है। समाधिशतक में कहा है—
यदमाझं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्वे तत्स्यसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २० ॥
येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽहं न तन्न सा नासौ नैको न द्वौ न वा बहुः ॥ २३॥ यदमात्रे सुपुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थितः पुनः । अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्त्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४ ॥ क्षीयन्तेऽत्रैव रामाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यतः । बोधात्मानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः ॥ २५ ॥ भावार्थ - जो न ग्रहण करने योग्य परभाव हैं या परद्रव्य हैं उनको ग्रहण नहीं करता है व जो अपने गुणका स्वभाव है जिनको सदा महण किये हुये हैं उनका कभी त्याग नहीं करना है, किंतु जो सर्व प्रकार से सर्वको जानता है वही मैं अपने आप अनुभव करने योग्य हूं | जिस आत्मीक स्वरूपसे में अपने आत्माको आत्माके भीतर आत्माके द्वारा आत्मारूप ही अनुभव करता हूं वही मैं हूँ । न मैं पुरुष हूँ, न स्त्री हूं, न नपुंसक हूं, न एक हूं, न दो हूं, न बहुत हूं ।
जिस स्वरूपको न जानकर मैं अनादिसं सोरहा था व जिसको जानकर मैं अब जाग उठा वह मैं अतीन्द्रिय, नाम रहित, केवल स्वसंवेदन योग्य हूं। जब मैं यथार्थ तत्वदृष्टिसे अपनेको हान स्वरूप
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योगसार टीका ।
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-देखता हूं तो वहीं सर्व रागादि क्षय होजाते हैं, तब मेरा कोई शत्रु या मित्र नहीं होता है, समभाव छा जाता है।
aanti at पदार्थोंका ज्ञान आवश्यक है ।
छहदह जे जिण कहिआ णव पयत्थ जे तत्त |
हारे जिणउत्तिया ते जाणियहि पयत्त ।। ३५ ॥ अन्वयार्थ - ( जिण जे छहदव्बह णव पयत्य जे तत्त कहिआ ) जिनेन्द्रने जो छः द्रव्य, नौ पदार्थ और सात तत्व कहे हैं (वहारे जिउत्तिया ) वे सब व्यवहारनयसे कहे हैं (पयत्त ते जाणियहि ) प्रयत्न करके उनको जानना योग्य है ।
भावार्थ - निर्वाणका उपाय निश्चयसे एक आत्माके दर्शन या आत्मानुभवको बताया है । परन्तु उपाय तत्र ही किया जाता है जब यह निश्चय हो कि उपाय करनेकी क्या आवश्यक्ता है ? इसलिये सावकको यह भलेप्रकार जानना चाहिये कि वह निश्वयनयसे शुद्ध है तथापि वह अनादिसे कर्मबन्धके कारण अशुद्ध होरहा है।
यह अशुद्धता कैसे होती है व कैसे मिट सकती है इस बातका विस्तारसे कथन व्यवहारनयसे जिनेन्द्र ने बताया है। क्योंकि परके आश्रयको लेकर आत्माका कथन व्यवहारनयसे ही किया जाता है तब छः द्रव्योंको, सात तत्वोंको व नौ पदार्थोंको भलेप्रकार जानना चाहिये। इसलिये साधकको अध्यात्म शान में प्रवेश करने के पहले श्री तत्वार्थसूत्र व उनकी टीकाएं सर्वार्थसिद्धि, राजधार्तिक, श्लोकवार्तिक, गोमसार आदि व्यवहार प्रधान ग्रंथोंको जानना जरूरी है। इनके अद्धानको ही व्यवहार सभ्यक्त कहा गया है, जो आत्म प्रतीतिरूप निश्चय सम्यक्त के लिये निमित्त कारण है ।
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५५४]
योनसार टीका 1 गोम्मटसार जीवकांड में कहा है-- छध्यमवपिहा अस्थायी जिणवरोपाटा । आगाए अहिगमेण य सदहण होइ सम्मत्तं ।। ५६०॥
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवानके उपदेशके अनुसार छ: द्रव्य, पाच अस्तिकाय, नव पदार्थीका श्रद्धान आज्ञा मात्रसे या शास्त्रोंके पठन पाठन व न्यायकी युक्तिसं समझकर करना व्यवहारनयसे सम्यक्त है ।
अवजोगो वण्णचऊ लपवणमिह जोधपोगालाण तु । गदिटाणोगहवत्तणकिरियुक्यारो दु धम्मचऊ ॥ ५६४ ॥
भावार्थ- उपयोग ज्ञान दर्शन लक्षणका धारी जीव द्रव्य है । स्पर्श रस गंध वर्ण लक्षणधारी पुल द्रव्य है । जीव पुद्गलके गमनमें उदासीन रूपसे सहकारी धर्मद्रव्य है। जीव द्रव्यको ठहरने में सहकारी अधर्म द्रव्य है । सर्व द्रव्योंको स्थान देनेवाला अवकाश द्रन्य है । द्रव्योंके पलटनेमें निमित्त कारण काल द्रव्य है । इसतरह छः द्रव्योंका भरा यह लोक है । जो सन् हो, सदा ही रहे उसको द्रव्य कहते हैं। जीव द्रव्य उपयोग सहित है, ज्ञाता हटा है, यह बात प्रगट है~
शरीरादि पुद्गल रचित हैं उनकी सत्ता भी प्रत्यक्ष प्रगट है। शेष चार द्रव्य अमृर्तीक हैं, इनकी सत्ता अनुमानसे प्रगद है | जीव पुद्गल चार कार्य करते हैं उनमें उपादान कारण वे स्वयं हैं, निमित्त कारण शेप चार द्रव्य हैं । गमन सहकारी लोकाकाश व्यापी धर्मद्रव्य है, ठहरनेमें सहकारी लोकाकाशव्यापी अधर्म द्रव्य है। अवकाश देनेवाला आकाश है, परिवर्तन करानेवाला कालाणु द्रव्य है जो असंख्यात है । एक एक आकाशके प्रदेश पर एक एक कालाणु है । जीव अनंत हैं, पुद्गल अनंत हैं, अनंत आकाशके मध्य लोक है । लोकमें सर्वत्र शेष पांच द्रव्य हैं । सूक्ष्म पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति सर्वत्र
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योगसार टीका। है । बादर एकेन्द्रियादि कहीं कहीं हैं | परमाणु व स्कंध रूप पुद्रल सर्वत्र है। __इन छः द्रव्योंका अस्तित्व कभी मिट नहीं सकता है। उनके भीतर संसारी जीव कर्मबंध सहित अशुद्ध हैं | उनको भी जब शुद्ध निश्चय नयकी दृष्टिसे देखा जाये तो ये शुद्ध ही झलकते हैं । इस दृष्टिले पुल द्रव्य भी परमाणुरूप शुद्ध दिखता है | समताभाव लाने के लिये इन छहों द्रव्योको मूल स्वभावस शुद्ध अलगर देखना चाहिये । तब राग द्वेष नहीं रहेंगे।
समाधिशतकमे कहाईयस्य सम्पन्नमामाति निम्पन्देन स जाता। अत्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतरः ॥ ६७ ॥
भावार्थ-यह चलता फिरता जगत भी जिसकी दृषिमें शुद्ध निश्चयनयके बलसे चलन रहित थिर, विकल्प रहित निर्विकल्प क्रिया व भोगरहित निर्विकल्प दिखता है वह समभावको प्राप्त करता है । मोक्षमार्ग पर चलनेवालेके छः द्रव्योंकी सत्ताका पक्का निश्चय होना चाहिये, तब भ्रम रहित ज्ञान होगा, तब परद्रव्य व परभावोंसे उदास होकर स्वद्रव्यमें प्रवृत्ति हो सकेगी।
सात तत्व हैं-जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष । जीव तत्वमें सर्व अनन्त जीव आगए । अजीव तत्त्रमें शेष पांच द्रव्य आगए । कालाणु एक एक प्रदेशपर होनेसे कायरहित हैं। शेष पांच द्रव्य बहुप्रदेशी हैं | परमाणुमें मिलनेकी शक्ति है इसलिये. कालको छोड़कर शेष पांच दूज्योंको अस्तिकाय कहते हैं।
कर्मवर्गणाओंके आनेको आस्रव व कार्मण शरीरके साथ बन्धनेको बन्ध कहते हैं । ये दोनों आस्रव व बन्ध एक साथ एक समयमें होते हैं । इसलिये दोनोंके कारण भाव एक ही हैं ! मिथ्या
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योगसार टीका |
दर्शन पांच प्रकार, आंव हिलादि पांच प्रकार या पांच इन्द्रिय व मनको वश न रखना तथा छः कायकी दया न पालना, इसतरह बारह प्रकार, कषाय पच्चीस प्रकार, योग पंद्रह प्रकार सब सत्तावन आस्रव व बन्धके कारणभाव हैं ।
संक्षेप में योग व कषाय से आसव व बन्ध होते हैं। मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे जब आत्मा के प्रदेश सकम्प होते हैं तब योगशक्तिले कर्मवगणाएं खिंचकर आती हैं व बन्ध जाती हैं । ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप बन्धन प्रकृतिबन्ध है। कितनी संस्था बन्धी सो प्रदेशबन्ध है । इन दो प्रकार बन्धका हेतु योग है। कमोंमें स्थिति पड़ना स्थितिबन्ध है। फलदान शक्ति पड़ना अनुभाग बन्ध है। ये दोनों बन्ध कषायसे होते हैं।
कम आस्रव रोकनेको संबर कहते हैं । उनका उपाय आस्रव विरोधी भावोंका लाभ है । सम्यग्दर्शन, अहिंसादि पांच प्रत, कषायरहित वीतरागभाव व योगोंका स्थिर होना संवरभाव है |
पूर्व बांधे हुये कमका एकदेश गिरना निर्जरा है। फल देकर गिरना सविपाक निर्जरा है। बिना कल दिये समय पूर्व झड़ना अविपाक निर्जरा है। उसका उपाय तप वा ध्यान है। संवर व निजरा द्वारा सर्व कर्मसे रहित होजाना मोक्ष है । इन सात तत्वोंमें पुण्य 'पाप मिलाने से नौ पदार्थ होजाते हैं । पुण्य पाप आस्रव व बंध तत्वोंमें गर्भित हैं । व्यवहार नयसे इन नौ पदार्थोंमें जीव, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये चार ही ग्रहण करने योग्य हैं, शेष पांच त्यागने योग्य हैं। निश्वयनयसे एक अपना शुद्ध जीव ही ग्रहण करने योग्य हैं । समयसारमें कहा है
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भृत्येणाभिगदा जीवाजीबा य पुण्यपाचं च ।
आसव संवर णिज्जरबन्ध मोक्खो य सम्मतं ॥ १५ ॥
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भावार्थ – निश्चयनयसे जाने हुये ये नौ पदार्थ सम्यक्त होते हैं अर्थात् ये नौ पदार्थ जीव अजीवके संयोगसे हैं । अनाबादि सात पदार्थ जीव व कर्मवर्गणाकं सयागसे होते हैं। इनमें एक जीव कर्मरहित ग्रहण करने योग्य है ऐसा श्रद्धान निश्चयसे सम्यक्त है ।
सब पदार्थों में चेतनेवाला एक जीव ही है।
सव्व अवेयण जाणि जिय एक सवेयण सारु । जो जाणेविण परममुणि लहु पायइ भवपारु ॥ ३६ ॥ अन्वयार्थ - ( सव्व अचेयण जाणि) पुहलादि सर्व पांचों द्रव्योंको व उनसे बने पदार्थोंको अचेतन या जड़ जानो ( एक्क जिय सचेयण सारु ) एक अकेला जब ही सचेतन हैं व सारभूत परम पदार्थ है (परम पुणि जो जाणंविण लहु भवपारु पावइ ) परम मुनि जिस जीव सत्वको अनुभव करके शीघ्र ही संसारसे पार होजाते हैं ।
भावार्थ-छः द्रव्यों में एक आत्मा ही सचेतन है जो अपनेको भी जानता है व सर्व जाननेयोग्य ज्ञेय पदार्थों को भी जानता है । पांच पुलादि द्रव्य चेतना रहित जड़ हैं। नौ पदार्थों में भी यदि शुद्ध निश्रयनयसे देखा जाये तो एक आत्मा भिन्न ही दीख पड़ता है। जैसे शकरको अन्नके साथ मिलाकर नौ मिठाइयां बनाई जावे तौभी उनमें शकरको देखनेवाला शकरको जुश देखता है ।
ज्ञानीको उचित है कि वह अपने आत्माको सर्व परद्रव्योंसे. भिन्न देखे | आठ कर्म भी जड़ हैं, शरीर भी जड़ है, कर्मके निमित्तसे होनेवाले औपाधिक विकारीभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं । मतिज्ञानादि खण्ड व क्रमवर्ती ज्ञान भी कर्मके संयोगसे होते हैं, ये भी
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योगसार टीका |
आत्माका स्वभाव नहीं । आत्मा द्रव्यको मात्र द्रव्यरूप अखण्ड सिद्ध भगवान के समान शुद्ध देखना चाहिये । व ऐसा ही अनुभव करना चाहिये । परम मुनि ही शुद्धात्माके ध्यानसे शीघ्र ही भवसागर से पार होजाते हैं ।
मोक्षके कारणकलाप में वृषभनाराच संहननका होना जरूरी है । विना इसके ऐसा वीर्य नहीं प्रगट होता कि क्षपकश्रेणीपर चढ़ सके व घातीयकका क्षय करके केवलज्ञानी होसके । परित्रहत्यागी निर्भय -मुनि ही मोक्षके योग्य ध्यान करसते हैं। इसलिये २४प्रकारके परिग्रहका होना निषेधा है। क्षेत्र, घर, धन, धान्य, चांदी, सुवर्ण, दासी, दास, कपडे, वर्तन ये दश प्रकार बाहरी परिग्रह हैं। ये बिलकुल पर हैं इनको त्यागा जासक्ता है, तब बाहरी परिग्रहकी चिंता मनको नहीं सताएगी | अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार है । मिध्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, वेद, नपुंसक वेद । इनकी ममता बुद्धिपूर्वक छोड़ी जाती है ।
कर्मोदयसे यदि कोई विकार होता है तो उसको ग्रहण योग्य मानके ज्ञानी साधु स्वागत नहीं करते हैं, यही परिमका त्याग है । · बालकके समान नन रहकर जो साधु अप्रमत्त गुणस्थानके सातिशय भावको प्राप्त होकर व क्षायिक सम्यक्तसे विभूषित होकर क्षपकश्रेणी चढ़कर शुक्लस्यान ध्याते हैं वे ही उसी भवसे निर्वाण लाभ कर लेते हैं | बाहरी चारित्र निमित्त है, शुद्ध अनुभव रूप परम सामायिक या ययाख्यातचारित्र उपादान कारण है । निमित्त होनेपर · उपादान उन्नति करता है। परंतु साधककी दृष्टि अपने ही उपादान-रूप आत्मीक भाव ही पर रहती है । तात्पर्य यह है कि व्यवहार सम्यक्चके कारणों में भी एक सारभूत अपने ही शुद्धात्माका ग्रहण - कार्यकारी है। समयसारकलशा में कहा है -
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योगसार टीका। [ १५९ चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमाने ।
कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सतत विविक्तं दृश्यतामेकरूपं ।।
दानागालोतिरुधांतमानम् ॥ ८-१॥ भावार्थ-जैम सोनेकी मालामें सोना भिन्न झलकता है वैसे ही जीवोंको उचित है कि वह अनादिकालसे पदार्थाके भीतर छिपी हुई अपनी आत्मज्योतिको अलग निकाल कर सदा ही परसे भिन्न व एकरूप प्रकाशमान हरएक पदमें देखें-शुद्धात्माका ही अपने भीतर दर्शन करे ।
माक्षपाहड़में कहा हैहोऊण दिवचरित्तो दिवसम्मत्तेण मावियमईओ। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावर जोई ॥ ४२ ॥ चरणं हवई सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणपणपरिणामो ॥ ५० ॥
भावार्थ -- योगी चारित्रमें पक्का होकर पक्के निर्मल सम्यग्दर्शनकी भावना करता हुआ जब अपने आत्माको ध्याता है तो परमपद मोक्ष पाता है | आत्माका धर्म या स्वभाव ही चारित्र है आत्माका धर्म आत्माका समभाव है। वह समभाव राग द्वेष रहित जीवका अपना ही भाव है। इस भावसे ही मोक्ष होता है।
व्यवहारका मोह त्यागना जरूरी है। • बइ णिम्मलु अप्पा मुणहि छडिवि सह बवहारु । .
जिण-सामिउ एमइ मपाइ ला. पाबहु भवपारुः॥ ३७
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१६०] योगसार टीका । ___अन्वयार्थ-(जिणसामी एहउ भण) जिनेन्द्र भगवान ऐसा कहते हैं (जइ सहुववहारु छंडवि णिम्मलु अप्पा मुणहि) यदि तू सर्व व्यवहार छोड़कर निर्मल आत्माका अनुभव करेगा (लहु भवपास पावडु) तो शीन भवसे पार होगा।
भावार्थ-यहां जिनेन्द्र भगवानकी यही आज्ञा है व यही उपदेश बनाया है कि निर्मल आत्माका अनुभव करो। यह अनुभव तब ही होगा जब सर्व परके आश्रय व्यवहारका मोह त्यागा जायगा,. पर पदार्थका परमाणु मात्र भी हितकारी नहीं है । व्यवहार धर्म, व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका जितना विषय है वह सत्र त्यागनेयोग्य है | सम्यग्दधी चाहे गृहस्थ हो या साधु, केवल अपने ॐ आत्मा है ना निगमली जानता । दोष सर्वको त्यागनेयोग्य परिग्रह जानता है।
। यद्यपि वह मनके लगानेको व ज्ञानकी निर्मलताके लिये सात तत्वोंका विचार करता हैं, जिनवाणीका पठनपाठन मनन उपदेश करता है, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग पांच व्रतोंको एकदेश या सत्रदेश पालता है, मन्त्रोंका जप करता है, उपवास करता है, रसत्याग करता है तो भी इन सब कार्योको व्यवहार धर्म जानके छोड़नेयोग्य समझता है, क्योंकि व्यवहारके साथ राग करना कर्मबंधका कारण हैं | केवल अपनी आत्माकी विभूति-ज्ञानानन्द सम्पदाको अपनी मानके ग्रहण किये रहता है। सर्व चेतन, अचेतन व मिश्न परिप्रहको त्यागनेयोग्य समझता है। सिद्धोंका ध्यान करता है तो भी सिद्धोंको पर मानके उनके न्यानको भी त्यागनेयोग्य जानता है, क्योंकि यहां भी शुभ रागका अंश है ।
और तो क्या, गुणगुणी भेदका विचार भी परिग्रह है, व्यवहार है, त्यागनेयोग्य है, क्योंकि इस विचारमें विकल्प है । विकल्प है यहाँ
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योगसार टीका। [१६१ शुद्धभाव नहीं । यद्यपि इस विचारका आलम्बनदूसरे शुक्ल ध्यान तक है तथापि सम्यग्दृष्टी इस आलम्बनको भी त्यागने योग्य जानता है।
सम्यक्तीका देव, गुरु, शान, घर, उपवन सब कुछ एक अपना ही शुद्धात्मा है, वहीं आसन है, वहीं शिला है, वहीं पर्वतकी गुफा हैं, वही सिंहासन है, वहीं शव्या है। ऐसा असंग भाव व शुद्ध श्रद्धान जिसको होता है वहीं सम्यग्दृष्टी ज्ञानी है, वही उस नौका पर आरूढ़ है जो संसारसागरसे पार करनेवाली है। व्यवहारके मोहसे कर्मका क्षय नहीं होगा। जो अहंकार करे कि मैं मुनि, मैं तपस्वी वह व्यवहारका मोही मोक्षमार्गी नहीं हैं । यद्यपि मुनिका नग्न मेष व श्रावकका सबस्त्र मेष निमित्त कारण है तथापि मोक्षका मार्ग तो एक खत्रय धर्म ही हैं ! समयसारमें कहा है
मोत्तुग णिच्छ्यटै क्वहारे | विदुसा पवट्ठन्ति । परममम्सिदाणं दु जदीण कम्मक्खओ होदि ॥ १६३ ॥
भावार्थ-ज्ञानीजन निश्चय पदार्थको छोड़ कर व्यवहारके भीतर नहीं प्रवर्तते हैं । व्यवहारमे मोह नहीं रखते हैं। क्योंकि जो साधु परमार्थका या अपने शुद्धास्माका आश्रव करते हैं उन्हीके कर्माका भय होता है।
पाखंडियलिंगेस व गिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ।
कुन्वति जे ममर्ति तेहि णादं समयसारं ॥ ४३५॥ : भावार्थ-जो कोई साधुके भेषमें या व्यवहार चारित्रमें या नाना प्रकारके श्रावकके भेषमें या व्यवहार चारित्रमें ममताभाव करते हैं उन्होंने समयसार जो शुद्धारमा उसको नहीं जाना है। मोक्षपाइहमें कहा है
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१६२ ]
योगसार टीका ।
बाहिरलिंगेण जुदो अन्नंतर लिंगरहियपरियम्मो । सो सगचरितभट्टी मोक्खपविणासगी साहू ॥ ६१ ॥ भावार्थ- जी बाहरी भेष व चारित्र सहित है परन्तु भीतरी आत्मानुभवरूप चारित्रसे रहित है, वह स्वचारित्र भ्रष्ट होता हुआ Harrier featक है ।
जीव अजीबका भेद जानो ।
सोरटा जीवrates भेट जो जाणइ ति जाणियउ ।
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Hirat कारण एड भइ जोड़ जोइहि भणिउ ॥ ३८ ॥ अन्वयार्थ- - जोइ ) हे योगी ! ( जोइहिं भणिउ योगियोने कहा है (जीवाजीव भेज जो जाणइ ) ओ कोई जीव तथा अजीबका भेद जानता है (तिं योक्ख कारण जाणियउ ) उसने मोक्षका माग जाना है ( एउ भइ ) ऐसा कहा गया है।
भावार्थ-बन्ध व मोक्षका व्यवहार तब ही सम्भव है जब दो भिन्न २ वस्तुएं हों, वे बन्धती व खुलती हों । गाय रस्सी से बंधी हैं, रस्सी छूट जानेपर गाय छूट गई । यदि अकेली गाय हो या अकेली रस्सी हो तो गायका बन्धना व छूटना हो नहीं सकता, उसी तरह यदि लोकमें जीव ही अकेला होता, अजीव न होता तो जीव कभी बन्धता व खुलता नहीं ।
संसारदशा में जीव अजोवका बंध है तब मोक्षदशा में जीवका अजीवसे छूटना होता है। दो प्रकारके भिन्नर द्रव्य यदि लोकमें नहीं होते तो संसार व मोक्षका होना संभव नहीं था। यह लोक छः द्रव्योंका समुदाय है, उनमें जीव सचेतन है। शेष पांच अचेतनं या अजीव हैं। इनमें चार द्रव्य तो बंध रहित शुद्ध दशामें खदा मिलते हैं।
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योगसार टीका। [१६३ धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल व आकाश इनके सदा स्वभाव परिणमन होता है। जीव व पुलमें ही विभाव परिणामनकी शक्ति है। जीत्र पुदलके बंधमें जीवमें विभाव होते हैं । जीवके विभावके निमितसे पुइलमें विभाव परिणमन होता है । पुद्गल स्वयं भी स्कंध बनकर विभाव परिणमन करते हैं। हरएक संसारी जीव पुलस गाद बंधन रूप होरहा है । तैजस व कार्मणका सूक्ष्म शरीर अनादिसे सदा ही साथ रहता है । इनके सिवाय औदारिक शरीर, बैंक्रियिक शरीर व आहारक शरीर व भाषा व मनके पुद्गलोंका संबोग होता रहता है।
यह जीव पुद्गलकी संगतिमें ऐसा एक्रमक होरहा है कि यह अपनेको भूल ही गया है । कमौक उदयके निमित्तम शो रागादि भावकर्म व दारीरादि नोकर्म होने हैं इन रूप ही अपनेको मानता रहता है। पुहलके मोहाचे नमत्त होरहा है इसीसे कीकर बंध करने वनको बढ़ाता है व कर्मोके उदयसे नानाप्रकार फल भोगता है। सुख तो रेचमात्र है. दुःख बहुत है।
जन्म, मरण, जरा, इष्टवियोग, अनिष्ठ सयोगका अपार कष्ट है, तृष्णाकी दाहका अपार दुःख है। लब श्रीगुरुफे प्रसादसे या शास्त्रक प्रवचनसं इसको यह भेदविज्ञान हो कि में तो द्रव्य हूँ, मेरा स्वभाव परम शुद्ध निरंजन निर्विकार, अमूर्तीक, पूर्ण ज्ञान दर्शनमई व आनंदमई है, मेरे साथ पुगलका संयोग मेरा रूप नहीं है, मैं निश्चयसे पुगलसे व उदल कृत सर्व रागादि विकारोंसे बाहर हूं, पुद्गलका सम्बन्ध दुर करना योग्य है, मोक्ष प्राप्त करना योग्य है, इस तरह जब भेदविज्ञान हो व गुद्रलस पक्का वैराग्य हो तब मोक्षका उपाय हो सका है । तब यह दृढ़ बुद्धि हो कि कर्मोके आमव बंध पदुःश्यके मूल हैं। इनको छोड़ना चाहिये व मोक्षके कारण, संबर व निर्जरा है, इनका उपाय करना चाहिये । ऐसी प्रतीति होनेपर ही
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योगसार टीका। मोक्षका उपाय हो सकेगा । जो यह पका जानेगा कि मैं रोगी हूं रोगका कारण यह है, वही रोगके कारणों से बचेगा व विद्यमान रोगके निवारा के लिये औषधक सेवन करेगा । इसलिये मलमूत्रमें कहा है कि जीव व अजीवके भेदका झान मोक्षका कारण है।
तत्वानुशासनमें कहा हैतापत्रयोपतप्तेभ्यो भव्येभ्यः शिवशर्मणे । तत्त्वं हेयमुपादेयमिति द्वेषाभ्यधादसौं ॥ ३॥ पंधो निबंधनं चास्य हेयमित्युपदर्शितं । हेय स्याहःखसुखधोर्यस्माद्वीजमिदं द्वयं ॥ ४ ॥ मोक्षस्तत्कारणं तदुपादेयमुदाहृतं ! उपादेयं सुखं यस्मादस्मादाविर्भविष्यति ॥ ५ ॥
भावार्थ-जन्म, जरा, मरण तीन प्रकारके संतापसे दुःखी होकर भव्य जीवोंको परमानन्दमय मोक्ष सुखका लाभ हो इसलिये सर्वज्ञ देवने हेय या उपादेय दो प्रकार तत्व कहा है । बन्ध व उसके कारण मिथ्यात्वादि आमव भाव त्यागनेयोग्य हैं, क्योंकि ये ही त्यागनेयोग्य सांसारिक दुःख सुखके बीज हैं । मोक्ष व उसके कारण संवर व निर्जराभार ग्रहणयोग्य हैं, क्योंकि इनके द्वारा सच्चा सुख जो ग्रहणयोग्य है सो प्रगट होगा । समयसार कलसमें कहा है
जीपादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं,
- ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमल्लसन्तं । अज्ञानिन्छ निरवधिप्रविम्भितोऽयं,
मोहस्तु तत्कथमहो वत नानटीति ॥११-२|| - मावार्थ-जीवसे अजीव लक्षणसे ही भिन्न है इसलिये शानी
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योगसार टीका।
[१६५ जीव अपनेको सर्य रागादिसे सोशदिसे मिल जालमा गएकरूप अनुभव करता है। आश्चर्य य खेद है कि अज्ञानी जीयमें अनादिकालसे यह मोहभाव क्यों नाच रहा है जिससे यह अजीचको अपना तल मान रहा है : दो द्रव्योंको न्यारे न्यारे नहीं देखता है इसीसे संसार है।
आत्मा केवलज्ञानस्वभावधारी है। केवल-णाण सहाउ सो अप्पा मुणि जीव तुह । जइ चाहहि सिव-लाहु भाइ जोड़ जोइहि भागिल ॥३९।।
अन्वयार्थ-(जोइ ) हे योगी ! (जोदाई भणि) योनियोंने कहा है (तुहूं केवल-णाण-सहाउ सो अप्पा जीव मुणि) न केवलज्ञान स्वभावी जो आत्मा है उसे ही जीव जान (जह सिव-लाइ चाहि ) यदि तू मोक्षका लाभ चाहता है (भणइ) ऐसा कहा गया है।
भावार्थ-हरएक आत्माको जब निश्चयनयसे या पुद्गलये खभाषसे देखा जावे तब देखनेवालेके सामने अबेला एक आत्मा सर्व परर्फ संयोग रहित खड़ा होजायगा । तब वहां न तो आठों कर्म दीखेंगे न शरीरादि नो कर्म दीखेंगे, न रागद्वेषादि भावकम दीखेंगे। सिद्ध परमात्माके समान हरपक आत्मा दीखेगा । यह आत्मा वास्तवमें अनुभवस्न पर है । तथापि समझनेवे लिये कुछ विशेष गुणोंके द्वारा अचेतन द्रव्योंसे जुदा करके बताया गया है । छ: विशेष गुण ध्यान देनेयोग्य हैं।
(१) शान-जिस गुणके द्वारा यह आत्मदीपकके समान आपको व सर्व जाननेयोग्य द्रव्योंकी गुणपयायोको एकसाथ क्रम
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१६६] योगसार टीका। रहित जानता है, इसीको केवलज्ञान-स्वभाव कहते हैं । इन्द्रियोंकी व मनकी सहायता विना सकल प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान आवरण रहित सूर्यकी भांति प्रकाशता है। उसके द्वारा अन्य गुणोंका प्रतिभास होता हैं.। इसीको सर्वज्ञपना कहते हैं । हवाएक आत्मा स्त्रभावसे मर्वज्ञ हैं।
(२) दर्शन-जिस गुणकं द्वारा सर्व पदार्थ के सामान्य स्वभावको एकसाथ देखा जासके वह केवलदर्शन :स्वभाव है । वस्तु सामान्य विशेषरूप है, सामान्य अंशको ग्रहण करनेवाला दर्शन है, विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है !
(३) मुख-जिस गुणक द्वारा परम निराकुल अद्वितीय आनंदामृतका निरन्तर स्वाद लिया जावे । हरएक आत्मा अनन्त सुखका सागर है, वहां कोई सांसारिक नाशवंत परके द्वारा होनेवाला सुख व ज्ञान नहीं है । जमे लवणकी डली खाररससे व मित्रीकी डली मिष्टरससे पूर्ण है वैसे ही हरएक आत्मा परमानंदसे पूर्ण है ।
(४) वीर्य-जिस शक्तिसे अपने गुणोंका अनत कालतक भोग या उपभोग करते हुए खेद व थकावट न हो, निरंतर सहज ही शांतरसमें परिणमन झो, अपने भीतर किसी बाधकका प्रवेश न हो। हरएक आत्मा अनंतवीर्यका धनी है। पुदल में भी वीर्य हैं, अशुद्ध आत्माका घात करता है तथापि आत्माका वीर्य उससे अनंतगुणा है,. क्योंकि कौका क्षय करके परमात्मा पद आत्म वीर्यसे ही होता है।
(५) चैतनत्व-चैतनपना, अनुभवपना “चैतन्य अनुभवन" (आलाप पद्धति ) अपने ज्ञान स्वभावका निरंतर अनुभव करना,. कर्मका व कर्मफलका अनुभव नहीं करना । संसारी आत्मा रागी द्वेषी होते हैं अतएव राग द्वेषपूर्वक शुभ व अशुभ काम करने में तन्मय रहते हैं या कर्मके फलको भोगते हुए सुख दुःखमें तनमय होजाते हैं।
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योगसार टीका। [१६७ कर्म रहित शुद्ध आत्मामें मात्र एक ज्ञानचेतना है ज्ञानानन्दका ही अनुभव है।
(६) अमृतत्व--यह आत्मा यद्यपि असंख्यात प्रदेशी एक अखंड द्रव्य है तथापि यह स्पर्श, रस, गंध, वर्णसे रहित अमूर्तीक है । इन्द्रियोंके द्वारा देखा नहीं जासक्ता है । आकाशके समय निर्मल आकारधारी ज्ञानाकार है | इन छः विशेष गुणोरं यह आत्मा पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, कालाणु व आकाश इन पांच अचेतन द्रव्योंसे भिन्न झलकता है | हरएक आत्मा स्वभावसे परम वीतराग शांत निर्विकार है, अपनी ही परिणत्तिका कता व मोक्ता है, परका कर्ता व भोक्ता नहीं | हरएक आत्मा परम शुद्ध परमात्मा परम समदशी है।
इस तरह जो अपने आत्माको व परकी आत्माओंको अर्थात विश्वको सर्व आस्माओंको देखता है वहां पूर्ण स्वाभाविक या समभाव झलकता है । यही समभाव चारित्र है, ध्यान है, भावसंबर है भात्र निर्जरा है, यही कर्म क्षयकारी भाव है, यही निर्जराका उपाय है। योगियोंने, परम ऋषियोंने व अरहनोंने स्वयं अनुभव करके यही बताया है । मुमुक्षुको सदा ही अपने आत्माका ऐसा शुद्ध ज्ञान रखना चाहिये । समयसार कलशामें कहा है
अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमयाधितम् ।
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥ १-२ ।। भावार्थ-यह जीव अनादिसे अनंतकाल तक रहनेवाला है, चंचलता रहित निश्चल है, स्वयं चेतनामई है, स्वानुभवगोचर है, सदा ही चमकनेयाला है। तत्वानुशासनमें कहा है
स्वरूपं सर्वजीवानां स्वपरस्य प्रकाशनं । भानुमंडलवत्तेषां परस्मादप्रकाशनं ॥ २३५ ॥
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१६८ ]
योगसार टीका |
न मुह्यति संशेतं न स्वार्थानध्यवस्यति ।
न रज्यते न च द्वेष्टि किंतु स्वस्थः प्रतिक्षणं ॥ २३७॥
भावार्थ - सर्व जीवोंका स्वभाव आत्माका व परपदार्थोंका सूर्यमण्डल की तरह बिना दूसरे की सहायतासे प्रकाश करता है। हरएक आत्मा स्वभावसे संशयवान नहीं होता है, अनभ्यवसाय या ज्ञानके आलस्य भावको नहीं रखता है न मोह या विपरीत भात्रको रखता है, संशय विमोह अनभ्यवसाय रहित हैं, न तो राग करता हैं न द्वेष करता है। किंतु प्रति समय अपने ही भीतर मगन रहता है ।
ज्ञानीको हरजगह आत्मा ही दिखता है । को सुसमाहि कर को अंचर, छोपु- अछोपु करिवि को बंचउ । हल सहि कलहु केण समाणउ, जहि कहि जोवर तर्हि अप्पाणउ ॥४०
अन्वयार्थ - ( को सुसमाहि करउ ) कौन तो समाधि करे ( को अंचड ) कौन अर्चा या पूजन करें ( छोपु- अछोपु करित्रि ) कौन स्पर्श अस्पर्श करके ( को चंचल) कौन वंचना या मायाचार करें (केण सहि हल कलहु समाउ ) कौन किसके साथ मैत्री व कलह करे (जहि कहि जोवर तहि अप्पाणड ) जहां कहीं देखो वहाँ आत्मा ही आत्मा दृष्टिगोचर होता है ।
भावार्थ- इस चौपाई में बताया है कि निश्चयनयसे ज्ञानी " जब देखता है तब उसे अपना आत्मा परम शुद्ध दीखता है, वैसे ही विश्वभर में भरे सूक्ष्म व बादर शरीरधारी आत्माएं भी सब परम शुद्ध दीखती हैं। इस दृष्टिमें नर नारक देव पशुके नाना प्रकारके भेद नहीं दिखते हैं, एक आत्मा ही आत्मा दिखता है। ऐसा उस ज्ञानीके
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योगसार टीका ।
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भाव में समभाव झलक गया है । एक अद्वैत आत्माका ही अनुभव आरहा है ! अनुभव के समय तो आपमें ही लीन है।
अनुभवकी माता भावना है। भावनाके समय उसे शुद्ध दृष्टिसे शुद्धात्मा ही दिखता है। इसका अभिप्राय यह नहीं लेना कि पुदलादि पांच द्रव्योंका अभाव होजाता है । जगत छः द्रव्योंका समुदाय है । - द्रव्य सप्त सन् पदार्थ हैं, उनका कभी लोप नहीं होसकता । तथापि आत्मदर्शकका लक्ष्यचिन्दु एक आत्मा ही आत्मा है । इसलिये आत्मा श्रीभगा दिया है। जैसे कोई खेल जाते और दृष्टि देखनेवालेकी चने के दानेकी तरफ हो तो वह चनेके खेतमें चनों को ही देखता है, वृक्षके पत्ते, शाखा, मूलादिको नहीं देखता है और कहता है कि इस खेत में पांच मन चना निकलेगा ।
बहुतसे सुवर्णके गहने मणिजडित हैं, जौहरीके पास चिकनेको लेजाओ तब वह केवल मणियोंको देखता है, सुवर्णको नहीं ध्यान में लेना, मणियोंकी ही कीमत करता है। उसी ही गहनेको सरफिके पास जाओ तो वह मात्र सुवर्णको ही देखकर सुवर्णकी कीमत लगाता है | इसी तरह आत्मज्ञानीको हरजगह आत्मा ही आत्मा दीखता है, यही भाव सामायिक चारित्र है, यही श्रावकका सामायिक शिक्षाव्रत है ।
जब आप परम शांत समभावी होगए तब साक्षात् कर्मके क्षयका कारण उपाय बन गया। फिर वहाँ और कल्पनाओंका स्थान नहीं रहा, न यह चिंता रही कि समाधिभाव प्राप्त करना है न यह चिन्ता रही कि पूजन पाठ करना है, न वह विचार ही कि शुद्ध भोजन करना है अशुद्ध नहीं करना है, अमुकके हाथका स्पर्शित करना है, अमुक हाथका स्पर्शित नहीं करना है। राग द्वेष रूप भाष व्यवड़ारसे करना पडता है यह व्यवहार निश्चयकी अपेक्षा असत्य हैं, माया · रूप हैं, मिथ्याभिमान है ।
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१७० ]
योगसार टीका ।
जब सर्व जीवोंको समान देख लिया तब किसके साथ मैत्री. करे व किसके साथ कलह करे | रागद्वेष तो नाना भेदरूप दृष्टिमें ही होसके हैं। सबैको शुद्ध एकाकार देख लिया तत्र शत्रु व मित्रकी कल्पना ही न रही | सर्व व्यवहार धर्म कर्मसे दूर होगया | व्यवहार निमित्त साधन के द्वारा जो भाव प्राप्त करना था सो प्राप्त कर लिया । समभाव ही चारित्र है, समभाव ही धर्म है, समभाव ही परम तत्व है सो मिल गया । वह भव्यजीव कुला होगया, अंधकी परिपाटीसे छूट गया, निर्जराके मार्ग में आरूढ़ होगया। सर्वार्थसिद्धिमें कहा है
एक प्रथमं गमनं समग्र, समय एवं सामयिक, समय प्रवर्तनमस्येति वाषिद्ध सामाचिकं ॥ अ० ७ ० २१ ॥
भावार्थ - आत्माके साथ एकमेक होजाना आत्मामई होजाना सामायिक है । सारसमुच्चयमें कहा है
समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानसः । ममत्वभावनमुक्ती यात्यसौ पदमव्ययम् ॥ २९३ ॥ भावार्थ- जो सुबुद्धी सर्व प्राणी मात्र से समभाव रखता है क ममता ने छूट जाता है वही अविनाशी पदको पाता है ।
समाविशतक में कहा है
दृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते ।
इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् ॥ ४४ ॥
भावार्थ- मूर्ख अज्ञानी इस दिखनेवाले जगतको, स्त्री, पुरुष, नपुंसक रूप तीन लिंगमय देखता है। ज्ञानी इस जगतको शब्द रहित परम शांत देखता है ।
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यागसार दीका । [१७१ अनात्मज्ञानी कुतीर्थों में भ्रमता है । ताम कुतित्थिई परिभमइ धुतिम ताम करेंड्। गुरुहु पसाए जाण गवि शाणा- प्नुणे : ५१ ।।
अन्वयार्थ-(गुरुह पसाएं जाम अप्यादे णवि मुणे.) गुरु महाराज प्रसादसे जन एक अपने आत्मारूपी देवको नहीं पहचानता है (ताम कुतिथिइ परिभमइ) नबतक मिथ्या तीर्थोंमें घूमता है (नाम धुत्तिम करेइ) तब ही नक धूर्तता करता है।
भावार्य-जबतक यह जीव अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टी है, संसारासक्त है तबतक इसकी इ इन्द्रियों की प्राप्तिकी कामना रहती है व बाधक कारणोंक मिटानेकी लालसा रहती हैं । मिथ्यामागके उपदेशकोंक द्वारा जिस किसीकी भक्ति व पूजाले व जहाँ कहीं जानेसे विषयोंके लाभमें मदद होनी जानता है उसकी भक्ति व पुजा करता है व उन स्थानोंमें जाता है ! मिथ्या देवोंकी, मिण्या गुरुओंकी मिथ्या धर्माकी, मिथ्या तीर्थोकी खूब भक्ति करता है। नदी व सागरमें स्नानसे पाप नाश कर इष्टलाभ मान लेता है । स्त्रेल तमाशोंमें विषय पोखते हुए धर्म मान लेता है । तीन प्रकारकी मुदतामें फंसा रहता है, जैसा श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है
आफ्गासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽमिपातब्ध लोकमूदं निगद्यते ॥ २२ ॥
भावार्थ-नदी व सागरमें स्नान करनेसे, वाटू व पत्थरोंके. ढेर लगानेसे, पर्वतसे गिरनेसे, आगमें जलकर मरनेसे भला होगा मानना, पाप क्षय, पुण्य लाभ या मुक्ति मानना लोकमूढ़ता है।
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः। देवता यदुपासीत देवतामूहमुच्यते ॥ २३ ॥
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१७२ ]
योगसार टीका ।
भावार्थ-लौकिक फलकी इच्छासे आशावान होकर जो राग द्वेषसे मलीन देवताओंको पूजना सो देवमूढ़ता है । समन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् ।
पाखण्डिन पुरस्कारो ज्ञेये पाखण्डिमोहनम् ॥ २४ ॥ भावार्थ- परिग्रहधारी, आरंभ य हिंसा करने वाले, संसाररूपी चक्रमें वर्तने व वर्ताने वाले साधुओंका आदर सत्कार करना सो पाखण्ड मूढ़ता है !
लौकिक जन इन तीन प्रकारको मूढताओंसे ठगे गए संसारासक्त बने रहते हैं । इनके लिये तन, मन, धन अर्पण करके बड़ी भक्ति करते हैं। धन, स्त्री, निरोगता आदि लाभके लोभसे पशुबलि तक देवी देवताओंके नामपर करते हैं। धूर्तता व खोटे पापबन्धक नदी सागरादि तीर्थोंमें भ्रमण तबतक यह अज्ञानी करता रहता है जबतक इसको सम्यग्दर्शनका प्रकाश नहीं है ।
अपने ही आत्माको परमात्मा देव मानना व परमानंदका प्रेमी होना, संसारके विषयोंसे वैराग्य होना, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि लौकिक पदोंको अपर समझकर इनसे उदास होना, आत्मानुभवको ही निश्चय धर्म मानना सम्यग्दर्शन है । सम्यक्ती मुख्यतासे अपने आत्मादेवकी आराधना करता है । जब रागके उदयसे आत्मशक्ति नहीं हो सक्ती है तब बीतरागताके हो उद्देश्यसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पांच परमेष्ठियोंकी भक्ति करता है, शास्त्रोंका मनन करता है, वैराग्य दायक व आत्मज्ञान जागृत करनेवाले उत्तम तीर्थोंकी यात्रा करता है।
संसारसे पार होनेवाले मार्गको वीर्थव पार होनेका मार्ग बतानेवालोंको तीर्थंकर कहते हैं। ये तीर्थकर या उनड़ी के समान अन्य मोक्षगामी महात्मा जहां जन्मते हैं, तप करते हैं, केवलज्ञान उपजाते
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योगसार टीका |
[ १७३
हैं व निर्वाण जाते हैं वे सब पवित्र स्थान आत्मधर्म रूपी तीर्थको स्मरण कराने के निमित्त होनेसे तीर्थ कहलाते हैं। जैसे अयोध्या, हस्तिनापुर, कॉपिल्या, बनारस, सम्मेद शिखर, गिरनार, राजगृह, पावापुर इत्यादि । जहां कहीं विशेष ध्यानाकार प्राचीन प्रतिमा होती है वह भी वैराग्य के निमित्त होनेसे तीर्थ माना जाता है जैसे श्रवणबेलगोला के श्री गोम्मटस्वामी, चांदनगांव के महावीरजी, सजोतके श्री शीतलनाथजी आदि ।
आत्मज्ञानी ऐसे तोथका निमित्त मिलाकर आत्मानुभवकी शक्ति बढ़ाता है | निश्चय तीये अपना आत्मा ही है, व्यवहार तीर्थ पवित्र क्षेत्र है ।
निज शरीर ही निश्चयसे तीर्थ व मंदिर है। तित्थहि देवलि देउ वि इम सुकेवलि बुत्तु । देहादेवलि देउ जिणु एहउ जागि णिरुतु ॥४२ ||
अन्वयार्थ - (मुइकेवल इम बत्तु ) श्रुतकेवली ने ऐसा कहा है कि ( तित्यहिं देवलि देउ णावे ) तीर्थक्षेत्रों में व देव मंदिरमें परमात्मा देव नहीं हैं ( णिरुत्तु एहउ जाणि) निश्चयसे ऐसा जान कि ( देहादेवाल जिणु दंड ) शरीररूपी देवालय में जिनदेव हैं।
भावार्थ - निश्चय से या वास्तव में यदि कोई परमात्मा श्री जिनेन्द्रका दर्शन या साक्षात्कार करना चाहे तो उसको अपने शरीके भीतर ही अपने ही आत्माको शुद्ध ज्ञान दृष्टिसे शुद्ध स्वभावी सर्व भावकर्म, द्रव्य कर्म, नोकर्म रहित देखना होगा । कोई भी इस जगतमें परमात्माको अपनी धर्मचक्षुसे कहीं भी नहीं देख सका है। न मंदिर में न तीर्थक्षेत्र में न गुफामें न पर्वतपर न नदी तीरपर न
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१.७४ ]
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'किसी गुरुके पास न किसी शास्त्रके वाक्योंमें अबतक जिसने परमात्माको देखा है अपने ही भीतर देखा है । वर्तमानमें परमात्माका दर्शन करनेवाले भी अपनी देह के भीतर ही देखते हैं, भविष्य में भी जो कोई परमात्माको देखेगा यह अपने शरीररूपी मंदिर में ही देखेंगे ।
जन ऐसा निश्चय सिद्धांत है तब फिर मंदिर में आकर प्रतिमाका दर्शन क्यों करते हैं व तीर्थक्षेत्रोंपर जाकर पवित्र स्थान पर क्यों मस्तक नमाते हैं ? इसका समाधान यह है कि ये सब निमित्त कारण हैं, जिनको भक्ति करके अपने ही भीतर आत्मा देवको स्मरण किया जाता है । जो उच्च स्थिति पर पहुंच गए हों कि हर समय आत्माका साक्षात्कार हो ये तो सातवें आगे आठ नौमें दर्शव आदि गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त में चढ़कर केवलज्ञानी होजाते हैं । जो सविकल्प | नीची अवस्था में हैं, जिनके भीतर प्रमाद जनक कषायका तीत्र उदय सम्भव है, ऐसे देशसंथम गुणस्थान तक श्रावक गृहस्थ तथा प्रमत्तविरत गुणस्थानधारी साधु इन सबका मन चाल हो जाता है, तब बाहरी निमित्तोंके मिलनेपर फिर स्त्ररूपकी भावनाएँ दूर हो जाती हैं । इनके लिये श्री जिन मन्दिर में प्रतिमाका दर्शन व तीर्थक्षेत्रोंकी वन्दना आत्मानुभव या आत्मीक भावना के लिये निमित्त हो जाते हैं ।
यहाँपर यह बताया है कि कोई मृह ऐसा समझ ले कि प्रतिभामें ही परमात्मा है या तीर्थक्षेत्र में परमात्मा बिराजमान है, उनके लिये यहां खुलासा किया है कि प्रतिमा में परमात्मा की स्थापना है या क्षेत्रों पर निर्वाणादिके पदोंकी स्थापना है । स्थापना साक्षात् पदार्थको नहीं बताती है किंतु उसका स्मरण कराती है व उसके गुणोंका भाव चित्र झलकाती है जिसकी वह मूर्ति हैं। बुद्धिमान कोई यह नहीं मान सक्ता कि ऋषभदेवकी प्रतिमामें ऋषभदेव हैं या
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योगसार टीका।
[ १७५ महावीरकी प्रतिमामें महावीर हैं। यह यही मानेगा कि वे प्रतिमाएं ऋषभ या महावीरके ध्यानमय स्वरूपको झलकाती हैं, उनके वैराग्यकी मूर्ति हैं। ___ इन मूर्तियोंके द्वारा उनहीका स्मरण होता है व मूर्तिको वन्दना करनेस, व पूजन करनेस जिनकी मूर्ति है उसीकी वन्दना या पूजा समझी जाती हैं | क्योंकि भक्तिका लक्ष्य उनपर रहता है, जिनकी वह मूर्ति हैं । लौकिनमें भी दे गुरुपोंके दिनका आदर उनहीका आदर व उन चित्रोंका अनादर उनहींका अपमान समझा जाता है जिनका वह चित्र है । दर्शकके परिणाम भी मूर्ति के निमित्तसे बदल जाते हैं । वीतराग, तपददर्शक मूर्ति वैराग्य व रागवर्द्धक भूति रागभात्र उत्पन्न कर देती है । छठे गुणस्थानतकके भव्यजीव प्रतिमाओंकी व तीर्थक्षेत्रको भक्ति करते हैं। उनकी भक्ति के बहाने व सहारेसे अपने ही आत्माकी भक्तिपर पहुंच जाते हैं।
जो सम्यग्दृष्टी है-आत्मज्ञानी हैं, जो अपनी दहमें अपने ही आत्माको परमात्मारूप देख सकते हैं उनके लिये मंदिर, प्रतिमा, तीर्थक्षेत्र आत्माराधनमें प्रेरक होजाते हैं। जैसे ज्ञानकी वृद्धि में शास्त्रों के वाक्य प्रेरक होजाते हैं । ये सब बुद्धिपूर्वक प्रेरक नहीं है, किन्तु उदासीन प्रेरक निमित्न हैं।
तत्वार्थसारमें स्थापनाका स्वरूप हैसोऽयमित्यक्षकाष्ठादः सम्बन्धेनान्यवस्तुनि । यद्यवस्थापनामात्र स्थापना साभिधीयते ॥ ११-१॥
भावार्थ-लकड़ीकी गोठमें या अन्य वस्तुमें किसीको मान लेना कि यह अमुक है सो स्थापना निक्षेप है । जिसकी स्थापना करनी हो उसके उस भावको घैसी ही दिखानेवाली मूर्ति बनाना तदाकार स्थापना है। किसी भी चिलमें किसीको मान लेना अतदाकार
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योगसार टीका ।
स्थापना है । जैसे चित्रपटमें किसी लकीरको नदी, किसी बिन्दुको पर्वत, किसी घेरेको नगर आदि मान ली है। स्थापना केवल की है । कोई मूढ़ स्थापनाको साक्षात् मानकर नदीकी स्थापनारूप लकी - रसे पानी लेना चाहे तो पानी नहीं मिलेगा। क्योंकि लकीर में साक्षात् नदी नहीं है ।
कोई साधुकी मूर्तिको देखकर प्रश्न करना चाहे तो उत्तर नहीं. मिल सकता। क्योंकि वहां साक्षात् साधु नहीं है, साधुका आकारप्रदर्शक चित्र है। तात्पर्य यह है कि मंदिर व तीर्थ में साक्षात् परमात्माका दर्शन नहीं होगा । परमात्मा जिनदेवका दर्शन तो अपने ही आत्माको आत्मारूप यथार्थ देखने से होगा ।
परमात्मप्रकाश में भी कहा है
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देहा देउलि जो बस, देव अणाइ अतु ।
केवलणा फुरंत तणु सो परमप्पु भणेतु ॥ ३३ ॥
भावार्थ - देहरूपी देवालय में जो अनादिसे अनंतकाल रहनेवाला केवलज्ञानमई प्रकाशमान शरीरधारी अपना आत्मा है वही निःसंदेह परमात्मा है ।
अणुजि तित्थ में जाहि जिय, अण्णुजि गुरउ म सेवि । अणुजि देव म चिंत तुहुं अप्पा विमल मुवि ॥ ९५ ॥
भावार्थ - और तीर्थ में मत जा, और गुरुकी सेवा न कर अन्य देवकी चिंता न कर, एक अपने निर्मल आत्माका ही अनुभव कर, यही तीर्थ है, यही गुरु है, यही देव है, अन्य तीर्थ, गुरु व देव केवल व्यवहार निमित्त है ।
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योगसार टीका ।
देवालय में साक्षात् देव नहीं है ।
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[ १७७
देहा- देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं पिएड़ | हासउ महु पडिहार इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ ॥ ४३ ॥
अन्वयार्थ - (जिशु देउ देहा देवाले) श्री जिनेन्द्रदेव देहरूपी देवालय में हैं ( जणु देवलिहिं पिएइ) अज्ञानी मानत्र मंदिरों में देखता फिरता है ( महु हासउ पsिहाइ ) मुझे हंसी आती है इहू सिद्धे भिक्ख भंगड़ जैसे इसलोकमें धनादिकी सिद्धि होने पर भी कोई भीख मांगता फिरे ।
भावार्थ - यहां इस बात पर लक्ष्य दिलाया है कि जो लोग केवल जिनमंदिरोंकी बाहरी भनिस ही संतुष्ट होते हैं व अपनेको धर्मात्मा समझते हैं, इस बातका बिलकुल विचार नहीं करते हैं कि यह मूर्ति क्या सिखाती है व हमारे दर्शन करनेका व पूजन करनेका क्या हेतु है. वे केवल कुछ शुभ भावसे पुण्य बांध देते हैं. परन्तु उनको निर्माणका मांग नहीं दीख सक्ता है। बाहरी चारित्र विना अंतरंग चारित्रके, वालू तेल निकालने के समान प्रयोग है। सम्यग्दर्शन विना सर्वे ही शास्त्रका ज्ञान व सर्व ही चारित्र मिथ्याज्ञान व मिया चारित्र है ।
अपने आत्मा के सच्चे स्वभावका विश्वास ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शनके प्रकाशसे अपने आत्माको कर्मकृत विकारवश रागी, द्वेषी, संसारी माननेका अज्ञान अधकार मिट जाता है तब ज्ञानी सम्यग्टीको अपने शरीरमें व्यापक आत्माका परमात्मारूप ही श्रद्वान जम जाता है । वह सदा अपने शरीर रूपी मंदिर में अपने आत्मारूपी देवका निवास मानता है तथा अपने आत्माके द्वारा धनको हो सथा धर्म मानता है । वह सम्पती कभी भ्रम में नहीं
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योगसार टीका ।
पड़ता है। वस्तुओंका यथार्थ स्वरूप जानता है । वह जिनमंदिर में जिन प्रतिमाका दर्शन, पूजन अपने आत्मीक गुणों पर लक्ष्य जानेके लिये व अपने भीतर आत्मदर्शन करनेके लिये ही करता है । वह जानता है कि मूर्ति जड़ है, केवल स्थापना रूप है। ध्यानका चित्र है उसमें साक्षात् जिनेन्द्र नहीं हैं। जो भूतकाल में तीर्थकर या अन्य अरहंत होगए हैं वे अब सिद्धक्षेत्र में हैं । वर्तमान में इस भरतक्षेत्र में इस पंचमकालमें नहीं है । यदि होते भी व समवशरण या गंधकुटीमें उनका दर्शन होता भी जो आंखोंसे तो केवल उनका शरीर ही दिखता, आत्मा नहीं दिखता। उनका आत्मा कैसा है इस बातके जाननेके लिये तब भी अपने शरीर में ही विराजित अपने आत्मा देवको ध्यानमें लाना पड़ता । वास्तवमें जो अपने आत्मा के स्वभावको पहचानता है वही जिनेश्वरकी आत्माको पहचानता है ।
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अपने आत्माका आराधन ही उनका सजा आराधन है । जो अपने आत्माको नहीं समझते व बाहर आत्मा देवको ढूंढते हैं उनके लिये हास्यका भाव संथकारने बताया है व यह मुर्खता प्रगढ़ की है कि बनका स्वामी होकर भी कोई भीख मांगता फिरे ।
एक मानव बहुत लोमी था, धनको गाड़ कर रखता था, धाहरसे दीन दिखता था अपने पुत्रको भी धनका पता नहीं बताया । केवल उसका एक पुराना मित्र ही इस भेदको आनता था कि इसने प्रचुर धन अमुक स्थानमें रक्खा है। कुछ काल पीछे यह मर जाता है । पुत्र अपनेको निर्धन समझकर दीनहीन वृत्ति करके पेट भरता है । एक दिन पुराने मित्रने बता दिया कि क्यों
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दुःखी होते हो ? तेरे पास अटूट धन है। वह अमुक स्थानमें गड़ा है। सुनकर प्रसन्न होता है । उस स्थान पर खोदकर धनका स्वामी हो
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योगसार टीका। जाता है । फिर भी यदि वह दीन वृत्ति करे तो हास्यका स्थान है। इसी तरह जिसने आत्मा देवको शरीरफ भीतर पा लिया उसको फिर बाहरी क्रिया में मोह नहीं हो सकता । कारणवश अशुभसे बचनेके लिये बाहरी क्रिया करता है तो भी उसे निर्वाण मार्ग नहीं मानता। निर्माण मार्ग तो आत्माके दर्शनको ही मानता है ।
समयसारमें कहा हैपरमबाहिरा जे ते अणणाणेण पुणमिच्छति । संसारमनामहेदं विनोमवहेतुं अयागंता ॥ १६१ ॥
भावार्थ--जो परमार्थसे बाहर हैं, निश्चयधर्मको नहीं समझते व मोक्षके मार्गको नहीं जानते हुए अन्ना से संपार-भमाण पत्र पुण्यको ही चाहने हैं, पुण्यकर्म बंधकारक क्रियाको निर्वाणका कारण मान लेता है । समयसार कलशमें कहा है--
लिवक्ता स्वयमेव दुष्करतरैक्षिोन्मुखः कर्मभिः किग्रन्ती च परे महावृततपोमारेल भन्नाश्चिरं । साक्षान्मोक्ष इन्दं निरामयपदं संवद्यमान स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुगं चिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्त न हि ॥१०-७॥
भावार्थ---कोई बहुत कठिन मोक्षमार्गमे विरुद्ध असत्य व्यकहाररूप क्रियाओंको करके कष्ट भोगो तो भोगो अथषा कोई चिक्राल जैनोंके महानत व तपके भारसे पीड़ित होते हुए कष्ट भोगो तो भोगो, परन्तु मोक्ष नहीं होगा । क्योंकि मोक्ष एक निराकुल पद है, ज्ञानमय है, स्वयं अनुभवगोचर है, ऐसा मोक्ष विना आत्मज्ञानके और किसी भी तरह प्राप्त नहीं किया जामता ।
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१८० ]
योगसार टीका |
समभावरूप वित्तसे अपने देहनें जिनदेवको देख |
सूठा देव देउ विधावि सिलि लिप्यह चित्ति । देहा देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समिचित्ति ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थ -- ( मूढा ) हे भूर्ख 1 (देउ देवलि णवि ) देव किसी मन्दिर नहीं है (सिलि लिप्पर चित्ति णावे ) न देव किसी पाषाण व या चित्रमें है ( जिणु देउ देहा-देवलि) जिनेन्द्रदेव परमात्मा शरीररूपी देवालय में हैं ( समाचारी सो बुज्झहि) उस देवको समभाव से पहचान या उसका साक्षात्कार कर। भावार्थ-यहां फिर भी किया है कि परमात्मा देव ईट च पाषाणके बने हुए मंदिर में नहीं मिलेंगे, न परमात्माका दर्शन किसी पापा की या मिट्टीकी मुर्ति में होगा न किसी चित्रमें होगा | अपना आत्मा हो स्वभाव से परमात्मा जिनदेव है । उसका दर्शन यह ज्ञानी प्रायः अपने भीतर कर सक्ता है। यदि यह रागक्षेपको छोड़ दे. शुभ या अशुभ राग त्याग दे वीतरागी होकर अपनेको आठ कर्म रहित, शरीर रहित, रागादि विकार रहित देखे !
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मंदिरांका निर्माण निराकुल स्थानमें इसलिये किया जाता है कि गृहस्थी या अभ्यासी माधु वहां बैठकर सांसारिक निमित्तों बचें, चित्तको दुरी वासनाओंसे रोक सकें व मंदिरमें निराकुल हो आत्माका ही दर्शन सामायिक द्वारा, धान्यात्मिक शास्त्र पठन या मनन द्वारा, ध्यानमय मूर्ति दर्शन द्वारा किया जासके। इसी तरह पाषाण या धातुकी प्रतिमाका निर्माण ध्यानमय व वैराग्यपण भावका स्मरण कराने के लिये किया जाता है। आत्माका दर्शक अपना शरीर है।
शरीर में आत्मदेव विराजमान है जिसको इस बातका पक्का
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घोगसार टीका।
१४१ श्रद्धान है कि उसकी धारणाको जगानेके लिये ध्यानमय मूर्तिका दर्शन व उसके सामने गुणानुवाद रूप पूजन निमित्त कारग है । निमित्त उपादानको जगाने में प्रवल कारण होते हैं । रागका निमित्त रागभाव व वीतरागी निमित्त वीतरागभाव जागृत कर देती हैं। अभ्यासी साधकको सदा ही भावोंकी निर्मलताके लिये निर्मल निमित्त मिलाने चाहिये, चाधक निमित्तोस बचना चाहिये ।
तत्वानुशासनमें कहा हैसंगत्यागः कषायाणां निग्रहो व्रतधारण । मनोऽक्षाणां जयोति सामग्री ध्यानगम्मने ॥ ७ ॥
भावार्थ-परिग्रहका त्याग, कशयोका निरोध, अहिंसादि व्रतका धारण, मन व इंद्रिचोका विजय, ये कर बातें ध्यानकी उत्पत्तिके लिये सामग्री है।
स्वाध्यायाद्ध्यानमध्यानन्त्यान्नास्वाध्यायमान्नेत् । ध्यानम्वाध्यायसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशले ।। ८१ ॥
भावार्थ-शास्त्रका मनन करते करने ध्यानमें चढ़ जाओ। न्यानमें मन न लगे तो वाध्याय में आजाओ। ध्यान और स्वाध्यायके लाभके द्वारा परमात्माका प्रकाश होता है।
शून्यागार गुहाय चा दिवा घ। यदि वा नाश । श्रीपशुक्लीबजीवानः क्षुद्रामाश्रमांचरे ॥ १० ॥ अन्यत्र वा कन्धिो प्रशस्ते प्रारमुके लमे। चेतनाचेतनाशेष यानविविवर्जित ॥ २१ ॥ भूतले वा शिलावर सुखासीनः स्थितोऽथवा । सममृज्वायत गाचं निकंपावरचे दधल ॥ २२॥
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योगसार टीका |
नासाप्रन्यस्तनिष्यंदलोचनो मंदमुच्छ्रवसन् । द्वात्रिंशदोषनिकायोत्सर्गव्यवस्थितः ॥ ९३ ॥
१८२ ]
प्रत्याहत्याक्षलुंदाकांस्तदर्थेभ्यः प्रयत्नतः ।
चितां चाक्लृप्य सर्वेभ्यो निरुध्य ध्येयवस्तुनि ॥ ९४ ॥ निरस्तनिद्रो निर्भीतिनिरालस्यो निरन्तरं । स्वरूपं पररूपं वा ध्यायेदंतर्विशुद्धये ॥ ९५ ॥
भावार्थ - दिन हो या रात, सूने स्थान में, गुफामें, स्त्री, पशु.. नपुंसक के परा या किसी शुभ जीवरहित, समतल स्थान में, जहां वेतन व अचेतन सर्व प्रकार के वित्रोंका नाश हो, भूमि में या शिला पर सुखासनसे बैठकर या खड़े होकर सीधा निष्कम्प समतील रूप शरीरको धारण करके निश्चल बने, नासाग्र दृष्टि, मंद मंद श्वास लेता हुआ बत्तीस कायोत्सर्ग के दोषों से रहित होकर व प्रयत्न करके इंद्रिय रूपी लुटेरोंको विषयोंसे रोककर व चित्तको सब भावोंसे रोककर ध्येय वस्तुको जोड़कर, निद्राको जीतता हुआ, भय रहित हो, आलस्य रहित हो, निरंतर अपने ही आत्मा शुद्ध स्वरूपको या पर सिद्धोंके स्वरूपको अंतरंग की शुद्धिके लिये न्यावे | समाधिशतक में कहा है
रागद्वेषादिकल्लोलैस्लोल यन्मनोजलम् ।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं स तत्त्वं नेतरो जनः ॥ ३५ ॥
भावार्थ - जिस ध्यानीका अनुराग द्वेषादिकी लहरोंसे चञ्चल नहीं होता है वही आत्माके स्वभावको अनुभव करता है, रागी द्वेषी अनुभव नहीं कर सकता है।
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योगसार टीका । [१८३ ज्ञानी ही शरीर मंदिर में परमात्माको देखता है।
तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु बि कोइ भणेइ । देहा-देडाले जो भुणइ सो बुहु को वि हवेइ ।। ४५ ॥
अन्वयार्थ- ( सव्यु वि कोइ भणेइ ) सब कोई कहते हैं (तित्यइ देडलि देउ जिणु ) कि नीर्थमें या मंदिरमें जिनदेव है (जो देहा-देउलि मुणइ ) जो कोई देहरूपी मन्दिरमें जिनदेवको देखता है या मानता है (सो का वि बह हवेई) सो कोई ज्ञानी ही होता है।
भावार्थ-जगतमें व्यवहारको ही सत्य माननेवाले बहुत है। सब कोई यही कहते हैं कि घड़ेको कुम्हारने बनाया । घड़ा मिट्टीका बना है, ऐसा कोई नहीं कहता है। असल में बड़ेमें मिट्टीकी ही शकल है, मिट्टीका डेला ही घड़के रूपमें बदला है। कुमारके योग व उपयोग मात्र निमित्त हैं। इसी तरह तीर्थ स्वरूप जिन प्रतिमाएं केवल निमित्त हैं, उनके द्वारा अपने शुद्ध आत्माक सदश परमात्मा अरहंत या सिद्धका स्मरण हो जाता है । वास्तवमें वे क्षेत्र व प्रतिमा व मन्दिर सब अचेतन जड़ हैं । तौभी चेतनके स्मरण करानेके लिये प्रबल निमित्त हैं, इसीलिये उनकी भक्ति के द्वारा परमात्माकी भक्ति की जाती है। मिथ्यादृष्टी अज्ञानी विचार नहीं करता है कि असली बात क्या है । वह मंदिर व मूर्तिको ही देव मानके पूजता है। इससे आगे विचार नहीं करता है कि प्रतिमा तो अरहन्न व सिद्धपदके ध्यानमय भावका चित्र है । उस भावकी स्थापना है। साक्षात् देव यह नहीं है।
तथा भक्ति करते हुए भी वह भक्त उन्हींके गुणानुवाद करता है जिनकी वह मूर्ति है । वह कभी भी पाषाणकी या धातुकी प्रशंसा
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१८४ ]
योगसार टीका |
नहीं करता है तभी अन्तरंग में विचार यही करता है कि जिसकी स्तुति कर रहा हूं वह देव कहाँ हैं । यह इस रहस्यको नहीं पहुंचता है कि उसीका आत्मा ही स्वभावसे परमात्मा है। तीन शरीरोंके भीतर यही साक्षात् देव बिराजमान हैं। मैं ही परमात्मा हूं। यह ज्ञान यह श्रद्धान व ऐसा ही परिणमन विचारे मिध्यादृष्टी जीवको नहीं होता है।
सम्यग्दृष्टी सदा ही जानता है व सदा ही अनुभव करता है कि जब मैं अपने भीतर शुद्ध निश्यनयकी दृष्टिसे देखता हूं तो मुझे मेरा आत्मा ही परमात्मा जिनदेव दीखता है। मुझे अपने ही भीतर आपको आपसे ही देखना चाहिये। यही आत्मदर्शन निर्वाणका उपाय है। कोई सिंहकी मूर्तिको साक्षात् सिंह मानके पूजन करें कि यह सिंह मुझे खाजायगा तो उसको अज्ञानी ही कहा जायगा | ज्ञानी जानता है कि सिंहकी मूर्ति सिंहका आकार व उसकी क्रूरता व भयंकरता दिखाने के लिये एकमात्र साधन है, साक्षात सिंह नहीं है। इससे भय करने की जरूरत नहीं है। जहां साक्षात् सिंहका लाभ नहीं है वहां सिंहका स्वरूप दिखानेको सिंहकी मूर्ति परम सहायक है । शिष्यों को जो सिंहके आकारसे व उसकी भयंकरतासे अनभिज्ञ हैं, सिंहकी मूर्ति सिंहका ज्ञान करानेके लिये प्रयोजनवान है ।
इसी तरह जबतक व जिस समय अपने भीतर परमात्माका दर्शन न हो तबतक यह जिन मूर्ति परमात्माका दर्शन करानेके लिये निमित्त कारण है। मूर्तिको मूर्ति मानना, परमात्मा न मानना दी यथार्थ ज्ञान है । व्यवहार के भीतर जो मगन रहते हैं वे मूल तत्वको नहीं पहचानते हैं | यहां पर आचार्यने मूल तत्व पर ध्यान दिलाया हैं कि - हे योगी | भीतर देख, निश्चित होकर भीतर ध्यान लगा । तुझे राग द्वेषके अभाव होने पर व समभावकी स्थिति प्राप्त होने पर
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योगसार टीका। [१८५ परमात्माका लाभ होगा। व्यवहार वास्तव में अभृतार्थ व असत्यार्थ है, जैसा मूल पदार्थ है वैसा इसे नहीं कहता है।
व्यवहारमें जीव नारकी पशु मनुष्य देव कहलाना है । निश्चयसे यह कहना असत्य है | आत्मा न तो नारकी है न पशु है न मनुष्य है न देव है। शरीर के संयोगसे व्यवहारनयके व्यवहार चलानेको मेद कर दिये हैं | जैसे तलवार लोहेकी होती है। सोनेकी म्यानमें ही मो मोनेको तलवार, चांदी भ्यानमें चाँदीकी तलवार, पीतलकी म्यानमें पीतलकी तलवार कहलाती है। यह कहना सत्य नहीं है। सय दलबारे एक ही हैं। उनमें भेद करनेके लिये सोना, चांदी व पीतलकी तलवार ऐसा कहना पड़ता है जो भेदरूप कथन सुन करके भी तलवारको एकरूप ही देखता है। सोना, चांदी व पीतलको नहीं देखता है । सोना चांदी पीतलकी म्यान देखता है वहीं ज्ञानी है। इसी तरह जो अपने देह मन्दिरमें बिराजित परमात्मा देवको ही आप देखता है, आपको मानवरूप नहीं देखता है । मानब तो शरीर है आत्मा नहीं हैं बही ज्ञानी है । पुरुषार्थसिद्धयपायमें कहा है-. . निश्चयमिह भूतार्थ व्यबहार वणयन्त्यभूतार्थम । भृतार्थबोधनिमुख: प्रायः सर्वोऽपि संसारः ॥५॥ माणवक व सिंहो यथा भक्त्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निन्धयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥ ७ ॥
भावार्थ-निश्चयनय यथार्थ वस्तुको कहता है, व्यवहारमय बस्तुको यथार्थ नहीं कहता है, इसलिये सर्वज्ञ देव निश्चयको भृतार्थ व व्यवहारको अभृतार्थ कहते हैं। बहुधा सर्व ही संसारी इस भूतार्थ निश्चयके ज्ञानसे दूर हैं । जिस बालकने सिंह नहीं जाना है वह बिलारको ही सिंद जान लेता है, क्योंकि बिलाप दिखाकर उसे
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योगसार टीका । सिंह कहा गया था, उसीतरह जो निश्चयतत्वको नहीं जानता है. वह व्यवहार हीको निश्चय मान लेता है । वह कभी भी सत्यको नहीं पाता है।
धर्म रसायनको पीनेसे अमर होता है । जइ जर-मरण-करालियर तो जिय धम्म कहि । धम्म-रसायणु पियहि तुहुँ जिम अजरामर होहि ॥४६॥
अन्वयार्थ (जिय) हे जीव ! (जइ जरमरणकरालियउ) यदि जरा व मरणके दुःखोस भयभीत है (तो धम्म कोहि) तो धर्म कर (तुहूँ धम्मरसायणु पियहि ) तु धर्मरसायनको पी (जिम अजरामर होहि ) जिससे तृ अजर अमर होजावे |
भावार्थ-मनुष्यगतिको लक्ष्य लेकर कहा है कि यहां जरा व मरणके भयानक दुःख हैं । जब जरा आजाती है, शरीर शिथिल होजाता है, अपने शरीरकी सेवा स्वयं करनेको असमर्थ होजाता है, इंद्रियों में शक्ति घट जाती है, आंत्रकी ज्योति कम पड़जाती है, कानों में सुननेकी शक्ति कम होजाती है, दांत गिर जाते हैं, कमर टेढ़ी होजाती है, हाथ पांव हिलने लगते हैं, खाने पीनेमें कट पाता है, चलने बैठने में पीड़ा पाता है।
इच्छानुसार समय पर भोजनपान नहीं मिलता है। अपने कुटुम्बोजन भी आज्ञा उल्लंघन करने लग जाते हैं । शरीरमें विषयोंके भोग करनेकी शक्ति घट जाती है, परन्तु भोगकी तृष्णा बढ़ जाती है। तक चाहकी दाहसे जलता है, गमन नहीं कर पाता है, रातदिन मरणकी भावना भाता है। जरा महान दुःखदायी मरणकी दूती है, शरीरकी दशा क्षणभंगुर है, युवावय थोड़ा काल रहती है फिर यकायक बुढ़ापा
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योगसार टीका |
आ पेरता है तब एक एक दिन वर्षके बराबर बीतता है ।
मरणका दुःख भी भयानक होता है। मरनके पहले महान कष्ट - दाई रोग होजाता है तब महान वेदना भोगता है। असमर्थ होकर कुछ भी कह सुन नहीं सक्ता है। जब तक शरीरका प्रधा है तबतक जन्म जरा मरणके भयानक दुःखोंको सहना पड़ेगा | मानव जन्म के दुःखमे पशुगतिके महान् दुःख हैं जहां सबलोंके द्वारा निर्बल वध किये जाते हैं। पराधीनपने एकेन्द्रियादि जन्तुओंको महान शारीरिक पीड़ा सहनी पड़ती है ।
आगम द्वारा नरकके असहनीय कर तो विदित ही हैं। देव गतिमें मानसिक कष्ट महान है, ईषभाव बहुत है, देवियोंकी आयु बहुत अल्प होती हैं तब देवोंको वियोगका घोर कष्ट सहना पड़ता हैं । विषयभोग करते हुए तृष्णाकी दाह बढ़ाकर रातदिन आकुलित रहते हैं, चारों ही गतियों में कर्मका उदय है। इन गतियोंके भ्रमणसे रहित होनेके लिये कर्मके क्षय करनेकी जरूरत है। विवेकी मानवको
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भले प्रकार निश्चय कर लेना चाहिये कि संसार सागर भयानक दुखरूपी खारे पानी भरा है, उससे पार होना ही उचित है। कर्मोंका क्षय करना ही उचित हैं, आत्माका भ्रमण रोकना ही उचित है । पंचमराति मोक्ष प्राप्त करना ही उचित है, अजर-अमर होना ही उचित है, इस श्रद्धानके होनेपर ही मुमुक्षु जीव संसारके अयके लिये धर्मका साधन करता है ।
धर्मि उसे ही कहते हैं जो संसार के दुःखोंसे उगारकर मोके परमपदमें धारण करे। वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है । रत्नन्नयके भाव से ही नवीन कर्मोका संवर होता है व पुरातन कर्मोंकी अविपाक निर्जरा होती है। यह रत्नत्रय निश्वयसे एक आत्मीक शुद्धभाव है, आत्मतीनता है, स्वसंवेदन है, स्वानुभव है, जहाँ अपने ही आत्माके शुद्ध स्वभा
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१८८] योगसार टीका । क्का श्रद्धान है, ज्ञान है व उसी में थिरता है । इसीको आत्मदर्शन कहते है, यही एक धर्म रसायन है, अमृतरसका पान है, जिसके पीनेस स्वाधीनपने परमानन्दका लाभ होता है, कर्म कटते है, और यह शीघ्र ही कर्मसे मुक्त हो, शुद्ध व पचित्र व निर्मल व पूर्ण, निज स्वभाषमय होकर सदा ही वीतरागभावमें मगन रहता है, फिर रागद्वेषमोहक न होनेसे पापपुण्यका बन्ध नहीं होता है. इससे फिर चार गतिमेंसे किसी भी गतिमें नहीं जाता है, सदाके लिये अजर अमर हो जाता है ।
शुद्धोपयोग धर्म है | कषायके उदय सहिन शुभोपयोग धर्म नहीं है | अशुभसे बचनेके लिये शुभोपयोग करना पड़ता है तथापि उसे बन्धका कारण मानना चाहिये । मोक्षका उपाय एक मात्र स्वानुभवरूप शुद्धोपयोग है । कपायकी कणिका मात्र भी बन्धकी कारक है । बृहत् सामायिकपाटमें कहा है
पापाऽनोक्रुहसंकुले भवनने दुःस्वादिभिर्गमे पैरज्ञानवशः काय विपर्यस्त्वं पीडितोऽनेकधा । रे तान् ज्ञानमुपेत्त्य प्रताधुना दियाऽशेषतो विद्वांसो न परियति समये शत्रुन हत्या स्फुटं ।। ६५ ।।
भावार्थ-यह संसार वन दुःखोंसे भरा है, उनका पार पाना कठिन है । पापके वृक्षोसे पूर्ण हैं । यह कवाय विषयोंसे तु अज्ञानी अनेक प्रकारसे पीड़ित किया जा रहा है, अब तृ शुद्ध आत्मज्ञान पाकर उन कषाय विषयोंको पूर्णपने नाश कर डाल । विद्वान लोग अवसर पाकर शत्रुओंको बिना मारे नहीं छोड़ते हैं।
श्री पद्मनंदि धम्मरसायणमें कहते हैं --
बुहुमणमणोहिरामं आइजरामरपदुकवणासयम् । . इहपरलोयहिज (द)स्थ तं धम्मरस्त्रयणं वोच्छं ॥२॥
नम्
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[ १८९ भावार्थ- मैं उस धर्मरसायणको बताऊँगा जिसके पीनेमे ज्ञानी जीवोंके मनमें आनन्द होगा व जन्म, जग, मरणके दुःखोंका क्षय होगा व इस लोक और परलोकमें दोनोंमें हित होगा । यह जबतक जीवंगा परमानन्द भोगेगा, परलोकमें शीघ्र ही सिद्ध होकर सदा सुखी रहेगा।
बाहरी क्रियामें धर्म नहीं है ।
धम्मु य ि होइ थम्मु ण पोत्था पिच्छियइँ | धम्मु या मयि पसि धम्मु ण मत्था लुचियाँ ॥ ४७ ॥ अन्वयार्थ - (पढियई धम्मु ण होइ ) शास्त्रों के पढ़ने मात्र धर्म नहीं होगा (पत्यापछि बम् पुस्तक व पीळी रखने मात्र से धर्म नहीं होता ( महिय-यएस धम्मु ण) किसी मठमें रहने में धर्म नहीं होता ( मत्था-लुचिय धम्मु ण) केशलोंच करने से भी धर्म नहीं होता ।
भावार्थ - जिस धर्मसे जन्म, जश, मरणके दुःख मिटे, कर्मोंका क्षय हो यह जीव स्वाभाविक दशाको पाकर अजर-अमर होजावे वह धर्म आत्माका निज स्वभाव है। जो सर्व परपदार्थोंसे वैराग्यबान होकर अपने आत्माकं शुद्ध स्वभावकी श्रद्धा व उसका ज्ञान रखकर उसके ध्यान में एकाय होगा वहीं निश्वय रत्नत्रयमई धर्मको या स्वानुभवको या शुद्धोपयोगकी भूमिकाको प्राप्त करेगा ।
जो कोई उस तत्वको ठीक ठीक न समझ करके बाहरी क्रिया मात्र व्यवहारको ही करें व माने कि में धर्मका साधन कर रहा हूं उसको समझानेके लिये यहां कहा है कि ग्रंथोंके पढ़नेसे ही धर्म न होगा। मंथोंका पठन पाठन इसीलिये उपयोगी है कि जगतके पड़ा
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१९. ] योगसार टीका । थऑफा, जीव व अजीब तत्वका ठीक ठीक ज्ञान होजावे तथा भेदविज्ञानकी प्राप्निसे अपने भीतर शुद्ध तत्वकी पहचान होजावे । ____ इस कार्यके लिये शब्दोंका मनन आवश्यक है। यदि शुद्धामाका लाभ न करे केवल शालोमा माली महाग मिहानमा तर धर्मात्मा होनेका अभिमान करें तो यह सब मिथ्या है। इसीतरह कोई बहुत पुस्तकोंका संग्रह करें या पीछी रखकर साधु या क्षुल्लक श्रावक होजावे या केशोंका लोच करे या एकांत मठमें या गुफामें बेटे परंतु शुद्धात्माकी भावना न करे, बाहरी मुनि या श्रावक भेषको ही धर्म मानले तो यह मानना मिथ्या है । शरीरके आश्रय भेप केवल निमित्त है, व्यवहार है, धर्म नहीं है ।
व्यवहार क्रियाकांडसे या चारित्रसे रागभाव शुभ भाव होनेसे पुण्यबंधका हेतु है। परंतु कर्मकी निर्जरा व सकरका हेतु नहीं है । जहांतक भावों में शुद्ध परिणमन नहीं होता है वहातक धर्मका लाभ नहीं है। मुमुक्षु जीवको यह बात सट्नासे श्रद्धानमें रखनी चाहिये कि भावकी शुद्धि ही मुनि या श्रावक धर्म हैं। बाहरी त्याग या वर्तन अशुभ भावोसे व हिंसादि पांच पापोंसे बचना लिये है व मनको चिंतासे रहिल निराकुल करनेके लिये है ।
अतएव कितना भी ऊँचा बाहरी चारित्र कोई पाले व कितना भी अधिक शास्त्रका ज्ञान किसीको हो तो भी यह निश्चय धर्मक विना साररहित है, चावलरहित तुषमान है, पुण्यबन्ध कराकर संसारका भ्रमधा बढ़ानेवाला है | जितना अंश वीतराग विज्ञानमई भाक्का लाभ हो उतना ही धर्म हुआ तथा यथार्थ समझना चाहिये। बाहरी मन, वक्न, कायकी क्रियासे सन्तोष मानके धर्मात्मापनेका अहंकार न करना चाहिये । समयसार कलश में कहा है......
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योगसार टीका।
[१९१ एवं ज्ञानम्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते । ततो देहमयं ज्ञातुन लिङ्गं मोक्षकारणम् ।। २५-१०॥ दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तस्वमात्मनः । एक गव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ॥ ४६-१० ॥
भावार्थ-शुद्ध ज्ञान आत्माका है, उसके यह पुद्गलमय देह नहीं है, इसलिये ज्ञाता पुरुषका देह के आश्रय भेष या व्यवहारचारित्र मोक्षका कारण नहीं है | इसलिये मोक्षक अर्थीको सदा ही एकस्वरूप मोक्षमार्गका संवन करना चाहिये जो मोक्षमार्ग निश्चय रखनयमई आत्माशा तत्व है।
बृहत् सामायिकपाटमें कहते हैं-- शरोऽहं शुभधीरई पटुरहं सत्रोऽधिक श्रीरहूं मान्योऽहं गुणवान, विमुरहं पुंसामहमग्रणीः । इत्त्यात्मन्नपदाय दुष्कृतकीं त्वं सर्वथा कल्पना शश्वद्ध्याय तदात्मतत्त्वममलं नैःश्रेयसी श्रीर्यतः ॥ ६२ ।।
भावार्थ-हे आत्मन् ! तु इस पाप बंधकारक कल्पनाको छोड़, यह अहंकार न कर कि मैं शृर हूं, बुद्धिमान हूं, चतुर हूं, सर्वसे अधिक लक्ष्मीवान हूं, माननीय हूं, गुणवान हूँ, समर्थ हूं या सर्व मानवों में अम्र हूं, मुनिराज हूं, निरन्तर निर्मल आत्मतत्वका ही ध्यानकर इसीसे अनुपम मोक्षलक्ष्मीका लाभ होगा।
रागद्वेष त्याग आत्मस्थ होना धर्म है । रायगोस चे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ । सो धम्मु धि जिण-उत्तियउ जो पंचम-गइ णेइ ॥१८॥ अन्वयार्थ-राय-रोस के परिहरिवि ) रागद्वेष दोनोंको
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११.२] योगसार टीका। छोड़कर, वीतराग होकर ( जी अप्पाणि बसेइ ) जो अपने भीतर आत्मामें वास करता है, आत्मामें विश्राम करता हैं ( सो धम्मु जिण वि उत्तियउ ) उसीको जिनेन्द्रने धर्म कहा है (जो पंचमगइ ई ) यही धर्म पंचमगति मोक्षमें लेजाता है ।
भावार्थ-धर्म आस्माका निज स्वभाव है। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यमय आत्माका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान तथा उसी में घिरता अर्थात एक स्वात्मामुमत्र धर्म है। राग द्वेषकी परनों जन उपयोग चंचल होता है तब स्वभाव विकारी हो जाता है।
इसलिये यहां यह उपदेश है कि राग द्वेपको त्यागकर अपने ही आत्माके भीतर विश्राम करो, आत्माहीमें मगन रहो, आत्माकं ही उपथनमें रमण करो तब वहां बंध नाशक, परमानंद दायक, मोक्षकारक धर्म स्वये मिल जायगा | धर्म अपने ही पास हैं, कहीं बाहर नहीं है जहांसे इस ग्रहण किया जावे | अतएव परसे उदासीन होकर, वीतराग होकर, समभावी होकर आपकी आत्मामें ही इसे देखना चाहिये।
राग द्वेषके मिटानेका एक उपाय तो यह है कि जगतको व्यबहार दृष्टिसे देखना बंद कर निश्चय इटिसे जगतको देखना चाहिये तब जीयादि छहों द्रव्य सब अपने २ स्वभावमें दीखेगे, निश्चल दीवगे, सर्व ही जीव एक समान शुद्ध दीवगे तब किसी जीवमें राग व किसीमें द्वेष करनेका कारण ही मिट आयगा । व्यवहार दृष्टिमें शारीर सहिन अशुद्ध आत्माएं विचित्र प्रकारकी दीखनी हैं तब मोही जीव जिनसे अपने विषय कपाय पुष्ट होते हैं उनको राग भावसे र जिनसे विषयकषायोंके पोषनेमें बाधा होती है उनको द्वेषभावसे देखता है परंतु जब आप भी वीतरागी व सर्व पर आत्माएं भी वीतरागी दीखती हो तब समभाव स्वयं आजाता है ।
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योगसार टीका |
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पुलकीरचनाको जब व्यवहार से देखा जावे तब नगर, ग्राम, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि नाना प्रकार के दीख पड़ेंगे विधायक को सब परमाणुरूप एकाकार दीखेंगे, तब वीतरागी देखनेवाले के भीतर रागद्वेषके हेतु नहीं हो सक्ते । शुद्ध नियतकी दृष्टि रागद्वेषके विकार मेटनेकी परम सहायक है | इससे रागद्वेष मेटने का यह उपाय है कि व्यवहाररूप विचित्र जगतको साक्षीभूत होकर ज्ञातादृष्टा होकर देखा जाये ।
सर्व ही द्रव्य अपने स्वभावमं परिणमन करते हैं । अशुद्ध आत्माएं आठ कर्मोंके उदयको भोगते हुए नानाप्रकार सुख या दुःखमय या नानाप्रकार रागदेषस्य परिणमन करते हैं, कर्मचेतना ब कर्मफल- चेतनामें उलझे दीखते हैं, तब उनको कर्मके उदय के आधीन देखकर रागद्वेष नहीं करना चाहिये । कर्मके संयोगसे अपनी भी विभाग दशाको देखकर विपाकविचय धर्मध्यान करना चाहिये व अन्य संसारी जीवांकी दशा देखकर वैसा ही कर्मका नाटक विचारना चाहिये। सुख व दुःख अपने में व दूसरोंमें देखकर हर्ष व त्रिपाद न करना चाहिये । समभावमे कर्मके विचित्र नाटकरूप जगतको देखनेका अभ्यास करना चाहिये ।
तीसरा उपाय यह है कि सम्यग्दर्शन के प्रताप विषयभोगों की कांक्षा या उनमें उपादेय बुद्धि मिटा देनी चाहिये | आत्मानन्दका प्रेमी होकर उसीके लिये अपने स्वरूपकी भावना में लगे रहना चाहिये । कर्मके उदयसे सुखदुःख आ जानेपर समभावसे या देय बुद्धिसे, अनासक्ति भोग लेना चाहिये । सम्यग्ज्ञान ही रागदेषके विकार मिटाने का उपाय है।
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रागद्वेष कषायके उदयमे होते हैं तब सत्ता अन्ध प्राप्त कषायी वर्गेणाओंका अनुभाग सुखानेके लिये निरन्तर आत्मानुभवका
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१९४ ]
योगसार टीका ।
वराभावका मनन करते रहना चाहिये तत्र उदय मन्द होता जायगा, रागद्वेषकी कालिमा घट ही जायगी। इसतरह ज्ञानीको उचित है कि जिसतरह हो वीतराग होनेका व समभाव पानेका उपाय करना चाहिये | तत्वसारमें देवसेनाचार्य कहते हैंरायादिया विभावा बहिरंतरदुह वियप्प मुत्तणं ।
एयम्पमणो ज्ञायहि णिरजणं निययअप्पाणं ॥ १८ ॥ भावार्थ - रागादिक विभावोंको व बाहरी व भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पको त्यागकर एकाग्र मन हो, सर्व कर्ममल रहित निरयन अपने ही आत्माको ध्यावे |
आत्मानुशासनमें कहा है-
मुहुः सा सज्ज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥ १७७ ॥ मोहबीजातिद्वेषौ बीजानू मूलाङ्कुराविव ।
तस्माज् ज्ञानाग्निना दाखं तदेतौ निर्दिभिक्षुणा ॥ १८२ ॥
भावार्थ- सम्यग्ज्ञानका वारवार विचार कर, पदार्थोंको जैसे ये हैं वैसा ही उनको देखकर प्रीति व अप्रीति मिटाकर आत्मज्ञानी मुनि आत्माको ध्यावै। जैसे बीजसे मूल व अंकुर होते हैं वैसे मोहके बीजने रागद्वेष होते हैं । इसलिये जो रागद्वेषको जलाना चाहे उसे ज्ञानकी अमिसे इस मोहको जलाना चाहिये |
आशा तृष्णा ही संसार - भ्रमणका कारण है । आउ गलइ गवि मणु गलइ गवि आसा हु गलेइ । मोहु फुरइ पनि अप्प - हिउ इम संसार भमेह || ४९ ॥ अन्वयार्थ - ( आउ गलड़ ) आयु गलती जाती है (मणु
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[१९५
योगसार टीका। णवि गलइ ) परन्तु मन नहीं गलता है ( आसा णवि गलेइ)
और न आशा तृष्णा ही गलती है ( मोहु फुरद ) मोहभाव फैलता रहता है । अप्प-हिउ णवि ! फिन्तु अपने आस्माका हित करनेका भाव नहीं होता है ( इम संसार भमेइ ) इसतरह यह जीव संसारमें भ्रमण किया करता है।
भावार्थ यहाँ आचार्यने संसार-भ्रमणका कारण बताया है । यह मानव शरीर आयुकर्मके आधीन रहता है । जबसे यह जीव इस मनुष्य गतिमें आता है तबसे पूर्व बांधा मनुष्य आयुकर्म समय समय माइता जाता है । सो जब सत्र झड़ जाता है तब जीवको -मानव देह छोड़ना पड़ता है।
चारों गतियों में मानव गति बहुत उपयोगी है क्योंकि निर्वाणके योग्य संयम, तप, ध्यानादि इसी मानवगतिसे ही होसरहे हैं तो भी अज्ञानी मोही जीव आत्माका भला नहीं करता है ! यह प्राणी रातदिन शरीरके मोहमें फंसा रहता है । सांसारिक सुखकी चिंतामें मन विचार करता रहता है | मैंने ऐसे २ भोग भोगे धे, ऐसा भोग भोग रहा हूं, ऐसे भोग भोगने हैं, इन्द्रियोंके विपयोंको इकट्ठा करनेकी, रक्षा करनेकी चिता मनमें सदा रहती है । इष्ट विपयोंके 'वियोगमे शोक होता है। जो स्त्री, पुत्र, मित्र, विषयों के भोग हैं, सहायक हैं उनके बने रहनेकी व अपनी आझामें चलानेकी भावना भाता है। जो कोई विपयोंके भोगके बाधक हैं उनके बिगाडनेकी मनमें चिंता रहती है। रात दिन मन इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, पीडा, निदानजनित आत भ्यानमें या हिंसानन्दी, मृषानन्दी, 'चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी रौद्रध्यानमें मगन रहता है।
__ मनको थिर करके मोही मलीन विचार नहीं करता है कि मेरा सच्चा हित क्या है । आशा तृष्णाका रोग विषयोंके भोग करते रहने
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यांगसार टीका ।
पर भी दिन पर दिन बढ़ता जाता है। बहुतसे प्राणियों के पापके उदयसे इच्छित भोगोंका लाभ नहीं होता है। इससे तृष्णा कभी नहीं मिटती । जिनको पुण्य के उद्यमे इच्छित भोगोंका लाभ व भोग हो जाता है उनके भीतर कुछ देर सन्तोष मालूम होता है। शीघ्र ही चाहकी मात्रा और अधिक हो जाती है ।
चक्रवर्ती समान संपदाधारी मानव भी नित्य इच्छित भोग भोगते हुए भी कभी सन्तोषी व छप्त नहीं होता है। जैसे २ शरीर पुराना पढ़ता जाता है वैसे वैसे तुष्णा बढ़ती जाती है । संसारका मोह सदा बना रहता है। परलोकमें सुन्दर भोग मिलें, स्वर्गमें जाऊँ, मनोज्ञ देवियोंके साथ कल्लोल करूँ ऐसी तृष्णाको धरके मोही मानव दान, पूजा, जप, तप, साधुका या श्रावकका चारित्र पाळता है । मिध्यात्यके विषको न त्यागता हुआ संसारका प्रेमी जीव मरकर पुण्यके उदयसे देव, मानव पापके उदयसे तिर्येच या नारकी होजाता है। वहां फिर तृष्णाका मेरा हुआ राग, द्वेष, मोह, करता है। आयु पूरी कर नवीन आयु बांधी थी, उसके अनुसार फिर दूसरी गतिको चला जाता है |
इस तरह अज्ञान व तृष्णा के कारण यह अनादिसे चार गतिरूप संसार में भ्रमण करता आया है व जबतक आत्महितको नहीं पहचानेगा, जबतक सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं करेगा, तबतक भ्रमण हो करता रहेगा। इसलिये बुद्धिमान मानवको अपने आत्माके ऊपर करुणाभाव लाकर उसको जन्म, जरा, मरणादि दुःखोंसे बचाने के लिये धर्मका शरण धारण करना चाहिये। धर्म ही उद्धार करनेवाला हैं, परम सुखको देनेवाला है। स्वयंभूस्तोत्र में कहा है - तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव ।
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योगसार टीका। स्थित्यैच कायपरितापहरं निमित्त
मित्यात्मवान्विषयसौख्यपराङ्मुखोऽमृत् ॥८२॥ भावार्थ-तृष्णाकी ज्वालाएं जलनी रहती हैं, इच्छित इंद्रिथोंके भागोंके भोगनेपर भी उनकी शांत्ति नहीं होती है, किंतु ज्वालाएं बढ़ती ही जाती हैं । कुछ शरीरका ताप भोगनेसे उस समय मिटता है, परन्तु शीघ्र ही बढ़ जाता है | यो समझकर आत्मज्ञानी स्वामी कुन्धुनाथ भगवान इंद्रियोंके बिषयसुत्रमे विरक्त होगये ।
आत्मानुशासनमें कहा हैशारीरमयि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि । नास्त्यहो दुष्करं नृणां विपाद्वाञ्छन्ति जीवितम् ॥१९६॥
भावार्थ-मनुप्य सदा ही शरीरको पोपते हैं ध विषयभोगोंको भोगते रहते हैं। इससे बढ़कर और स्रोटा कृत्य क्या होगा | वे विप पीकर जीवन चाहते हैं। भत्रभवमें कष्ट पाएंगे।
आत्मप्रेमी ही निर्वाणका पात्र है। जेहट मणु विस्य रमइ तिसु अइ अप्प मुणेइ । जोइड भवाइ हो जोइपहु लहु णिव्वाणु लहेइ ॥५०॥
अन्वयार्थ-(जाइउ मणु) योगी महात्मा कहते हैं (हो जोइरहु ) हे योगीजनो ! (मणु जेहउ विसयह रमइ) मन जैसा विषयोंमें रमण करता है (जब तिस्तु अप्प मुणेइ) यदि वैसा यह मन आत्माके ज्ञानमें रमण करे तो (लह णिव्वाणु लहेइ) शीघ्र ही निर्माणको प्राप्त करले ।
भावार्थ-योगेन्द्राचार्य योगीगणोंको कहते हैं कि मनको गाढ़ भावसे अपने आस्माके भीतर रमाना चाहिये । तब वीतरागवाके
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इन्टर स्कूल है
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योगसार टीका |
प्रकाशसे शीघ्र ही निर्माणका लाभ होगा। आत्मवीर्यके प्रयोगसे ही हरएक कामका पुरुषार्थ होता है। अज्ञानी जीव पाँचों इंद्रियोंके विष योंके भीतर जिस आसक्किसं रमण करता है वैसी आसक्ति ज्ञानी जीव अपने आत्माके रमण करता है, विषयोंके रमणने मनको बिलकुल फेर लेता है ।
स्पर्शनेन्द्रियके वशीभूत हो हाथी उन्मत्त होता जाता है, पकड़ा जाता है, सभी विपयकी आसक्तिको नहीं छोड़ता है। रसनाइन्द्रि यके वश हो एक मत्स्य जालमें पकड़ लिया जाता है । बाणइंद्रियके वश हो एक भ्रमर कमलमें बंद होकर प्राण देदेता है। चक्षुइंद्रिय वशीभूत होकर पतंग दीपककी ज्योतिमें भस्म होजाता है । कर्णइन्द्रियके वश हो मृग जंगलमें पकड़ लिया जाता है। जैसी आसक्ति इन जीवोंकी इन्द्रियोंके भोगो में होती है वैसी आसक्ति ज्ञानीको आत्मा के रमणमें रखनी चाहिये। दिन रात आत्माका ही स्मरण करना चाहिये | आत्माका ही स्वाद लेना चाहिये । विषय कषायका स्वाद नहीं लेना चाहिये |
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आत्मा के इसमें ऐसा रसिक हो जाना चाहिये कि मान, अपमान, लाभ, अलाभ, कांच कंचन, स्त्री पुरुष, जीवन मरण, दुःख-सुखमें समान भाव रखना चाहिये। जैसे धतूरा खानेवाला हर स्थानमें पीत रंग देखता है वैसे आत्मप्रेमी हर स्थानमें आत्माको ही देखता है | शुद्ध निश्वयनयसे उसे जैसे अपना आत्मा परमात्मारूप शुद्ध दीखता है वैसे हरएक आत्मा परमात्मारूप शुद्ध दीखता है उसकी तीक्ष्ण दृष्टिसे भेदज्ञानके प्रयत्नसे पुदलादि पांच द्रव्योंका दर्शन छिप जाता है, केवल आत्मा ही आत्मा लोकभरमें दिखता है तब यह लोक एक शुद्ध आत्मीक सागर बन जाता है । उसी आत्मसागरका वह आत्मज्ञानी एक महामत्स्य हो जाता है । उसी आत्मसागरमें वास
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करता है, उसीमें कल्लोल करता है, उसी आत्मीक जलका पान करता है, उसीके आनन्दमें मगन रहता है।
ज्ञानी जीव ऐसा आत्मरसिक हो जाता है कि तीन लोककी विपक्ष-सम्पदा इसकी जाणतणक सभा दीखती है। यही कारण हैं जो बड़े २ सम्राट राज्यविभूति, न स्वीपुत्रादि सब कुटुम्बका ल्यागकर, परिग्रहके संयोगसे रहित हो, एकाकी बनमें निवास करते हैं और निर्मोही हो, बड़े प्रेम व उत्लाइस आत्मीक रसके स्वादमें तन्मय हो जाते हैं, विषयोंकी तरफसे परम उदासीन हो जाते हैं | मनको सर्व ओरसे रोककर आत्माके रसमें ऐसा मगन कर देते हैं कि वह मन उसीतरह लोप हो जाता है जैसे पानी में बकर लवणकी डली लोप हो जाती है, मन मर जाता है, केवल आत्मा ही आत्मा रह जाता है। ऐसा आत्मस्थ योगी परीषहोंके पड़नेपर भी विचलित नहीं होता है । शीघ्र ही क्षायिक सम्यग्दृष्टी होकर क्षपकश्रेणीपर चढ़कर घातीय कर्मोंका एक अन्तर्मुहूर्तमें क्ष्य करके केवलज्ञानी होजाता है | उसी शरीरसे शरीर रहित होकर सिद्धपदका लाभ कर लेता है। इष्टोपदेशमें पूज्यपाद महाराज कहते हैं
अविद्या भिदुरं ज्योतिः परे ज्ञानमयं महत् । तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ १९ ॥ संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः ।
आत्मनमात्मवान्ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थित ॥ २२ ॥ परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी ।
जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा ॥२४॥ भावार्थ-अज्ञानसे रहित श्रेष्ठ ज्ञानमई महल ज्योति भीतर
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योमसार टीका। प्रकाशमान है | मोक्षके अर्थीको चिन है कि उसी आत्म-ज्योनिके सम्बंधमें प्रश्न करे, उसीकी चाह करे व उसीका दर्शन करे । पांच इंद्रियों के प्रार्मोको संयममें लाकर चिनको एकाग्र करके आत्मझानीको उचित है कि वह आत्मामें ही स्थित होकर आत्माही के द्वारा अपने आत्माका ध्यान करें | 'जब अभ्यास करते २ आत्मीक योग इतना बढ़ जाय कि क्षुधा, तृषा, देशमशकादि परीषहोंकी तरफ लक्ष्य ही न रहे तच आम्रवका निरोध होकर शीघ्र ही कमौकी निर्जरा होने लगती है और वह योगी कमरहित परमपुरुष हो जाता है।
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शरीरको नाटक घर जानो । जेहड जारु परय-घर तहट बुज्ज्ञि सरीरु । अप्पा भावहिं णिम्मल लह, पावहि भरती ॥५॥
अन्वयार्थ (जहर णरय-घर जजरु) जैसा नरकका पास आपत्तियोंस जर्जरित है-पृण हैं (नेह सरीक बुज्झि) तैसे ही शरीरके वासको समझ (हिम्मलज अप्पा भावाहि) निर्मल आत्माकी भावना कर (लहु भवतीक पावहि) शीघ्र ही संसार पार हो।
भावार्थ-शरीरको नरककी उपमा दी है। जैसे नर्कमें सर्व अवस्था खराब व म्लानिकारक होती है, मूत्र दुर्गध मय, पानी स्वारी, हवा अंगदक, वृक्ष तलवारकी धारके समान, वन विकराल, नारकी परस्पर दुःखदाई । नरकवासमें क्षण मात्र भी साता नहीं । भूख प्यासकी बाधा मिटती नहीं । आकुलताका प्रवाह सदा बहता है। नरकका बास किसी भी तरह सुखकारी नहीं है । नारकी हरसमय नरकवाससे निकलना चाहते है परंतु वे असमर्थ हैं। कर्माधीनपने
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योगसार टीका ।
[२०१ सरकवासमें आयु पर्यंत रहना पड़ता है, छेदन, मारन, पीड़न सहना पड़ता है।
मानवका यह शरीर भी नरकके बराबर है । भीतर मास, चरबी, खून, हड्डी, वीर्य, मलमूत्रसे भरा है, अनेक कीड़े चिलबिला रहे हैं। शरीरके ऊपरसे स्वचाको हटा दिया जावे तो स्वयंको ही इस शरीरसे घृणा होजाये, मक्खियोंसे व मांसाहारी जन्तुओंसे यह वेष्ठित होजावे । इस शरीरके भीतरसे नवद्वारोंक द्वारा मल ही निकलता है। करोड़ों रोमके छेदोस भी मल ही निकलता है। करोड़ों रोगोंका स्थान है। निरन्तर भूख प्याससे पीडित रहता है । भोजन पानी मिलते हुए मी भूख प्यासका रोग शमन नहीं होता है। शरीर ऐसा गंदा व अशुचि है कि सुन्दर व पवित्र पुष्पमाला, वस्त्राभूषण, जलादि शरीरकी संगति पाने ही अशुचि हो जाते है । शरीरमें पांच इन्द्रियां होती हैं उनको अपने अपने विषय भोगनेकी भी बड़ी भारी तृष्णा होती है ।
इच्छाके अनुसार भोग मिलते नहीं। यदि मिलते हैं तो घराचर बने नहीं रहने हैं। उनके वियोग होनेपर कष्ट होता है. व नए नए विषयोंकी चाहना पैदा होती रहती है | तृष्णाकी ज्याला बढ़ती ही रहती है । उनकी दाहसे यह प्राणी निरन्तर कष्ट पाता है। कुटुम्बीजन व स्वार्थी मित्रगण सब अपना अपना ही मतलब साधना चाहते हैं । मतलब कि त्रिना मातापिता, भाई, पुत्र, पुत्री, बहन, भानजे आदि कुटुम्बीजनों का स्नेह नहीं होता है | सब एक दूसरेसे सुख शनेकी आशा रखन हैं । विपयोंके भोगमें परम्पर सहायता चाहते हैं । यदि उनका स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है तो वे ही बाधक व घातक हो जाते है।
शरीरमें चालकपन पराधीनपने बड़े ही कष्टसे बीतता है । -युवापनमें घोर तृष्णाको मिटाने के लिये धर्मकी भी परवाह न करके
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थागसार टीका। उद्यम किया करता है । वृद्धावस्था में असमर्थ होकर घोर शारीरिक व मानसिक वेदना सहता है । इवियोग व अनिष्ट संयोगके घोर कष्ट सहने पड़ते हैं । रातदिन चिंताओंकी चितामें जला करता है । नारकीके समान यह मानव इस शरीरमें सदा क्षोभिन व दुःखी रहता है।
नरकमें विषयभोगकी सामग्री नहीं है। मानव गतिमें विषयोंकी सामग्री मिल जाती है | उनके भोगके क्षणिक सुत्रके लोभमें यह अज्ञानी मानव नरकके समान इस शरीरमें रहना पसन्द करता है तथा ऐसा छम नहीं करता है जो फिर यह शरीर ही प्राप्त न हो । परोपकारी आचार्य शिक्षा देते हैं कि इन नरकवालके समान शरीरनिवासमें मोह करना मुर्खता है।
इस नरदेहसे ऐसा साधन होसकता है जो फिर कहीं भी देहका धारण न हो । निर्वाणरूपी पदका लाभ जिस संयम ब ध्यानसे होला है वह संयम व व्यान नरदेहहीमें होसकता है । नारकी जीव संयमका पालन नहीं कर सकते । इसलिये उचित है कि इस शरीरका मोह त्यागा जावे।
इस शरीरको चाकरकी भांति योग्य भोजनपान देकर अपने काममें सहायक होमेयोग्य बनाए रखना चाहिये और इसके द्वारा धर्मका साधन करना चाहिये । निज आत्माको पहचानना चाहिये । उसके मूल स्वभावका श्रद्धान करके उसीका निरन्तर मनन करना चाहिये, तब यह कुछ ही कालमें उसी भवमें या कई भवोंमें मुक्त होजायगा, शरीर रहित शुद्ध होजायगा। फिर कभी शरीरका संयोग. नहीं होगा। स्वयंभूस्तोत्रमें कहा है--
अजङ्गमं जंगमनेययन्त्रं यथा तथा जीवधृतं शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च स्नेहो पृथात्रेति हितं त्वमान्यः ॥३२
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योगसार टीका ।
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भावार्थ - हे सुपार्श्वनाथस्वामी ! आपने यह हितकारी शिक्षा दी है कि यह शरीर जीवका चलाया चलता है, जैसे एक विर यंत्र किसी मानव के द्वारा चलानेमे चलता है। यह घृणाका स्थान भयप्रद है, अशुचि है, नाशवन्त है, दुःखोंके तापको देनेवाला है । इस शरीर से स्नेह करना निरर्थक हैं, स्वयं आपत्तियोंका सामना करना है | आत्मानुशासन में कहा है
अस्थिस्थूलतुलाकलापघटितं न शिरास्नायुभि-श्रर्माच्छादितमस्त्रसान्द्रपिशितैर्लितं सुगुप्तं खलैः । कर्मारातिभिरायुरुच्चनिगलालनं शरीरालयं
कारागारमहि ते हृतमते प्रीतिं वृथा मा कृथाः ॥ ५९ ।।
भावार्थ हे मूर्ख ! यह तेरा शरीररूपी घर दुष्ट कर्म-शत्रुओंसे बनाया हुआ एक कैदखाना है, इन्द्रियोंके मोटे पिंजरोंसे घड़ा गया है, नसके जालसे वेढ़ा है, रुधिर व मांससे लिप्त है, चर्मसे ढका हुआ गुप्त है, आयुकर्मकी बेड़ीसे तु जकड़ा पड़ा है। ऐसे शरीरको कारागार जान वृथा ही प्रीति करके पराधीनता के कष्ट न उठा- इससे निकलनेका यत्न कर |
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जगतके धंधों में उलझा प्राणी आत्माको नहीं पहचानता ।
वइ पडियउ सयल जगि पनि अप्पा हु मुणंति । तर्हि कारण ए जीव फुड ण हु णिव्वाणु लर्हति ॥ ५२ ॥
अन्वयार्थ - (सयल जारी धंधइ पार्डयड ) सब जयके प्राणी अपने अपने धन्धोंमें, कार व्यवहारमें फंसे हुए हैं, तल्लीन हैं
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( अप्पा हु वि सुगंति ) इसलिये निश्रय से आत्माको नहीं मानते है (तहि कारण ए जीव णिव्याणु ण हू लहंति फुडु ) यही कारण है जिससे ये जीव निर्वाणको नहीं पाते, यह बात स्पष्ट है । भावार्थ — सकल संसार, शरीरमें प्राप्त इंद्रियोंके विषयोंके तथा -भूख प्यास रोगके शमनके आधीन होकर दिनरात वर्तन किया करता है | अपने शरीरकी रक्षा के धंधे में सब मगन होरहे हैं । एकेन्द्रियसे चार इन्द्रिय प्राणी तक मनरहित होते हैं तो भी दिनरात आहारको स्वोजमें रहते हैं, दूसरोंसे भयभीत रहते हैं. मैथुनभाव में वर्तते हैं, परिषद् या मूर्छा अपने शरीर रहती है । चार संज्ञाएं, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, सर्व प्राणियों पाई जाती हैं ।
मनरहित पंचेन्द्रियके हित अहितके विचार करनेकी शक्ति नहीं है। इन्द्रियोंणाके मेरे हुए वे निरन्तर वर्तते रहते हैं । मन सहित पंचेन्द्रियोंके भीतर आत्मा व अनात्माक विवेक होनेकी शक्ति हैं परंतु ये सैनी प्राणी भी सांसारिक धन्धमें इतने फंसे रहते हैं कि मैं कौन हूं, मेरा क्या कर्तव्य है. इस प्रभार ध्यान ही नहीं देते हैं ।
नारकी जीवोंका यही धन्धा है कि मार खाना व दूसरोंको मारना । वे परस्पर पीड़ा देने में ही लगे रहते हैं | देवगतिवाले रागभावमें ऐसे फंसे रहते हैं कि उन्हें नाच गाना बजाना, देवी के साथ रमण, इन रागवर्द्धक कन्या कसे रहने के कारण विचारका अवकाश नहीं मिलता है। पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यच भी असैनीकी समान चार संज्ञाओंके भीतर को रहते हैं। पेटकी ज्याला शांत करनेका उद्यम किया करते हैं। मनुष्यों की दशा प्रत्यक्ष प्रगट है। वे असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प या विद्याकर्म, सेवाकर्म, पशुपालन आदि अनेक धन्धोंमें लगकर अपने व अपने कुटुम्बके लिये पैसा कमाते हैं । - भोजनपानका प्रबन्ध करते हैं। खीके साथ रमण करके सन्तानों को
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जन्म देते हैं फिर उनके पालनमें, उनके पढ़ानेमें, उनके विवाहोंमें, उनके रोगादि निवारण में लगे रहते हैं :
मानकषायकी तीव्रताले मनुष्योंको अपनो नामवरी करनेकी तीन चाह होती है । इसलिये धनादिको संग्रह करके नाना प्रकारके व्यवहारसे अपना यश फैलाना चाहते हैं। मानवोंमें पांचो इंद्रियोंके भोगकी तृष्णा बहुत प्रबल होती है । उनकी तृप्तिके लिये नित्य नये नये भोग चाहते हैं । उनके लिये अनेक कपट करके भी धन संग्रह करते हैं। धनकी व परिहकी रक्षा में चिंतित रहते हैं। स्त्रीके सम्बन्धहोनेसे कुटुम्ब के सम्बन्ध बहुत बढ़ जाते हैं। सम्बन्धियोंके जीवन मरण व विवाहादि कार्य में लगे रहते हैं। इतने अधिक कार्योंकी चिंता मनुष्यों को रहती है कि एक दिनकेची वण्टे पूरे नहीं पढ़ते हैं । दिनरात मोहके जाल में फंसे हुए व्याकुल रहते हैं। कभी भी मनको शांत करके मैं कौन हूं इस बात पर गम्भीरता से नहीं विचार करते हैं ।
कोई परोपकारी गुरु आत्मा के हितकी बात सुनाना चाहते हैं तो उनकी तरफ ध्यान नहीं देता है। त्यागकी व वैराग्यकी बात कटु भासती है । अर्थ व काम पुरुषार्थमें व इन्हींके लिये पुण्यके लोभसे व्यवहार धर्मके करनेमें इतना तन्मय रहता है कि निश्चय धर्मकी तरफ विचारनेका एक मिनट के लिये अवकाश नहीं पाता है । इसतरह प्रायः सारा ही संसार बोखला होकर कमोंको बांध कर चारों गतियों में भ्रमण किया करता है । संसारसे पार होनेका उपाय जो आत्मदर्शन है उसका लाभ कभी नहीं कर पाता है।
आत्मानुशासन में कहा है
बाल्ये वेत्सि न किञ्चिदप्यपरिपूर्णाङ्गो हितं वाहितं कामान्धः खलु कामिनी दुमधने भ्राम्यन्वने यौवने ।
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योगसार टीका । मध्ये वृद्धतृषाजितुं वसुपशः किनासि कृप्यादिभि
दो वार्द्धमृतः क जन्मफलिते धर्मो भवन्निर्मलः ।। ८२ ॥
भावार्थ-बालवयमें अंग ही पूरे नहीं बनते तब अज्ञानी होकर अपने हित या अहितका विचार नहीं कर सकता है | युवानीमें कामसे अन्धा होकर स्त्रीरूपी वृक्षोंसे भरे वनमें भटकता रहता है । मध्यकालमें ष्णाकी वृद्धि करके अज्ञानी प्राणी खेती आदि धन्धोंसे धनको कमानेमें कष्ट पाया करता है। इतनेमें वुढ़ापा आ जाता है तब अधमरा होजाता है । भला हम मानव जन्मको सफल करनेके लिये निर्मल वर्मको कहां करें ? मानव अपना अमूल्य जीवन विषयोंके पीछे गमा देता है | आत्महित नहीं करके भवभ्रमणमें ही दुःख उठाता है।
शास्त्रपाठ आत्मज्ञान विना निष्फल है । सत्य पर्वतह ते वि जड अप्पा जे ण मुगति । तहिं कारणि ए जीव फुड ण हु णिव्याणु लहति ॥५३॥
अन्वयार्थ (सत्य पढतह ते अप्पा ण मुणति जे विजड) शास्त्रोंको पढ़ते हुए जो आत्माको नहीं पहचानते है वे भी अज्ञानी हैं ( तहिं कारणि ए जीव फुड्डु ण हु णिव्वाणु लहंति ) यही कारण है कि ऐसे शाखपाठी जीव भी निर्माणको नहीं पाते हैं, यह बात स्पष्ट है।
भावार्थ-कितने ही विद्वान या स्वाध्याय करनेवाले व्याकरण, न्याय, काव्य, वैद्यक, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि अनेक विषयके शास्त्र "जानते हैं, परंतु शुद्ध निश्चयनयके विषय पर लक्ष्य नहीं देते, अध्यास्मशानसे बाहर रहते हैं। आत्मा ही निश्चयसे परमात्मा देव है ऐसा
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अनुभव उनको नहीं होता है अतएव ये भी जड़ ही के समान आत्मज्ञान राहत हैं । मोक्षमार्गको न पाकर निर्वाणका लाभ भी कर सकते हैं। जिनवाणी पढ़ने का फल निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करनेका प्रयास है। इसीके लिये चारों अनुयोगोंके ग्रंथोंको पढ़कर शास्त्रीय विपयको जानकर मुख्यतासे यह जानना चाहिये कि यह जगत जीवादि छः द्रव्यों का समुदाय है । हरएक द्रव्य नित्य है तो भी पर्यायी पनकी अपेक्षा अनित्य है ।
जगत भी नित्य अनित्य स्वरूप अनादि अनंत है । इन छः द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, काल सदा ही शुद्ध उदासीन व निश्चल रहते हैं । शुद्ध आत्माएं भी निश्चल व उदासीन रहती है । संसारी आत्माएं कर्म गुलोंसे संयोग रखती हुई अशुद्ध हैं। कमौके उदयसे ही चार गतियोंमें नाना प्रकारकी अवस्थाएँ होती हैं। कर्मकि उदयसे ही औदारिक, वैक्रियिक आदि शरीर बनते हैं। यह जीव स्वयं ही मन, वचन या कायके बर्तनसे कमको ग्रहण करके कषायोंके अनुसार बांधता है ।
आप ही अपनी राग द्वेष मोहकी परिणतिके निमित्तसे एक तरफ बंधता रहता है, दूसरी तरफ कर्मो का फल भोगकर निर्जरा करता रहता है, इसतरह परम पुण्यके फलको भोगता हुआ संसार में जन्म जरा मरण, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग धोर कट पाता है । इस के छूटने का उपाय रत्नत्रय धर्मकी प्राप्ति है जिससे संघर हो, नवीन कर्मोंका आना रुके व पुरातन बंधे कर्मोकी अविपाक निर्जरा हो । समयके पहले ही बिना फळ दिये झड़ जावे जिससे यह आत्मा कर्मके संयोगसे बिलकुल छूटकर मुक्त होजाये। इसतरह व्यवहारनयसे विस्ताररूप जीवादि सास तत्वोंको भलेप्रकार बुद्धिमें निर्णय करके उनका स्वरूप श्रद्धामें लावे व यह मानकर दृढ़ करे कि मुझे शुद्ध
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होना है । फिर यह समझे कि निश्चयसे या द्रव्य हृष्टिसे यह मेरा आत्मा शुद्ध हैं, जल और दूध के समान कर्मोंस एकमेक हो रहा है, तथापि जल दूध दोनों जैसे भिन्न २ है वैसे आत्मा भी सर्वे कसौंस, शरीरोंसे व रागादि विभावसे भिन्न है |
भेदविज्ञानी कलाको प्राप्त करके निश्चय सम्यग्दर्शन के लाभ के लिये नित्य भेदविज्ञानका मनन करे एकांतमें बैठकर जगतको ब अपनेको द्रव्यदृष्टि देखकर छहों द्रव्योंको अलग २ शुद्ध देखे, वीतरागता बढ़ानेका उद्यम करे, समभाव लाने का उपाय करे, निरन्तर अध्यात्मका ही मनन करें | बहुत अभ्यासमे यह जीव करणलव्धिको पाकर अनन्तानुबन्धी चार कषाय व मिध्यात्वादि तीन दर्शन मोहनीयको उपशम करके सम्यग्दृष्ट हो सकेगा । तब भीतरसे आत्माका साक्षात्कार हो जायगा | आत्मानन्दका अनुभव होगा, तब ही मोक्षमार्गका पता चलेगा । सर्व शास्त्रोंके पढ़नेका हेतु सम्यग्दर्शनका लाभ है । यदि इसे नहीं पाया तो, शास्त्रांका पढ़ना कार्यकारी नहीं हुआ ।
अनेक जीव व्यवहार शास्त्रमें कुशल होकर विद्याका मद करके उन्मत्त हो जाते हैं, कबायकी मलीनताको अदा लेते हैं। वे ख्याति, पूजा या लाभके प्रेमी होकर सांसारिक विषयकपाय की पुष्टिके लिये ही ज्ञानका उपयोग करते हैं, वे कभी आध्यात्मिक ग्रन्थोंको नहीं पढ़ते हैं, न कभी में आत्मा के शुद्ध स्वरूपका मनन करते हैं । उनके भीतर संसारका मोह कम होनेकी अपेक्षा अधिक होता जाता है। वे आत्मज्ञान के प्रकाशको न पाकर अज्ञानके अन्धकारमें ही जीवन faताकर मानव जन्मका फल नहीं पाते हैं। शास्त्रोंका ज्ञान उनके लिये संसारबर्द्धक होजाता है, निर्वाणके मार्गस उनको दूर लेजाता है। इसलिये श्री योगेन्द्राचार्य उपदेश करते हैं कि शास्त्रोंके पठन
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पाठन द्वारा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावकी रुचि प्राप्त करो। शुद्धा त्मानुभव मोक्षमार्ग है उसका लाभ करो, जिससे इस जीवनमें भी सच्चा सुख मिले व आगामी मोक्षका मार्ग तय होता जावे व निर्वाणका लाभ होसके । सारसमुच्चय में कहा है--- एतज्ज्ञानफलं नाम यच्चारित्रोयमः सदा । क्रियते पापनिर्मुक्तेः साधुवाणैः ॥ ११ ॥ सर्वद्वन्द्वं परित्यज्य निभृतेनान्तरात्मना ।
ज्ञानामृतं सदा पेयं वित्ताहादनमुत्तमम् ॥ १२ ॥
भावार्थ - शास्त्रशिका यही फट है जो पास अचकर व साधुओंकी सेवा करके चारित्र पालनेका सदा उद्यम करें | अंतरात्मा या सम्यग्टी आत्मज्ञानी होकर सर्व रागादि विकल्पोंकी छोड़कर निश्चिन्त होकर परमानन्दकारी आत्मज्ञान रूपी अमृतका पान सवा किया जाये ।
इन्द्रिय व मनके निरोधसे महज ही आत्मानुभव होता है ।
मणु-इंदिहि वि छोडियह वहु पुच्छियह ण कोइ । राय पसरु णिचारियt सहज उपज्जइ सोइ ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थ - ( मणु बहु इंदिहि विछोडिया ) यदि बुद्धिमान मन य इन्द्रियोंसे छुटकारा पाजावे ( कोइ ण पुच्छियइ ) तब किसीसे कुछ पूछनेको जरूरत नहीं है ( राय पसरु णिवा - रियइ ) जब रागका फैलाना दूर कर दिया जाता है ( सहज सोइ उपज्जड़ ) तब यह आत्मज्ञान सहज ही पैदा होजाता है ।
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भावार्थ - शास्त्रोंके रहस्यके ज्ञाताको जो व्यवहार निश्चयनय या द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयसे छः द्रव्योंके स्वरूपको भ प्रकार जानता हो व जिसको अपने आत्मामें रमण करनेकी गा रुचि पैदा होगई हो व जो कर्ममसे आत्माको छुड़ाना चाहता ह आत्माधीन निश्चय चारित्रके लाभके लिये उपयोगको मन व इंद्रिय रोकना चाहिये ।
इन्द्रियोंके विषयोंकी चाह मिटानी चाहिये तथा इन्द्रियों द्वारा स्पर्श करने, रस लेने, सूंघने, देखने व सुननेकी बुद्धिपूर्व क्रिया बंद करनी चाहिये। विषयभोग क्षणिक तृप्तकारी है व आगामी तृष्णाके वर्द्धक हैं, ऐसा जानकर सर्व इन्द्रियकि भोगों पूर्ण विर रहना चाहिये। अबुद्धिपूर्वक यदि वस्तु-स्वभावसे इन्द्रियोंके द्वार ज्ञानमें पदार्थ आजाये तो वीतराग भावसे जान करके छोड़ देना चाहिये | उनका स्वागत नहीं करना चाहिये । ध्यानके समय तो उपयोगको इन्द्रियोंके विषयों ढ़तापूर्वक हटाना चाहिये |
मनको भी थिर करने की जरूरत है । मनद्वारा पिछले भोगका स्वरूप व आत्माकी कांक्षा होती है । वैराग्य द्वारा उसके इस संकल्प विकल्पको या चितवनको रोकें । आत्मज्ञानमें रमणका उपाय यह है कि पहले व्यवहार नयसे बारह भावनाओंको चिन्तवन करके मनको शांत करे, फिर निश्चय नयके द्वारा जगत के द्रव्योंको मूल स्वभावमें पृथक २ देखे । समभाव लानेका प्रयास करें, फिर अपने ही आत्माके स्वरूपकी शुद्ध भावना भावे ।
भावना करते करते एक दुमसे मनका उपयोग आत्मरूप हो जायगा व आत्मामें रमण प्राप्त होजायगा । अल्पज्ञानी हझस्वका उपयोग अंतर्मुहूर्त के भीतर कुछ ही देर स्थिर रहेगा, फिर निश्वयनयके द्वारा आत्माकी भावनायें आजाना चाहिये । अपने आत्मज्ञानमें
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यांगसार टीका। [२११ रमणके लिये दुसरोंसे पूछताछ करनेकी जरूरत नहीं है । स्वयं पुरुषार्थी होकर रागके प्रसारको मिटानेकी जरूरत है | तत्वज्ञानी छ: द्रव्योंको मूल स्वभावमें देखकर वैरागी होजाता है। वास्तवमें जिसको अनुभव करना है बह आप ही है । जिसने अपने आत्माके स्वरूपका भलेप्रकार निश्चय सहित ज्ञान प्राप्त करलिया है उसके भीतर आत्माका दर्शन या अनुभव रागद्वेषके मिटते ही साइजमें होजाता है।
आत्माके आनंदकी गाढ़ श्रद्धा सर्व आत्मा या परपदार्थके आश्रित सुखसे वैराग्य उत्पन्न करदेती है । इंद्रियोंका सुख पराधीन है, व्यत्रहारी लोग इंद्रिय-सुखके लाभके लिये मनो। पदार्थोकी खोज करके उनसे TRE कलेते हैं ! आशाको दिय सुखसे गाढ़ वैराग्य होता है। इसलिये वह शीघ्र ही अपने उपयोगको मनोज्ञ या अमनोज्ञ पदार्थीस हटा लेता है। बस्तु-स्वरूपको विचार कर समभावमें आजाता है । रागका जाल मिटते ही अपना स्वरूप स्वयं प्रत्यक्ष होजाता है।
जैसे सरोवरका निर्मल पानी जब पवनके द्वारा डांवाडोल होता है तब उसमें अपना मुख नहीं दीखता है परंतु जत्र तरंग रहित निश्चल होता है तब अपना मुख दिख जाता है। इसीतरह रागद्वेषकी चंचलता मिटते ही अपना आत्मा आपको स्वयं दिख जाता है, आत्माका अनुभव होजाता है । उपयोगकी चंचलता बाधक है। जब उपयोगको वैराग्यकी रज्जुसे बांधकर स्थिर किया जाता है तब सहज ही आत्माका प्रकाश होजाता है । समाधिशतकमें कहा है
यदा मोहात्मजायते रागद्वेषौ तपस्विनः । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ।। ३९ ॥ यन्त्र काये मुनिः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम् । बुदृया तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति ॥ ४०॥
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२१२] योगसार टीका।
भावार्थ--जब पीके गानों व 3 अप सब यह शांतभावसे क्षणभरके लिये अपने आल्मामें स्थित होकर आत्माके शुद्ध स्वभावकी ही भावना करे | जिस शरीर में मुनिका राग होजावे उस शरीरसे अपने आत्माके भामको हराकर अपने आत्माफ उत्तम ज्ञानमय शरीरमें उस भावको जोड देवे तब रागका क्षय होजायगा ।
पुद्गल व जगतके व्यवहारसे आत्माको भिन्न जाने। पुग्गलु आण्णु जि अश्ण जिउ अणु जि सहु ववहारु ।
चयहि वि पुग्गल गहहि जिउ लहु पारहि भवपारु ।। ५५॥ __अन्वयार्थ-(पुग्गलु अण्णु जि) पुद्गल मूर्तीकका स्वभाव जीवस अन्य है (जिर अण्णु) जीवका स्वभाव पुनलादिसे न्यारा है (सहु ववहारू अपा जि) तथा और सब जगतका व्यवहार प्रपंच भी अपने आस्मान न्यारा है (पुरगलु चयहि वि जिउ महाह) पुद्गलादिको त्यागकर यदि अपने आत्माको निराला ग्रहण करे (लहु भवपारु पाचाह) तो शीघ्र ही संसारसे पार हो जावे ।
भावार्थ-संसारमे पार होनेका उपाय एक अपने ही आत्माका सर्व परद्रव्योंसे तथा परभावोंसे भिन्न ग्रहण करके उसीका अनुभव करना है । ज्ञानी यह विचारता है कि हराएक यकी सत्ता भिन्न २ रहती हैं । मुलमें एक द्रव्य दूसरस मिलकर एकरूप नहीं होता, न एक द्रव्यके वाद होकरके दो या अनेक द्रव्य बनते हैं । सर्व ही द्रव्य अपने अनंतगुणोंको व पर्यायौंको लिये हुए बने रहते हैं तब मेरे आत्माका द्रव्य प्रगटपने अन्य सर्व संसारी तथा सिद्ध आत्माओंसे भिन्न हैं।
अन्य आत्माओंका ब्रान, सुख, वीर्य, चारित्र भिन्न है । मेरे
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योगसार टीका ।
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आत्माका ज्ञान, सुख, वीर्य, चारित्र भिन्न हैं। निश्चयमे सर्व आत्माएं सहश हैं, गुणों में समान है तथापि सत्ता सर्वकी निराली है । सलक अपना अपना है तथा यह मेरा आत्मा सर्व जगतके अणु में स्वरूप पुलोंमें निराला है। पुल मृतक अचेतन है, मैं अमृतक चेतन है । इसी तरह यह सँग आत्मा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश व असंख्यात कालागुअसे भिन्न है, क्योंकि - ये चारों ही द्रव्य अमृतक अचेतन हैं ।
मेरे साथ जिनका अनादिसे सम्बन्ध चला आ रहा है ऐस "तेजस व कार्मण शरीर मेरेसे भिन्न हैं, क्योंकि वे पुगलमय नैजस और कार्मण वर्गेणाओंसे बने हैं। उनका स्वरूप अचेतन है, मेरा स्वरूप चेतन है। मैंने औदारिक व वैकिकि शरीर चारों गतियोंमें वारवार धारण किये हैं व छोड़े हैं। ये भी पुलमय आहारक वर्गणाओं में रचित अचेतन हैं । मेरे भाषाका निकलना भाषा वर्गणाओंके उपादान कारण से होता है व मनका बनना मनोवगणाओंके उपादान कारण से होता है ये सब पुलमय अचेतन हैं। कर्मके उदयसे जो मेरे भीतर क्रोध, मान, मागा, लोभ भाव होते हैं व अज्ञानभाव हैं या वीर्यकी कमी है सो सव आवश्यका दोष है ।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय इन चार वातीय कर्मोके उदयसे मेरेमें विकार झलकता है। जैसे कीचके मिलने से जलमें विकार दीखे | निश्रयसे जैसे कांचसे जल अलग है वैसे में आत्मा सर्व रागादि विकारोंसे अलग परमज्ञानी व परम वीतरागी हूँ | मेरा एक स्वाभाविक भाव जीवन है या शुद्ध सम्यग्दर्शन, शुद्ध चारित्र, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध दर्शन, शुद्ध दान, शुद्ध लाभ, शुद्ध भोग, शुद्ध उपभोग, शुद्ध वीर्य हैं । उपशम सभ्यक्त व उपशम चारित्र, मतिज्ञानादि चार ज्ञान व तीन अज्ञान, चक्षु आदि तीन दर्शन, क्षयोपशम दानादि
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२१४ ]
योगसार टीका ।
पांच लब्धि, क्षयोपशम सम्यक्त, क्षयोपशम चारित्र, देश संयम ये. सब वीस प्रकारके औपशमिक व क्षयोपशमिक भाव मेरे शुद्ध स्वभाबसे जुदे है । में तो एक अखण्ड व अभेद शुद्ध गुणांका घारी द्रव्य हूं | कर्मबन्धकी रचना को लेकर मेरेमें आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्वोंका तथा पुण्य व पापका व्यवहार है ।
मेरा शुद्ध स्वभाव इन पांच तत्व व सात पदार्थोंके व्यवहारसे निराला है। नर नारक देव निर्येच गतिके भीतर कमके उदयवश नानाप्रकार के बननेवाले भेष व उनमें नानाप्रकारकी अशुद्ध कायकी या वचनकी या मनकी संकल्प विकल्परूप क्रियाएं सब मेरे शुद्ध आत्मीक परिणमनसे भिन्न हैं । जगतका सर्व व्यवहार मन वचन काय तीन योगों से या शुभ या अशुभ उपयोगों से चलता है, मेरे शुद्ध उपयोग में a free आत्मीक प्रदेशोंमें इनका कोई संयोग नहीं है इसलिये मैं इन सबसे जुदा हूं । न मेरा कोई मित्र है, न कोई शत्रु है, न मेरा कोई स्वामी है, न मैं किसीका स्वामी हूं, न मैं किसीका सेवक हूं, न कोई मेरा सेवक है, न मैं किसीका ध्यान करता हूं, न किसीका पूजन करता हूं, न किसीको दान देता हूं। मैं ध्यान पूजा दानादि कर्मसे निराला हूँ ।
अशुद्ध निश्चय नयसे कहे जानेवाले रागादि भावोंसे अनुपचरित, असद्भूत व्यवहारसे कहे जानेवाले कार्मणादि शरीरोंके सम्बंध से उपचरित असद्भूत व्यवहारसे कहे जाने वाले स्त्री पुत्रादि चेतन व धन गृहादि अचेतन पदार्थोस मैं भिन्न हूं । सद्भूत व्यव हार नयसे कहे जानेवाले गुण गुणीके भेदोंसे भी मैं दूर हूं । मैं सर्व व्यवहारकी रचनासे निराला एक
परम शुद्ध आत्मा
हूं | ज्ञायक एक प्रकाशमान परम निराकुल परम वीतरागी अखंड द्रव्य हूं, मेरेमें बंध व मोक्षकी भी कल्पना नहीं है। सदा ही तीन
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योगसार टीका। [२१५ कालमें एक अबाधित नित्य परम निर्मल चेतन द्रव्य हूं । इसतरह मनन करके जो अपने आत्मारूपी रत्नको ग्रहण करके उसीके स्वामीपर्नेमें संतोपी होजाता है, वहीं आत्माका दर्शन करता हुआ निर्वाणका साहनाता समयताका कद हैं....
नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान्कर्तृभोक्तादिभावान् । दूरीभूतः प्रतिपदमय बन्धमोक्षप्रक्लप्तेः ॥ शुद्धः शुद्धस्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चिष्टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः॥१-१०॥
भावार्थ-ज्ञानका समूह यह आत्मा अपनी स्थिर प्रकाशमान प्रतिमाको धरता हुआ सदा उदय रहता है | यह परम शुद्ध है, शुद्ध आत्मीक रससे पूर्ण व पवित्र व निश्चल तेजका धारी है । कर्ताभोक्ता आदिक भावोंको पूर्णपने अपने भीतरसे दूर किये हुए है । यह अपनी हरएक परिणतिमें एकाकार हैं, बंध तथा मोक्षकी कल्पनासे दूर है । समयसारमें कहा है--
सुद्धं तु वियाणतो मुद्धमेवप्पथं लहदि जीबो । जाणतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पय लहदि ।। १७६ ॥
भावार्थ-जो जीव शुद्ध आत्माका अनुभव करता है वह स्वयं शुद्धारमा होजाता है व जो अपनेको अशुद्ध जानता है वह अशुद्ध आत्मारूप ही रहता है। आत्मानुभवी ही संसारसे मुक्त होता है। जे णवि-मण्णहि जीव फुड जे णवि जीउ मुणति । ते जिण-णाहहँ उत्तिया उ संसारमुचंति ।। ५६॥ अन्वयार्थ (जे फुड जीव णवि-अण्णाह) जो स्पष्ट रूपसे
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योगसार टीका |
अपने आत्माको नहीं जानते हैं (जे जीउ गवि मुणंांत ) व जो अपने आत्माका अनुभव नहीं करते हैं (ते संसार णउ मुचंति ) वे संसारसे मुक्त नहीं होते ( जिण णाहहं उत्तिया) ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ।
भावार्थ - श्री जिनेन्द्र भगवानने दिव्य वाणी से यही उपदेश किया है कि अपने आत्माका श्रद्धान, ज्ञान, तथा ध्यान अर्थात् निश्चय रत्नत्रय स्वरूप स्वात्मानुभव ही वह मसाला है जिसके प्रयोग से वीतरागताकी आग भड़कती है, जो कर्म ईंधनको जलाती है।
बिना आत्मीक ध्यानके कोई कभी कमसे मुक्त नहीं हो सक्ता हैं। पर पदार्थ ये मोह बन्धका मार्ग है तब परसे वैराग्य व भिन्न आत्मीक तत्वमें संलग्नता मोक्षका मार्ग है । तत्वज्ञानीको इसीलिये सर्व विषय कपायोंसे पूर्ण वैराग्यवान होना चाहिये । इन्द्रियोंके द्वारा पदार्थोंको जान करके समभाव रखना चाहिये, रागद्वेष नहीं करना चाहिये |
उनके मीतर रागभावसे रंजायमान होना व पभाव से हानि करना उचित नहीं हैं । विषयभोग विपके समान हानिकारक व अन्धकारवर्द्धक हैं ऐसा दृढ़ विश्वास असंयत सम्यक्तीको भी होता है । यद्यपि वह अप्रत्याख्यानादि कपायोंके उदयसे व अपने आत्मवीर्यको कमीस पांचों इन्द्रियोंके भोग करता है तथापि भावना यही रहती हैं कि कब वह समय आवे जब मैं केवल आत्मीक रसका हो वेदन करूं । ज्ञान चेतनारूप ही वर्तु, कर्मफल- चेतना व कर्मचेतनारूप न वर्तृ ।
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त्यागने योग्य बुद्धिसे वह उनमें आसक्त नहीं होता है । जितनीर कपायकी मन्दता होती जाती है, विषय विकारकी कलुषता मिटती जाती है | देशसमी श्रावक होकर विषयभोगसे बहुत निर्लिस हो
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योगसार दीका ।
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जाता है तब प्रत्याख्यान कषायका उदय नहीं रहता है। तब संयमी होकर पूर्ण विरक्त होजाता है। परिग्रहके प्रपंचसे हटकर निज आत्माके स्वादका इतना प्रेमी होजाता है कि एक अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आत्मीक रमणसे विमुख नहीं रहता है। निरन्तर आत्मीक मननमें लगा रहता है। __वास्तव में आत्मानुभव ही मोक्षमाग है । सम्यक्ती बाहरी चारित्रको, भेषफो, वर्तनको मोक्षमार्ग नहीं जानता है, एक ही निश्चय आत्माके अनुभवको मोक्षमार्ग जानता है । अनुभवके समय वृत्ति आत्मामय होजाती है तब बहुत कमौकी निर्जरा होती है। मोहनीय कर्मकी शक्ति घटती है, अधिकबल बढ़ता है। आत्मानुभव ही धर्मभ्यान है, आत्मनुभव ही शुक्लध्यान है, इसीके प्रतापले चारों धातीयकर्म क्षय होजाने हैं तब आत्मा परमात्मा होजाता है । अपने आत्माको द्रव्यरूप परके संयोग रहित परम वीतराग, परमानंदमय, परमझानी, परमदर्शी, अमूर्तीक, अविनाशी, निर्विकार, निरंजन, अनंतबली, परम निश्चल, एकाकी, परम शुद्ध, परमात्मा रूप निरन्तर, देखना चाहिये । जगतकी आत्माओंको भी द्रव्यदृष्टिसे ऐसा ही देखना चाहिये तब समभावका प्रकाश होगा।
भावनाके समय शुद्ध निश्चयनयसे आपको व पर आत्माओंको सत्रको परम शुद्ध रूप मनन करना चाहिये, फिर अपने में ही एकान होकर आत्मीक रसका पान करना चाहिये । रातदिन आत्मीक रसका रसीला होजाना चाहिये । निज आत्मामें ही रहना ज्ञानीका घर है । बिना आत्माकी शिलापर जिस ज्ञानीका आसन है, निज आत्मीक तत्व ही ज्ञानीका वस्त्र है, निजात्मीक रस ही ज्ञानीका भोजनपान है। निजास्मीक शय्या ही ज्ञानीकी शच्या है। जिस शानीको सर्व कर्मजनित पद अपद भासते हैं वही ज्ञानी निजपदका प्रेमी होकर निज स्वभावमें
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योगसार टीका । रमण करता हुआ मोक्षमागको तय करता है व एक दिन परमात्मा होजाता है । वास्तव में यह अनुभव कि मैं बन्ध व मोक्षकी रचनामे रहित स्वयं पदमें वीर्यवान परम निर्मल हूं, स्वयं आत्माको आत्मा-- मय दर्शाता हूं । बंधने विराग ही बंधके क्षयका कारण है। आत्मानुशासनमें कहा है
समधिगतसमन्ताः सर्वेसावद्यदृराः । स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः ।। स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः ।
कथमिह न विमुक्त जनं ते विमुक्ताः ॥ २२६ ॥ भावार्थ-जो सर्व द्रव्योंको जानते हैं, सर्व पापोंसे दुर हैं, आत्माके हितमें चित्तके धारी हैं. पवित्र शानभावके कारक हैं,.. स्त्रपर हितकारी वाणीक कहनेवाले हैं, सर्व संकल्पसे रहित हैं, ऐसे महात्मा विरक्तजन क्यों न मोक्षके पात्र होंगे ?
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आत्माके ज्ञान के लिये नौ दृष्टांत हैं। स्यण दीउ दिणयर दहिउ दुध्दु धीव पाहाणु ।
सुण्णउ रूउ फलिहउ अगिणि णव दिता जाणु ३५७॥ __ अन्चय मुगम है-अर्थ-रल, दीप, सूर्य, दही-दूध-धी, पापाण, सुवर्ण, चांदी, स्फटिकमणि, आग इन नौ दृष्टांतोंसे जीवको जानना चाहिये ।
भावार्थ-इनका विस्तार जैसा समझमें आया किया जाता है। आत्मतत्व अपने शरीरमें व्यापक है, आप ही है, प्रगट ही है। तथापि समझनेके लिये नौ दृष्टांतोंका यहां कथन है
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योगसार टीका ।
[२१९ (१) रन-आत्मा रत्नके समान जगत में एक अमूल्य द्रव्य है, परम धन है, आत्मज्ञानी रनका स्वामी सम्यग्दृष्टी जौहरी है, जो पहचानता है कि आत्मा परम शुद्ध है, अभेद है, सदा ही ज्ञानज्योति प्रकाशमान है, अविनाशी है, स्वयं सम्यग्दर्शन रत्नमय सम्यग्ज्ञान रत्नमय र सम्यक्चारित्र रत्नमय, रत्नत्रय स्वरूप है, एक अनुपम रन है।
(२) दीप-आत्मा दीपकके समान स्वपर प्रकाशमान है। एक ही कालमें यह आत्मा अपनेको भी जानता है व सर्व द्रव्योंको व उनके गुण व पर्यायोंको जानता है तौभी पर शेयोंसे भिन्न है । यह आत्मा अनुपम दीपक कमी नही बुझ्नेवाला है। इस आत्मा दीपकको किसी तेलकी जरूरत नहीं है, न कोई पवन इसे बुझा सक्ता है। यह दीपक सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंको एक साथ झलकानेवाला है।
(३) मूर्य-आत्मा सूर्यके समान प्रकाशमान व प्रतापवान है । सर्व लोकालोकका ज्ञातादृष्टा है व परम वीर्यवान है । व परम शात है । इसलिये यह एक अनुपम सूर्य है । कभी छिपता नहीं है। किसी मेघ या राहुसे ग्रसित नहीं होता है । स्वयं परमानन्दमय है। जो इस आत्मा सूर्यको देखता है उसको भी आनन्द दाता है। यह सदा निरावरण है, एक नियमित स्त्रक्षेत्रमें या असंख्यातप्रदेशी होकर किसी देहमें या देहके आकार होते हुए भी लोकालोकका प्रकाशक है |
(४) दुध, दही, घी-के समान यह आस्मा है । आत्माके दूध सदृश शुद्ध स्वभावके मनन करनेसे आत्माकी भावना दृढ़ होती है । आत्माकी भावनाकी जागृति ही दहींका बनना है। फिर जैसे दहाँके विलानेसे थी सहित मक्खन निकलता है वैसे आत्माकी भावना करते करते आत्मानुभव होता है, जो परमानन्द देता हुआ
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'२२०] योगसार टीका । आत्माको घीके समान दीखता है | आप ही दूध है, आप ही दहीं है, आप ही बी है । मुमुक्षुको निज आत्मारूपी गोरसका ही निरन्तर पान करना चाहिये । परम वीर्यवान व सन्तोषी रहना चाहिये ।
(५) पाषाण-आत्मा पत्थरके समान दृढ़ व अमिट है । अपने भीतर अनन्त गुणोंको रखता है | उनको कभी कम नहीं करता है | न किसी अन्य गुणको स्थान देता है । अगुरुला सामान्य गुणके द्वारा यह अपनी मर्यादामें वना रहता है | आठ कर्मोंके संयोगसे संसार-पर्यायमें रहता है तो भी कभी अपने स्वभावको त्यागकर आत्माम अनारमा नहीं होता है। निश्चल परम बद सदा रहता है।
(६) सुवर्ण-आत्मा शुद्ध सुवर्ण था कुन्दनके समान परम 'प्रकाशमान ज्ञान धातुने निर्मित अमृनीक एक अद्भुत मूर्ति है। संसारी आत्मा खानम निकले हुए धातु, पाषाण, सुवर्णकी तरह अनादिसे कर्मरूपी कालिमासे मलीन हैं । अग्नि आदिके प्रयोगसे जैसे सोनेकी वस्तु पाषाणभे अलग करके शुद्ध कुन्दन कर लिया जाता है वैसे ही आत्मध्यानकी आगसे आत्माको कर्मोकी कालिमासे शुद्ध सिद्ध समान कर लिया जाता है |
(७) चांदी-आत्मा शुद्ध चाँदीके समान परम निर्मल है । कर्मों के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप संबोग होनेपर भी कभी अपने शुद्ध स्वभावको त्यागता नहीं है । इस आस्मामें ज्ञानका परम प्रकाश है। वीतरागताकी सफेदी है या स्वच्छता है । जो ज्ञानी आत्मारूपी चादीका सदा व्यवहार करता है, आत्माके ही भीनर रमण करता है बह कभी परमानंदरूपी धनसे शुन्य नहीं होते है ।
(८) स्फटिकमणि-यह आत्मा स्फटिकमणिक समान निर्मल है व परिणमनशील है। फोक उदयका निमित्त न होनेपर
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यह सदा अपने शुद्ध आत्मीक गुणोंमें ही परिणमन करता है । संसार अवस्थामें कर्मोंके उदयके निमित्त होनेपर यह स्वयं रागद्वेष, मोहरूप व नाना प्रकार के विभावरूप परिणमन करता है । जैसेस्फटिकमणि लाल, पीले, नीले वस्तुके सम्पर्कसे लाल, पीला, लीला रंगरूप परिणमन कर जाता है तौभी निर्मलता को खो नहीं बैठता है, केवल ढक देता है, इसीतरह आत्मा सराग दशा में रागद्वेषरूप परिणमता हुआ भी वीतरागताका लोप नहीं कर देता है, केवल ढक देता है, निमित्त न आनेपर यह सदा स्फटिकके समान शुद्ध श्रीतरागभाव ही झलकता है ।
( ९ ) आरी - यह आत्मा अझिके समान सदा जलता रहता है । किन्हीं भी विषयोंको व परके आक्रमणको नहीं होने देता है । जय यह संसार पर्याय होता है तब यह स्वयं ही अपने आत्मीक ध्यानको अग्नि जलाकर अपने कर्मनलको भस्म करके शुद्ध होजाता हैं। यह आत्मा अनुपम अग्नि हैं जो कर्म की दाहक है, आत्मीक की पोषक है व सदा ज्ञानके द्वारा स्वपर प्रकाशक है । इन नौ दृष्टांतों से आत्माको समझकर पूर्ण विश्वास प्राप्त करना चाहिये। समयसारमें कहा है
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जह फलियमणि विशुद्ध ण सयं परिणमदि रागमादीहिं । राइज्जदि अहिंदु सो रत्तादियेहिं दच्बेहिं ।। ३०० ॥ एवं णाणि सुद्धो ण स परिणमदि रागमादीहिं । राज्जदि अहिंदु सो रागदीहिं दोसेहिं ।। ३०१ ३
भावार्थ- -जैसे स्फटिकमणि शुद्ध है, स्वयं लाल पीली आदि । नहीं होती है, परंतु जब लाल पीले आदि द्रव्योंका संयोग होता है तब वह लाल पीली आदि होजाती है । इसीतरह ज्ञान स्वरूपी
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- २२२ ]
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- आत्मा स्वयं कभी रागादि भावों में परिणमन नहीं करता है। यदि मोहनीय कर्मको रागादि प्रकृतियोंका उदय होता है तब ही रागादि रूप परिणमता है । यह स्फटिक के समान स्वच्छ परिणमनशील है ।
देहादिरूप मैं नहीं हूं, यही ज्ञान मोक्षका बीज है। देहादिउ जो पर मुड़ जेहउ सुग्णु अगासु ।
सो लहू पावड़ (?) वै परु केवलु करइ पयासु ॥५८॥ पार्थ (जे पाहु कुग्भु) जैसे आकाश पर पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रहित है, असंग अकेला है ( देहादिउ जो परु मुणइ ) वैसे ही शरीरादिको जो अपने आत्मासे पर जानता है ( सो पर बंभु लहू पाचइ ) वही परम ब्रह्म स्वरूपका अनुभव करता है (केवलु पयासु करई) व केवलज्ञानका प्रकाश करता है ।
भावार्थ-जैसे आकाश के भीतर एक ही क्षेत्रमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, असंख्यातकालाजु, अनंत जीव, अनंतानंद पुलाद्रव्य रहते हैं तथापि उनकी परिणति से आकाश में कोई विकार या दोष नहीं होता है- आकाश उनसे बिल्कुल शुन्य, निर्लेप, निर्विकार बना रहता है, कभी भी उनके साथ तन्मय नहीं होता है।
आकाशको सत्ता अलग व आकाशमें रहे हुए चेतन अचेतन पदार्थोंकी सत्ता अलग रहती है वैसे ही ज्ञानी को समझना चाहिये कि आत्मा आकाशके समान अमृतक है, आत्माके सर्व असंख्यात प्रदेश अमृर्तीक हैं । मेरी आत्माके आधारमें रहनेवाले तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक शरीर व शरीरके -वचन तथा उसके परिणमनसे सब मेरे आत्मासे भिन्न हैं । बंधप्राप्त कर्मोंके उदमसे होनेवाले तीव्र कषाय या मंदकषायके
आश्रित इन्द्रियां, मन व
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योगसार टीका ।
। २२३ सर्व ही अशुभ व शुभभाव मेरे आत्माके शुद्ध स्वभावसे भिन्न हैं। मेरा कोई सम्बन्ध मन, वचन, कायकी क्रियाओंसे नहीं है । मैं बिलकुल से मोदीगा । मैं न वीतरागी व निर्मल हूं । जगतमें मेरे आत्माके न कोई माता-पिता है, न कोई पुत्र है, न मित्र है, न कोई स्त्री है, न भगिनी है, न पुत्री है, न कोई मेरे आत्माका स्वामी है, न कोई सेवक हैं, न मेरा ग्राम है, न धाम हैं, न कोई वस्त्र ई, न आभूषण हैं | __मेरा कोई सम्बन्ध किसी भी पर वस्तुसे रंचमात्र भी नहीं है। मेरेमें सब परका अभाव है, सब परमें मेरा अभाव है, विश्वकी अनन्त सांसारिक मिद्ध आत्माएं अपने मूल स्वभावमें मेरे स्वभावफे बराबर है तथापि मेरी सत्ता निराली, उनकी सत्ता निराली । मेरे ज्ञान, दर्शन, सुख, वीय, सम्यक्त, चारित्र, चेतना आदि गुण निराले, मेरा परिणमन निराला । इन सर्व आत्माओंका परिणमन निराला । मैं अनादिकालसे एकाकी ही रहा व अनंतकाल तक एकाकी ही रहूंगा।
अनादि संसार-भ्रमणमें मेरे साथ अनन्त पुद्रलोका संयोग हुआ परन्तु वे सब मुझसे दूर ही रहे, वे कर्म नोकर्म पुद्गल मेरे किसी भी गुण या स्वभावका सर्वथा अभाव नहीं करसके आवरण कर्मीका होनेपर भी मैं उसी तरह निराबरण रहा । जैसे सूर्यके ऊपर मेघ आनेपर भी सूर्य अपने तेजमें प्रकाशमान रहता है। संसार अवस्थामें मैंने अनेकों माता पिता भाई पुत्र मित्रसे सम्बंध पाए, परंतु वे सब निराले ही रहे, मैं उनसे निराला ही रहा | चारों गतियों में बहुतसे शरीर धार व बहुतसी पर पदार्थोंकी संगति पाई, परन्तु वे मेरे नहीं हुए, में उनका नहीं हुआ | अतएव मुझे यही पक्का श्रद्धान रखना चाहिये कि मैं सदा ही रागादि विकारोंसे शून्य रहा व अब भी हूं व आगामी भी रहूंगा।
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२२४]
योगसार तीक्षा मुझे सर्व मनके विकारोंको बंद करके व सर्व जगतके पदार्थों विरक्त होकर अपने उपयोगको अपने ही भीतर सूक्ष्मतासे लेजान चाहिये तब मुझे यही दिख जायगा कि मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ यही आत्मदर्शन, यही आत्मानुभव केवलज्ञानका प्रकाशक है।
परमात्मप्रकाशमें कहा हैमुत्तिविहणार णाणमड, परमाणंद सहाउ । णियमे जोइय अप्पु मुणि सिच्चु णिरंजग माद ॥ १४३।।
भावार्थ-हे योगी| निश्वयसे तु आत्माको अमूर्नीक, ज्ञानमय परमानंद स्वभावधारी, नित्य, निरंजन पदार्थ जान | तत्वानुशासनमें कहा है
सट्रव्यमस्मि चिदहं ज्ञाता द्रष्टा सदाप्युदासीनः । स्वोपात्तदेहमानस्ततः पृथग्गगनवदमूर्तः ॥ १५३ ॥
भावार्थ-मैं अपनी सत्ताको रखनेवाला एक निराला द्रव्य हूं, स्वानुभव रूप हूं. ज्ञाता व दृष्टा है, सदा ही वीतराग हूं, अपने शरीरमें व्यापक हूं तो भी शरीरसे भिन्न, आकाशके समान अमूर्तीक हूं ।
आकाशके समान होकर भी मैं सचेतन है। जेहउ सुद्ध अयासु जिय तेहउ अप्पा वुत्तु । आयासु वि जड जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥५९॥
अन्वयार्थ (जिय) हे जीव1 (जेहउ अयासु सुद्ध तेहउ अप्पा बुत्तु) जैसा आकाश शुद्ध है वैसा ही आत्मा कहा गया है (जिय आयासु वि जड जाणि) हे जीव ! आकाशको जड़ अचेतन जान ( अप्पा चेयणुवंतु ) आत्माको सचेतन जान ।
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योगसार टीका ।
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भावार्थ - आकाश भी द्रव्य है, आत्मा भी द्रव्य है तथा पुल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय काल ये भी तय हैं, वहीं ही द्रव्य, द्रव्यपनेकी अपेक्षा समान है । सब द्रव्यों में छः सामान्य गुण पाये जाते हैं ।
(१) अस्तित्व - सत्ताका होना सब ही द्रव्य सदास हैं व सदा बने रहेंगे ।
( २ ) वस्तुत्व - कार्यकारी होना । सब ही द्रव्य अपने अपने कार्यको स्वतंत्र करते हैं ।
(३) द्रव्यत्व - परिणमनशीपना | सब ही द्रव्य अखण्ड रहते हुए भी अपनी २ में परिणमन करते हैं । स्व भाव या विभावदशाएं उनसे होती रहती है।
(४) प्रमेयत्व - जाननेयोग्य होना हैं। सब ही द्रव्य सर्वज्ञों के द्वारा जाननेयोग्य है ।
(५) अगुरुलबुल अपनी मर्यादानें रहना । सब ही द्रव्य अपने २ गुण पर्यायोंको ही अपने में रखते हैं, परद्रव्योंक गुण पर्यायको ग्रहण नहीं करते हैं ।
(६) प्रदेशत्व - आकार रखना । सर्व द्रव्य आकाशमें रहते हैं व जगह घेरते हैं । कितने ही स्वभाव सब क्रयों में सामान्यसे पाए जाते है। जैसे—
(१) अस्ति स्वभाव - अपने स्वभावको रखते हुए सब द्रव्य भावनेको रखते हैं |
( २ ) नास्ति स्वभाव - परद्रव्यों स्वभावों का परस्पर अभाव है। दूसरोंकी सत्ता दूसरोंमें नहीं है ।
( ३ ) नित्य स्वभाव - अपने २ द्रव्य-स्वभावको सदा ही रखते हैं। कभी द्रव्यका नाश नहीं होता है ।
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२२६ ]
यांगसार टीका ।
( ४ ) अनित्य स्वभाव - अपनी २ पर्यायोंके बदलने की अपेक्षा सब द्रव्य क्षणिक व नाशवंत हैं ।
(५) एकस्थ भाव - सच द्रव्य अनेक गुण पर्यायोंमें एक अखण्ड आधाररूप हैं ।
( ६ ) अनेक स्वमाव- सब द्रव्य अनेक स्वभावोंको रखनेसे अनेकरूप हैं ।
(७) मेद स्वभाव -- गुणगुणीमें संज्ञा लक्षणादिके भेद रखजैसे भेद स्वभावी हैं ।
( ८ ) अभेद स्वभाव -- सर्व द्रव्योंको गुण स्वभाव द्रव्योंमें सर्वांग अखण्ड रहते हैं। एक एक ही प्रदेशमें सर्व गुण होते हैं इससे अभेद स्वभाववान है ।
( ९ ) भव्य स्वभाव -- सर्व ही द्रव्य अपने स्वभाव के भीतर ही परिणमन करनेकी योग्यता रखते हैं |
(१०) अभव्य स्वभाव - सर्व ही द्रव्य पर द्रव्यके स्वभावरूप कभी नहीं हो सक्ते ।
( ११ ) परम स्वभाव - सर्व हो द्रव्य शुद्ध पारिणामिक भावके धारी हैं।
उन सामान्य गुण व स्वभावकी अपेक्षा जीवादि छड़ों द्रव्य समान हैं | परन्तु विशेष गुणोंकी अपेक्षा उनमें अन्तर है। अमृतक गुणकी अपेक्षा पुगलको छोड़कर पांच द्रव्य समान है। पुद्गलमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ये विशेष असाधारण गुण हैं। धर्मद्रव्यमें जीव पुट्रलको गमनका कारण होना, अधर्म द्रव्यमें जीव पुट्रलकी स्थितिको कारण होना विशेष गुण है । आकाशमें सर्वको अवकाश देनेका विशेष गुण है. । .
कालमें सर्वको बतानेका व परिणमनमें सहाई होनेका विशेष
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योगसार टीका। [२२७ गुण है । तब जीव द्रव्यमें-ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतना, सम्यक्त, चारित्र से मुख्य विशोप गा हैं जो भानाशादि पर द्रव्यों में नहीं पाए जाते हैं । वे सब आकाशादि पांच द्रव्य जड़ अचेतन हैं, आत्मा सचेतन द्रव्य है । मुल स्वभावसे सर्व ही द्रव्य शुद्ध हैं । आकाश जैसे निर्मल है बैंसे यह आत्मा निर्मल है । ज्ञानीको उचित है कि वह अपने आत्माको परम शुद्ध निर्विकार परमानंदमय एकरूप अविनाशी जानकर उसीमें आचरण करे, स्वानुभव प्राप्त करे, यही निर्माणका उपाय है । समयसारकलशमें कहा है
स्यजतु जगदिदानी मोहमाजन्मली । रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।। इह कथमपि नात्मा ऽनात्मना साकर्मकः ।
किल कलयति काले कापि तादात्म्यवृत्तिम् ॥२२-- ॥ भावार्थ हे जगतके प्राणियो ! अब तो अनादिकालसे आए हुए मोहभाव या अज्ञानको छोड़ो और आत्मरसिकोंको रसीले ऐसे प्रकाशमान शुद्ध ज्ञानका स्वाद लो। इस लोकमें कभी भी, किसी तरह भी आस्मा अनात्माके साथ मिलकर एकमेक नहीं होता है। सदा ही आत्मा अपने स्वभावसे परमे जुदा ही रहता है ।
अपने भीतर ही मोक्षमार्ग है। णासम्गि अन्भितरह जे जीवहि असरीरु । चाइडि जम्मि ग संभवहि पिवहिं ण जणणी-खीरु ॥६॥
अन्वयार्थ- जे णासम्गि अभिंतरई असरीरु जीवाई) जो बानी नासिकापर दृष्टि रखकर भीतर शरीरोंसे रहित शुद्ध
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योगसार टीका। आत्माको देखते हैं : वाहाडे जम्मि ण संभवाहि। ये फिर वारवार जन्म नहीं पाएंगे मी खीरू पा विसई) ने 'फिर माताका दृध नहीं पियेंगे।
भावार्थ-आत्मा शरीरोंसे रहित अमूर्तीक है । वह इंद्रिवोंके बारा नहीं जाना जाता, मन भी केवल विचार करसक्ता है ग्रहण नहीं करसक्ता । आत्माका ग्रहण आत्मा ही के द्वारा होता है । इसके 'अणका बाहरी साधन ध्यानका अभ्यास है।
साधकको उचित हैं कि वह एकांत स्थानमें जावं जहां क्षोभ व आकुलता न हो, मानवोंक शब्द नहीं आते हो । उपवन, पर्वत, वन, जिनमंदिर, शून्छ गृह, नदीतट आदि स्थानोंको चुनना चाहिये। भ्यानसिद्धिका समय अत्यन्त प्रातःकाल सूर्योदयके पूर्व है। फिर मध्यालकाल व सायंकाल है, व रात्रिका समय है । ध्यान करनेवाले निश्चित होकर बैंट, शरीर पर चल न हो या जितने कम संभव हो उतने वरून हो।।
शरीरमें रोगादिकी पीड़ा न हो, बहुत भूख न हो, न मात्रामे अधिक भोजन किए हुए हो, शरीरको आसन रूपमें किसी चदाई, पाट, शिला या भूमि पर रखें, पद्मासन, अर्द्धपद्मासन या कायोत्सर्ग आसनसे स्थिर सीधा नाशाप दृष्टि में तिष्ठे, सर्व चिंताओम रहित होकर व सर्व इंद्रियोंसे बुद्धिपूर्वक देखना, सुनना आदि बंद करके केवल इस भावनाको लेकर बैठे कि मुझे भीतर बिराजिन आस्मा रूपी निरंजन देवका दर्शन करना है। ___ जगत के प्राणियोंसे वार्तालापको छोड़े, मनको चितवनमें लगावे। पहले तो व्यवहारनयस अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आसव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ व धर्म इन बारह भावनाओंका श्रद्धा व भावपूर्वक विचार कर जाये फिर सात तत्वोंका
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योगसार टीका। [२१९ स्वरूप विचार जाये ! उनके विचारमें यह देखे कि जीव तो मैं स्वभावस. शुद्ध हूं परंतु अनादिकालसे कमबंध होनेके कारण अशुद्ध हूं। कर्म जड़ पुगलके सूक्ष्म स्कंधोंसे बने हैं ।
उन कामण वर्गणाओंका में ही अपनी मन, बचन, कायकी क्रियासे घसीटता हूं व रागद्वेष मोहके वश घांधता हूं । यदि वीतरागी होकर आत्मतत्वकी भावना करूं तो नवीन कौके आनेको रोकदूं ब पुराने काँको समयके पहले तप द्वारा दूर करूं । इस तरह सर्व कर्मरहित होनेपर मैं मुक्त होसकता हूं | फिर व्यवहारनन्यसे देखना संखु करके निश्चयनयसे देखें कि मैं तो एक शुद्ध चेतन-स्वभावी आस्मा ई, कर्मादि सब पर हैं। जगतके पदार्थोको भी निश्चयरूपसे देखे कि यह जगत छः द्रव्यों पूर्ण है। वे सर्व ही द्रव्य भिन्न २ अपनी २ सत्ता में हैं, सर्व परमाणु निराले है, सर्व कालाणु निराले हैं, धर्म, अधर्म व आकाश द्रव्य निराले हैं, सर्व आत्माएं अलग अलग परम शुद्ध है, व्यवहारके नर नारक देव तिर्यचके व एफेंद्रियादिके मेदोंको व अनेक मन वचन कायसे होनेवाली क्रियाओंको नहीं देखे । सबै ही द्रव्योको क्रिया रहित निश्चल स्वभावमें देखे, जिससे प्रीति व अप्रीतिका कारण मिट जाचे व एक समभाव या वीतरागभावका प्रवाह बहने लगे।
वीतराग भावकी शांत रससे भरी गंगा नदी बह निकली फिर केवल एक अपने ही शुद्ध अशरीरी आत्माको शरीर प्रमाण बिराजित भीतर सूक्ष्म भेद विज्ञानकी दृष्टि से देखनेका उगम करे । एकाकी अपने आत्माके गुणोंका चिन्तवन करे | इसे ही आत्माकी भावना कहते हैं। भावना करते करते एकाएक मन जब थिर होगा, आत्माका अनुभव जग जायगा, आत्माका दर्शन होजायगा । यही आत्मीक अनुभूति ध्यानकी आग है, जो कर्म ईंधनको जलायेगी व आत्माको
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२३०] योगसार टीका। शुद्ध कुन्दनके समान शुद्ध बनाएगी। यदि मोक्षके लाभके अनुकूल. शरीरादि सामग्री होगी तो, यह साधक उसी भवसे नहीं तो, कुछः भवों में मुक्त हो जायगा, सिह गतिको प्राप्त कर लेगा। फिर कभी जन्म न होगा, फिर कभी माताका दूध नहीं पिवेगा।
समाधिशतकमें कहा हैजनभ्यो वाक् ततः सान्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनैयोगी ततम्त्यजेत् ॥ ७२ ।। यस्य सस्पन्दमाभाति निःस्पन्देन समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियायोगं स शमं याति नेतरः ॥ ६ ॥
भावार्थ-मानवोंसे बात करनेपर मनकी चञ्चलता होती है तर मनके भीतर भ्रममाव होते हैं, इसलिये योगीको मानवोंकी संगति त्यागनी चाहिये, एकांतसेवी होना चाहिये। जिसकी दृष्टि में यह चलता फिरता जगत हलनचलन रहित, बुद्धि विकल्प रहित, कार्य रहित, केवल निज स्वभावसे घिर दीखता है वही समभावको पाता है।
निर्मोही होकर अपने अमूर्तीक आत्माको देखें।
असरीरु वि सुसरीरु मुणि इहु सरीरु जडु जाणि । मिच्छा-मोहु परिचयहि मुत्ति णियं वि ण माणि ॥६१॥
अन्वयार्थ--(असरीरु वि मुसरीरु मुणि) अपने शरीररहित आत्माको ही उत्तम ज्ञानशरीरी समझे ( इह सरीरु जहुः जाणि) इस पुद्गल रचित शरीरको जड़ व ज्ञान रहित जाने (मिन्छा मोहू परिषयाहे ) मिथ्या मोहका त्याग करे (मुति णियं वि ण माणि) मूर्तीक इस शरीरको भी अपना नहीं माने !
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योगसार टीका।
[२३१ भावार्थ-आरमध्यानक साधकको उचित है कि वह अपनेको केवल जड़ शरीर रहित एक ज्ञान शरीरी शुद्ध आत्मा समझे । पुद्रलक परमाणुओंसे रचित शरीरको एक पिंजरा या कारागार समझे । तेजस, कार्मण व औदारिक तीनों शरीरोंसे रहित अपनेको सिद्ध भगवानके समान पुरुषाकार अमूर्तीक समझे । अपना सर्वस्य श्रेय अपने ही आत्मापर जोड़ देवें | सर्व परसे प्रेमको हटा लेवे ।
जगतके पदार्थोका मिथ्या मोह त्याग देवे । जो एसा नःशवंत हैं उनसे मोह करना मिथ्या व संतापकारी है । इस जीवने अनादि संसारके भ्रमणमें अनंत पर्यायें धारण की है। जिस पर्यायमें गया वहां ही इसने शरीरसे, इंद्रियोंसे, इंद्रियों के द्वारा जाननेयोग्य व भोगने योग्य पदार्थोम मोह किया | मरणके समय शरीरके साथ उन सबका वियोग होगया तब मानों उनका संयोग एक स्वप्नका देखता था व मोह करना वृथा या मिथ्या ही रहा ।
सम्यग्दर्शन गुणके प्रकट होनेपर सर्व मिथ्यासका विकार मिट जाता है। जब तक सम्यक्त नहीं होता है यह देहका व देहके सुखका अभिनन्दन करता है, इन्द्रिय विषयभोगका ही लोलुपी होता है । तब पांचों इन्द्रियोंके विषयोंकी तीत्र लालसा रखता है। उनके मिलनेपर हर्ष, न मिलनेपर विषाद करता है, वियोग होनेपर शोक करता है । जैसे२ वे मिलते हैं अधिक तृष्णाकी दाइको बढ़ा लेता है । मिथ्याठीका मोह संसारके सुखोंका होता है वह भोग विलासको ही जीवनका ध्येय मानता है । मानव होनेपर खी, पुत्र, पुत्री, आदि कुटुम्बके मोहमें इतना गृसित हो जाता है कि रात दिन उनके ही राजी रखनेका व अपने विषय पोषनेका उन्हाम करता है, परलोककी चिंता मुला देता है।
आत्मा शरीरसे भिन्न है ऐसा विचार शांत मनसे नहीं कर
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पाता है। वर्तमान जीवनकी ही चिंतामें उलझ जाता है। यदि कदाचित् दान, धर्म, तप, जप करता भी है तो उनके फलसे वर्तमान में यश, धनका व संतानका व इच्छित विषयका लाभ चाहता है । कदाचित् परलोकका विश्वास हुआ तो देवगतिके मनोज्ञ भोगोंकी तृष्णा रखता है । उसका सारा मन वचन व कायका वर्तन सांसारिक आत्माके मोहके ऊपर निर्भर रहता है ।
जब योग्य निमित्तके मिलनेपर इस जीवको तत्वज्ञान होता है इसकी मिध्यात्वकी ग्रंथि ढीली पड़ती है तब यह समझता है कि संसारकी दशा असार है, संसारका वास त्यागनेयोग्य है बन्धन काटनेयोग्य है, आत्मा ही सचिदानन्दमय एक अपना निज देव अनुभवनेयोग्य है, ध्यान करनेयोग्य है ।
अतीन्द्रिय सुख ही अकरा है इंद्रिय सुख लागनेयोग्य है, परमाणु मात्र भी आत्माका नहीं है, ऐसा भेदविज्ञान प्रगट होता है तब वह उसीका बारबार मनन करता है । तब सम्यग्दर्शनके निरोधक मिध्यात्व कर्म व अनन्तानुवन्धी चार कपायका उदय चन्द्र होता है । यह उपशम सम्यक्ती या उपशमसंवेदक सभ्यक्ती हो जाता है। संसार अति निकट रहनेपर वेदकसे क्षायिक सम्यक्ती हो जाता है | सम्यक्तके उदय होते ही इसका सर्व मोह गल जाता है।
भीतरी प्रेम एक आत्मानन्दसे ही बढ़ जाता है । यही सम्यक्ती जीव निश्चिन्त होकर जब चाहे तब सुगमता से आत्माको भीतर सर्व शरीरोंसे भिन्न ज्ञानाकार देख सकता है । उसको अपनापन अपने ही आत्मापर रह जाता है, वह अन्य सर्व परद्रव्यांसे पूर्ण विरागी होजाता है | चारित्र मोहके उदयसे रोगीके समान कटुक दवाई पीनेके रूपमें लाचार हो, विषयभोग करता है, भावना उनके त्यागकी ही रहती है, दृष्टिमें ग्रहण योग्य एक निज स्वरूप ही रहता है।
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योगसार टीका।
[२३३ सम्यग्दर्शनका धारी ही आत्माका दर्शन भीतर कर सकता है।
समयसारकलशमें कहा हैइन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुप्फलोचलविकल्पची चिभिः ।। यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षण कृल्ममयति तदस्मि चिन्महः॥४६-३
भावार्थ- सी है जा जि मैं बैतन्यमा गि.. रूप पदार्थ है । जिस समय मेरे भीतर इस आस्मज्योतिका प्रकाश होता है अर्थान मैं जड़ आत्माको शुद्ध स्वभावका अनुभव करता हूं तब नानाप्रकारके विकल्प झालोका समूह जो इन्द्रजालके समान मनमें था यह सब दूर होजाता है। मैं निर्विकल्प स्थिर स्वरूरमें रमणकारी होजाता हूँ।
आत्मानुभवका फल केवलज्ञान व अविनाशी
सुख है। अप्पइँ अपु मुर्णतयहँ कि हा फलु होइ । केवल-गाणु वि परिणइ सासय-सुक्खु लहेइ ॥६२ ॥
अन्वयार्थ ( अप्प. अप्पु मुणंतयह ) आत्माको आत्माके द्वारा अनुभव करते हुप (किं हा फलु होइ) कौनसा फल है जो नहीं मिलता है, और तो क्या (ऋवलणाणु वि परिणवइ) केवल ज्ञानका प्रकाश हो जाता है (सासय-सुक्खु लहेइ) तब अविनाशी सुखको पा लेता है।
भावार्थ-आस्माके द्वारा आत्माका अनुभव करना मोक्षमार्ग है । जो कोई इस आत्मानुभवका अभ्यास करना प्रारंभ करता है . उसको महान फलकी प्राप्ति होती है | जबतक केवलज्ञान न हो तबतक्षा यह आत्मध्यानी ध्यानके समय चार फल पाता है | आत्मीक सुखका
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२३४]
योगसार टीका। वेदन होता है | यह अतीन्द्रिय सुख उसी जातिका है जो सुख अरहंत सिद्ध परमात्माको है। दूसरा फल यह है कि अंतराय कर्मक क्षयोपशम बढ़नेसे आत्मवीर्य बढ़ता है, जिससे हरएक कर्मको करने के लिये अंतरंगमें उत्साह व पुरुषार्थ बढ़ जाता है। तीसरा फल यह है कि पाप कर्मोका अनुभाग कम करता है । पुण्य कर्मोका अनुभाग बनाता है। चौथा फल यह है कि आयु कर्मके सिवाय सर्व कर्मोकी स्थिति कम करता है। यदि केवलज्ञान उपजाने लायक ध्यान नहीं होसका तो मरनेके पीछे मनुष्य देवगनिमें जाकर उत्तम देव होता है | यदि देव हुआ तो मरकर उत्तम मनुष्य होता है । यदि सम्यग्दर्शनका प्रकाश बना रहा हो वह फिर हरएक जन्ममें आत्मानुभव करके अपनी योग्यता बढ़ाता रहता है | शीघ्र ही किसी मानव जन्ममें परम वैरागी होकर परिग्रह-त्यागी होजाता है। साधुपद में धर्मध्यानका आराधन करके आपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर मोहनीय कर्मका क्षय करके फिर अंतर्मुहर्त द्वितीय शुकभ्यानके अलसे शेष तीन घातीय काँका भी क्षय करके अरहंत परमात्मा होजाता है । तब अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख व अनंत वीर्यमे विभूषित हो जाता है, अविनाशी ज्ञान व अविनाशी सुखको झलका देता है। ___ आयुकर्मके अन्तमें शेष चार काँका क्षय करके सिद्ध परमात्मा होजाता है । आत्मानुभवका अन्तिम फल निर्वाण है । जबतक निर्वाणका लाभ न हो तबतक साताकारी पदार्थों का संयोग है । आत्मानुभषका प्रेमी कभी नर्क नहीं जाता है न पशुगति बांधता है । यदि सम्यग्दर्शन के पहले नायु बांधी हो तो सभ्यक्त के साथ • पहले नर्कमें ही जाता है व तिर्यश्चायु बोधी हो तो भोगभूमिमें ही पशु होता है। अनेक ऋद्धि चमत्कार आत्मध्यानीको सिद्ध होजाते हैं।
इसीके प्रतापसे श्रुतकेवली होता है । अवधिज्ञान व मनःपर्यय
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योगसार दीका।
[२३५ ज्ञानको पाता है | सर्व उत्तम संयोगोंका फल देनेवाला आत्माका अनुभव है । आत्मानुभवीका उद्देश्य केवल शुद्धात्माका लाभ ही रहता है। परंतु पुण्यकर्मके बढ़नेस ऋद्धि संपदाएं स्वयं प्राप्त होजाती हैं। जैसे शामफलके से जिरे, म मा पृक्ष बोता है, फल लगनेके पहले वह माली वृक्षके पत्ते, डाली व पुष्पका अनुभव करता है । जैसे राजप्रसादकी ओर जानेवाला सुन्दर मार्गपर चलता है । दूर होनेपर यदि विश्रानि लेनी पड़ती है तो मनोहर उपवनोंमें ठहरता है, सीतल ठण्डा पानी पीता है, पौष्टिक फलोंको खाता है, सुखमें ही राजगृहमें पहुंचता है । वैसे ही मोक्षका अर्थी निर्वाण पहुंचने के लिये आत्मानुभवकी सुखदाई सड़कपर चलता है। जबतक पहुंच नवतक नर व देवके शरीरमें सुखपूर्वक विश्राम करता है | आत्मध्यानका अचिन्त्य फल है।
तत्वानुशासनमें कहा हैध्यानाभ्यासप्रकर्षण तुधन्मोहस्य योगिनः । चरमांगस्य मुक्तिः स्यात्तदः अन्यम्य च क्रमात् ।। २२४ ।। तथा चरमस्य ध्याननन्यस्यतः सदा । निर्जरासंवरश्च स्यान्सकलाशुभकर्मणां ॥ २२५ ॥ आस्रवन्ति च पुण्यानि प्रचुराणि प्रतिक्षणं । महर्द्धिर्भवत्येष त्रिदशः कल्पवासिषु ॥ २२६ ॥ ततोऽवतीर्य मयपि चक्रवादिसंपदः । चिरं भुक्त्वा स्वयं मुक्त्वा दीक्षा देंगंबरी श्रितः ॥२२८|| वनकायः स हि ध्यात्वा शुक्लध्यानं चतुर्विधं । विधूयाष्टापि कर्माणि श्रयते मोक्षमक्षयं ॥ २२९ ॥ भावार्थ-ध्यानके अभ्यासकी उत्तमताले चरम शरीरी योगीका
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२३६] योगसार टीका। मोह टूट जाता है । यह उसी भवसे मोक्ष होजाता हैं। जो चरम शरीरी नहीं होता है वह क्रम २ में मोक्षको पाता है। जोगी चरम शरीरी नहीं है उसके ध्यानके अभ्यासमे सदा ही सर्व अशुभ कर्म प्रकृतियोका संवर व उनकी निर्जरा होती जाती हैं। तथा प्रतिसमय महान् पुण्यकर्मका आम्रच होता है जिसके फलसे स्वर्गों में जाकर महान् ऋद्विधारी देव होता है। यहाँग मध्यलोकमें आकर चक्रवर्ती आदिकी सम्पदाको बहुत काल भोगकर फिर स्वयं उनको त्यागकर दिगम्बर साधुकी दीक्षा लेता है । वनवृषभनाराच संहननधारी साधु चार प्रकार शुक्लध्यानके द्वारा आठों ही कर्मोका नाश करके अक्षय अमर मोक्षको पालेता है।
परभावका त्याग संसार-त्यागका कारण है।
जे परभाव चपचि मुणि अप्पा अप्प मुणति । केवल-णाण-सरूव लइ (लहि?) ते संसारु मुचति ॥६३।।
अन्वयार्थ--(जे मुणि परभाव चएवि अप्पा अप्प मुणंति) जो मुनिराज परभावोंका त्यागकर आत्माके द्वारा आत्माका अनुभव करते हैं (ते कवल-णाण-सरूव लइ (लहि) संसारु मुचंति) ये केवलज्ञान माहित अपने स्वभावको झलझाकर संसारमे छूट जाते हैं।
भावार्थ त्याग धर्मकी आवश्यकता बताई है। साग, द्वेष, मोह मात्र बंधके कारण हैं। इनको त्यागकर वीतराग भावमें रमण करनेसे संवर व निर्जराका लाभ होता है। राग, द्वेष, मोहके उत्पन्न होने में अन्तरंगका राग मोहनीय कर्मका उदय है, बाहरी कारण मोह व रागद्वेषजनक चेतन व अचेतन पदार्थ हैं। बाहरी त्याग होनेपर अन्तरङ्ग त्याग हो जाता है, जैसे बाहरी धान्यका
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यायसार टीका। [२३७. छिलका दूर होनेपर अन्तरङ्गका पतला छिलका दूर होता है ।
साधकको पहले तो मिथ्यात्व भात्रका त्याग करना चाहिये । इसके लिये बाहरी कारण रागीद्वेषी देवोंकी, परिग्रहधारी अन्य ज्ञान रहिन साधुओंकी व एकांतमयमें बहनेवाले शास्त्रोंकी भक्तिको छोड़े, व तीत्र पापोंमे बचे । दूतरमण, मदिरापान, मांसाहार, चोरी, शिकार, बन्या व परस्त्री सेवनकी रुचिको मनसे दूर करे, नियमपूर्वक त्याग न कर सकने पर भी इनसे अरुचि पैदा करे, अन्याय मेवन ग्लानि करे तथा बीतराग सर्वज्ञ देव, निम्रन्थ आत्मज्ञानी साधु, अनेकांतसे कहनेवाले शास्त्रोंकी भक्ति करे । सात तत्वको जानकर मनन करे नब अनन्तानुबन्धी कषायका व मिथ्यात्व भात्रका विकार भागांना होगा।
सम्यग्दर्शन व खम्यग्ज्ञान व स्वरूपाचरण चारित्रका लाभ होगा । फिर भी अपसाख्यान, प्रसाख्यान व संज्वलन कषाय व नोकपायके उदयसे होनेवाले रागहप भावोंको मिटाता है । तब पहले श्रावकके बारह व्रतोंकी पालकर रागदप कम करता है । ग्यारह प्रतिमाओं या श्रेणियोंके द्वारा जैन जैस बाहरी त्याग करता जाता है, रागद्वेष अधिक २ कम होता जाता है। पूर्ण रागद्वेपके त्याग करनेके लिये साधुकी दीक्षा आवश्यक है, जहां वस्त्रादिका पूर्णपने त्याग होता है । साधु होते हुए. खेत, मकान, धन, धान्य, चांदी, मोना, दासी, दास, कपड़े, वर्तन इन दश प्रकार के बाहरी परिमहको त्यागकर बालकके समान समदशी, काम विकारसे रहित निग्रंथ होजाता है । अंतरंग चौदह प्रकारके भाव परिग्रहसे ममता त्यागता है।
मिथ्यात्वभाव, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति,. शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद, इन १४ तरहके 'भावोंमे पूर्ण विरक्त होजाता है। शत्रुमित्रमें, तृण व सुवर्णमें व जीवन
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२३८]
योगसार टीका। मरणमें समभावका धारी होजाता है । एकांत वन उपयन पर्वतादिके निरंजन स्थानों पर बैठकर आत्मध्यान करता है तब एक अपने ही · शुद्ध आत्माको भावमें ग्रहण करता है व सर्व परभावोंसे उपयोगको .हदाता है।
जितने भाव कर्मोंक निमित्तल होते हैं व जो अनित्य हैं उन सबसे राग त्यागता है। औदयिक. श्योपशामिक व छूटनेवाले औपशमिक भावोंसे विरक्त होकर क्षायिक व परिणामिक जीवत्व भावको अपना स्वभाव मानकर एक शुद्ध आत्माकी वारवार भावना करता है । ऐसा मुनिराज रागद्वेषको पूर्ण जीत लेता है।
क्षपकरेणीपर चढ़कर अन्नमुहूर्तमें चार घातीय कर्मोंका क्षय करके केवलज्ञानी होजाता है। फिर चार अघातीय कर्मोंका भी - नाश करके संसारसे मुक्त होजाता है । परभावोंके त्यागमें ही आपके निज भावका यथार्थ ग्रहण होता है तब शुद्ध, आत्मानुभव प्रगट होता है। यही मोक्षमार्ग है व सदा ही आनंद अमृतका पान करानेवाला है। समयसारकलशामें कहा हैएकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किस ते परेषाम् । 'ग्राहस्तश्चिन्मय एव भायो भावाः परे सर्वत एच हेयाः ॥५॥ सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितीक्षार्थिभिः सेन्यतां शुद्ध चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विबुधा भावाः पृथम्लक्षणास्तेऽहं नाऽस्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं सममा अपि ॥६-२॥
भावार्थ-चैतन्यमय एक भाव ही आत्माका निज भाव है। शेष सर्व रागादि भाष निश्चयसे पर पुदलोंके हैं। इसलिये एक चैत. न्यमय भाषको ही ग्रहण करना चाहिये । शेष सर्व परभावोंका त्याग
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करना चाहिये । शुद्ध भाव में चलनेवाले मोक्षार्थी महात्माओं को इसी सिद्धांतका सेवन करना चाहिये कि मैं सदा ही एक शुद्ध चैतन्यमय परम जोति स्वरूप हूँ | इसके सिवाय जो नाना प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वे मेरे शुद्ध भावसे भिन्न लक्षणधारी हैं। उन रूप मैं नहीं हूं। ana मुझसे भिन्न परद्रव्य ही हैं ।
त्यागी आत्मध्यानी महात्मा ही धन्य हैं । धण्णा ते भयवंत वुह जे परभाव चर्यति । लोयालोय - पयासयरु अप्पा विमल मुणंति ॥ ६४ ॥
अन्वयार्थ - ( जे परभाव चयंति ) जो परभावोंका त्याग करते हैं और (लोयालोय पयासयरु अप्पा मुणांत) लोकालोकप्रकाशक निर्मल अपने आत्माका अनुभव करते हैं ( ते भयवंत बुह धण्णा ) वे भगवान ज्ञानी महात्मा धन्य है ।
भावार्थ - आत्माका स्वरूप निश्यले परम शुद्ध है । ज्ञान इसका मुख्य असाधारण लक्षण है। ज्ञानमें वह शक्ति है कि एक ही समयमें यह सर्वलोकके छः द्रव्योंको, उनकी पर्यायोंको लिये हुये तथा अलोकको एक ही साथ क्रम रहित जैसेका तैसा जान सके । इसी तरह आत्मामें वह सब गुण हैं जो सिद्ध भगवानमें प्रगट होजाते हैं।
स्वभावसे आत्मा सिद्ध के समान है । तत्वज्ञानी महात्मा जिस पदके लाभका रुचिवान होता है उसी पदको ध्याता है। तब यह सर्व परपदार्थोंसे वैरागी हो जाता है । पुण्योदय से प्राप्त होने वाले बारायण, बलभद्र, प्रतिनारायण, चक्रवर्ती, कामदेव, इन्द्र, धरणेन्द्र, अहमिंद्र आदि पोंको कर्मजनित नाशवंत व आत्मा शुद्ध स्वरूपसे
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२४० ]
योगसार टीका। थाहर जानके उन सबकी ममता त्यागता है, इसीतरह जिन शुभ भावोंसे लौकिक उन पदोंकी प्राप्तिके योग्य पुण्यका बन्ध होता है, उनको भी नहीं चाहता है । धर्मानुराग, पांच परमेधी भक्ति, अनुकम्पा, परोपकार, शास्त्रपठन आदि शुभ भावोंक भीतर वर्तता है क्योंकि शुद्धोपयोगमें अधिक ठहर नहीं सक्ता है | आत्मवीयकी कमी है तब अशुभ भावोंसे बचने के लिये शुद्ध भावों में रहते हुये भी ज्ञानी उससे विरक्त रहता है।
परमाणु मात्र भी रागभाव बंधका कारण है ऐसा ग्रह जानता है । चौदह गुणस्थान आत्माकी पचटिकी श्रेणियों है तथापि शद्धास्माके मूल, पर संयोग रहित, एकाकी स्वभावमे भिन्न है । इसलिये ज्ञानी इनको भी इसीतरह त्यागयोग्य समझता है । जैसे सीढ़ियोपर बढ़नेवाला सीढ़ियोंको त्यागयोग्य समझाके छोड़ता जाता है : एक शुद्धोपयोगको ग्रहण करनेका उत्सुक होकर धर्मप्रचारके विचारोंको भी त्यागता है । द्रव्यार्थिक नयसे आत्मा नित्य है. पर्यायाथिक नयसे अनित्य है। अभेदनयसे एकरूप है, मेदाम्प व्यवहारनयसे अनन्तरूप है।
आत्मा गुण पर्यायोंका समूह है, लोक छः द्रव्योका समुदाय है, काँके १४८ भेद हैं, कम का बंध चार प्रकारका होता है। प्रकृति प्रदेश बन्ध योगोंस व स्थितिः अनुभाग बन्ध कषायोंमे होता है। सात तत्व हैं, नव पदार्थ हैं, इसदि सबै विकल्पोंको चन्धकारक जानकर त्याग देता है । सिर्विकल्प समाधि व स्वानुभव आलापक लिये यह एक अपने ही आमाके भीतर आत्माके द्वारा अपने ही आत्माको विदा देता है। . __ . इस तरह जो ज्ञानी व विरक्त पुरुष संसारकी सर्व प्रपंचावलीसे पूर्ण विरक्त होकर आत्मयान करते हैं व परमानन्दके अमृतका पान
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[२४१ करते हैं, वे ही बड़े विवेकी पंडित हैं, वे ही परम ऐश्वर्यवान हैं, रत्नत्रयकी अपूर्व सम्पदाके धनी हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकतामें लवलीन हैं, वे ही भाग्यवान हैं, भगवान हैं, अतीन्द्रिय ज्ञान व सुखके स्वामी हैं. शोना ही मोक्षलाभ करेंगे ।
आत्मानुशासन में कहा हैयेषां भूषणामसपातरजः म्यानं शिलान्यातरम् शथ्या शरिला मही सुचिहिने गेहं गुहा हो पिनाम् । यात्मात्मीयविकलावी तालयात्रुत्तमोगाम्या - मते नो ज्ञानधना मनांसि पनसा मुकिम्हा निहा: १२५९।।
भावार्थ-जिन महात्माओंका गहना दारी में लगी रज है, जिनको बैठनेका स्थान पापाणको शिला है, जिनकी शय्या कङ्करीली भूमि है, जिनका सुन्दर घर बाघोंकी गुफा है, जिन्होंने अपने भीतरमे सर्व विकल्प मिटा दिये हैं व जिन्होंने अज्ञानकी मांगो तोड़ डाला है, जिनके पास सम्यग्ज्ञान धन है, जो मुक्तिक प्रेमी है, अन्य सब इच्छाओंसे दूर हैं, ऐसे वागागण हमारे मनको पवित्र करें |
गृहस्थ हो या मुनि, दोनोंके लिये आत्मरमण
सिद्ध-मुखका उपाय है। सागार विणागारु कु वि जो अप्पाणि बसेइ । सो लहु पावह सिद्धि-सुहु जिपानरु एम भइ ॥६५॥
अन्वयार्थ-(सागारु वि णागारु कु वि) गृहस्थ हो या मुनि कोई भी हो (जो अपाणि वसेइ) जो अपने आत्माके भीतर बास करता है (सो सिद्धि-सुहु लहु पाचइ) वह शीघ्र ही सिद्धि के
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योगसार टीका। मुखको पाता है (जिणवर एम भणेइ ) जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है।
भावार्थ- आत्मीक अतीन्द्रिय आनंदको सिद्धिसुत्र या सिद्धोंका सुख कहते 3 । जैसा शुद्धात्माका अनुभव सिद्ध भगवानोंको है वैसा ही का अनुभव अत्र होता है तब अना मुख सिद्वोंको वेदन होता है या ही सुखा शुद्रामा घेदन करनेवालों में होता है।
आत्मीक आशंदुका म्याद जिस साधनस हो वही मोक्षका उपाय है या आनंद सुखका साधन है । क्योंकि बानुभवमें सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्धारित्र तीनों ही गर्मित है। स्वानुभव ही निश्चय सत्राप स्वरूप मोक्षगांग है। उसीस नवीन क्रमौका मेवर होला है. व पुगने काँकी निर्जरा होनी है । यही एक सीधी सड़क मोक्षमहलकी तरफ गई है । इस सिबाय कोई दुसरी सड़क नहीं है व बाहरी साधन मन, वचन, कायकी शक्तिको निराकुल करनेके लिये है । जिननी मनमें निराकुलता व निश्चिन्तता अधिक होगी उतना ही मन स्त्रानुभवमें बाधक नहीं होगा।
जगतके प्रपंचजाल मन, वचन, कायको अटकाते हैं, उलझाते हैं, इसलिये मोक्षमार्गमें बाहरी निकट साधन साधु वा अनगारका चारित्र है व क्रमश बाहरी साधन सागारका-श्रावकका चारित्र है। श्रावकका चारित्र बतलाने हुये साधुके चारित्रपालनकी योग्यता होती है। बिना साधुका चारित्र पाले कर्मका नाशक तीन स्त्रानुभव नहीं जागृत होता है। हराएकका व्यवहार चारित्र ग्यारह प्रतिमारूप है-क्रम क्रममे बढ़ता जाता है ! पहली २ प्रनिमाका दुसरी आदिमें बना रहता है आगे और बढ़ जाता है, उसका संक्षेप स्वरूप इस प्रकार है
(१) दर्शन प्रतिमा-सम्यग्दर्शनको दोष रहित पाले, २५ दोषों को बचाने, निःशंकित, निःकाक्षित, निर्विधिकित्सित, अमूरष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना आठ अंग पालकर इनके
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योगसार टीका । [२४३ प्रतिपक्षी आठ दोपॉम बचे । बानि, कुल, धन, अधिकार, रूप, चल, विया. तप, आठ प्रकार मद न करे | देव, गुरु, लोकमाता त्यागे! कुंदेव, कुसुम, कुशास्त्र व इनके तीन प्रकारके संबक इन छः अनायतनोंका सत्रच भक्तिपूर्वक न करे । अहिंसा, सत्य, अचौक, ब्रह्मचय, परिग्रह त्याग इन पांच प्रतीक एकदश साधनका अभ्यास करे। देवपूजा, गुरुभक्ति, म्यान्याय, तप, संयम, दान, इन छ: कमौका नित्यप्रनि पालन करें ।
(२) व्रत प्रतिमा-पांच अगुवनोंको दोष रहिन पाले, दित्रत, दावन, अनर्थदण्ड व्याग, इन तीन गुणत्रनोंको व सामायिक, प्रोष धोपचाम, भौगोपभोग रिसा व अनिधि सविना ने चार शिक्षा ब्रोंको पालनेका अभ्यास करे |
(३) सामायिक मनिमा-नीन मन्याओंमें सरे, दुपहर, झाम, समभानम या शांतभावस म्यानुभवका अभ्यास करे व समट्रेप छोड़े।
(1) मोषध प्रतिमा-महीनेमें चार दिवस दो अष्टमी दो चौदस अवास करें।
(५) सचित्तत्याम प्रतिमा-जीब सहित सचित्त भोजनपान नहीं करें।
(६) रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा-रात्रिको न आप भोजनपान करे न दृमरोंको कराये |
(७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-मन, वचन, कामसे ब्रह्माचर्य पाले। स्वस्तीस भी विरक्त होजावे ।
(८) आरम्भत्याग प्रतिमा-खेती व्यापारादि आरम्म नहीं कर, आरम्भी हिंसा छोड़े।
(९) परिग्रहत्याग प्रतिमा--भूमि, मकान, धनादि परिग्रह
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२४४]
योगसार टीका। त्याग करके कुछ बा व पात्र रखले, वर छोड़कर बाहर एकांतमें रहे, संतोषसे दूसरेक यहां निमंत्रणसे भोजन करे, आप स्वयं नहीं बनाये।
(१५) अनुमात त्यान-लौकिक काम में सम्मति देनेका. त्याग करे, भोजनक समन निमन्त्रणमे जावे।
(११) उदित्याग प्रतिमा--अपन लिये किये गए भोजनको न लेवे, भिक्षा भोजन करें । शुल्क होकर एक लंगोट, एक. खंष्ट चादर स्क्वे. पीछी, कमंडल रकावे । ऐलक होकर कंवल एक लंगोटी पीछी कमल स्काले ।
फिर सा हो वस्त्र रहित होजाये, पांच महावत अहिंसादि पूर्ण पाले व पांच समिलि पाटे ! ( १) इयर्या-देखकर चले, (२) भाषा--शुद्ध वाणी बोल(३) रस त्याग-द्ध भोजन लेवे, (४) आदाननिशेषण-देन कर उठाये घरे, (५) व्युत्सर्ग-मल, मूत्र. देखकर करें, मन वचन कायको शश रहताबीन गुलि पाले । यह तेरा प्रकार, साधुका व्यवहार बारिश हैं। इस प्रकार श्रावक या साधुके व्यवहार चारित्रको पालते हुए स्वानुभवका अभ्यास बढ़ावे. तो वह धीरे २ आत्मानंदको पाना हुआ मोक्षकी तरफ बढ़ता चला जाता है । आत्मामें ही जो तिष्ठते हैं में ही सिद्ध मुखको सदा पाते. हैं। पुरुषार्थसिद्धपायमें कहा हैं:
चारिक भवति कला समात्तसावद्ययोगविहरणात् । सकलकापायांवमुक्तं विशदमुद्रासीनमा मरूपं तत् ॥ ३९॥ हिंसातोऽनृतवचनाल्तेषादब्रह्मतः परिग्रहतः । कास्न्यैकदेशविरतश्चापिनं जायते द्विविधम् ॥ ४० ॥ भावार्थ-सर्व पापबन्धको कारण मन, वचन, कायकी प्रवृ
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योगसार टीका। [ २४५ त्तिको त्यागना व्यवहारचारित है । मर्च कपायकी कालिमा रहित, निर्मल, उदासीन, आत्मानभवरूप निश्चयचारित्र है । हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांव पापोंसे पूर्ण विरक्त होना साधुका व एकदेश विरक्त होना यात्रफका व्यवहारचारित्र है ।
तत्वज्ञानी विरले होते हैं। बिरला जाणहिं दत्तु बुह चिरला णिसुणहिं तत्तु । बिरला झामाई त जिन विरला धारहि तन्नु ।। ६६॥
अन्वयार्थ--- (विरल ह न जाणहि ) विरले ही पंडित आत्मतत्वको जानने है (बिस्ला दत्त किरणा) विरले ही श्रोता तत्वको सुनते हैं (विरला जिय लत्तु झायाह) विरले जीव हैी तत्वको च्याते हैं (विरला तनु धारहिं) विरले ही तत्वको धारण करके स्वानुभवी होते हैं।
भावार्थ-आत्मज्ञानका मिलना बड़ा कटिन है। थोड़े ही प्राणी इस अनुपम तत्वका लाभ कर पाते हैं। मगरहित पंचेन्द्रिय तक प्राणी विचार करनेकी शक्ति बिना आत्मा अनात्माका भेद नहीं जान सन । सी पन्नेन्द्रियों में नारकी जीत्र रात दिन कषायके कार्य में लंग रहते हैं । किनही प्राणियोंको आत्मज्ञान. होता है। पशुओंमें भी आत्मजानके पानेका साधन विरला है। देवोंमें विषयभोगों की अधिक है। वैराग्य भावकी मुलभता है। किनहीको आत्मज्ञान होता है। मानवोंके लिये साधन सुगम है तो भी बहुत दुर्लभ है।
अनेक मानव रात निः शरीरकी क्रिया मे तालीन रहते हैं कि उनको आत्माकी बात सुननेका अबसर ही नहीं मिलता है।
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२४६] योगसार टीका। जिनको अवसर मिलता है वे भी व्यवहारमें इतने फंसे होते हैं कि व्यवहार धर्म अन्धोंको पढ़ते सुनते हैं; अनेक बई विद्वान पंडित होजाते हैं; न्याय, व्याकरण, काव्य, पुराण, वैद्यक, ज्योनिमकी य पाप पुण्य बंधक क्रियाओंकी विशेप चचर्चा करते हैं । अध्यात्म ग्रन्थोंपर सुक्ष्म दृष्टि देकर नहीं पढ़ते हैं न विचारते हैं।
निश्चयनयस अपना ही आत्मा आराध्य देव हैं रोका हद विश्वास नहीं कर पाते हैं । अनेक पंडित आत्मज्ञान विना केवल विद्याके धबलों , क्रियाकांडके पोपणमें ही जन्म गंवा देने है-- जिनके मियानका व अनंतानुबन्धी कपाको भर, डोउ! . दुत, उनही विद्वानोंको तत्वरुचि होती है। अध्यात्मज्ञान विद्वान बहुत थोड़े मिलते हैं । जबतक ऐसे उपदेशक न मिल तबतक श्रोताओंको आत्मजामका लाभ होना कठिन है।
यदि कोंपर आत्मज्ञानी पंडित होते भी हैं तो आत्माके हितकी माद रुचि रखनेवाले प्रोताओंकी कमी रहती हैं। जिन मीनर संसारके मोहजालस कुछ उदासी होती है वे ही आत्मीक नस्त्रकी. बातोको न्यानसे सुनते हैं. सुनके धारण करते हैं, विचार करते हैं। जिनके भीतर गाद रुचि होती है, वे ही निरन्तर आत्मीक तत्वका चितवन करते हैं । आत्मव्यानी बहुत थोड़े हैं, इनमें भी निर्विकल्प समाधि पानेवाले, स्वानुभव करनेत्राले दुर्लभ हैं।
आत्मज्ञान अमूल्य पदार्थ है, मानव जन्म पाकर इसके लाभका प्रयत्न करना जारी है । जिसने आत्मज्ञानकी रुचि पाई उसने ही निर्माण जानेका मार्ग पालिया। यही सम्यग्दर्शन है। जब बुद्धि मूक्ष्म विचार करनेकी हो तब प्रमाद छोड़कर पहले व्यवहारनयसे जीवाजीत्र तत्वोंके कहनेवाले शास्त्र पढे । बंध व मोक्षक व्यवहार साधनोको जान लेवे फिर निश्चयनयकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रका मनन करके अपने आत्माको द्रव्यरूपमे शुद्ध जाने ! भेद
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योगसार टीका। [२४७ विज्ञानका मनन करे। जैस पानीस कीच भिन्न है चेसे मेरे आत्मामे आठ कर्म, रागादि भावकर्म, शरीरादि नोको भिन्न है।
बारबार अभ्यासके बलसे सम्यग्दर्शनका प्रकाश होगा | तब अनादिका मायका:-गा, ज. होमः, शिपिका मार्ग हाथमें आगया, फिर क्या चाहिये । जन्म २ के संकटोंको मिटानेत्राला ग्रह आत्मज्ञान है । यद्यपि यह दुर्लभ है तथापि इसीके लिये पुरुषार्थ करना व इसे लाभ कर लेना ही मानवजन्मका सार है।
समयसारजीमें कहा हैसुद परिचिदाणुभृदा, सव्यस्स वि कामभोयबंधकहा । एयत्तस्कलम्भो, णधार ण सुलभो बिभत्तम्स ॥ ४ ॥
भावार्थ-सर्व संसारी प्राणियोंको काम भोग संबन्धी कथा । बहुत सुगम है क्योंकि अनंतबार सुनी है, अनंतवार उनकी पहचान की है, अनंतवार विषयोंका अनुभव किया है। दुलभ है तो एक परभाव रहित व अपने एकस्वरूपमें तन्मय ऐस शुद्धात्माकी बात है। इसीका लाभ होना कठिन है । सारसमुच्चय में कहा है
ज्ञानं नाम महारत्नं यन्न प्राप्तं कदाचन । संसारे श्रमता भीमे नानादुःम्वविधायिनि ॥ १३ ॥ अधुना तत्त्वया प्राप्तं सम्यग्दर्शनसंयुतम् । प्रमाई मा पुनः कार्कीविषयास्वादलारसः ॥ १४ ॥
भावाथ-~-इस भयानक व नानाप्रकारके दुःखोंसे भरे हुए संसारमें मरते हुए जीवने आत्मज्ञान रूपी महान् रस्नकी कहीं नहीं पाया | अब तूने इस उत्तम सम्यग्दर्शनको पालिया है, तब प्रमाद न करे, विषयोंके स्वादमें लोभी होकर इस अपूर्व तत्त्रको खोन बैठे। सम्हालकर रक्षाकर सुस्त्री बने ।
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२४८] योगसार टीका।
कुटुम्ब मोह त्यागनेयोग्य है। इहु परियण ण हु महुतगउ इहु सुहु-दुक्खहँ हेउ । इम चितंतह कि करइ लहु संसारहँ छेउ ।। ६७ ॥
अन्वयार्थ-(इहु परियण महुतण ण हु) यह कुटुम्थ परिवार मेरा निश्श्रयसे नहीं है (इहु मुहु-दुक्खाह हेउ) यह, भाव सुखदुःस्त्रका ही कारण है (इम किं चिंतंतहँ) इसप्रकार कुछ विचार करनेग (संसार, छेर लह करद ) संसारका छेद शीध्र ही कर दिया जाता है।
भावार्थ-यह प्राणी इन्द्रिय मुखका लोलुपी होता है । अपने मुखको प्राप्तिमें सरकारी प्राणियोंसे मोह कर लेता है। बाल्यावस्थामें मातापिता द्वारा पालापोवा जाता है व लाडम्यारमें रक्खा जाता है, उससे उनका तीत्र सोही हो जाता है । युवावयम स्त्रीस व पुत्रपुरास इन्द्रियसुरन पाला है, इसलिये उनका मोही हो जाता है । जिन मित्रोंसे व नौकर चाकरोंसे इन्द्रिय मुखभोगमें मदद मिलती है उनका मोदी हो जाता है । व जिनने इन्द्रिय सुग्बमें बाधा पहुंचती है उनका शत्रु बन जाता है।
कुटुम्बके मोहमें ऐसा कहा जाता है कि उसको आत्माके म्वरूपके विचार के लिये अवकाश ही नहीं मिलता है। रातदिन उन परिवारजनों के लिये धन कमानेमें व धनकी रक्षा करनेमें ही लगा रहता है। यदि कोई कुटुम्बी अपनी आयुकर्मक क्षयसे मर जाता है वो यह मोही प्राणी उनके शोकमें बावला हो जाता है । वह इस बातको भूल जाता है कि परिवारका सम्बंध वृक्षपर रात बसरेके समान है। जैसे संध्याके समय एक वृक्षपर अनेक पक्षी भिन्न २ स्थानोंसे आकर जमा हो जाते हैं, सवेरा होनेपर सर्व पक्षी अलग २ अपने २
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योगसार टीका ।
[ २४९
स्थानोंको चले जाते हैं, वैसे ही एक परिवार में नाना जीब कोई - नरकसे, कोई पशुगतिसे, कोई देवगतिमें, कोई मनुष्यगति से आकर जमा हो जाते हैं ।
सब अपनी २ आयुपर्यंत रहते हैं। आयुके क्षय होते ही अपने बांधे हुए पाप पुण्यकर्मके अनुसार कोई देवगतिमें, कोई मनु'व्यगतिमें, कोई तिर्यगति, कोई नरकगति चले जाते हैं, किसीका कोई सम्बंध नहीं रहता है । सब प्राणी अपने मुख स्वार्थमें दूसबस मोह करते हैं। स्वार्थ न सधने पर नेह छोड़ देता है, पुत्र विरुद्ध हो जाते हैं, वृद्धावस्था में स्वार्थ सा न देखकर कुटुम्बीजन वृद्धको अवज्ञा करते हैं। कुटुम्बसे यदि इंद्रियोंके विषय सधते हैं नत्र तो सुखके कारण भासतें हैं । जब उनसे विषयभोग ज्ञानि पड़ती है तब ही के कारण हो जाते हैं ।
बारी सम्यग्दृष्टी जीवको जलमें कमलके समान गृहस्थको रहना चाहिये, मोहन करना चाहिये । उनको अपने जीवसे प्रथक मानकर उन जीवोंका उपकार भने सो करना चाहिये। उनकी रक्षा, शिक्षा व सुख से जीवननिर्वाह में साई होना चाहिये | उनको आत्मज्ञानके मार्ग पर लगाना चाहिये । यदि काम न करें. ब कम करे नो मनमें विषाद न करना चाहिये । बदले में सुख पानेके लोभसे उनका हित न करना चाहिये। उनके हितके पीछे अन्याय धन न कमाना चाहिये, न अपने आत्मकल्याणको मुल्लाना चाहिये। जो कुटुम्बरिवारका मोह छोड़ देते हैं वे सहज वैराग्यवान होजाते हैं।
अथवा आत्महित करते हुए जबतक गृहस्थ में रहते हैं उनकी सेवा facere भाव करते हैं । जब अप्रत्यास्थान कपायका उदय अतिशय मंद रह जाता है तत्र कुटुंबत्यागी श्रावक होजाते हैं, परसे मोह नहीं करते हैं, केवल एक निज आत्माकी ही गाढ़ भक्ति करने
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यांगनाशका। वाले भव्य जीव शीन ही भवसागरसे पार होजाते हैं ।
बृहत सामायिकपाटमें कहा है-- कांतान शरीरजप्रभृतयों ये सबंधारयात्मनो । भिन्नाः कर्मभवा: समीरगनला भायावहिभाविनः !! तैः संपत्तिमिहात्मनो गतधियो जानन्ति ये शम्मंदा । स्वं संकल्पयसेन तं विदधते नाकीशलक्ष्मी: स्फुटं ।। ८५ ।।
भावार्थ-यह घी, धन, पुत्रादि सर्वथा ही अपनी आत्मास भिन्न हैं, बाहरी रहनेवाले हैं, कमक उदयन प्राप्त हैं, युवकके समान उनका संयोग चंचल है। जो मूढ़ बुद्धि इनके संयोगसे सुखदाई संपत्ति होना समझते हैं वे ऐसे ही मूर्ख हैं जो अपने मनके संकल्पसे ही स्वर्गकी लक्ष्मीको प्राप्त करले।
संसारमें कोई अपना नहीं है। ईद-फणिंद-परिंदय वि जीवहं सरणु ण होति । असरणु जाणिव मुणि-धवला अप्पा अप्प मुणति ॥६८॥
अन्वयार्थ ( इंद-फर्णिद-णारय वि जीव सरणु ण होति) इन्द्र, धरपेन्द्र, व चक्रवर्ती कोई भी संसारी प्राणियोंके रक्षक नहीं हो सकते ( मुणि-धरला असरणु जाणिवि ) उत्तम-मुनि अपनेको अशरण जानकर ( अप्पा अषण मुणान) अपने आत्मा द्वारा आत्माका अनुभव करते हैं।
भावार्थ-संसारी प्राणी कोके उदयको भोगते हैं तब कोई उस उद्यको मिदा नहीं सकता । जब आयु कर्म क्षय होता है मरण होजाता है, किसी इन्द्र, धरणन्द्र क नरेंद्रों, मंत्रज्ञाता, विद्वानमें, तपस्वी में, परममित्रमें, माता-पितामें, पुत्र-पुत्रीमें, अग व
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योगसार टीका |
[ २५ १ ज्योतिषों में शक्ति नहीं है कि मरणसे एक क्षण भी रोक सके। स्वयं सर्व प्रकार भोगोको भांगनेवाले चक्रवर्तीको सी शरीर त्यागना पड़ता है | इन्द्र व देवो भी देवगतिक भोग त्यागकर मध्यलोक में जन्म लेना पड़ता है । इसीतरह जब पाप कर्मोंका तीन उदय आजाता हैं तब रोग, शोक हरएकको सहना पड़ता है तब भी कोई दुःखको बेटा नहीं सकता है। प्राणीको अकेले ही भोगना पड़ता है, माताको पुत्रपर बहुत प्रेम होता है व पुत्रके रोगी होनेपर वह मोहसे दुःख मानती है, परंतु ऐसी शक्ति मातामें नहीं है जो पुत्र रोगकी वेदनाको पुत्रको न भोगने दे, आप भोग वे ।
कोई किसी दुःख या सुखको या साता असातावेदनीय कर्मको नहीं दे सका। कर्मकि फल भोगने में सब जीवोंको स्वयं ही वर्तना उड़ता है, कोई भी रक्षा नहीं कर सक्ता । जो कर्म अभी सत्ता में हैं उदय में नहीं आए हैं उन कमौंको स्थिति व अनुभाग घटाकर क्षय किया जा सका है या पापकर्मों को निचैल व पुण्यकर्मको सत्रल किया जा सक्ता है । उसमें कारण उसी जीवके परिणाम हैं। जो कोई अपने शुद्धात्माकी भावना भावे व अरहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधुकी भक्ति करें या कृतपापका प्रतिक्रमण करें, गुरुके पास आलोचना करें तो निर्मल भावोंसे कर्मोकी अवस्थाको बदला जा सक्ता है, उनका क्षय किया जा सक्ता है ।
इसलिये यह जीव आप ही अपना रक्षक है। दूसरा जीव दूसरे जीवका रक्षक नहीं है ऐसा जानकर बानी मुनिराज अपने शुद्धात्माका ही अनुभव करते हैं । जब आत्मव्यानमें उपयोग नहीं लगता है तब स्वाध्याय, भक्ति, मननमें व परोपदेशमें व वैयावृत्य में व त्वचा उपयोगको जोड़ते हैं ।
सम्यष्टी ज्ञानको अशरण भावनाका विचार करके कर्मों के
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२२२]
योगसार टीका। क्षयका उपाय करना योग्य है जिसने कर्मोके उदयकालमें दुःस्त्र य खेद व आकुलता न सहनी पड़े | जन्म, अग, मरणके साटोंमें न पड़ना पड़े । कर्मोंका संयोग एक क्षण के लिये भी आत्माके लिये गुणकारी नहीं है | ज्ञानी जीव इसलिये इस संसारके साथ मोहन लगा देते हैं । सर्व जीवोंकी सना भिन्न २ मानकर उनसे रागद्वेष नहीं करते हैं। समभावसे जगतके चारित्रको देखकर पूर्ण वैराग्यवान होकर आत्महितमें प्रवर्नते हैं। कर्मके कय पर कटिबद्ध होजाते हैं । आत्मयानकी अग्नि जलाकर कर्मका होम करते हैं । जब यह आत्मा शुद्ध व कर्मरहित होजायगा तब वह स्वाधीन होजाबगा | फिर कभी कोंक उदयकी पराधीनतामें नहीं रहना पड़ेगा | कर्मभूमिके मान
को आयुक्षयका नियम नहीं है. अकाल मरण होसक्ता है, ऐसा जानकर शीघ्रमे शीव आत्महिनमें लग जाना चाहिये । आपसे ही अपने आत्माकी शरणको परम शरण जानना चाहिये । समयसार में कहा है
जो अप्पणाद मायादि दुःहिदग्नुहिदे करेमि सत्तति । सो मूढो अगाणी गाणी पत्तोदु विवर्णदों ॥ २६५॥
भावार्थ-जो कोई सा अहंकार करे कि मैं परजीवोंको दुःस्सो व सुग्टी कर मक्ता है, वह सूर्य व अज्ञानी है । क्योंकि सर्व जीव अपने २ पाप पुण्य कमके उदयन इग्बी या मुस्त्री होते हैं । ज्ञानी जीव इस अहंकारम दूर रहते है।
बृहत सामायिक पाठमें कहा हैन वैद्या न पुत्रा न विप्रा न शका न कांता न माता न भृत्या न भूपः। यमालिंगितं रक्षितुं सति शत्ता विचित्यति कार्य निज कार्यमाथः ॥३३॥
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योगसार टीका । ।२५३ भावार्थ-जन मरण आ जाता है तो न वैदा, न पुत्र, न ब्राह्मारन इन्द्र, न अपनी स्त्री, न माता, न नौकर, न राजा कोई भी बचा नहीं सकते हैं । ऐमा विचार करकं साननोको आत्मीक काम कर. लेना योग्य है, देर न लगानी चाहिये।
जीव सदा अकेला है। इक्क उपलाइ मरद कु वि दुहु खुद मुंजइ इक्कु । परयहँ जाइ वि इक जिउ तह मिव्वागहँ इक्कु ॥६९ ।।
अन्वयार्थ--(इक उपजाई मरद कुत्र) जीर अकेला ही जन्मता है व अकेला ही मरना है (इका दा मुहू भुंजइ) अकेला ही दुःख या सुख भोगता है (इक जिय परयह आइर्वि) अकेला ही जीव नरक में भी जाता है. (तह इकु णिचाण) तथा अकेला जीर फिर निर्माणको प्राप्त होना है।
भावार्थ-यहाँ गएकः र भावनाका विचार किया गया है। व्यवहार नबसे यह संसारी जीव नारीर लहिन अशुद्ध दशामें चारों गतियों में कदियके अनुसार भ्रमण किया करता है। इस भ्रमणसे इस जीवको अकेला है। जन्मना व अकेला ही मरना पड़ता है। हरएक जन्ममें माता पिता भाई बंधु बगैरट्ट मित्र व अन्य चेतन व अचेतन पदार्थोंका संयोग होता रहा, छुटता रहा । इस जीवको अकेला ही सबको छोड़कर दूसरी गतिमें जाना पड़ा | एक पाप पुण्य कम ही साथ रहा।
कर्मोंका बंध यह जीव अपने शुभ व अशुभ भावमि जैसा करता है पैसा ही उनका फल यह जीव अकेला ही भोगता है ।. यदि कोई मोही मानव कुटुम्बके मोहमें परको घोर कष्ट देकर
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२०४ ]
यांगसार टीका |
धन कमाता है, महान हिंसा, झूठ, चोरी, कुशीलादि पाप करता है उन कर्मको करते हुए यदि नरकाका बंध पड़ता है तो इस जीवको अकेला ही नरक में जाकर दुःख सहना पड़ता है, कोई कुटुम्बीजन साथ नहीं सका है। इसी तरह यदि कोई शुभ काम करता है व पुण्यधिकर स्वरी जाता है तो अकेला ही वहाँका सुख भोगना पड़ता है । वह अपने साथ किसी मित्र या स्त्री या पुत्रको ले जा नहीं सकता है । हरएक जीवकी सत्ता निराली है ।
कमका बंध निराला है, भावांका पलटना निराला है, साता सोनालि है। बार नहीं
पाए जाते हैं | एक धनवान होकर सांसारिक सुख भोगता है, एक निर्धन होकर कसे जीवन निर्वाह करता है, एक विद्वान होकर देशमान्य होजाता है, एक मुखे रहकर निरादर पाता है । जब रोग आता है तब इस जीवको उसकी वेदना स्वयं ही सहनी पड़ती है, पास में बैठनेवाले कोई भी उस वेदनाको नहीं भोग सकते हैं ।
संसारके कार्यों में भी इस जीवको अकेला ही वर्तना पड़ता हैं । सब हो संसारी जीव अपने २ स्वार्थ के साथी हैं | स्वार्थ न सधनेपर स्त्री, पुत्र, मित्र, चाकर सब प्रीति त्याग देते हैं । इसलिये ज्ञानी जीवको समझना चाहिये कि मैं हो अपनी मन, वचन, कायकी क्रियाका फल आप अकेला ही भोगेगा । अतपत्र दूसरोंके असत्य मोहमें पड़कर बापकार्यको न करना चाहिये । विवेकपूर्वक आत्महित जिसमें सधै उस तरह वर्तना चाहिये । नौकामें पथिकोंके समान सर्व संयोगको छुइनेवाला अधिर मानना चाहिये । उनमें राग, द्वेष, मोह न करके समभाव में वर्तना चाहिये । भीतरसे निर्मोही रहकर उनका उपकार करना चाहिये, परंतु अपनेको जलमें कमल के समान अलिप्त रखना चाहिये ।
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योगसार टीका। यह जीव जसे आप अकेला संगारकी चार गतियों में ममता है बम ही यदि यह बलत्रय धर्मका सम्यक प्रकार आराधन करे तो आप ही अकेला निर्वाण चला जाता है ! उसके साथी यदि उसके समान सम्यकमारित्र नहीं पालते हैं तो वे निर्वाण नहीं जा सक्ते ।
लिचपनयमे भी यह जीव बिलकुल अकेला है | हरएक जीवकर व्य, क्षेत्र, काट, भाव दूसरे जीवसे निराला है । हरएक जीव परम शुद्ध है। न आठों वर्मीका संयोग है, न शरीरका संयोग है, न विभाव भावांका संयोग हैं। पहलादि पांच अचेतन द्रव्योंसे बिलकुल भिन्न हैं । सिद्धके समान शुद्ध निरञ्जन व निर्विकार है, इसतरह अपनेको अक्रेटा जानकर अपने स्वभावमें मगन रहना चाहिये ।
बृहत् सामायिक पाउमें कहा हैगौरो रूपधरो वृद्धः परिहहः स्थूलः कृशाः कर्कशो मीणा मनुजः पशु रकमः पंढः पुमानंगना । मिथ्या स्त्रं विदधासि कल्पनमिदं मूहोऽविबुध्यात्मनो निन्य ज्ञानमयाबभावममलं सर्वव्यपारच्युतं ॥ ७० ॥
भावार्थ-तु मुह बनकर बह न मिथ्या कल्पना किया करता है कि में गोरा हूं, रूपवान हूँ, मजमृत शरीर हूं, पतला हूं, कठोर हूँ, देब हूं. मनुष्य हूं, पशु हूं, नारकी हूं, नपुंसक हूं, पुरुप हूं, स्त्री हुँ । दृ अपने मात्माको नहीं जानता है कि यह एक अकेला ज्ञानस्वभावी, निर्मल, सर्व दुःखोंसे रहित अविनाशी द्रव्य है।
निर्मोही हो आत्माका ध्यानकर। एक्कुला जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि । अप्पा झायहिं णाणमउ लहु सिव-सुक्ख लहेहि ॥७॥
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२५६]
योगसार टीका। ___अन्वयार्थ-( जड इक्कुलउ जाइसिहि ) यदि द अकेला ही जायगा ( नो परभाव चाहि ) तो राग द्वेष मोहादि परभावोंको त्याग दे । (णाणमा अप्पा झायाहे ) ज्ञानमय आत्माका न्यान कर (लह सिवन्मुक्खल हदि)ती शीन ही मोक्षका सुख पाएगा।
भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि है शिष्य : यदि तुझको यह निश्चय होगवा है कि त एक दिन मरेगा तब तुझे परलोक में अकेला ही जाना पड़ेगा । कोई भी चेनन या अचेतन पदार्थ तेरे साथ नहीं जांयगे। जिनमे तू राग करता है वे सत्र सह ही अट मांगो तय तेरा उनसे राग करना वृथा है । मे क्षणभंगुर पदागि राग करना शोकका व दुःखका कारण है।
इसलिये तु अब मा कामकर जिसने तुझे थिरता प्राप्त हो। अविनाशी मोक्षका अनुपम सुग्न प्रान हो ! संसार में जन्म मरण करना नहीं पड़े । इष्ट वियोग अनिष्ट गोषक कार सहना न पड़े। पराधीन होकर पापकर्माका फल न भुगचना पड़, जिसम त निरंतर सुखी रहे । कभी भी बाधा न पाये व पु स्वाधीख होजावे. परम कृतार्थ होजावे, तृन्गाकी ज्याला शांत होजाये, कनायकी आग बुझ जाये । परम शांतिका प्रवाह निरन्तर बहने लगे, सर्व लोकालोकका ज्ञाता दृष्क्षा होजावे । निरन्तर आत्माके ही उपचन रनण करे, की भी खेद न प्राप्त करें | तुझे योग्य है कि मानो महले ही यब करले। मानवदेहसे ही शिवपद मिल सकता है । देव, नारकी: पशु देहसे कभी भी नहीं प्राप्त होसक्ता है।
इस अवसरको खोना उचित नहीं है ! वह उपाय यही है कि जो जो द्रव्य, क्षेत्र, काल. भार अपना नहीं है उसे पर समझकर उन सबसे राग उठाले । केवल अपने ही ज्ञान स्वरूपी आत्माले द्रव्य क्षेत्र काल भावको अपना जानकर उसमें ही परम रूचिवान होजा,
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योगसार टीका ।
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उसीका प्रेमी होगा. इसी में मगन रहनेका, उसीके व्यानके अभ्यासका । आत्मीक रसके पावका उद्यम कर | जगत में अनंतानंत आत्माओका, अनंतानंत पुलोंका, असंख्यात कालाणुओंका, एक धर्मद्रव्यका, एक अवमयका एक आकाशव्यका द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव भेद आत्मा के द्रव्य क्षेत्र काल भावसे निराला है ।
मेरे आत्माका अखण्ड अभेद एक द्रव्य है, असंख्यात प्रदेश क्षेत्र है, समय परिणमन काल है, ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि युद्ध भाव है, यही मेरा सर्वस्व है। कर्म संयोग होनेवाले राग द्वेष मोह भाव, संकल्प विकल्प, विभावमविज्ञानादि चार ज्ञान आदि सत्र पर हैं। जिन र भावों का निमित्त है ये सब भाव मेरे निज स्वाभाविक भाव नहीं हैं, मैं तो एकाकार परम शुद्ध स्वसंवेदन गोचर एक अविनाशी द्रव्य हूं ।
भव्य पुरुष परम वैराग्यवान होकर परमाणु मात्रको अपना न जानकर संसारके अगिक सुखको आकुलताका कारण दुःख समझकर एक अपने ही आत्माकं व्यानमें मगन होगा | आत्मानुभत्र ही एक मात्र उपाय है जिससे ही अनंत आत्माएं शिव-सुखको पाचुके हैं, तू भी इसी उपाय शिव-सुख पावेगा। समयसार में कहा हैएको मोक्षपथो य एष नियतो निवृत्यक
स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति । सम्म निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥ ४७-१० ॥ भावार्थ- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकतारूप ही एक निश्चित मोक्षमार्ग है। जो कोई अन्य द्रव्योंका स्पर्श न करके एक इस ही आत्मामयी भावमें ठहरता है, उसीको निरन्तर ध्याता है, उसीको चेनता है, उसीमें निरन्तर बिहार करता है, वह अवश्य शीघ्र ही
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२५८
योमसार टीका। नित्य अद्यरूप समयसार या शुद्धास्माका लाभ करके उसीका निरन्तर अनुभव करता रहता है, परम आनंदी होजाता है ।
पुण्यको पाप जाने वही ज्ञानी है । जो पाउ वि सो पाउ मुणि सबु इ को वि मुणेइ । जो पुष्णु वि पाउ वि भणइ सो बुइ को वि हवेइ ॥७१।।
अन्वयार्थ -- (जो पाउ वि सो पाउ मुणि) जो पाप है उसको पाप जानकर (सन्यु इ को वि मुणेइ ) सब कोई उसे पाप ही जानता है (जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ) जो कोई पुण्यको भी पाप कहता है ( सो बुह को वि हवेड) वह बुद्धिवान कोई बिरला ही है।
भावार्थ--जगतके सर्व ही प्राणी सांसारिक दुःखोंसे डरते हैं तथा इन्द्रिय सुखको चाहते हैं । साधारणतः यह बात प्रसिद्ध है कि पापसे दुःख होता है व पुण्यसे सुख होता है । जब धर्मकी चर्चा होती है तब यही विचार किया जाता है कि पापकर्म न करो, पुण्यकर्म करो। पुण्यस उच्च कर्म मिलते हैं, धनका, पुत्रका, बहु कुटुम्बका, राज्यका व अनेक विषयभोगोंकी सामग्रीका लाभ एक पुण्यहीसे होता है । इन्द्रपद, अहमिन्द्रपद,चक्रवर्तीपद,नारायण व प्रत्तिनारायणपद, कामदेव, तीधकरपद आदि महान महान पद पुण्यसे ही मिलते हैं । यहाँ आचार्य कहते हैं कि जो संसारके भोगोंके लोभसे पुण्यको ग्रहणयोग्य मानते हैं वे मिथ्यादृष्टी अज्ञानी हैं। सम्यम्ही ज्ञानी पापके समान पुण्यको भी बन्धन जानते हैं, वे पुण्यको भी पाप कहते हैं जिसले संसारमें रहना पड़े, विषयमोगों में फँसना पड़े, यह स्वाधीनता. घातक पुण्य भी पाप ही है । ज्ञानीको तो एक आत्मीक आनन्द ही
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योगसार टीका। [२५१ प्यारा है। उसका पूर्ण लाभ व अनंतकाल के लिये निरन्तर लाभ तब ही होता है जब यह जीत्र संसारमे मुक्त होकर सिद्ध परमात्मा होजाबे, पुण्य पापसे रहित होजाये । इसलिये ज्ञानी जीव जुण्य पाप दोषों को बंधनकी अपेक्षा समान जानते हैं ।
दोनोंके बन्धका कारण कपायकी मलीनता है, मन्द करायसे पुण्य 'च तीन ऋत्रायस् पाप अन्धता है, कषाय आत्मा चारित्र गुणके घातक हैं। दोनोंका स्वभाव पुद्गल है | सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र, पुण्य कर्म व असासाबेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, नीच गोत्र तथा चार घातीय कग पापकर्म हैं । दोनोली वर्गणार हैं, आत्माके चेतन स्वभावसे भिन्न हैं।
पुण्यका अनुभव मुखरूप है, पापका अनुभव दुःम्बरमा है । ये दोनों ही अनुभव आत्माके स्वाभाविक अनुमत्रमे विरुद्ध है व शुद्धास्मामें रमणके घातक हैं। दोनों ही अनुभव कपायकी कलुषताके स्वाद हैं । पुण्य व पाप दोनों ही पुनः बंधके कारण हैं। दोनों में तन्मय होनेसे कर्मका बन्ध होता है । यह बंध मोक्षमागमें विरोधी है, ऐसा जानकर ज्ञानी जीव पापके समान पुण्यको भी भला के अहण योग्य नहीं मानते हैं, वे शुभ भावोंसे व अशुभ भात्रा दोनोंसे विरक्त रहते हैं । कर्म क्षयकारक व आत्मानन्ददायक एक २ शुद्धापयोगको ही मान्य करते हैं।
सम्यग्दृष्टी अविरती होनेपर भी य गृहाथमें धर्म, अर्थ, काम, 'पुरुषार्थ साधनमें अनुरक्त रहनेपर भी सर ही शुभ अशुभ कार्योंको चारित्रमोहनीयके उद्यके आधीन होकर करता है, परंतु इस सर्वे कामको अपना आत्मीक हित नहीं मानता है । वह तो यही मानता है कि निरंतर आत्मीक आगमें रमण करूं, धीतरागनाकाहीका सेवन 'करू, सिद्धोंसे ही प्रेम करूं ।
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२६०] योगसार टोका।
__ कपायके अन्यको आत्म वीर्यकी कमीसे सहन नहीं कर सकता है इसलिये सर्व ही गृहस्थ योग्य काम करता है परन्तु उनमें आसक्त व मगन नहीं होता है | पूजापाट, परोपकार, दानादि कार्यको करके वह पुण्यका बम्प व खोसारिक इंद्रिय नरब नहीं चाहना है, यह तो कर्म रहित शाको उत्साही व उद्यम रहता है। यपि शुभ भागेका फल पुण्यका बंध है नथापि ज्ञानी उनको भी पापके समान बंध ही जानता है । ज्ञानी निर्वाणका पधिक है वह मात्र निश्चय रत्नत्रय स्वभावमई धर्मको या स्वानुभवको ही उपादय या ग्रहण योग्य मानता है । सयको भी पापके मरमान है। यह जानकर छुड़ाना चाहता है | समयसारकलशमें कहा है
संन्यस्तमिदं समस्लमपि समय नोक्षार्थना । संन्यात सति तत्र का किल कथा गुणस्य पापम्य वा ॥ सभ्यात्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्मयजैःकर्षप्रतिबद्ध मुद्धतास आनं स्वयं धावति ।।१०-४॥
भावार्य-मोक्षक अर्थीको सर्व ही कर्म त्यागना चाहिये । सत्र ही कर्मका लाग आवश्यक है, तब बह पुष्प पापकी क्या कथा है। ऐसे ज्ञानीक भीलर सम्यग्दान आदि अपने स्वभावको लिये हुए व कर्मरहित भाव में तन्मयप, शांतरससे पूर्ण मोक्षका कारण ऐसा आत्मज्ञान स्वयं विराजता है।
पु-कम सोने की बेडी है। जह लोहम्मिय णियड बुह तह सुष्णमिमय जाणि । जे सुह अमुह परिचयहि ते वि हवंति हु णाणि ॥७२।। अन्वयार्थ (बुह ) हे पंडित ! (तह लाम्पिय णियड
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योगसार टीका! [२६१ तह मुण्णम्मिय जाणे ) जैसे लोहकी बेड़ी है जैसे ही सुवर्णकी वेड़ी है ऐसा समझ (जे मुह असुह परिचयहि ) जो शुभ अशुभ दोनों प्रकारके सारोंका म्याग करते हैं .ते विह णाणि वंति। वे की निश्य करके ज्ञानी है।
भावार्थ-पुण्य पापकर्म दोनों ही बंधन हैं, पुण्यको सोनेकी तथा पापको लोहे की छेड़ी कह सक्त हैं। दोनों ही कर्म संसार वासमें गेकनेवाले हैं । जब दोनों बेड़ियोंका संगठन होता है तब ही यह जीव स्वाधीन मोक्षसको पाना है । अतएव ज्ञानीको उचित है कि पुण्य पाप दोनों ही प्रकार बंधनोंको हेय समझे । मंद कपायक भावोंको हाभोपयोग व दीव कपायक भावोंको अशुभोपयोग कहते हैं । दोनों हीसे वन्य होता है| चार घानीय कर्म या बंध दोनों उपयोजन होता है।
अधातीयमें मानारंदनीयादि पुण्य प्रकृतियाँका बंध शुग भावोंसे व अवातावदनीयादि पाप प्रतिबोका बंश्व अशुभ भावोग्न होता है। मंद कपास आयुके सिवाय सर्व ही कामे स्थिति थोड़ी व नीर कपास स्थिति अधिक पड़ती है। आयुकममें नरककी स्थिनि तीन कपायले अधिक व मंदकषायसे कम पड़ती है । लब तियं च, मनुष्य, देव तीन आधुकी स्थिति मंदपायगे अधिक च तीन ऋपायम्म कम पड़ती है । किन्तु अनुभाग पापकर्नामें अर्थान चार बातीय व असातावेदनीयादि पारकर्मों में तीन कपाबसे अधिक पड़ता है, मंदकषायसे कम पड़ता है किन्तु सातावदनीयादि मुश्यक्रम में तीन कपायसे कम ब मन्द कायसे अनुभाग अधिक पड़ता है । पापकर्म फलमे नरक, नियंच या क्षुद्र मानव भवमि दुःस्त्र भोगना पड़ता है । पुण्यके फलसे देवगतिमें या उत्तम मानव भनमें पाच इन्द्रियोंके भोगकी प्रचुर सामका लाभ होता है।
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२६२ ]
योगसार टीका ।
संसारी प्राणी के भाव निमित्ताधीन प्रायः होते हैं। विषयभोगकी अधिक सामग्री पाकर उनके भोगनेकी तीव्र लालसा होती है। अज्ञानी प्राणी विषयभोग में लीन हो जाते हैं । विषयभोगकी तृष्णा त्रिषयभोगने और बढ़ जाती है तब विषयभोगों में अधिक मगन हो जाते हैं तब आत्माका दिन भूल जाते हैं । विषयासक्त मानव अनेक प्रकार के अन्याय से धनका सञ्चय करते हैं व इच्छित भोगोंकी प्राप्तिका यत्र करते हैं, नहीं मिलनेपर दुःखी होते हैं, मिलनेपर भोग करके तृष्णा अधिक बढ़ा लेते हैं, वियोग होनेपर शोक करते हैं ।
पुण्यके फलसे प्राप्त विषयभोगोंक भीतर फँस जानेसे विषयी मानव नरक निगोदादिमें चले जाते हैं | देवगतिवाले भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी व दूसरे स्वर्ग पर्यतके देव मरके एकेन्द्रिय पृथ्वी, जल, वनस्पति कायमें जन्म ले लेते हैं । बारहवें स्वर्ग तकके देव पंचेन्द्रिय पशुतक हो जाते हैं। नौवेथिक तकके देव मानव जन्मते हैं, विषयभोगोंकी आकुलता सो तृष्णा रोग है, उस रोगले पीड़ित प्राणी घबड़ाकर विषयभोगों में तृष्णा के शमनके लिये जाता है। भोग करके क्षणिक तृप्ति उस समय पाकर फिर और अधिक तृष्णाको बढ़ा लेता है । दुःखोंके साधनोंमें जो आकुलता होती है वैसी ही आकुलता तृष्णारूपी रोगके बढ़ने में होती है।
इस जीवने वारवार देवगति तथा मनुष्यगतिके पांच इंद्रियोंके विषयभोग किये हैं, परंतु तृष्णाकी दाह शमन न हो सकी। इसलिये ज्ञानीजन विषयसुखको हेय समझते हैं, तब विषयसुखके कारण पुण्यकर्मको है जानते हैं, तब पुण्यत्रन्धके कारण शुभोपयोगको भी हेय समझते हैं । मात्र शुद्धोपयोग की भावना करते हैं जिससे तीर्यचमें भी अतीन्द्रिय सुख होता है, कर्मका क्षय होता है व मोक्षमार्ग तय होता है। शुद्धोपयोगमें ठहरनेकी शक्ति नहीं होनेपर ज्ञानी जीव शुभी
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योगसार टीका। [२६३ पयोगों वर्तते हैं, परन्तु पुण्यकी इच्छा नहीं रखते हैं। वस्तु स्वभावसे पुण्यबंध होता है | इसलिये चंथकारक शुभोपयोगसे विरक्त रहकर शीघ्र ही शुद्धोपयोग पानेका यन किया करते हैं।
प्रवचनसारमें कुन्दकुन्द महाराज कहते हैंजदि संति हि पुष्णाणि य परिणाम समुखवाणि विविहाणि । अणयति विसयताहं जीवाणं देवदंताणं ।। ७४ ।। ते पुण उदिगण तण्हा दुहिदाताहाहि बिसयसोरखाणि । इच्छंति अणुवंति य आमरणं दु:वसंतसा ।। ७५ ।।
भावार्थ-शुभोपयोगसे बांधे हुए नानाप्रकार पुण्यक्रम देवपर्यन्त शरीरोंको विशेष सामग्रीका संयोग मिलाकर विषयोंकी तृष्णा पैदा कर देते हैं । वे देवादि तृष्णाके कारपा दुःखी होते हैं | तृष्णाके रोगले पीड़ित होकर विषयसुख चाहते हैं । मरणपर्यंत भोगते रहते हैं तौभी दुःखोंसे संतापित रहते हैं, तृष्णा नहीं मिटती है।
भावनिग्रंथ ही मोक्षमार्गी है। जइया मणु णिग्गथु जिय तइया तुहुँ णिग्गथु । जइया तुहुँ णिग्गंथु जिय तो लगभइ सिवर्षथु ॥७३॥
अन्वयार्थ (जिय जइया मणु णिग्गंथु) हे जीव : जय तेरा मन निबंध है ( तइया तुहं णिगंथु) तब तु सद्या निम्रय है (जिय जइया तुहु णिग्गंथु ) हे जीव : जब तू निर्ग्रन्थ है (तो सिवपंथु लम्भइ । जो तूने मोक्षमार्ग पालिया।
भावार्थ-निग्रंथ पद ही साधुपद है । संयमका साधन साधु ही कर सकता है, क्योंकि वही आरम्भ परिग्रहको त्यागकर अहिंसादि
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योगसार टीका । पांच महावतोंको यथार्थ पाल सक्ता है। गृहस्थावस्थामें आरम्म परिप्रहके कारण हिंसादि पांच पापोंके विकल्प नहीं मिटते हैं । मनमें निश्चलताका बाधक परिग्रहकी चिंता है | उत्तम धमध्यान प्रत्याख्यान कषायके उदयसे व निमित्त पूण वैराग्यक न होनेसे गृहस्थीके नहीं होसत्तता है । इसी लिये लीकरादि महानुरूपोंने भी गृहस्थपद त्यागकर साध्रुपद धारण किया ।
बाहरी परिग्रहका त्याग इसलिये जरूरी है कि परिग्रह मूाभारत और करके : सिगि दाल मारके मागके लिये महापुरुप कत्री, पुत्र, धन, राज्य संपदाको त्यागकर प्रकृति रूपमें होजाते हैं। बाभूपण त्यागकर वाटकके समान नग्न होजाते हैं। जहाँतक बन्नका ग्रहण है वहातक परिग्रहका पूर्ण त्याग नहीं है। दिशाओंको ही जहां वप कल्पा जावे बही दिगम्बर या निगंथ मेप है । यह निथका ना भंप जहां मोरपिनिछका जीवदयाके लिये व काठका कमंडल शौरके लिये या कभी शास्त्र ज्ञानके लिये रखा जाना हैं | अन्तरंग, निग्रंथ होनेका निमित्त साधन हैं ! निमित्फे विना उपादान काम नहीं करता हैं | जब आग पानीका निमित्त होता है तब ही चावल पककर भात बनता है |
अन्तरंगमें मनको ग्रंथरहिन करना चाहिये । मनसे सर्व रागवेष मोह हटाना चाहिये। बुद्धिपुर्वक चौदह प्रकार के अन्तरंग परिमएका त्याग होना चाहिये । मिथ्यादर्शन, क्रोध, माग, माया, लोभ, हास्य, रनि, अरनि, शोक, भय, जुगुप्मा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद भावोंका त्याग करके मभ्यम्बट्री कष्ट दिये जाने पर भी उत्तम क्षमाघान, विद्या व तप संयम होने पर मी परम कोमल, मन वचन कायका वर्तन सरल रखके परम आजब गुणयुक्त, सर्व पर वस्तुका लोभ त्यागके परम सन्तोषी व पवित्र, हास्य रहित गम्भीर, रति व
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योगसार टीका |
[ २६५
अरति रहित समभावी, शोक रहित परम प्रसन्न, भय रहित निर्मल, "घृणा रहित वस्तु स्वभावके मर्मी, तीन वेद भाव रहित परम ब्रह्मचारी रहना योग्य है ।
मनके भीतर से सर्व मनताका, रागद्वेषका मैल निकालकर फेंक देना चाहिये, परम वीतराग, समदर्शी, सर्व प्राणी मात्रपर करुणाभाव, परम सन्तोपी, आत्मरस पिपासु, विपयरस विरत होना हो भाव निर्मथ पत्र है । धान्यका बाहरी छिलका हटाए बिना भीतरका पतला छिलका दूर नहीं हो सक्ता, शुद्ध चावल नहीं मिल सक्ता । कोई बाहरी छिलका ही हटावे, भीतरी नहीं हटाये तो यह शुद्ध चावल नहीं पा सकेगा, इसी तरह बाहरी परिग्रहके त्याग त्रिना अन्तरंग रागमात्र नहीं मिट सकता। बाहरी निर्मेय हुए विना जन्तरंग निर्भय नहीं हो मक्ता । यदि कोई चाही निर्बंध हो जाये परन्तु भीतर से नियंव न हो, वीतरागी न हो. समदर्शी न हो, आत्मानंद - रसिक न हो तो वह सजा निद्र्य नहीं है ।
भाव निर्बंध ही वास्तव में भोक्षका मार्ग है, केवल व्यवहारचारित्र मोक्षमार्ग नहीं है । रक्षन्नयमई अन्तरंग म्वानुभव रमणरूप निश्चयचारित्र है, यही धार्थ शिवगंध है, इसीपर चलकर ज्ञानी मोक्षनगरमें पहुंच जाते हैं । पुरुषार्थसिद्धपाय में कहा हैमिश्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्ध पदोषाः ।
चत्वारश्च कयायाश्वचतुर्दशाभ्यन्तरा यथा ॥ ११६ ॥ निजक्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसंगानाम् । कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ।। १२६ ॥ बहिरङ्गादपि संगाद्यस्मात्प्रभवत्यसंयमो ऽनुचितः । परिवर्जयेदशेषं तमचितं वा सचितं वा ॥ १२७॥
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२६६ ]
योगसार टीका |
भावार्थ - मिध्यात्वादि चौदह प्रकार अन्तरंग ग्रन्थ हैं। अपनी शक्तिले इन सर्व अन्तरंग परिग्रहका त्याग करे । मार्दव, शौच आदि भावनासे भावको पवित्र रखे, क्योंकि बाहरी परिग्रह अनुचित असंयम होता है, इसलिये सर्व ही सचित्त व अचित्त परिग्रहको त्याग करें । उभय प्रकार निषेध क्षेत्रा ।
देहमें भगवान् होता है ।
जं वमज्झहँ बीउ फुड़ बीयहँ बड़ वि हु जाणु | तं देह देव विमुग्रहि जो तइलोय - पहाणु ॥ ७४ ॥ अन्वयार्थ - ( जं वडमज्झहँ बीउ फुडु ) जैसे वर्गत वृक्षमें उसका बीज स्पष्टपने व्यापक है ( बीय व विदु जाणु) वैसे वर्ग के बीज में वर्गतके वृक्षको भी जानो ( तं देहहँ देउ कि मुणाहि ) तैसे इस शरीर में उल देव को भी अनुभव करो ( जी तड़लोय - पहाणु ) जो तीन लोकमें प्रधान है।
भावार्थ -- अपना आत्मा अपने शरीरमें व्यापक है- शरीर प्रमाण है । शरीर प्रमाण आकार लिये शरीर में है। जैसे वर्गतमें बीज व वीजमें वर्गत व्यापक है। यह आत्मा स्वयं तीन लोकमें मुख्य पदार्थ परमात्मा देव है । ज्ञानीको यह विचारना चाहिये कि मेरा आराधने योग्य या ध्यान करने योग्य मेरा ही आत्मा है । आसन लगाकर बैठ जाओ तब यहीं विचार करे कि जैसा इस मेरे शरीरका आकार है, वैसा ही आकार मेरे आत्मीक प्रभुका हैं।
आत्मा असंख्यात प्रदेशी होकर भी शरीरप्रमाण रहता है । आत्मा देवको तेजस, कार्मण, औदारिक तीनों शरीरोंसे भिन्न देखे । सर्व रागादि भावों से भिन्न देखे। कर्मके निमित्त से होनेवाले औदयिक,
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यांगसार टीका |
[ २६७ औपशमिक, क्षायोपशमिक, भावों से भिन्न एक शुद्ध पारिणामिक स्वभा बधारी देखे । द्रव्य दृष्टि जीवके साथ कमका संयोग नहीं दिखता है तब कर्मी अपेक्षा होनेवाले भाव भी नहीं दिखते हैं । क्षायिक भाव यद्यपि अपने ही आत्मा के निज भाव हैं परंतु कर्मोंके क्षयसे प्रगटे हैं, इस दृष्टि कर्म सापेक्ष होजाते हैं । कमकी अपेक्षा न लेनेवाले द्रव्यार्थिक नयमें इस क्षायिक भावका भी विचार नहीं है | इसे अलका सबै वस्तुको अपने मूलखभावमें दिखानेवाला द्रव्यार्थिक नय है ।
इस इसे देखते हुये आत्मा के साथ न कभी कर्मका सम्बन्ध था, न है, न होगा | तीनकालमें एक स्वरूप में शुद्ध स्फटिकमणिकं समान दिखनेवाला यह आत्मा है । यद्यपि कमकं संयोगसं कर नारक पशु देव बार बार हुआ, यह विचार पर्यायकी दृष्टिसे हैं तौ भी द्रव्यदृष्टि यह आत्मा जैसाका तैसा बना रहा। इस आत्माने अपने स्वरूपको कुछ भी खोया नहीं। पर्याय दृष्टिसे यह चंचल दिखता है । इसमें मन वचन कायके निमित्तसे प्रदेशोंका कम्पन होता है व योगशक्ति कर्म नोकर्मको ग्रहण करती है तथापि द्रव्यदृष्टिले यह मन वचन कायसे रहित है, चंचलता रहित परम निश्चल है, कर्म नोकर्मको ऋण नहीं करता है । परके ग्रहण व स्वगुणके त्यागसे रहित हैं ।
भेद दृष्टि से यह आत्मा अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व इन छः प्रकार के सामान्य गुणसे व ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यग्दर्शन, चारित्र आदि शुद्ध गुणका धारी है तौ भी अभेद दृष्टिसे यह एकरूप अखंड सर्व गुणोंका पिंड एक शुद्ध द्रव्य ही दिखता है। यद्यपि पर्याय दृष्टिसे रागद्वेष मोहादि विभावोंसे संतापित व अशांत दिखता है तो भी द्रव्यदृष्टिसे यह बिलकुल. विभावसे रहित परम शांत दिखता है। क्रव्यार्थिकनय से अपने शरी
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योगसार टीका ।
के भीतर शुद्ध स्वरूपी अपने आत्माको देखना चाहिये। वैसे ही जनमें सर्व आत्माओं को एकाकार शुद्ध देखना चाहिये । छः द्रव्यमि लादि पांच अचेतन हैं, उनपर शत्रुना मित्रता नहीं होसकती । आत्मा मात्र सचेतन है |
जब सर्वको एकसमान शुद्ध देखा गया तब न कोई मित्र है, न कोई शत्रु हैं, सर्वको व अपनेको समान देखते हुए रागद्वेषका पता नहीं रहता है | समभाव व शांत रस बहता है । निद्र्थ मुमुक्षुको उचित है कि इस तरह समभाव में रमण करके सामायिक चारित्रको पाले । स्वानुभव में लीन होकर सर्व नयोंके विचार से भी रहित होकर आत्मानंदमें मस्त होजावे | यही आत्मसमाधि है |
समाधिशतक में कहा है
आत्मानन्तरे
देहादिकं बहिः ।
तयोरन्तरविज्ञानादन्यासादच्युतो भवेत् ॥ ७९ ॥
चेतनं ततः ।
अचेतनमिदं
क रुप्यामि क तुप्यागि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥ ४६ ॥ भावार्थ - जो अपने आत्माको भीतर देखकर व शरीरादिको अपने से बाहर देखकर शरीर व आत्माके भेदविज्ञानसे आत्मा को शुद्ध अभेद जानकर उसी अनुभवका अभ्यास करता है वह मुक्त - होजाता है। ज्ञानी विचारता है कि जो इंद्रियों झलकता है वह सब अचेतन जड़ है। जो आत्माएं हैं वे इंद्रियोंसे दिखती नहीं तब फिर मैं किसपर प्रसन्न रहे व किसपर रोष करूँ ? मैं - वीतरागी व समभावी ही रहता हूं ।
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योगसार टीका। [२६१. आप ही जिन हैं यह अनुभव मोक्षका उपाय है।
जो जिण सो दउँ सो जि हउँ पहउ भाउ णिभंतु ।। मोक्खहँ कारण जोया अणु ा तंतु ण गंतु ॥ ७५॥
अन्वयार्थ-जो जिण सा ह जो जिनेन्द्र परमात्मा है वह मैं हूं (सो जिह) वही में हूं। महज णिभंतु भाउ) ऐसी ही शंका रहित भावना करे (जाइया) हे योगी : माक्सह कारण अण्णु ते ण मंतु ण ) मोक्षका आय यही है और कोई तंत्र या और कोई मंत्र नहीं है।
भावार्थ - मोक्षका उपाय संक्षेपमें यही है कि अपने आत्माको निश्चय नयसे जैसाका तैमा समझे। मूल स्वमादम नह आत्मा स्वयं जिनेन्द्र परमात्मा हैं। कर्भ रहित आत्माको जिनेन्द्र कहते हैं । अपना
आत्मा निश्चय द्रव्यकम, भावकम और नोकर्मा रहित है, व्यवहार नयमे या पर्याय की दृष्टिम भरा आत्मा कम सहित अशुद्ध है परन्तु शुद्ध होने की शक्ति रखता है | काग समय सार है । और श्री जिनेन्द्रका आत्मा शुद्ध व कम गमयसार है | यह भेद दिखता है परन्तु निश्चय नबसे या द्रव्याष्टिले यह भेद नहीं दिखता है ।
आत्मा परमात्मा सब तरह समान है। केवल सत्ताकी अपेक्षा भिन्नता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जी एक आत्माका है बही दूसरी आत्मा का है | सर्व आत्माओंका चतुष्टय समान है, सहरा हैं, एक नहीं है-एक समान है । जैसे हजार गेंड्रक दाने समान आकार व गुणोंक हो वे सत्र समान हैं तौभी सब दाने अलग २ हैं । हराएक आत्माका द्रव्य अपने अनंतगुण व पर्यायोंका अभेद व अखण्ड पिंड है।
हरएक आत्मा क्षेत्रसे असंख्यात प्रदेशी है, हरएक आत्मा
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योगसार टीका। समय २ परिणमनशील है। शुद्ध स्वभावमें सदृश परिणमन अगुरुलघुत्व गुणके द्वारा कर रहा है । हरएक आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुख, धीर्य, सम्यक्त, चारित्र आदि शुद्ध भावीका धारी है तब निश्चयसे अपने आत्माको परमात्मारूप देखना ही व अनुभव करना ही वीतरागभावकी प्रातिका उपाय है। जहां वीतरागता जितने अंश होती है उतने अंश कर्मोंका संबर व उनकी निर्जरा होती है ।
नृतन कर्मका न आना व पुराने बांधे हुए कोका झड़ना ही मोक्ष होनेका उपाय है। सोऽहं मन्त्रके द्वारा अपने भीतर यही भावना भावे कि में ही परमात्मा हूं। मेरा कोई सम्बन्ध रागादि भावोंसे व पापपुण्यस व किसी प्रकार के कर्मसे या मन, वचन, कायकी क्रियासे नहीं है।
मैं परम निर्मल अपने स्वभावमें बहनेवाला है । वास्तवमें जो कोई अरहंत व सिद्ध परमात्माको ठीक ठीक पहचानता है वह आत्माके द्रव्य, गुण, पर्यायको ठीक २ जानता है । पर वस्तुसे दृष्टि संकोच करके अपने ही आत्मापर दृष्टि जमाकर स्त्रिनेसे आत्माका ध्यान होजाता है। यही कर्म खास करने योग्य माना है। यही स्वानुभवकी कला है, यही तन्त्र है, यही मन्त्र है, और कोई मन्त्रतन्त्र नहीं है जिससे आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सके | बाहरी चारित्र मनको संकल्प विकलोसे दानेके लिये आवश्यक है । पर कास्की चिंताका अभाव करना जरूरी है। इसलिये पूर्ण व शुद्ध आत्मभ्यानके लिये निग्रंथ होना योग्य है । बाहरी व अन्तरंग परि. प्रहका त्याग करके निर्जन स्थानोंमें ध्यानका अभ्यास करना जरूरी है।
· अनेकांतके झानसे विभूषित रहे कि पर्यायकी अपेक्षा मैं कर्म सहित हूं, अशुद्ध हूं, यकी अपेक्षा कर्मरहित शुद्ध हूँ। दोनों अपेक्षाओका ज्ञान रखके पर्यायकी दृष्टि से उपयोगको हटाले, द्रष्यसी
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योगसार टीका ।
| २७१ दृष्टि उपयोगको जोड़े तब अपने को ही जिन भगवान समझे व ऐसी ही भावना करे | भावना करते करते जब उपयोग उपयोगवान आत्मामें घुल जायगा, एकमेक होजायगा, लवणकी डली जैसे पानीमें घुल 'जाती है वैसे उपयोग रम जायगा, व्याता ध्येयका भेद मिट जायगा व स्वानुभव होजायगा तब द्रव्य दृष्टिका विचार भी बंद हो जायगा, अर्हत भाव में ठहर जायगा, यही मोक्षका उपाय है ।
प्रवचनसार में कहा है—
जो जादि अरहंत दत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खन्यु जादि तम्स लयं ॥ ८० ॥ जीवो ववगदमोहो वो तमप्पणी सम्मं ।
जहदि जदि रागदो से सो अप्पाणं हदि सुद्धं ॥ ८१ ॥ भावार्थ - जो कोई अरहंत भगवानको द्रव्य, गुण, पर्यायोंके द्वारा यथार्थ जानता है वही अपने आत्माको पहचानता है, उसीका दर्शन मोड़ या मिथ्यात्व भाव दूर होजाता है। ऐसा मोहरहित सम्यग्दृष्टी जीव भलेप्रकार अपने आत्माके तत्वको पाकर यदि राग द्वेष छोड़कर वीतराग होजाता है तो वह अपने आत्माको शुद्ध कर लेता है ।
आत्माके गुणोंकी भावना करे ।
वे तेच पंच विवह सत्तहँ छह चाहँ । चउगुण-सहियउ सो मुणह एयइँ लक्खण जाइँ ॥ ७६ ॥
अन्वयार्थ -- (सो) उस अपने आत्माको (वे ते च पंच विहं सत्त छह पंचाह चउगुण सहियच गुणह ) दो, तीन, चार, पांच, नव, सात, छः, पांच और चार गुण सहित जाने (जांड
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२७२] योगसार टीका। एयई लक्त्रण) उस परमात्माकं या आत्माक ये ही लक्षण हैं।
भावार्थ-आत्माकं न्यानकं लिये आत्माके स्वरूपकी भावना करनी योग्य है । निश्चयसे यह आत्मा एक सत पदार्थ है. ज्ञायक अत्रण्ड प्रकाशरूप है | केवल अनुभव योग्य है । व्यवहार नबने यह अनेक प्रकार त्रिचारा जामता है। दो प्रकार विचार करें तो यह गुण पर्यायवान है, अपने भीतर अनेक गुण व पयायोंको रखता है. या ग्रह ज्ञान दर्शन स्वरूप है। यह एक ही काल अपनेको व सर्व परपदार्थों को देखने जानने वाला है। तीन प्रकार विचार करे नी यह उत्पाद व्यय धोत्र्यप है। मामय पयायकि पलटनेसे उत्पत्ति विनामा करते हुए भी अपने स्वभावम अविनाशी है, अन्यथा यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्ररूप है ।
चार प्रकार विचार करे तो यह सम्बन्दीन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकृचारित्र व सम्यकलाप, इन चार आराधनाम्बझप है या यह अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख. अनंत त्रीर्य चार अनंत चतुट्य स्वरूप है । या यह सुम्ब, मत्ता, चतन्य, बोध चार भाव प्राणोंका धाी है । या यह आत्मा अपने दृश्य. क्षेत्र काल, भात्रका स्वामी है । पांच प्रकार विचार करे नो यह अनंत दर्शन. अनंत ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त, भाविक चारित्र नथा अनंत चीय म्बका है या इसम औपशमिक, श्योपशमिक, आयिक, औदायिक व पारिणामिक पांच भात्रोंमें परिणमनकी शक्ति है या यह आत्मा अरहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय, साधु पांच परमठो पद धारी है या यह आत्मा नारक, पशु, देव, मनुष्य, सिद्ध गनि इन पांच गतियों में जानेकी शक्ति रखता है । छःप्रकार विचार करें तो यह अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुख, आयिक सम्यक्त, क्षायिक चारित्र वा गुण स्वरूप है या पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर ऊपर नीचे छः दिशा
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यांगसार टीका। [२७३ ओंमें जानेको शनि धारी है । अथवा यह आत्मा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व व अगुगलघुत्व इन छः सम्यक्त गुणोंका धारी है।
यदि सात प्रकार विचार करें तो यह आत्मा अनंन ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत ज्ञानचंतना, अनंत वीर्य, क्षायिक सम्यक्त, क्षायिक चारित्र, इन सात गुणम्वरूप है । अथवा भ्यादम्ति, स्यान्ना स्ति, स्यादवक्तव, स्यादस्तिनास्ति, स्यादस्ति अवक्तव्य, म्यादस्ति अबक्तव्य, स्यान्नास्ति अवतन्य. इन सात अंगोंसे सिद्ध होता है ! या इस जीवके कारण जीव, अजीव, आत्र, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष २ (६. नोक कम्य हो : या जा नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुत्र, शब्द, समभिरूढ़ एवंभून मात नयोंन विचारा जाता है ।
नौ प्रकार विचार करे तो यह आत्मा नौ कंवल लब्धिम्प है। अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतदान, अनलाभ, अनंतभांग, अनंतउपभोग, अनंतत्रीय, क्षायिक सम्यक्त, क्षायिक चारित्ररूप है | या यह आत्मा पुण्यपाप सहित सात तत्व से नौ पदार्थोमें तिष्ठना है। जीवकी अपेक्षा नौ पदार्थीका विचार है | इस तरह आत्माको अनेक गुणोंका व स्वभावका धारी विचार करे जिससं वस्तुका विचार समभा
से हुआ करे, रागद्वेषको व सांसारिक विकल्पोंको जीता जासके | गुणोंकी भावना करते करते ही स्वानुभव शक्ति होती है | विकल्प रहिन भाव में आना ही स्वानुभव है । समयसारकलशमें कहा है--
चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्ड्यमानः ।
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२७४ ]
योगसार टीका |
नम्मादखण्डमभिक्रखण्डमेकमैकान्तशान्तमचलं चिन्हं महोस् || २४ - ११ ॥ भावार्थ - यह आत्मा नानाप्रकारकी शक्तियों का समुदाय है एक एक नय से एक एक गुणकी पर्याय या शक्तिका विचार करने आत्माका खंड मात्र विचार होता है इसलिये खंड विचारको छोडक में अपनेको ऐसा अनुभव करता हूं कि यह अखंड है तौभी अनेक भेदों को रखता है. एक है, पर शांत है, निश्चल है, चैतन्यमई ज्योति स्वरूप हैं |
दोको छोड़कर दो गुण विचारे ।
छंडिवि वे गुण सहिउ जो अप्पाणि बसे । जिणु साभिउ एसई मगर लहु णिवाणु लहेह ॥ ७७ ॥ अन्वयार्थ -- (जो वे छंडिवि ) जो दोकी अर्थात् राग द्वेपक छोड़कर (गुण सहि अप्पाणि वसेइ ) ज्ञानदर्शन दी गुणधार आत्मामें विना है (लहू णिवाणु लहेइ ) वह शीघ्र ही निर्वा पाता है (एमई जिणु सामिउ भणइ ) ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं ।
भावार्थ - बन्धकं मूल कारण रागद्वेष हैं उनका त्याग करे त्याग करनेका कम यह हैं कि पहले मिध्यात्व और अनन्तानुबन्ध कषाय सम्बन्धी रागद्वेषको छोड़े। मिथ्यादृष्टी जीवके भीतर पर पदार्थको आत्मा माननेकी भूल करता है जिससे यह परमें अहंकार व ममकार भाव करता है । इन्द्रियजनित पराधीन सुखको सद सुख मानता है | इस मियाभाव के कारण जिन विषयोंके मेन इन्द्रियसुखकी कल्पना करता है इन पदार्थों में रागभाव करता है
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योगसार टीका ।
२७५ जिनमें विषयभोगमें हानि पड़ती है व जो विपन कचते नहीं है, उनमें द्वेष करना है । पागदपके चार प्रकार -
चार पाय नी नोकपायमें लोभ, मानकपायको व हास्य, गति, म्नांवेद, वेद, नपुसकवंद इन पांच नोकपायको राग कहते हैं | तथा कोच व मानकपायको त्र अगति, शोक, भय, जूगुप्ता चार नोकषाबको उप कहते हैं | अनन्तानुबंधी सम्बन्धी गगढेप, अप्रत्याख्यान कपाय सम्बंधी संगइप, प्रत्याख्यान सम्बन्धी रागदेष संचलन सम्बन्धी गगद्रप इस तरह रागद्वपके चार मैन हैं।
मिथ्यात्त्र व अननानुबंधी मापके मिटाने के लिये सम्यग्दशगका लाभ जरूरी है। इस सम्बनके पानेका उपाय अपने आत्मा यथार्थ स्वभावका ज्ञान है कि ग्रह आत्मा मानदशन स्वभावका चार है. सूर्यक समान पर प्रकाशक है, सर्वज्ञ व पत्र दर्शी है, पूण चीनराग है, पूण आनंदमय हैं, स्वयं परमा-मामप्र है, आट कम, गोगादि भावक्रम, शरीरादि गोकर्मम्मे भिन्न है । अनन्न्यि सुख ही समा सुख है, ऐसी नीति लाकर वाग्वार अपने ज्ञान दर्शन स्वभावधारी आत्माकी भावना करते रहनेम मियान्त्र व अनंतानुधंधी कगायका उपशम. भयोपशमका क्षय होजायग! | नब यह जीव सम्यग्दर्शन गुणको प्रकाश कर सकेगा, मदता चली जायगी, सम्यम्ज्ञान होनायगा | सब इमे निर्वाणपदपर पहुंचनेकी योग्यता होजायगी, मंसारमागरमें पार होनेकी नीत्र कचि होजायगी ।
बारह प्रकार कपाथ व नौ नोकषायका उदय अभी है, इमलिये चारित्रमें कमी है | अविग्न सम्यकदृष्टीक इकीस प्रकार चारित्र मोहनीयके उद्यमे रग द्रुप होजाता है उसको वह गेग आनता है। आत्मबलको कमीम गृहस्यक योग्य विषयभोग करता है व धर्म, अर्थ, काम, पुस्पाय सेवन करता है। परंतु इकदम मन, वचन, कायकी
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२७६ ]
योगसार टीका ।
क्रियाको आत्माका कर्तव्य नहीं जानता है। भावना त्यागकी रखता है । २१ कषायोंकी शक्ति घटानेके लिये यह देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय व सामायिकके द्वारा अपने आत्माक्रे शुद्ध ज्ञानदर्शन. स्वभावका मनन करता है । अत्मानुभवका अभ्यास करता है । इस आत्मीक पुरुषार्थ जब अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय नहीं रहता है, केवल १७ ऋपायका उदय रहता है तब वह श्रावकके. fast स्वीकार करके आवक ही होजाता है ।
जैसे २ प्रत्याख्यान कपायका उदय आत्मानुभव के अभ्यास कम होता जाता है वह ग्यारह प्रतिमा रूपसे चारित्र बढ़ाता गढ़ना है । जब प्रत्याख्यान कषायका उदय भी नहीं रहना है तब केवल तेरह कपायोंके उदयको रखकर वस्त्रादि परियह त्याग कर साधु होजाता है । साधुपदमें ध्यानके अभ्यास कपायोंका चल कम करता है । उपशमी पर शुक्लभ्यानके द्वारा १३ कमायको दवाकर वीतरागी होजाता है। क्षपकश्रेणी में इनका क्षय करके वीतरागी होजाता है। तब वह मोक्षगामी क्षपकश्रेणीपर ही चटकर श्रीण-मोद गुणस्थानमें आकर शेप तीन घातीय कर्मोंका अय करके केवली भगवान अरहंत परमात्मा होजाता है । ज्ञानदर्शन गुणको भावना करते करते अनंत ज्ञान व अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुखको प्रकट कर देना है। इस तरह राग द्वेष त्याग करके ज्ञान दर्शन गुणवाले आत्माको प्राप्त करे ।
समयसार कलशमें कहा है
अध्यास्य शुद्धजयमुद्धतबोधचिमै काममेव कल्यन्ति सदैव ये ते । -रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारं ॥ ८ ॥५
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यामसार दीका। [२७७ भावार्थ - महान ज्ञानक लक्षणधारी शुद्ध, निश्चयनयके द्वारा जो सदा ही अपने आत्माके एक स्वभावका अनुभव करते हैं. ये रागादि भावोंसे छूटकर बंध रहित शुद्ध आत्माको देख लेते हैं ।
तीनको छोड़ तीन गुण विचार । तिहि रहियट तिर्हि गुण सहिउ जो अध्याणि वसेइ । मो सासय-मुह-भायणु वि जिणत्ररु गम भणेइ ॥७८॥
अन्वयार्थ (निहिं रहियड) तीन गग द्वेष मोहसे रहित होकर (तिहि गुण-साहिल अन्याणि जो वसेइ ) तीन गुण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सहित आत्माम आं निवास करता है ( सो सासय-गुह-भायणु वि) सो अविनासी सुखका भाजन होता है ( जिणवम एम भणेइ ) जिनेन्द्र ऐसा कहते हैं।
भावार्थ- सम्यग्सष्टी जीवको यह निश्चय होना है कि आटों ही बंध आत्माके स्वभावमे भिन्न हैं | इनमें मोहनीय कर्म मुख्य है इसी उदय या प्रभावस जीवका उपयोग राग हेप मोहसे मलीन हो जाना है य सर्व ही कर्मका बंध इन बाग द्वेए मोहकी मलीनतासे होता है | जमे विवेकी जीन मलीन पानी में निमली डालकर मिट्टीको पानीले अलग करके निर्मल पानीको पीता है, वैसे ही ज्ञानी जीव भेदविज्ञान के थलस रागद्वेष भोडको आल्मामे मिन्न करके वीतराग विज्ञानमय आत्माका अनुभव करता है । राराम मोहके हटाने के लिये ज्ञानी जीव मोहनीय कमसे, रागद्वैप मोह भावोंसे तथा उनके उत्पन्न करनेवाले बाहरी द्रव्योंसे परम उदास हो जाता है ।
__व्यबहारनयसे देखनेपर मसारी जीवोंमें भेद दिखता है। मित्र, शत्रुका, मातापिताका, पुत्र-पुत्रीका, स्वामी सेवकका, त्याता
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२७८) योगसार टीका। म्येयका, सुन्दर असुन्दाका, रोगी निरोगीका, धनिक निर्धनका, विद्वान मुर्च का, बलवान निर्बलका, कुलीन अकुलीनका, माधु गृहम्थका, राजा प्रजाका, देव नारकीका, पशु मानवका, स्थावर उसका, सूक्ष्म बादरका, पर्याप्त अपर्याप्तका, प्रत्येक साधारणका, पापी पुण्यात्माका, लोभी सन्तोषीका, मायावी व सरलका, मानी त्र विनयवालेका, क्रोधी व कपटवालेका. स्त्री पुरुषका, बालक व वृद्धका.. अनाथ व सनाथका, सिद्ध व संसारीका, प्र. पायोग्य व न्यागनेयोग्यका भेद दिखता है तब विषयभोगका लोलुपी व कपायका धारी जीव इष्ट राग व अनिष्टसे ईप करता है । यह सब बाहरी व्यवहारमें दीखनेवाला जगन रागडेप मोहको पैदा करनेका निमित्त हो जाता है । इसलिये ज्ञानीको रागडेप मोद्द भावोंकी मलीनतारन पानेक लिये नियनयन जगतको देखना चाहिये। तब सब ही छः द्रव्य अपने मुल स्वभावमें अलग अलग दीख पड़ेंगे।
सर्व पुदल परमाणुरूप, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, असंख्यात कालागु सब ही अपने २ स्वभावमें दीख पड़ेंगे तथा सर्व ही जीव एक समान शुद्ध दीख पड़ेगे । आप भी अपनेको शुद्ध देखेगा तब समभाव हो जायगा । रागद्वेप मोहका बाहरी निमित्त बुद्धिसे निकल गया तो आनत्र विना उन भात्रों का भी निरोध हो जाता है | इस तरह ज्ञानी जीव आत्मानुभवकं लिये गगद्वेष मोहको दूर करे, फिर अपने आत्माकं तीन गुणोंको ध्यावे ।
सम्यक्त ज्ञान चारित्र तीनों ही आत्मा के गुण हैं | आत्मा स्त्रभासे यथार्थ प्रतीतिका धारी है। आपको आप, परको पर यथार्थ श्रद्धान करनेवाला है व सर्व लोकालोकक द्रव्य गुणपर्यायोंको एक साथ जाननेवाला है । व चारित्र गुणसे यह परम वीतराग है, रत्नत्रय स्वरूप यह आत्मा अमंद दृष्टि से एकरूप है । शुद्ध स्फटिकके
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यांगसार टीका।
[२७१ समान निर्मल है। परम निरंजन, निर्विकार, परम ज्ञानी, परम शांत व परमानंदमय है | इसतरह वारवार अपने आत्माको भ्यावे । तब परिणामोंकी विरता होनेपर स्वयं आत्मानुभव प्रगट होगा, यही मोक्षका मार्ग है ।
आत्मानुभवों समय अतीन्द्रिय आनंदका म्बाद आयगा । इनी बाद में लोग आत्मानुभव गरम का शालद्ध होकर अरहन परमात्मा होकर अनंतसुखका भोगनेवाला होनाता है।
समयसारकलशमें कहा हैसर्वतः स्वरमनिर्भरभावं चतये स्वयमहं म्बमिकं । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोह; शुद्ध चिद्धनमहानिधिरमि ।।३...?
भावार्थ-मैं अपनेमे ही अपने आत्मीक शुद्ध रससे पूर्ण चेतनप्रभुका अनुभव करता हूं । मैं केवल शुद्ध ज्ञानका भंडार हूँ । मेग मोह कर्मसे बिलकुल कोई सम्बन्ध नहीं है ।
चारको त्याग चार गुणसहित ध्यावे। उ कसाय सण्णा रहिउ चउ गुण सहियउ वृत्तु । मा अप्या मुणि जीव तुहुँ जिम पर होहि पवितु ।। ७९ ।।
अन्वयार्थ-(चउ कसाय) चार क्रोधादि कपाय (सगणा) चार संज्ञा आहार भत्र मैथुन परिग्रह ( रहित ) रहित ( च गुण साहियउ अप्पा बुत्तु ) व दर्शन ज्ञान मुख वीर्य चार गुण सहित आत्मा कहा गया है ( जीव तुहूं सो मुणि ) हे जीव तु . उसका ऐसा मनन कर (जिम पर पवित्न होहि) जिसरंस तू परम पवित्र हो जाये।
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२८० ]
योगसार टीका ।
भावार्थ - आत्माको मलीन करनेवाले चार कषाय हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ चारित्र मोहनीय कर्मकी प्रकृतियां हैं जब इनका उदय होता है तब कोभादि भाव प्रगट होते हैं। वे कषाय आत्माके स्वभाव नहीं हैं | आत्मा के तत्वको इनसे रहित परम वीतरागी जाने
साधक स्वयं भी इन कमायके होनेका निमित्त यचावे, सदा ही शांत भावसे व सम भावने रहनेका उद्यम करे । व्यवहार में गौण भाव raja |
निश्चयनयसे जगतको देखनेका अधिक अभ्यास करे | वस्तु स्वरूपको विचार करके किसी अपराधीपर कोध न करके उसको सुधारनेका प्रयत्न करे | जैसे रोगीपर दया रखनी चाहिये वैसे अपराधीपर दया रखनी चाहिये ।
उसको ठीक मार्गपर चलानेका उग्रम करना चाहिये । क्रोध शीघ्रतास विना विचारे निर्चलपर ही आ जाता है । यदि कुछ समय विचार को दिया जावे तो कारण विचार देनेपर निर्बलपर
या आ जायेगी। क्षणभंगुर गृहलक्ष्मी आदिका विद्या व पका मान कदापि न करना चाहिये । फलके भारमं वृक्ष जैसे झुके रहने वैसे ही ज्ञानीको सम्पत्ति विद्या व तप बल होनेपर विशेष कोमल य विनयवान होना चाहिये | परको ठगने का भाव मनमे अलग करके मायाचार नहीं बनना चाहिये । सरल सीधा सत्य व्यवहार ज्ञानीको रखना चाहिये । लोभ मनको मैला रखता है, सन्तोस उसे जीतना चाहिये ।
आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये चार संज्ञाएं हैं। लोभ कपाय, भय नोकषाय, वेद नोकषाय ये संज्ञाएं होती है। आत्माका स्वभाव इनसे बाहर है, आत्माका स्वभाव परम निस्पृह है, ज्ञानीकी सन्तोषक द्वारा आहार संज्ञाको, निर्भयता के द्वारा भयको, ब्रह्मचर्यके द्वारा
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योगसार टीका। [२८१ मथुनको व अपरिग्रह व तृष्णारहित भावसे परिग्रह संज्ञाको जीतना चाहिये | आत्माको उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दब, उत्तम आर्जय, उत्तम शौच उन चार गुण महित व ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य चार अनंत चतुष्टय सहित भ्याना चाहिये । ____ पवित्र होनेका उपाय पवित्रका ध्यान करना है । कषाय रहित व संज्ञाओमे रहित शुद्धात्मा मैं हूं व सर्व ही विश्वकी आस्मार्ग शुद्ध हैं, इस तरह भावना करनेसे स्वानुभवका लाभ होता है । स्वानुभवको ही धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान कहते हैं । ___कषाय ही कामें स्थिति व अनुभाग बंधक कारण हैं तय वीतरागभाव कर्मोको स्थिति ब अनुभागको मुखानेवाले हैं। जैसे अग्निकी तापसे अशुद्ध सुवर्ण शुद्ध होता है वैमे ही आत्मध्यानकी प्राप्तिके प्रतापसे अशुद्धात्मा पवित्र होजाता है। जैसे मलीन वस्त्र वस्त्रपर ध्यान लगानेसे मशाला रगड़नेपर साफ होना है बैंस ही यह कर्मोंमे मलीन आत्मा ज्ञान वैराग्यके मझालेके साथ ध्यान पूर्वक रगड़नेसे या स्वानुभवके अभ्यासमे शुद्ध होता है । ममुक्षुको निरन्तर आत्माके
अवनमें गण करना चाहिये । आत्मानुशासनमें कहा हैहृदयसमि यावन्निमले प्यत्यगाधे वसति खलु कमायग्राहचक्रं समंतात् । अमति गुणाणोऽयं तन्न तावद्विशतं समदमयमशेषैस्तान विजेतुं यतम्च ।२१३
भावार्थ-म्भीर व निर्मल मनके सरोवर के भीतर जब तक चारों तरफर्म कपाय पी मगरमच्छोंका वास है तब नक गुणोंक समूह शंका रहित होकर वहां नहीं ठहर सक्ने । इसलिये तृ समत्ताभाव, इंद्रिय दमन व विनयके द्वारा उन कषायोंके जीतनेका यन्न कर ।
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२८२]
यागसार टीका ।
पांच जोड़ोंसे रहित व दश गुण सहित आत्माको ध्यावे |
वे - पंचहँ रहियउ मुगहि वे- पंचहँ मंजुनु ।
वे पंच जो गुणसहित सो अप्पा गिरु वृत्तु ॥ ८० ॥ अन्वयार्थ - ( पंच राहिय ) दो प्रकार पचिस रहित होकर अर्थात पांच इन्द्रियों को रोककर व पांच अन्नतोंको त्यागकर (च-पंच संजुन मुणीह ) दो प्रकार पांच अर्थात् पांच इंद्रियदमनरूष ६ ६ पांच साहेन होकर काम करो (जो वे पंचहँ गुणसहि सो अप्पाणिरु बुनु ) जो दश गुप्प उत्तम क्षमादि सहित है व अनंतज्ञानादि दश गुण सहित है उसको निश्चय से आत्मा कहा जाता है ।
भावार्थ - आत्माका मनन निश्चिन्त होकर करना चाहिये । पांच इंद्रियोंके विपयोंमें उलझा हुआ उपयोग आत्माका मनन नहीं. कर सकता | इसलिये पांच इंद्रियोंकों संयम में स्वता चाहिये | इन्द्रियविजयी होना चाहिये व जगत के आरम्भ हटने के लिये हिंसा असत्य, स्तंय, अब्रह्म, परिग्रह इन पांच अविरत भावोंसे विरक्त होकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग इन पांच महाव्रतोंको पालना चाहिये। साधुपदमें द्रव्य व भाव दोनों रूपसे निर्भय होकर एकाकी भावसे शुद्ध निश्चयनयके द्वारा अपने शुद्धात्माका मनन करना चाहिये |
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दृष्टि आत्माका मनन करते हुए उसको दश लक्षणरूप 'विचारना चाहिये। यह आत्मा क्रोध विकार के अभाव से पृथ्वी के समान उत्तम क्षमा गुण धारी हैं, मानके अभाव मे उत्तम मार्दव गुण
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योगसार टीका। धार्ग है, मायाके अभावसे उत्तम आजब गुण धारी है. असत्य ज्ञानक अभावरन उत्तम सत्य धर्म धती हैं। लोभक अभावसे उत्तम शौच गुण धारी है, असंयमके अभावम स्त्रम्.पमें रमणरूप उत्तम संग्रम गुण धारी है। मब उमलायका अभाव होनेसे आत्माका एक शुद्ध वीतराग भावसे तापना एक उत्तम गुण है 1 ग्रह आस्मा परम तपम्बी है, यह आत्मा अपनी शुद्ध परिणतिको या आत्मानंदकी आपके लिये दान करता है, यही इसका उत्तम त्याग धर्म है । इस के उत्तर आवि. मा है। इन
आत्माकं भीतर अन्य आत्माओंका, पुन्ले द्रव्यका, धर्म, अधर्म, काल, आकाशका अभाव है, यह भूण अपरिग्रहबान है. परम असंग है। यह आत्मा उत्तम ब्रह्मचार गुणका धारी है, निग्न्नर अपने ब्रह्मभावमें मगन रहनेवाला है | इसतरह दश लक्षणोंको बिचारे अथवा अपने आत्माको दश गुण सहित विचारे ।
यह आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, नायिक सम्यक्त. क्षायिक चारित्र, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंन भोग, अनंत उपभोग, अनंत बीय, अनंत सुख, इन दश विशेष गुगीका धारी परमात्मा स्वरूप है । यह सर्वज्ञ व सर्वदर्शी होकर भी आत्मज्ञ व आत्मदी है | यह यकी अपेक्षा सर्वज्ञ सर्वदशी कहलाता है। शुद्ध सभ्यग्दशनका धारी होकर निरन्तर आत्म प्रतीतिमें वर्तमान है । सर्व कषाय भावकि अभाबसे परम वीनराग यथाख्यात चारित्रसे विभूषित है | आपके आनंदको आपको देता है, अनंन दान करनेवाला है, निरंतर स्वात्मानंदका लाभ करना ही अनंत लाभ है | स्वात्मानंदका ही निरंतर भोग है अपने आत्माका ही बार बार उपभोग है | गुणोंक भीतर परिणमन करते हुए कभी भी खेद नहीं पाता यही अनंत वीर्य है । ज्ञानावरण,. दर्शनावरण, मोह व अन्तराय कर्मोस रहित होकर अनंतसुखका समुद्र है।.
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२८४] योगसार टीका ।
अभेदनयसे एक अखण्ड आत्माको ध्यावे तब स्वानुभवका लाभ होगा । यही आत्मदर्शन है व यही सुस्वशांति प्रदायक भाव है | यही आत्मसमाधि है, यही निश्चय रत्नत्रयकी एकता है । मुमुक्षु जीवको निश्चिन्त होकर परम प्रमभावसे अपने आत्माका ही आराधन करना चाहिये । बृहत सामायिक पाठमें कहा हैन्यावृत्त्येन्द्रियगोचरोरुगहने लोलं. चरि चिरं
दुबारे हृदयोदर स्थिरतरं कृत्वा मनोमर्कट । ध्यानं ध्यायति मुक्तये श्रममनेनिर्मुक्तभोगगृहो
नोपायन बिना कृता हि विधयः सिद्वि लमंते ध्रुव ॥५४॥ भावार्थ-दुबार मन रूपी बन्दा चिरकालसे लोलुपी होकर पांच इंद्रियोंके महान वनमें रमण कररहा था, उसकी वहमि रोककर अपने हृदय के भीतर स्थिर मन बांधकर रम्य । तथा सर्व भोगांकी अभिलापा याग करके, परिश्रम करके केवल मोक्षके ही हेतु आत्माका भ्यान करे । क्योंकि उपायक विना कार्यकी सिद्धि नहीं होती । आयम निश्चय काम निद्ध होता है।
आत्मरमणमें तप त्यागादि सब कुछ है । अध्या दसणु णाणु मुणि अप्पा चग्ण वियाणि । अप्पा संजमु मील तर अशा पञ्चवाणि ॥ ८१॥
अन्वयार्थ -(अप्पा देसणु णाणु मुणि) आत्माको ही सम्यग्दर्शन और सम्यम्झान जानो (अप्पा चरणु वियाणि) आत्माको ही मम्यक्चारित्र समझी (अप्पा संजमु सील तउ) आत्मा ही संयम है, शील है, नप है, ( अप्पा पञ्चवरवाणि) आरमा ही प्रत्याख्यान या त्याग है ।
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योगसार टीका। [२८२ भावार्थ-~-आत्माके स्वभावमें रमणता होने पर ही सर्व ही मोक्षक साधन निश्चयनयसे प्राप्त हो जाने हैं । व्यवहारनयस देवशास्त्र गुरुका तथा जीवादि सात तत्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । निश्चयम वह आत्माका ही निज गुण है । जहां श्रद्धा व रुचि सहित आत्मामें थिरतारे तिष्ठना होता है वहीं भाव निक्षेपरूप यथार्थ परिणमनशील. सम्यग्दर्शन है । व्यवहार में आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, निश्चयमे ज्ञानमें अपने अरमाका शुद्ध स्वभाव झलकना ही सम्यग्ज्ञान है |
व्यवहार में साधु या श्रावकका महाव्रत या अणुव्रतरूप आचरण सम्यकचारित्र है। निश्श्यम वीतराग भाव ही सम्यक्चारित्र है । जहाँ आत्मामें स्थिरता है वहां निश्चय सम्यकचारित्र है । व्यवहारमें पांच इन्द्रिय व मन निरोध इन्द्रिय संयम व पृथ्त्रीकायादि छः प्रकार प्राणियोंकी रक्षा प्राणिसंग्रम है । निश्चयम अपने ही शुद्ध स्वभाव में अपनेको संयमरूप रम्बना, बाहर कहीं भी रागदेप न करना आत्माका धर्म संयम है।
व्यवहारसे मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनाको न प्रकार कामविकारक) टालकर शील पालना ब्रह्मचर्य है ! निश्चयसे ब्रह्मस्वरूप आत्मामें ही चलना निश्चय ब्रह्मचर्य है, सो आन्मारूप ही है। व्यवहारसे बारहप्रकार तप पालना तप है। निश्चयसे अरमाके शुद्ध स्वरूपमें तपना तप है । आत्मीक भावमें प्रकाश पाने के लिये ये तप सहाई हैं । तपस्वीको, योगीको उचित है कि इन्द्रियदमन व मन, वचन, कायकी शुद्धिके लिये उपवास करता रहे, भोजन ऊनोदर करे, मात्रासे कम ले, जिससे ध्यान स्वाभ्याम्पमें प्रमाद न आवे । निद्राको विजय कर व शरीर निरोगी रहे :
भिक्षा लेने के लिये कोई नियम ऐसा ले जिससे गृहस्थको कोई आरंभ विशेष न करना पड़े व अपने परिणामोंकी जांच हो कि नियम
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२८.] योगमार टीका। न पुरा होनेपर यह मन्तीय म निराहार रह सके, सो वृनि परिसंख्यान तप है | जिल्हा इन्द्रिय बझ करनेको व शरीरमें मदन बढ़ने देने के लिये व रागक घटानके लिये दूध, दही, घी, तेल, लवण, शक्कर इन छड़ों को या कमको साधु न्यागकर नित्य आहार करते हैं ।
झरीकी स्थितिक लिये मात्र धर्मम्मवनार्थ आहार सन्तोष करने हैं मो रस परित्याग है । माधुजन स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु, आदि. भावों में विचारके निमिन कारण जहां न हों ऐसे गानस्थानमें शयन व आलग करन हैं व ध्यान स्वाध्यायको सिद्धि करते हैं, स्ली विविक्त-शयासन नाप है। शरीरके सुखिया व आलसी स्वभावको मिदाने लिये कठिन २ निर्जन स्थानोंमें आसन जमाकर ध्यान करने हैं। __नदीजन, श्री . ' मा ठार मन तन होते हुए शीन ताप साहने हैं । दूसरोंको दीन्यता है कि कायको क्लेश देण्ई हैं पनु शीघ्र आत्मानंदमें मगन रहने है सो कायलंश तप है । जैसे कपड़ पर मेल लगने पर पानीम धोकर साफ किया जाता है बैंग्न मन, वचन काय सम्बंधी कोई दोप होजानेपर उमका प्रायश्चित्त लेकर व प्रतिक्रमण कग्य, शुद्ध करमा, भावीको निर्मल करना मो प्रायश्रिन सप है । रत्नत्रय धर्मकी व धर्म धारकोंकी भक्ति रखना व व्यवहार में विनशील रहना विनय नप है ।
- अन्य साधुको थका हुआ, रोगी, व अशक्त देवकर शरीन य उपदेशसे नया गृहीका व जगत प्राणियोंक) धनिदेशी उनकी आत्माओंको शानि घ सनोग पहुंचाना चैय्यानृत्य सप या सवाधर्म हैं । आत्मनानकी निर्मल नाके लिये व छः द्रव्योंके गुण पर्यायांका विशेष ज्ञान होने के लिये जिनवाणीके ग्रंथोंका पठन पाठन मनन व • कंठस्थ करना स्वाध्याय नर है । यह बड़ा ही उसकारी है ।
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योगमार टीका। १२८७ अन्तरंग विमानी- हरमें दे पा पन्तुआम शिप ममताका लाग सो ब्रह्मचर्य तप है। धर्मभ्यानका एकांतमें अभ्यास करना मो ध्यान तप है । इन बारह प्रकार के नाम बनते हुग अपने आत्माको तपना सी ही निश्चय तप है। नियम चा यम रूपसे किन्ही भोजन पानादिका व किन्हीं वस्तुओंका त्याग करना व्यवहार प्रत्याख्यान हैं।
अपने आत्माको सर्व परद्रव्यसे व परभावोंसे भिन्न अनुभव करना सो निश्श्य प्रन्याख्यान है। अभिप्राय यह है कि जब यह उ7योग अपने ही आत्माकं मुद्ध म्यम्पमें रमण करके खानुभयमें रहता है तब ही वास्तबमें रत्नत्रय स्वाय मोक्षमार्ग है | सप ही यमपि संयम है, झील है, तप है, प्रत्याख्यान है, अतएव आत्मस्थ रहना योग्य है। समयसारमें कहा है
आदा खु माझ गाण आदा मे दसणे चरिते य ।
आदा पञ्चक्वाण आदा में संघरे जोगे || १८ ॥ भावार्थ-निश्वयम मेरे ज्ञान, दर्शनमें, चारित्रमें आत्मा ही है। जब मैं रनत्रयमें रमण करना ढूं नत्र आत्माहीके पास पहुंचना हूँ। स्याग भात्रमें रहना भी आत्मामें तिष्ठना है | आस्रव निगंध संघर.. भाबमें या एकाग्र योगाभ्यासमें भी आत्मा ही सन्मुख रहता है।
पर भावों का त्याग ही मन्याम है। जो परयाणइ अप्प परु सो पर चयइ णिभंतु । सा सम्णासु मुणहि तुहु केवल-थाणि उत्तु ।। ८२॥
अन्वयार्थ-(जो अप्प फ परयाणइ ) जो आत्मा व परको पहचान लेना है ( सो णिभंतु प चयइ) यह बिना किसी प्रॉनिक
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२८८]
योगसार टीका। रमको त्या कर देता है ( नई पास गुणोदि) तू उसे ही सन्यास या त्याग जान । कंबल-णाणि उत्तु) ऐसा कंवलज्ञानीने कहा है।
भावार्थ--अन्तरंगम पर भावकि ममत्वके त्यागको सन्यास कहते हैं । बाहरी परिग्रहका त्याग अन्तरंग त्यागभावका निमित्त साधक है।
इस सन्यासका प्रारंभ सम्यग्दृष्टी अविरतिक हो जाता है। सम्यग्दृष्टी भले प्रकार ज्ञानता है कि मेरा स्वामीपना मेरे ही एक आत्माम है, मेरे आत्माका अमेदाप द्रव्यत्वं मेरा द्रव्य है, मेरे आत्माका असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र मेरा क्षेत्र है, मेरे आत्माके गुणोंका समय र परिणमन मेरा काल है, मेरे आत्मा शुद्ध गुण मेरा भात्र है, मैं सिद्धक समान शुद्ध निम्न निर्विकार हूं. मैं पूर्ण ज्ञानदर्शनवान हूं, पूर्ण आत्म वीर्यका धनी हैं, परम आनन्दमय अमृतका अगाध. सागर हूं । मैं परम कृतकृत्य हूं. जीवनमुक्त हूं। ___ मेरा कोई सम्बन्ध न अन्य आत्माओंसे हैं न पुलके कोई परमाणु व स्कंध है । न धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्यसे है, न मेरेमें आठ कम हैं, न झरीरादि हैं. न रागादि भाव है, न मेरमें इन्द्रियक विषयोंकी अभिलाया है, न मैं इन्द्रियसुत्रको सुख जानता हूँ। मैं अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुरखको सच्चा ज्ञान व मुख जानता हूं । सो मेरा धन मेरे पास है । इस तरह सम्यग्दृष्टी त्यागी श्रद्धा य ज्ञान परिणतिकी अपेक्षा परम सन्यासी है, परम त्यागी है। जैसे कोई प्रवीण पुरुष अपने भीतर होनेवाले रोगोंको पहचानकर व उनसे अहित जानकर उन रोगोंमे पृर्णपने उदासीन हो जाये वैसे सम्यक्ती जीव स्वास कमौके संयोगसे होनेवाले रागादि भाव व शरीरादि रोगोंको रोग व आत्माके लिये हानिकारक जानकर उनसे
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योगसार टीका |
[ २८९
पूर्ण वैरागी होजाता है । अब रोग निवारणका उद्यम करना ही रोगी के लिये शेष रहा है मो प्रसंग व भाव प्रवीण वैव द्वारा बताई हुई औषधिको मंत्रन करता हुआ धीरे २ निरोगी होजाता है । उसी तरह सम्यक्ती जीव चारित्र मोहनीय के विकारोंको दूर करनेके लिये पूर्णपने कटिबद्ध होजाता है । यह भी उसने श्रीगुरु परम वैसे जाना है कि भावकर्मके रोगको मिटानेके लिये सत्ता में बैठे कर्मको नाश करनेके लिये व नवीन रोगके कारणसे बचने के लिये शुद्धात्मानुभव ही एक परम औषधि है। यह सम्यक्ती समय निकालकर स्वानुभव करना रहता है। कपायक अनुभागको सुखाना रहता है | आत्मबल बढनेपर व मन्दकपायके उदय होनेपर यह अधिक समय व थिरता पानेके लिये श्रावक के चारित्रको निमित्त कारण जानकर धारण कर लेना है | धीरे २ जैसे २ रागभाव बढ़ता है वह श्रावककी ग्यारह श्रेणीरूप प्रतिमाओं पर चला जाता है । जब स्वानुभवी शक्ति इतनी बढ़ा लेता है कि एक अन्तर्मुहूर्त में अधिक स्वानुभव से बाहर नहीं रह सके, घड़ी २ पीछे वारवार आत्मतत्वका स्वाद लेवे च गमनका कोई प्रपंच नहीं रुचे | आत्मरसमें मानो उन्मन्त होजाये तब बाहरी सकल त्याग करके सन्यासी या निथ होजाता है। श्रद्धान व ज्ञानकी अपेक्षा तो सम्यासी अविरत सम्यक्तके चौथे गुणस्थान में ही होगया था तब घंटे सातवें गुणस्थान में रहकर चारित्रकी अपेक्षा भी सन्यासी होगया है । निर्भयपदमें रहकर दिनरात स्वानुभवका अभ्यास करता है। यदि तद्भत्र मोक्षगामी होता है तो क्षायिक श्रेणीपर चढ़कर शीघ्र ही चार घातीय कर्मोंका क्षय करके केवलज्ञानी होजाता है । यहां तात्पर्य यह है कि आत्मा के सिवाय सर्वे परके साथ राग द्वेष मोहका त्याग ही सन्यास है ।
१९.
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योगसार टीका |
समयमारकामें कहा हैसंन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्व मोक्षार्थिना संन्यन्ते सति तत्र का किल कथा यस्व पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षम्य हेतुर्भव
मिद्धिमुद्धर ज्ञानं स्वयं धावति ॥ १०४ ॥
भावार्थ - मोक्ष चाहनेवाले महात्माको उचित है कि सर्व ही कियाकांडकी व मन वचन कायको क्रियाका ममत्व त्याग देवे अ] आमा निज स्वभावक सिवाय संपका त्याग हो वहां पुण्य व पाप त्यागकी क्या बात ? इन दोनोंका त्याग है हो । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आदि स्वभाव में रहना ही मोक्षका मार्ग है । इस मार्ग में जो रहता है उसके पास कर्मरहित भावसे प्राप्त व आत्मीक र प्राणं ऐसा केवलज्ञान स्वयं दौड़कर आजाता है ।
२९० ]
रत्नत्रय धर्म ही उत्तम तीर्थ है ।
स्पात मंजुत्त जिउ उत्तिम तिस्थु पवित्तु । airat कारण जोइया अणु ण तंतु ण मंतु ॥८३॥
अन्वयार्थ - ( जोइया ) हे योगी | ( रयणत्तयसंजुत जिउ उत्तिसु पवितु तित्यु ) रत्नत्रय सहित जीत्र उत्तम व पवित्र तीर्थ है ( मोकखहं कारण ) यही मोक्षका उपाय है (अण्णु तंतु ण मंतु ण और कोई तंत्र या मंत्र नहीं है ।
भावार्थ - कर्मबन्धसे छूटने का उपाय या भवसागर से पार होने का उपाय त्रय धर्म है । इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं | निश्चय त्रय साक्षात् मोक्षमार्ग है या उपादान कारण हैं।
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योगसार टीका।
[२९१ श्यबहार रत्नत्रय उपादान के प्रकाशके लिये बाहरी निमित्त है | कायकी मिद्धि, अपादान और विभिन्न दोनों कारणौक होने पर होती है। मालीन मुवर्ण आग व मसालीका निमित्त पाकर स्वयं साफ होता है | मलीन बन्न मसाल व पानीका निमित्त पाकर स्त्रयं उजला होना है। चावल आग पानीका निमिन पाकर स्वयं भात बन जाता है। चनेके दाने चक्रीका निमिन पाकर स्वयं चूर्ण होजाते हैं । पानीका निमित्त पाकर तिलोमसे तेल निकलना है।
मिट्टी स्वयं बड़ा रूप हो जाती है, कुम्हारका चाक आदि निमित्त है | काम्प स्वयं उपादान कारण हो जाता है । जवनक कार्ग हो तबतक वह निमित्त सहायक होता है फिर निमित्त बिलकुल अलग रहे आता है । आत्मा अपनी शुद्धिग या उन्नत्तिमें आप ही उपादान कारण है, निमिन शरीरादि अनेक बाहरी किया है। यदि उनस शारीर वनवृपभनाराच संहनन, उत्तम आर्य क्षेत्र, चतुर्थ दृग्यमा सुग्त्रमा काल, त्र साधुका बाहरी निगंध भेप व चारित्र न हो तो मोक्षकं लिये आत्माका भाव विशुद्धिको नहीं पाता है | अनपत्र व्यवहार रत्नत्रयके आलम्बनने निश्चय रत्नत्रयका आराधन कार्यकारी है । यह अपना आत्मा तन्य म्वभावमे परम शुद्ध है, ज्ञानाना है, अनंत वाय व अनंत सुस्त्रका सागर है, परम वीतराग है, सर्व अन्य द्रव्योंकी सत्तासे रहित है।
स्वयं ज्ञानचेतनामय है, परम निराकुल है। यही परमात्मा देव है ऐसा दृढ़ श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। इसकी प्राप्तिका उपाय अन्तरंग निमित्त अनंतानुबंधी कपाय व मिथ्यात्वका उपशम है व बाहरी उपाय देव शास्त्र गुरुका श्रद्धान व जीवादि सात तत्त्रोका पक्का श्रद्धाल है तथा आत्मा व परका भेद विज्ञान पूर्वक विचार है । मन वचन कायकी सर्व क्रिया निमिस है। अन्तरंग व बहिरंगा
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२१२] योगसार टीका। निमित्त होनेपर निश्चय सम्यग्दर्शन आत्माकी ही भूमिकासे उपज जाता है। आत्मा ही उपादान कारण है। आत्माका आत्मारूप यथार्थ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है । आगम द्वारा तत्वौंका व द्रव्योंका मनन व्यवहार सम्यम्ज्ञान है, निमित्त है | आत्माके अभ्यासम व गुरुक. उपदेशके निमित्तमे भीतर उपादान आत्मास ज्ञानका प्रकाश होता है । अंतरंग विभिन्न बानावर्णीय व दर्शनावणीय व अंतरंग कर्मका क्षयोपक्षम है।
आत्माका आत्माकं भीतर आत्माके द्वारा ही परके आलम्बन रहित रमण करना निलय सम्यकचारित्र है। निमित्त साधन अंतरंग चारित्र मोहनीय कमका उपशम है, बाहरी साधन श्रावकका एकदेश व साधुका सकल चारित्र है ।
आत्मानुभत्र ही तीर्थ है, जहाज है, वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकूचारित्र तीन आत्मीक धर्मोंसे रचिन है। इस जहाजपर जो आत्मा आप ही चढ़कर उस जहाजको अपने ही आत्माम्पी समुद्रपर चलाता है वह आप ही मोक्षद्वीपको पहुंच जाता है। वह द्वीप भी आप ही है, अपना पूर्णभात्र' कार्य हैं, अपूर्णभाव कारण है। इस तरह जो कोई निश्चिन्त होकर आत्माका सतत अनुभव करता है यही परमानन्दका स्वाद पाता हुआ व कर्मोंका संरर व उनकी. निर्जरा करता हुआ उन्नति करता जाता है, यही कर्तव्य है ।
तत्वार्थसारके उपसंहारमें अमृतचन्द्राचार्य कहते हैंनिश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थितः । तत्रायः साध्यरूप: स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥२॥ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा; शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः ॥ ३ ॥
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योगसार टीका ।
श्रद्धानाधिगमोंपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ॥ ४ ॥ भावार्थ- मोक्षमार्ग निश्चय तथा व्यवहारसे दो प्रकारका है। निश्चय मार्ग साध्य है, व्यवहार साधन है। अपने ही शुद्ध आत्माका श्रद्धान ज्ञान व सूत्रे परसे उदासीन भावरूप उपेक्षा या स्व रूपमें - दीनता ऐसा निश्रय रत्नत्रय स्वरूप आत्माका शुद्ध भाव निश्चय मार्ग है । पद पदार्थोंकी अपेक्षा श्रद्धान ज्ञान व त्याग करना व्यवहार वय मोक्षमार्ग है | व्यवहारके सहारे किये।
[ २१३
रत्नत्रयका स्वरूप |
दंसण जं पिच्छिइ बुह अव्या विमल महेतु । पुणे पुणे अप्पा मारियए सो चारित पवितु ॥ ८४ ॥ अन्वयार्थ -- ( अप्पा विमल महंतु ) यह आत्मा मलरहित शुद्ध व महान परमात्मा है । जे पिच्छियइ बुह दंसणु ) ऐसा जो श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है व ऐसा जानना सो ज्ञान है ( पुणु पुणु अप्पा सायिए सो चारिच पवितु ) कारवार उस आत्माकी भावना करनी सो पवित्र या निश्चय शुद्ध चारित्र है ।
भावार्थ - अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप जानकर श्रद्धान करना चाहिये | यह आत्मा द्रव्य परिणमनशील है गुणोंका समूह है । गुणोंमें स्वभाव परिणमन होना द्रव्यका धर्म है। परिणमन शक्ति ही गुणोंकी समय पर्यायें होती हैं, व्यवहार से यह अपना आत्मा कर्म सहित मलीन दिखता है। कर्मोक संयोगसे चौदह गुण- स्थान व चौदह मागणारूप आत्माको अवस्थाएँ जो होती हैं वे आत्माका निज शुद्ध स्वभाव नहीं हैं। जब शुद्ध निश्चयनयसे जाना
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२९४]
जाये तो यह आत्मा आता है।
. योगसार टीका |
गत
साहय है पैर में
यह आत्मा सत् पदार्थ है, कभी न जन्मा न कभी नाश होगा, स्वतः सिद्ध है, किसी ने उसको पैदा नहीं किया, न यह किसीको पैदा करता है। यह लोक अनादिकाल से है. छः द्रव्यों समूहको लोक कहते हैं । वे सब द्रव्य अनादि अनंत कालतक सदा ही बने रहते हैं । अनंत जीव हैं । अनंतानंत पुल हैं. असंख्यात कालागु हैं, एक धर्मास्तिकाय है, एक अधर्मास्तिकाय हैं, एक आकाश हैं । आत्मा - आत्मारूपसे सब समान हैं तथापि हुएक आत्माकी सत्ता दूसरी आत्माकी सत्तासे निराली हैं ।
अपने आत्माको एकाकी देखें, इसमें न आउ कर्मोका बंध हैं. इसमें रागादि विकारी भाव है, न कोई स्थल औहारिक व वैकिकि शरीर है । यह आत्मा शुद्ध स्फटिकमणिकं समान परम निर्मल है । ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, आदि गुणोंका सागर है। यह आत्मा न किसीका उपादान कारण है, न किसीका निमित्त कारण है । संसार दशामें आत्मा शरीर नामकर्मके उदयसे चंचल होकर मन बेसन, कायके द्वारा योगोंमें परिणमन करता है व कपायके उदयसे शुभ व अशुभ उपयोग होना है। ये योग व उपयोग ही लौकिक कार्योंमें निमित्त हैं । कुम्हार घड़ा पकाता है। मिट्टी घडेका उपादान कारण है, कुम्हारका मन, वचन, काय योग व अशुद्ध उपयोग तिमित्त कारण है। शुद्ध आत्मामें न योगोंका कार्य हैं न कोई शुभ या अशुभ उपयोग है। आत्मा स्वभावसे अकर्ता व अभोक्ता है । न तो परभावोंका कर्ता हैं न परभावोंका भोक्ता है । आत्मा स्वभावसे अपनी शुद्ध परिणतिका कर्ता है व सहज शुद्ध सुखका भोक्ता है । यह आत्मा परम निराकुल व समभायका धारी परम पवित्र निश्चल
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योगसार टीका |
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रहनेवाला परम पदार्थ परमात्मा है। मैं ऐसा ही हूं। ऐसा निश्चय अनुभव पूर्वक होना ही सम्यग्दर्शन गुणका प्रगट होना है।
सो मिध्यात् कर्म व अतानुबंधी कपायके उपशम बिना नहीं होता है। शास्त्रोंको ठीक ठीक जाननेपर भी जहृतिक स्वानुभव न हो वहां तक ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है । सम्यग्दर्शन के प्रकाश पोते की ज्ञान है। उचित है कि आत्मा के श्रद्धान व ज्ञानमें बार बार रमण करें। बार बार भावना भाव | भावना में चलना सी चारित्र है । जहाँ आत्मा आपसे आपमें स्थिर होजाता है वहां रत्नत्रयकी एकता होती है। वही मोक्षमार्ग है। रत्नत्रय धर्म निज आत्माका स्वभाव ही है ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है
दर्शनमात्मविनिश्वितिरालपरिज्ञानमिष्यते बोधः ।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥ २१६ ॥ सम्यक्चरित्रमोघलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः ।
मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ॥ २२२ ॥ भावार्थ --- अपने आत्माका निश्चय सम्यग्दर्शन है । अपने आत्माका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । अपने आत्मामें स्थिरता सम्यक्चारित्र है | इन तीनोंसे कर्मबंध नहीं होता है | निश्चय व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग यही आत्माको परमपद में पहुंचा देता है ।
आत्मानुभव में सब गुण हैं ।
जहि अप्पा तहि सयल गुण केवलि एम भणति ।
तिहि कारणएं जोइ फुड अप्पा विमलु मुणंति ॥ ८५ ॥ अन्वयार्थ - ( जहिं अप्पा तहिं सयल गुण ) जहां आत्मा
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२९६ ] यागसार टीका । है वही उसके सबै गुण है। (केवाल एम भणीत ) केवली भगवान ऐसा कहते हैं (तिहि कारणएं जोइ फुडु विमलु अप्पा मुणति) इस कारण योगीगण निश्चयसे निर्मल आत्माका अनुभव करते हैं।
भावार्थ- शुद्धात्माका जहाँ श्रद्भान है, ज्ञान है व उसीका भ्यान है अर्थात् जहां शुद्धात्माका अनुभव है, उपयोग पांच इंद्रिय व मनके विषयोंसे हट कर एक निर्मल आत्माहीकी तरफ नन्मय है वही यथार्थ मोक्षमार्ग है।
जब आत्माका ग्रहण होगया तब आत्माक सर्व गुणोंका ग्रहण होगया, क्योंकि द्रव्यके सर्व गुण उसके भीतर ही रहते हैं । मिश्रीको ग्रहण करनेसे मिश्रीके सर्व गुण ग्रहणमें आजाते हैं | आमको ग्रहण करनेसे आमके म्पादि सर्व गुण ग्रहणमें आजाते हैं । इसी तरह आत्माके ग्रहण होते हुये आत्माके सर्व गुण ग्रहणमें आजाते हैं।
एक एक गुणका ग्रहण करनेमे आत्माका एक एक अंश प्रणमें आयगा, सर्व आत्मा ग्रहणमें नहीं आयगा । परंतु अखण्ड व अभेद एक आत्माको ग्रहण करते हुए उसके भीतर व्याप कर रहे हुये सर्व गुण ग्रहणमें आजायंगे | इसलिये योगीगण निश्चल होकर एक निज आस्माको ही ध्याते हैं। आत्माका भ्यान करते हुए सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकनारित्र तीनों रत्नत्रय हैं । वहीं सम्यक तप है। आत्माकं भीतर रमण करनेवाला रागद्वेषके अभावम निश्चय अहिंसा व्रतका पालक है । सर्य असत पर पदार्थोके त्याग व सत्त निज पदार्थक यथार्थ ग्रहणसे आत्मामें ही निश्चय सत्य व्रत है |
मुद्गलादिकी गुण पर्यायकी स्थितिको ग्रहण न करके अपनी आत्मीक सम्पदामें सन्तोप रखनेसे आत्मामें ही निश्चय अचौर्य व्रत है । आत्माके सिवाय पर पदार्थमें न जाकर एकाग्र बने, पर ब्रह्मा स्वरूप आत्मामें ही विहार करनेमे आत्मामें ही निश्चय ब्रह्मचर्य व्रत
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योगसार टीका । [२९७ है । रागादि सर्व विभावोंके व मूछ के त्यागसे आरमाके एक असंग भावमें रमण करनेमे आत्मामें ही परिग्रह त्याग व्रत है । आत्मा 'आत्मामें सत्य भावस जब ठहरा है तब वहां निश्चवसे सामायिक है। 'जब आत्माका अनुभव करते हुए बीनरागता होती है तब गत कालके बन्धे हार काँसे वीरागना होती है व वे कर्म स्वयं निर्जराको प्राप्त होते जाते हैं. इसलिये वहीं निश्चय प्रतिक्रमण है ।
आत्मामें जा रनपता है बनायी होकार विभावों की त्याग है, इसलिये निश्चय प्रत्याख्यान है। आत्मा अपने आत्माके गुणोंमें या गुणी आत्मामें परम एकाग्र भावमें लीन हैं। यही निश्चय स्तुति है । आत्मा आत्माका ही आराधन ब विनय कर रहा है। यही निश्चय वंदना है।
__ आत्मास शरीरादि सर्व परद्रव्योन मोह त्याग दिया है व आपसे आपमें थिरना की है, यही निश्चय कायोत्सर्ग है | मन, वचन, कायके सर्व विकारोंसे भिन्न होकर आत्मा आत्मामें ही गुप्त किलेमें विरा'जित है, यहीं नीन गुत्रिका पालन है। पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे उपयोग रुककर एक आत्मामें ही तन्मय हो यही पांच इन्द्रिय निरोध संयम है।
क्रोधादि चा कपायोंमें रदिन आत्मामें विराजमान होनेसे 'पूर्ण उत्तम क्षमा, उत्तम मादव, उत्तम आर्जब, उत्तम शौच धर्म है । आत्मा परम शांत है, परम कोमल है, परम सरल है, परम शुचि है । आत्माके दर्शन गुण है, वीर्वगुण है, आनन्दगुण है. ज्ञानचेतना है, सर्व ही शुद्ध गुणोंका निवास आत्मा है । जिसने आत्माका आराधन किया उसने सर्व आत्मीक गुणोंका आराधन कर लिया। आत्माके ध्यान ही आत्माके गुण विकसित होते हैं । श्रुतज्ञानकी पूर्णता होती है। अवधिज्ञान व मनापर्यग्रज्ञानकी रिद्धि प्रगट होती
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यांगसार टीका। है, केवलजानका लाभ होता है। निर्माणका परम ध्याय एक आत्माका ध्यान है । तत्वानुशासन में कहा है
यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमामिलामन्यामा । हावगमचरणरूपम्स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिनि जिनोक्तिः ।।३।।
भावार्थ-जो वीतरागी आत्मा आत्माक भीतर आत्माकं द्वारा आत्माको देखता व जानता है वह स्वयं सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारिकरूप होता है। इसलिये निश्चय मोनमार्ग स्वरुप है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं ।
एक आत्माका ही मनन कर । एकलउ इंदिय रहियउ मण वय काय ति-सुद्धि । अप्पा अपु मुणेहि तु९ लहु पावहि सिव-सिद्धि ॥८६।।
अन्वयार्थ-(एकलउ) एकाकी निग्रंथ होकर (इंदिय रहियउ) पांचों इन्द्रियोस विरक्त होकर । मण वय काय ति. सुद्धि ) मन वचन कायकी शुद्धिमे ( तुहं अप्पा अप्पु मुणहि । त आत्माके द्वारा आत्माका मनन कर (सिव-सिद्धि लहु पावहि) मोलकी सिद्धिः शीघ्र ही कर सकेगा ।
भावार्थ-आत्माका मनन निश्चिन्त होकर करना चाहिये। इसलिये गृहस्थीका त्याग जरूरी है । गृहस्थके व्यवहार धर्म, पैसा कमाना, काम भोग करना, इन तीनों कामोंके लिये मन बचन कायको चंचल व राग द्वेपसे पूणि व आकुलित रखना पड़ता है व पांचों इन्द्रियोंके भोगांमें उलझना पड़ता है।
जब सर्व चिंताएं न रहेगी तब ही मन स्थिर होकर संकल्प विकल्पसे रहित होकर अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका मनन कर
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यांगसार टीका |
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सकेगा । अत्र निर्मध पत्र धारण करके निराकुल हो जाना चाहिये । स्त्री पुत्रादिकुटुम्बकी चिंताओंसे मुक्त होजाना चाहिये । परिम व आरम्भका त्याग विना यथाजातरूप घारे नहीं होता। इसलिये बालकके समान नम्न व निर्विकार होजाना चाहिये । प्राकृतिक जीवनमें आजाना चाहिये । तिल तुप मात्र परिषद नहीं रखना चाहिये । शरदी, गर्मी, हाँस, मच्छर आदि बाईस परीसहकि सहने की शक्ति प्राप्त करना चाहिये। ऊंचा आत्मल्यान, निर्भय व निर्विकार हुये बिना ही नहीं सत्ता | जहाँ तक काम विकारकी वासना न मिले. स्त्री पुरुपका भेद न मिटे, लज्जाका भाव दिलसे न हटे वहां तक इस ऊंचे पत्रको ग्रहण न करें |
आवक में रहकर एकदेश आत्मल्यानका साधन करें। निवां का साक्षात् उपाय निर्बंध पद ही है। इस ही पदको धारकर सर्व ही प्राचीनकालके तीर्थंकरांने व महात्माओंने उक्त प्रकारका आत्मध्यान करके ध्यान व शुध्यान करके निर्वाण लाभ किया था । सर्व चिंताओंने रहित एकाकी होना जरूरी है। अपने आत्माको एकाकी समझना चाहिये | इसका संयोग हुलसे अनादिकालका होने पर भी यह बिलकुल उससे निराला है । यह शुद्ध चैतन्यमय मूर्ति है। न तो कमका न शरीरादिका न रागादि भावकर्मीका कोई सम्बन्ध इस आत्मासे है न अन्य आत्माओं का कोई सम्बंध है। हरएक आमाकी सत्ता निराली है, में एकाकी सदास हूं व रहूंगा । एकत्वकी भावना सदा भावे । पांचों इंद्रियोंके विषयोंका पूर्ण विजयी होना चाहिये ।
जहाँतक इंद्रियोंके विषयों की लालसा न टूटं बहां तक गृहस्थ में स्त्रीसहित रहकर ही यथाशक्ति आत्माका मनन करें | जब लालसा विपयोंकी न रहे, मनसे विपच, विकार निकलजावे व अतिंद्रिय
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३००] योगसार टीका। आत्मीक सुस्वका प्रेम बढ़ जाये व अभ्यास भी ऐसा होजावे कि आत्मीक रसके स्वाद विना और सब विपय रसके स्वाद फीके भामे सत्र ही वह जिन या जितेंद्रिय होकर आत्माका मनन कर सत्ता है। मनकी शुद्धि हो ! मनमें से रागदेव मोदको मालाने तटागनाले रसका रसिक मनको बनाया जाये। सर्व ही अपभ्यानोको दूर किया जावे । आर्त रौद्रभ्यानोंसे मनको निर्मल किया जाये । मनमें सहज वैराग्य प्राप्त किया जावे, कष्ट व उपसर्ग आनेपर मनको सहनशील बनाया जाये।
क्रोध, मान, माया, लोभक आक्रमणामे मनको बचाया जावे, वचनीका प्रयोग केवल आवश्यक धर्मोपदेशों में किया जावे । मौन रहनेकी आदत डाली जाये | स्त्रीकथा, भोजन कथा, देशकथा, नृपति कथामे विरक्त रहा जावे। भापा मीठी अमृत ममान स्वनर प्रिय धर्मरस गर्मित बोली जावे, बचन शुद्धि पाली जावे ।
शारीरको शुद्ध निर्विकार रक्खा जायेस्नानादि त्यागकर शृङ्गार व शोभा रहित व शान रऋग्वा जावे | निश्चयग्ने रस नीरम आहार जो शत हो उसको ऊनीदर लेकर शरीरको रोग रहित व हलका रवला जावे। इस तरह मन, वचन, कायको शुद्ध रखके निर्जन स्थानों में तिकर एकाकी शुद्ध अतीन्द्रिय आत्माका मनन या अनुभव किया जावे | इसी उपायस मानकी सिद्धि होगी।
आत्मानुशासनमें कहा हैमुहुः प्रसार्य सज्ज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रात्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मचिन्मुनिः ॥ १७७ ।।
भावार्थ- आत्मज्ञानी मुनिको योग्य है कि वारवार सभ्यग्ज्ञानको भीतर फैला रखें । पदार्थोंको जैसाका तैसा देखने हुए, -रागडेप न करते हुए समताभावस आत्माको ध्यावे |
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योगसार टीका ।
सहज स्वरूप में रमण कर ।
जइ बद्र सुकउ मुणहि तां धियहि भिंतु । सहज-सरूवड़ जड़ रमहि तो पावहि सिव सन्तु ॥ ८७ ॥
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अन्वयार्थ (जब सुक्क मुणा ) यदि तु बन्ध मोक्ष की कल्पना करेगा ( तो भिंतु बंधियहि ) तो निःसन्देह तु बगा (जड़ सहज-सरुबइ रमहि ) यदि तू सहज स्वरूप में रमण करेगा (तो सन्तु मित्र पावदि ) तो शांत मोक्षको पायेगा |
भावार्थ – निर्वाणका उपाय एक शुद्धात्मानुभव है, जहां मनके विकल्प या विचार सत्र बन्द मी जाते हैं, काय स्थिर होती हैं, वचन नहीं रहना है वहां ही स्वानुभवका प्रकाश होता है । इसीको निर्विकल्प समाधि कहते हैं । यहीं आत्मस्वभाव है, यहीं यथार्थ मक्षिका मार्ग है, यहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रको एकता है, यहीं रागदेष रहित वीतरागभाव है, यहीं परम समता है, यही एक अद्वैतभाव है, यही संवर व निर्जरा तत्व है ।. अतएव ज्ञानीको व्यवहारनयके विचारको तो बिलकुल छोड़ देना चाहिये ।
व्यवहारनयसे ही यह देखा जाता है कि आत्मामें कर्मोका बन्ध है, आत्मा के साथ शरीर हैं । आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ मात्र हैं। आत्मा अशुद्ध है, इसको शुद्ध करना है। मोक्षका लाभ करना है। हम चौथे, पांचवे, छठे या सातवे गुणस्थान में हैं । गुणस्थानोंकी उन्नति करके अरहन्त व सिद्ध होना है। हम मनुष्यगति में हैं, हम सेनी पंचेन्द्रिय है, त्रस हैं, मन वचन काय योगोंके धारी हैं, हम पुरुषवेदी हैं, हमारे कषाय भाव
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३०२]
योगसार टीका |
हैं, हमारे गनि श्रुत ज्ञान हैं, हमारे असंयम या देश संयम या सकल संयम है, हमारे चक्षु या अचक्षु बहीन है, हमारे शुभ या अशुभ देश्या है. हम भव्य हैं, हम सभ्य हैं, हम सैनी हैं. हम आहारक है । इसतरह गुणस्थान तथा साना स्थानोंका विचार या कर्मो स्वभावका विचार व चार प्रकार बंधका विचार था -संवर व निर्जराके कारणोंका विचार यह सब व्यवहार नयके द्वारा विचार चंचल है, शुभयोगमय है अनएव बंधके कारण हैं। क्योंकि इन विचारोंमें संसार दशा त्यागने योग्य व मोक्ष दशा प्रणयोग्य भासती है । संसारसे पत्र मोक्ष है। वीतराग झाको पनि लिये व्यवहार नयके सर्व विचारोंको बंद रखके केवल निश्रय नयके द्वारा अपनेको व जगतको देखना चाहिये, तब यह जगत छह शुद्ध ज्योंका समुदाय दीखेगा। सर्व दी परमाणु रूप मुगल अबंध दोगे व सर्व ही जीव शुद्ध वीतराग देखेंगे। इस तरह देखनेसे राग द्वेपके कारण सर्व ही दृश्य दृष्टिमें निकल जायगे । समताभाव आजायगा । फिर केवल अपने ही आत्माको द्रव्यरूप शुद्ध देखें ।
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जहां तक विचार है वहूति मनका विकल्प है। जब विचार करते करते मन थिर होजायगा तब सहज स्वरूपमें रमण होजायगा स्वानुभव होजायगा । इसीसे बहुत कर्मोकी निर्जरा होती है। इसीके लाभको मोक्षमार्ग जानो । जब जब स्वानुभव है तब तय मोक्षमार्ग है | स्वानुभव के सिवाय मनके विचारको व शास्त्र पाठको या काय वर्तनको या महात्रत अत्रत पालनको मोक्षमार्ग कहना यथार्थ नहीं है, व्यवहार मात्र है। जैसे तलवार सोनेकी स्थान में है उसको सोनेकी तलवार कहना ।
लाल रंग के मिलनेसे पानीको लाल कहना, अझिके संयोगले
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योगसार टीका । ।३०३ 'पानीको उगा कहना, धोके संयोगस घड़को का बड़ा कहना,वैसे मन, वचन, कायको क्रियाको मानमार्ग कहना व्यवहार है। साधक 'अवस्था यह स्वानुभव बहुत अल्पकाल रहता है । वनवृषभनाराच सहननके धारी बदि मुहूतल कुछ कम देर तक होजाये वो चार पानी का बंधन कर आये कालानका लान होजावे ।
स्वानुभवक छुटनेपर साधकको नियनय या द्रव्यार्थिकनयके द्वारा शुद्ध नन्धका विचार करना चाहिये | अदि उपयोग न जमे तो व्यवहारनय या पर्यायाधिकनायक द्वारा सात लत्त्र, बारह भावना, दश धर्म, गुणस्थान, मार्गणा आदिका विचार कर, शास्त्र पहें, उए. देश द आदि व्यवहार धर्मको करे, परंतु भावना यही रन कि मैं शीघ्र ही स्वानुभवमें पहुँच जा। इस उपाय जो कोई तन्वज्ञानी सहजात्म म्वरूपको मनन करेगा वही परम शांत निर्वाणक सुखका भाजन होगा। समयसारमें कहा है
जह बंध चिन्ततो बंधणबद्धो ण पादि विमोक्ख । तह बंध चितन्नो जीवोविं ण पावदि विमोवं ॥३११॥ जह बंध भितणय बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्रय । तह अंधे भित्ताणय जीवो संपावन्दि विमोक्रव ॥ ३१३ ॥
भावार्थ-जैसे कोई बंधनमें बंधा है वह अंधकी चिंता किया करे तो चिंता मात्र यह धसे नहीं छूट सक्ता वैसे ही कोई जीत्र यह चिना करे कि यह कर्मबन्ध है, कर्मसे मुक्त होना है वह इस चिंतासे मुक्त नहीं होगा । जैसे बंधन में बंधा पुरुष बंधको काट करके ही बंधसे छूटेगा वैसे ही भव्य जीव बंधको छेद करके ही मुक्त होगा। बंधके छेदका उपाय एक स्वानुभव है ।
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३०४] योगसार टीका ।
मम्यग्दृष्टि सुगति पाता है। सम्माइट्री-जीवर दृग्गई-गमणु ण होई। जइ जाइ वि तो दोसु पवि पुव्य-किउ खवणेइ ।।८८||
अन्वयार्थ -- ( सम्माइट्टी-जीव दुगाई-गमणु ण होइ। मम्यष्टी जीवका गमन ग्बोटी गतियों में नहीं होना है (जइ जाइ वि तो दोसु णाव ) यदि कदाचित खोटी गति जावे तो हानि नहीं पुच-किस माइ) गई पर्मन कर्मदा भय करता है।
भावार्थ-आत्माके शुद्ध स्वरूपकी गाढ़ रुचि व अनिद्रिय सुखको परसप्रेम रखनेवाले भव्यजीत्रको सम्यग्दृष्टि कहते हैं वह मोक्षक नगरका पथिक बन जाना है | संसारकी तरफ पीठ रखता है उनके भीतर आठ लक्षण या चिह्न प्रगट होजाले हैं
संबो णिटवेओ णिदा गरुहा उपसमाभक्ति । बन्धनं अणुकंपा गुणद्ध सम्मन जुत्तम्स ॥ (१) संवेग-धर्ममें प्रेम |
(२) निवेद-मंझार शरीर भागांसे वैराग्य । संसारके भीतर चारी गनिमें आकुलता है, यह शरीर कारागार है, इन्द्रियोंके भोग अग्निकारी व नाशवन्त हैं।
(३) निन्दा
(४) गर्दा-आत्मबलकी कमीम व कापायके उदयमे लाचार होकर जो उन लौकिक कार्योंमें प्रवर्तना पड़ता है व आरंभादि करना पड़ता है उसीके लिये वह अपने मनमें अपनी निंदा करता रहता है व दूसरोसे भी अपनी कमीकी निंदा करना रहता है । वह तो निर्वाणके लाभको ही उत्तम जानता है । वहांतक अपनी मन, वचन, कायकी क्रियाको त्यागनेयोग्य समझता है ।
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योगसार टीका । . [३०५ (५) उपशम-शांत भाव सम्यक्तीके भीतर रहता है । शान. पूर्वक हरएक काम करता है | आत्मानुभक्के प्रतापमे सहज शांत भाव जागृत रहता है | एकदम क्रोधादिमें नहीं परिणमला है, विपरीत कारणोंपर कमौका उदय फल विचार लेता है ।
(६) भक्ति- सम्यक्ती जिनेन्द्रदेव, निथ गुरु, जिनवाणीको गाढ़ भक्ति रखता है । मनुति, बंदना, पुजा, स्वाध्याय किया करता है। उनको मोक्षका सहकारी जानना है।
(5) वात्सल्य-साधी भाई 4 बहनोंपर धार्मिक प्रेम रखता है, धर्मभावसे उनकी सेवा करता है।
(८) अनुकम्पा-प्राणी मात्रपर दयाभाव रखता है। मन, वचन, कायसे किसी प्राणीको कष्ट देना नहीं चाहता है | शक्तिको न छिपाकर प्राणीमात्रका हित करता है।
किसी प्राणीके साथ अन्यायका व्यवहार नहीं करता है । ऐसा तत्वज्ञानी जीव दुर्गति लेजानेवारे पाप कर्मीको नहीं बांधना हैं |
मिथ्यात्व गुणस्थानमें बंधनेवाली १६ सोलहका, अर्थात् १मिथ्यात्व, २-टुंडक संस्थान, ३-नपुंसक वेद, ४-असंप्राप्र सहनन, ५-एकेन्द्रिय, ६-स्थावर, ७-आनाप. ८-मूक्ष्म, ५-साधारण, १८अपर्याप्त, ११-ईन्द्रिय, १२-तेन्द्रिय, १३-चौन्द्रिय, १४-नरकगनि, १५-नरकगत्यानुपूर्वी, १६-नरक आयु का ।
तथा सासादन गुणस्थान तक बंधनेवाली २५ पनीसका अर्थात् ४ अनंतानुबंधी कपाय, ५ स्त्यालगृद्धि, ६ निद्रा निद्रा, ७ प्रचला प्रचला, ८ दुभंग, ९ दुम्बर, १० अनादेय, ११-१४ चार संस्थान न्यग्रोधादि, १५-१८ चार संहनन वनताराचादि, १९ अप्रशस्त विहायोगति, ५० स्त्रीवेद, २१ नीच गोत्र, २२ तिचगति, २३ सिर्यचगत्यानुपूर्वी, २४ तिर्यंच आयु. २५ उद्योत. की। इसतरह ४१
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३०६ ]
योगसार टीका |
प्रकृतियोंका बंध नहीं करता है । वह तो देवगति या मनुष्यगति में ही जन्म लेता है। यदि निच या मनुष्य सम्यक्ती हुआ तो स्वर्गका देव होता है | यदि नारकी व देव सम्यक्ती हुआ तो मनुष्य होता है ! सम्यक्त लाभ होने के पहले यदि मनुष्य या निर्यचने नरकआयु च तिर्यंच आयु या मनुष्यायु बांधली हो तो सम्यक्त सहित पहले नर्क, व भोगभूमि चि च मनुष्य जन्मता है। वहां भी समभावमे दुःख सुख भोग लेता है । सम्यक्ती सदा ही सुखी रहता है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा हैसम्यदर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ् नपुंसकखत्वानि । दुष्कुरुविकृतारूपायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यवृत्तिकाः ॥ ३५ ॥ ओजस्तेजोविद्या वीर्ययशोवृद्धि विजय विभवमनाथाः ।
महाकुलाः महार्थां मानव तिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥ ३६ ॥ भावधि - सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव व्रत रहित होनेपर भी ऐसा पाप नहीं बांधते जिससे नारकी हो, तिथेच हो, नपुंसक हो, स्त्री हो, नीच कुल में पैदा हो, अंगहीन हो, अल्पायु हो, या दरिद्री हो ।
सम्यग्दर्शनसे पवित्र जीव ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि व विजयको पानेवाले महाकुलवान, महाधनवान मनुष्यों में मुख्य होते हैं ।
सम्यग्दृष्टीका श्रेष्ठ कर्तव्य |
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अप्प - सरूवहूँ जो रमइ छंडिवि सहु वबहारु । सो सम्माट्ठी हव लहु पावड़ भवपारु || ८९ ॥
अन्वयार्थ -- (जो सहु षवहारु छंडिवेि ) जो सर्व व्यवहा
को छोड़कर ( अप्प - सरू रमइ ) अपने आत्मा के स्वरूपमें रमण
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योगसार टीका ।
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करता है ( सो सम्माइडी हवइ ) वही सम्यग्दृष्टी है ( लहु पावइ भवपार ) यह शीघ्र ही संसारसे पार होजाता है ।
भावार्थ - जिसको निर्वाण ही एक ग्रहणयोग्य पद दिखता है, जी चारों गतिको सर्व कर्मजनित दशाओंकी त्यागनेयोग्य समझना है, जो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वैचिके लाभको परम लाभ स झता है, जो निश्रयसे जानना है कि मैं सर्व शुद्ध सिद्ध सम हूँ व्यवहार दृष्टिमें कर्मका संयोग है सो त्यागने योग्य है, जो संसार वासमें क्षण मात्र भी रहना नहीं चाहता है वही सम्यग्दृष्टि है । वह जानता है कि निर्वाणका उपाय मात्र एक अपने ही शुद्ध आत्माके शुद्ध स्वभाव में रमण है । आत्मानुभव हैं। उसका निश्रितपने अभ्यास तब ही संभव है जब सर्व व्यवहारको व्याग दिया जाये, गृहस्थ प्रबंधको हटा दिया जाये !
स्त्री पुत्रावि कुटुम्बकी चिंताको मेट दियाजाये । धन, धान्य, भूमि मक्कानादि परिग्रहको त्याग दिया जाये । तीर्थंकर के समान यथास्यात रूप नन दिगम्बर पद धारण किया जाये, जहां बालकके समान सरल व शांत भाव में रहकर निर्जन स्थानोंमें आत्माका अनुभव किया जावे । साधुप में उतना ही व्यवहार रह जाता है जिससे भिक्षावृत्ति द्वारा शरीरका पालन हो व जब उपयोग आत्मीक भाव में न रमे तत्र शुद्धात्मा स्मरण करानेवाले शास्त्रोंके मनन व धर्म में स्तुति वंदना पाठादि पड़ने में उपयोगको रखा जावे ।
व्यवहार धर्मव्यात व धर्मकी प्रभावना करना इतना व्यवहार रहता है। आहार विहार व व्यवहार धर्मको करते हुए साधु इस व्यवहार से भी उदास रहते है आत्म वीर्यकी कमी से वर्तते हैं। जैसे२ आत्म ध्यानकी शक्ति बढ़ती जाती है वैसे २ यह व्यवहार भी छूटता जाता है, तौभी साधुपदमें इतनी अधिक आत्मरमणताका अभ्यास
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३०८] योगसार टीका। होजाता है कि एक अंतर्मुहूर्नसे अधिक आत्मानुभवसे बाहर नहीं रहता है।
___ साधुके जपताना उपशम या पतागीर न नटे. हाल सातवां दो गुणस्थान होते हैं। हगएकका काल एक अन्तम(तसे अधिक नहीं है। व्यवहार धर्म व क्रियाका पालन छटे गुणस्थान में होता है । आहार, विहार, निद्राका, व निहारका कार्य छठे गुणस्थानमें होता है। यदि इन व्यवहार कार्यों में अन्तमुहतने अधिक समय लगे तो बीच बीच में सातयां गुणस्थान ब्राणभर के लिये आत्मानुभवरूप होजाता है।
सम्यग्दष्ट्रीय गृह त्याग व साधुपदका प्रण नब ही होता है जब उसके भीतर प्रत्याख्यानावरण कषायके उदय न होनेपर सहमा वैराग्य जग जाता है । वह दृढ़ता पूर्वक विना परिणामोंकी उमता प्राप्त हुए किसी ऋची क्रियाको धारण नहीं करता है। जबतक सहज वैराग्य आवे बह परिणामोंके अनुसार श्रावक पदके भीतर रहकर यथासंभव दशन प्रतिमासे लेकर उद्दिष्टत्याग ग्यारहवीं प्रतिमा तक चारित्रको पालकर आत्मानुभवके लिये अधिक २ समय निकालता है । क्रम क्रममे व्यवहारको घटाता है व निश्चयमें रमणको बढ़ाता है।
यह श्रावकका पंचम गुणस्थान भी तब ही होता है जब सम्यक्तीके भीतर अपल्यास्यान कपायके उदय न होनेपर एकदेश सहज वैराग्य पैदा हो जाता है । यदि ऐसा भाव न हो तो यह चौथे गुणस्थानमें ही रहकर यथासम्भव समय निकालता है। जब वह सर्व व्यवहार मन, वचन, कायकी क्रियाको छोड़कर शुद्धात्माका मननं करके स्वानुभव करता है, व्यवहारकी चिंता अधिक होनेसे वह अधिक समय स्वानुभवमें नहीं ठहर सक्ता है। प्रयत्न एक यही रहता है कि स्वानुभव दशामें अधिक रहूं। कषायके उदयले व
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योमसार टीका। [३०९ आत्मबीर्यकी कमीसे वह लाचार हो जाता है । सम्यग्दृष्टीका लक्ष्य एक निर्वाण ही हो जाता है। वह अवश्य निर्वाणपुरमें पहुंच जायगा :
देवसनाचार्य तत्वसारमें कहते हैंसहइ ा भन्चो मोक्ख जावइ परदव्ययावडो चित्तो। उगतवपि कुणतो सुद्धे. भावे लहुं ला ॥ ३३ ॥
भावार्थ-जबतक चित्त परद्रव्यके व्यबहारमें रहना है व मंलग्न है, तबतक भत्र्यजीव कठिन २ तप करता हुआ भी मोक्षको नहीं पाता है परंतु शुद्ध आत्मीक भावोंका लाभ होनेपर वह शीघ्र ही मोक्षको पालेता है।
सम्यक्ती ही पंडित व मुखिया है। जो सम्मत्त-पहाण बुहु सो तइलोय-पहाणु । केवल-पाण वि लहु लहइ सासय-सुक्ख-णिहाणु ॥१०॥
अन्वयार्थ-(जो सम्मत्त-पहाण) जो मम्यग्दर्शनका स्वामी है (बुह) वह पंडित है (सो तइ लोय पहाणु ) वही तीन लोकमें प्रधान है : मासय सुक्ख णिहाणु केवल-णाण वि लहु लहइ) सो अविनाशी मुख निधान केवलज्ञानको शीत्र ही पालेता है।
भावार्ध-सम्यग्दर्शन सर्व गुणोंमें प्रधान है। इसके होते हुए जान सम्यग्ज्ञान व चारित्र सम्यक्चारित्र होजाना है। जैसे के अंक सहित बिन्दी सफल होती है, नहीं तो निष्फल, है से सम्यान सहित ज्ञान व चारित्र मोक्षकी तरफ लेजानेवाले हैं। यदि सम्यक्त म हो तो केवल पुण्य बांधके संसारके भ्रमणके ही कारण हैं । - ..
जैसे मूल विना वृक्ष नहीं, नीव विना घर नहीं वैसे ही सभ्यक्तके वीज बिना धर्मरूपी वृक्ष नहीं उगता है। जिसको अनेक
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३१० ]
योगसार टीका |
शास्त्रोंका ज्ञान हो, परंतु सम्यक्त न हो तो वह ज्ञानी पंडित नहीं है । सम्यक्त के होते हुए हो वह ज्ञानी है, उसका शास्त्र ज्ञान सफल है । द्वादशवाणीका सार यही है जो अपने आत्माको परद्रव्यों परभावोंसे भिन्न व शुद्ध द्रव्य जाना जावे व शंकारहित विश्वास लाया जावे | यही निश्चय सम्यग्दर्शन है ।
तीन लोककी सम्पदा सम्यग्दर्शनके लाभके समान कुछ नहीं है । एक नीच चाण्डाल पुरुष यदि सम्यग्दर्शन सहित हैं तो वह पूज्यनीय देव हैं, परंतु एक नवम अवधिकका अहमिद सम्बत्क्तके बिना पूज्य नहीं हैं | एक गृहस्थ सम्यग्दर्शन सहित हो तो वह उस मुनिसे उत्तम है जो मिथ्यादर्शन सहित चारित्र पालता है। सम्यग्दशेन सहित नरकका बास भी उत्तम है। सम्यग्दर्शन रहित स्वर्गका वास भी ठीक नहीं है ।
सम्यग्दर्शनका इतना महात्म्य इसीलिये कहा गया है कि इसके लाभमें अनादिकालका अन्धेरा मिट जाता है व प्रकाश होजाता है । जो संसार प्रिय भासता था वह त्यागनेयोग्य भासने लगता है । जो सांसारिक इन्द्रिय सुख ग्रहण करनेयोग्य भासता था वह त्यागने योग्य भासता है । जिस अतीन्द्रिय स्वाधीन सुखकी खबर ही नहीं श्री उसका पता लग जाता है व उसका स्वाद भी आने लगता है । सम्यग्दृष्टके भीतर सखा ज्ञान होता है कि मेरा आत्मद्रव्य परम शुद्ध ज्ञानादृष्ट्रा परमात्मस्वरूप है । मेरी सम्पत्ति मेरे हो अविनाशी ज्ञान दर्शन सुखवीर्यादि गुण हैं। मेरा अहंभाव अब अपने आत्मा में हैव ममकार मात्र अपने ही गुणोमें हैं। पहले मैं कर्मजनित अपनी अवस्थाओं को अपनी मानता था कि मैं नारकी हूं तिर्येच हूं, मनुष्य हूं, देव हूं। मैं सुन्दर हूं. असुन्दर हूं, रोगी हूं, निरोगी हूं. कोथी हूं, मानी हूं, मायावी हूं, लोभी हूँ, स्त्री हूं, पुरुष हूं, नपुंसक हूं, शोकी
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३११ हूं, भयवान हूं, दुःस्त्री हूं, सुखी हूं, पुण्यका कर्ता हूं, पापका का हूं, परोपकारी हूं, दानी हूं, तपस्वी हूं, विद्वान हूं, प्रती हूं. श्रापक हूं, मुनि ई, राजा हूं, प्रधान हूं। इसी तरह पर वस्तुओंको अपनी मानकर ममकार करता था कि मेरा धन है, बेन है, मकान है, ग्राम है, राज्य है, मेरे वस्त्र हैं, आभूषण है, मेरी ली है. मेरे पुत्र पुत्री है, मेरी भगिनी हैं, मेरी माना है, 'मेरा पिता है, मरी नेना है, मेरे हाथी घोड़े हैं, मरी पालकी है | इस अहंकार ममकारमें अन्धा होकर रात दिन कर्मजनित संयोगों में ही क्रीड़ा किया करता था । इप्टके ग्रहण व अनिष्टके त्यागमें उद्यमी था । इस अज्ञानका नाश होते ही सभ्यतीका परभावोंमें अहकार व परपदार्थों में ममकार बिलकुल दूर होजाता है। ___ यह ग्रहस्थीमें जमतक रहता है तबतक काँक उदयको उदय मानकर सर्व गृहस्थ संबंधी लौकिक क्रियाको अपने आत्मीक कर्तव्यसे भिन्न जानता है । लिा नहीं होजाता है। भीनर वैरागी रहता है । कषायका उन्य जब शमन होता है तब गृह सागकर साधु हो जाता है । सम्यक्ती जीव सदा ही भेद विज्ञानके द्वारा अपने शुद्धात्माको भिन्न भ्याना है | धीरे २ आत्माको निर्मल करता है । सम्यक्ती माधु ही आपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर मोहका व शेष झानावरणादिका पूर्ण क्षय करके कंवलज्ञानी अरहत परमात्मा होजाता है तब अविनाशी अनंत सुखका भोगनेवाला होजाता है । सम्यक्तके समान कोई मित्र नहीं है, यही समा मित्र है जो संसारके दुःखसे छुड़ाकर निर्माणमें पहुंचा देता है । आत्मानुशासन में कहा है--
समबोधवृत्ततपसां पापाणम्येब गौरवं पुंसः । पूज्यं महामणरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ।। १५ ॥ भावार्थ-शांत भाव, ज्ञान, चारित्र, तपका मूल्य कंकड़ पाषा
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३१२]
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के समान सम्यग्दर्शनके बिना तुच्छ है । यदि सम्यग्दर्शन सहित हो तो उनका मूल्य महान रत्नके समान होजाता है ।
आत्म में स्थिरता संवर व निर्जराका कारण है।
अजर अमर गुण-गण-पिलर जहि अप्पा थिरु ठाई । सो कम्मेहिण धिय संचिय - पुच्च विलाइ ॥ ९१ ॥
अन्वयार्थ - ( जहि अजर अमर गुण-गण- णिलड अप्पा थिरु ठाई ) जहां अजर अमर गुणांका निधान आत्मा स्थिर होजाता है ( सो कम्मोह ण बंधिय ) वहां वह आत्मा नवीन कर्मोसे नहीं चैता है ( पुव्व संचिय विल) पूर्व में संचितकमका क्षय करता है।
भावार्थ - यह आत्मा निश्चय जन्म, जरा, मरणम रहित अविनाशी है तथा सामान्य व विशेष गुणोंका समूह है। कर्मोंस शरीरोंसे भिन्न जब अपने आत्माको देखा जाता है तो वह शुद्ध ङी दिखता है । 'जम मिट्टी सहित पानीको जब पानी स्वभावकी अपेक्षा देखा जाये तो पानी शुद्ध ही दिखता है । दविज्ञानकी शक्तिम अपने आत्माको कमसे भिन्न व कर्मद्रयजनित भावों भिन्न सहज ज्ञान, दडीत. सुख, श्रीका सागर निरंजन परमात्मादेव ही देखता चाहिये। को ऐसा ही श्रद्वान होता है।
इस अज्ञान व ज्ञान से सम्यग्दृष्टी जीव अपने आत्मामें स्थिर होनेका पुरुषार्थ करता है। जबतक स्वानुभव या आत्मामें थिरता प्राप्त करता है तबतक पूर्व किमकी निर्जरा बहुत होती है । गुणस्थानांकी रीतिकं अनुसार वैध नियमित प्रकृतियोंका होता है । तथापि घातीय कर्मोंमें अनुभाग बहुत अन्य पड़ता है । अधानी में पाप कर्म का बंध नहीं होता है. पुण्य कर्मीका ही होता है । उनमें
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[ ३१३
अनुभाग अधिक पड़ता है, स्थिति आयुके सिवाय सात कमांकी
कम पड़ती है ।
बंधका उदय सूक्ष्मसपराय दश गुणस्थान तक चलता है । क्योंकि arts लोभ कषायका उदय है। यहतिक सपरायिक आ है । यहतक उपयोगकी चंचलता है। उपशांत कषायका काल अन्तर्मुहूर्त है। यहां वीतरागता है। श्रीणकपायमें भी वीतरागता है, सयोग केवली में भी वीतरागता है । इन तीनों गुणस्थानों में योगों की चंचलता है। इसमें ईयापथ व एक सातावेदनीय कर्मका होता
है । कर्म आते हैं, फल देकर चले जाते हैं ।
अविचार नामका
अन्तर्मुहूर्त में ज्ञाना
I
जहां आत्मामें थिरता है वहां विशेष कर्मकी निर्जरा होती है। ओणमोह गुणस्थान में विरारूप एक वितर्क दूसरा शुभ्यान पैदा होजाता हैं तब एक ही चरण, दर्शनावरण व अन्तराय कर्मकी निर्जरा होजाती है । और यह आत्मा अरहन्त परमात्मा होजाता है । तेरहवें व चौदहव आत्मामें परम स्थिरता है इससे बंध नहीं होता है। पुरातन कर्म झड़ने जाते हैं | चौदहवें अन्तमें यह आत्मा कर्म रहित होकर सिद्ध होजाता है ।
-
आत्मामें रिता होनेका काम चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाता है | वहां स्वरूपाचरण चारित्र है जो अनंतानुबंधी कषायके उदय न होनेपर प्रगट होजाता है ।
पांचवे देशसंयम गुणस्थान में अप्रत्याख्यान कपायका उदय नहीं है इससे स्वरूपाचरणमें अधिक स्थिरता होती है। व निर्मलता भी होती हैं। पंचम गुणस्थान में ग्यारह श्रेणियां हैं, उनमें चढ़ते हुए जैसे २. प्रत्याख्यान कषायका उदय मन्द होता है वैसे २ स्वरूप में स्थिरता अधिक होती जाती है ।
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योगसार टीका। प्रमत्त गुणस्थानमें प्रत्याख्यान कपायका सदय नहीं रहता है तर और भी अधिक स्वरूपावर गो शिर ली। अपनों संचलन कपायका मंद उद्य है तब प्रमाद भाव रहित अधिक निश्चलता होती है | अपूर्वकरण गुणस्थानमें और भी संज्वलन मंट पड़ जाता है तन अधिक स्थिरता होती है । अनिवृत्तिकरणमें बहुत ही मंद कपाय होती है तब और भी अधिक श्रिरता होती है ।
सूक्ष्मसापरायमें केवल सुक्ष्म लोभका उदय है. अधिक थिरता व शांति है। इसतरह जैन जैसे राग द्वेप विकार दूर होते जाते हैं मे चैस आत्मामें स्थिरता बढ़ती जाती है । शुद्धात्मा स्त्रभावमें स्थिर होना या आत्मीक आनंदका पान करना ही एक उपाय है, जिसस संबर व निर्जरा होकर मोक्षका उपाय घनता है। इसलिये मुमुक्षुको पुरुषार्थ करके अपने ही शुद्धात्माकी भावना नित्य करना चाहिये । इष्टोपदेशमें कहा है--
अविद्याभिदु ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । तत्पष्टव्यं तदेष्टन्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ ११ ॥
भावार्थ-मोक्षके प्रेमियोंका कर्तव्य है कि वे आत्माकं ही सम्बन्धमें प्रश्न करें, उसीका प्रेम करें व उनीको देखें व अनुभव करें। का आत्मज्योति अनानस रहित है. परम ज्ञानमय है व सबसे महान है।
आत्मरमी कमोंसे नहीं वन्धता। जह सलिलण ण लिप्पियइ कमलणि-पत्त कया वि । तह कम्मेहिं ण लिप्पियइ जइ रइ अप्प-सहावि ॥१२॥ अन्वयार्थ-(जह कमलाण-पत्त कया वि सलिलण ण
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योगसार टीका।
[३१० लिप्पियइ ) जैसे कमलिनीका पत्ता कभी भी पानीस लिप्त नहीं होता (तह जइ अप्प-सहात्रि रह कम्माहि ण लिप्पियट) वैसे ही यदि आत्मीक स्वभावमें रत हो तो जीव कर्मोम्मे लिप्त नहीं होता है।
भावार्थ-आत्मामें लीन भव्यजीव मोक्षमागी है। रत्नत्रयकी एकताको रखता हैं। वीतराग व समभावमें लीन होता है | रागंतष बिहीन होता है। इससे काम नहीं बंधता है | बंधनाशक वीतराग भात्र है। बंधकारक रागद्वष मोह है । मोह मिथ्यात्य भावको कहते हैं | रागद्वेष कषायको कहते हैं । सम्यक्ती चौथे गुणस्थानमें हो तो अपने आत्मरमणताकी गाद श्रद्धावा ४१ इकनालीस प्रकृतिका बंध नहीं करता है, उनको हम पहले गिना चुके हैं । सम्यक्ती नरक, नियंचगति लेझानेवाली कर्मप्रकृतियों को नहीं बांधता है। फिर जैसेर गुणस्थानोंमें चलता है. आत्मरमणताकी शक्ति विशेष प्रगट होजाती है, तब और अधिक बंधको घटाता जाता है । बंधकी इससे १२० प्रकृत्तिये गिनी गई हैं।
ज्ञानावरणीयकी ५ + दर्शनावरणीयको ९+ वेदनीयकी २+. मोहनीयकी २६ ( सम्यक्त व मिश्रका बंश्च नहीं होता है) + आयुकी ४ + नामकी ६७ पांच बंधन, पांच संवान न गिन पांच शरोरके साथ मिला दिये वर्णादि २० की अपेक्षा चार ही जाने इस तरह १०+१६-२६ कर्म ९३ में घट गार + गोत्रकी २ + अन्तरायकी ५-१२०-ये प्रकृतियां नीचे लिखे प्रकार गुणस्थानों में शुच्छित्ति पाती हैं | जिन गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति है वे प्रकृतियां आगेके गुणस्थानों में नहीं बंधती है---
गुणस्थान व्युन्छित्ति संख्या (२) मिथ्यात्व-१६-मिध्याल्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसक वेद,
असं संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्म,.
नाम
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योगसार दीका। साधारण, अपर्याप्त, यइंद्रिय, तेद्रिय, चौइंद्रिय,
नरकगति, नरक गत्या०-नरक आयु-१६ । (२) सासादन-२५ अनन्तानुबन्धी ४ कषाय, स्त्यानगृद्धि,
निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला, दुर्भग, दुस्वर, . अनादेय, नग्रोधादि ४ संस्थान, वज्रनाराचादि ४ संहनन, अप्रशस्त विज्ञायोगति, स्त्री वेद, नीचयोत्र, तिचगति, तिथंच गत्या,
उद्योत, नियंच आयु-२५ (३) मिश्र . (४) अविरत सम्यक्त-१८ अप्रत्याख्यान कषाय ४, वनपभ
नाराच संहनन, औदारिक शरीर, औं० अंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगत्या,
मनुष्य आयु-१० (५) देशविरत- ४-प्रत्याख्यान कफाय ४ (६) समत्वविरल-६-अथिर. अशुभ, असातावदनीय, अयश,
अर.नि, शोक-६ (५) अप्रमत्चविरत-१ दवा (८) अपूर्वकरण-२६ निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्र
शम्न, विहायोगनि. पंचेन्द्रिय, तेजस, कार्मण, आहारक शरीर, अहारक अंगोपांग, समचतुरस्त्र संस्थान, देवगति, देवगल्या, वैकिरिक शरीर, वैम्झियिक अंगोपांग, वर्णादि ४, अगुगलघु, उपघात, परप्रात, उश्वास, प्रस, पादर, पर्यात प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेश, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा=३६
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यामसार टीका ।
(९) अनित्तिकरण-५, मुंवेद, सज्वलन कपाय ४-५ (१०) सूक्ष्मसापराय-१६, ज्ञानावरण ५, दर्शना० ४, अन्तराय.
५. अश, उच्च गोत्र=१६ (११) उपशांत कषाय-
५ ० (१२) क्षीणकषाय--. (१३) सयोगकेवली-१ साताबेदनीय ।
१२ आत्मानुभवफे प्रतापमे कमवन्ध घटता जाता है ! अयोगकेवली पूर्ण आत्मरमी है। योगोंकी चंचलता नहीं है इससे कोई कर्मका बंध नहीं होता है | समयसारकलशमें कहा है
रागद्वेपविमोहानां झानिनो यदसंभवः । तत एव न बन्धो स्य ते हि बन्धस्य कारणम् ॥ ७-५॥
भावार्थ---ज्ञानीकै गग द्वेष मोह नहीं होते इसलिये ज्ञानीको बन्ध नहीं होता, वे ही अन्धके कारण हैं | आत्मरमण तत्वसे वीनरागभान बढ़ता है, बन्ध रुकता है।
समसुख भोगी निर्वाणका पात्र है ! जो समसुक्ख णिलीणु बुहु पुण पुण अनु मुगेइ । कम्मक्खर करि सो वि फुड ला णिव्याणु लहेई ॥ ९३ ।।
अन्वयार्थ (जो बुहु सम सुक्ख णिलीशु युग गुण अप्पु मुणेइ) जो ज्ञानी सब सुखमें लीन होकर चार कार आत्माका अनुभव करता है ( सो वि कुटु कम्मखउ कर लहु णिव्वाणु लहेइ) वही प्रगढ़पने कौका क्षय करके शीघ्र ही निर्वाणको पाता है। . भावार्थ-निर्माणका उपाय कष्ट सहन नहीं है किंतु समभा
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7SATTA
३१८]
योगसार टीका। के साथ सुखका भोग है | अपने आत्माका आत्मारूप श्रद्धान, ज्ञान व उसी में चर्या अर्थात आत्मानुभव ही निश्चय रत्नत्रय स्वरूप मोलमार्ग है । वहाँ आत्मा, आत्मामें ही रत होता है, मनके विचार बंद होजाते हैं, बचन व कायकी क्रिया धिर होजाती है। परिणाम रागद्वेषग्ने रहेन सम व शांत होजात है न ही आत्मस्थिनिक होते ही आत्मीक सुग्वका स्वाद आला है।
जैसे मिश्रीके खास मीटेसनका, नीमके खानेका कडुवापनका लवणके खानेसे स्त्रारेपनका स्वाद आता है, वैमे ही आत्माके शुद्ध स्वभावमें रमण करनेम आत्मानंदका स्वाद आता है। उसी समय पूर्व बांधे हुये कमीकी स्थिति घटती हैं । आयुकर्मको छोड़कर शेपकी स्थिति कम होनी है | पापकर्मीका रस सूखता है, वे विशेष गिरने लगते हैं, विना फल दिये चले जाते हैं, पुण्यकमौका रस बढ़ता है, वे प्रचुर फळ देकर जाते हैं । घातीयकम निर्बल पड़ते हैं, नवीन कर्मोंका भी सबर होता है । आत्मानुभवके समग्र गुणस्थानको परिपाटीके अनुसार जिन२ घातीय कर्मकी प्रकृतियोका बंध होता है, उनमें स्थिति व अनुभाग अल्प पड़ता है। अघातीयमें पुण्यकमका बंघ है, कम स्थिति व अधिक रसदार होता है । जब आयव कम प निर्जरा अधिक नब मोक्षमार्गका साधन होता है ।
सश्च सुखका भोग सम्यग्दष्टीको भलेप्रकार आत्माके सम्मुख होने होता है । आत्मध्यान ही मोक्षमार्ग है । आत्मध्यानी ही गुणस्थानोंकी श्रेणीपर चढ़ सक्ता है । मुमुक्षुको एक आत्मध्यानका ही अभ्यास करना चाहिये। इसके दो भेद हैं-निर्विकल्प आत्मध्यान, सविकल्प आत्मध्यान । निर्विकल्प आरमध्यानफे द्वारा निर्विकल्प आत्मध्यान होता है। निर्विकल्प ध्यान ही वास्तबमें ध्यान है । यही मोक्षका साक्षान् उपाय है । सविकल्प ध्यान अनेक प्रकार हैं। निश्चय नयसे अपने
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यांगसार टीका |
[ ३१९
आत्मीक तत्वका विचार करना यह निकट साधन हैं । आत्माके गुणोंकी भावना करते करते यकायक थिरता होती है। निश्चय नय मे अपने आत्माको ही शुद्ध देखें व जगतकी सबै आत्माओं को भी शुद्ध देखें। शेप पांच द्रव्योंको मूल स्वभाव में देखे। इस दृष्टि दीर्घ अभ्याससे राग द्वेष न रहेंगे, द्वेष भावकी मात्रा बढ़ती जायगी ।
व्यवहार नयके द्वारा देखने से पूजक पूज्य, बंध मोक्षकी कल्पना होती है । निश्चय नयसे आप ही पूज्य है, आप ही पूजक है, चंध मोक्षका विकल्प ही नहीं है। त्रिकाल शुद्ध आत्माका दर्शन निश्चय नय कराता है। निश्चय नयका विचार भी सविकल्प ध्यान है । साधककी निर्बलता से साधु हो या गृहस्थ हो जब उपयोग निश्चयनयके विवा रवि नहीं हो तो फिर व्यवहारनयसे पिंडस्थ, पदस्थ रूपस्थ ध्यानके द्वारा व पांच परमेष्ठी स्वरूपके मनन द्वारा ॐ अहे, ह्रीं श्रीं मंत्र द्वारा ध्यान करे ।
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कदाचित इसमें भी उपयोग न जमे तो अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ें, स्तुति पढ़ें, भक्ति या वेदना करे, उपदेश देवे, ग्रंथ लिखे, साधु-सेवा करे, अशुभ भावोंसे बचने के लिये शुभ भावोंमें वर्तनाव व्यवहारधर्म के भेदों की साधना सच सविकल्प धर्मन्यान है । गृहस्थीका मन जत्र निश्चयन के विचार में न लगे तो वह देवपूजादि छः कर्मीका साधन करे । निष्काम भावसे जगत मात्रकी सेवा करे, तीर्थयात्रा करे, सर्व ही प्रकारके व्यवहार धर्मको करके उपयोगको अशुभसे बचाकर शुद्ध भावमें चढ़नेका प्रयत्न करें। निश्चय व व्यवहार धर्म दोनोंकी डोरीको हाथमें रखकर साधन करे। निश्चयधर्मको उपादान साधन व व्यवहारको निमित्त साधन जाने। जो कोई निर्वाणका लक्ष्य रखके सब सुखको भोगता हुआ आत्मानुभवका अभ्यास करे वह शीघ्र ही निर्वाणका लाभ करेगा |
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३२०] योगसार टीका।
समयसारकलशमें कहा हैअत्यन्तं भावयित्वा विनमविरतं कर्मणस्ताफलान प्रम्पाटं नायित्वा प्रलयन खिलाज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्या स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचतनां स्वां सानन्दं नाट्यन्तः प्रशासमितः सर्वकालं पिबन्तु ॥४-१०॥
भावाथ-कर्म करने के प्रपंचसे व कर्मफलमे निरन्तर विरक्त भावी भलेप्रकार भावना करे | सर्व प्रकार अज्ञान चननाको नाशकरनेक भावको भलेप्रकार नाश करावे । अपने आत्मीक रससे पूण अपने स्वभावको जानकर ज्ञानचंतनाको या आत्मानुभूतिको आनंद सहित केल कराव, व सर्वकाल शांत रसका ही पान करे । चही ज्ञानीको प्रेरणा है ।
आत्माको पुरुषाकार यावे । पुरिसायार-पमाशु जिय अम्मा एड पवित्तु । जाइज्जइ गुण-गण जिलउ णिम्मल-तेय-फुरंतु ॥ ९४ ॥
अन्वयार्थ-(जाय ) ई जीव : (एहु अप्या पुरिसायारपमाणु पवित्त गुणगाणलउ णिम्मलतेय-फुरंतु जोइन्जा) इस अपने आत्माको पुरुषाकार प्रमाण, पवित्र, गुणोंकी खान, व णिमिल तेजसे प्रकाशमान देखना चाहिये ।
भावार्थ-आत्माकी भावना करनेके लिये शिक्षा दी है कि आत्माको ऐसा विचारना चाहिये कि उसका आत्मा अपने पुरुषके आकार प्रमाण है, सर्थ शरीरमें व्यापक है । यदि पल्मासनसे बैठे तो आत्माको पद्मासन विचार । यदि कायोत्सर्ग आसनसे खड़ा हो तो आत्माको उसी प्रकारका विचारे । यद्यपि आत्मा असंख्यान प्रदेशी
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योगसार टीका । [३२१ है तौभी जिस शरीरमें रहता है, शरीरके आकारप्रमाण प्रायः करके रहता है। जैसे दीपकका प्रकाश जैसा वर्तन होता है वैसा व्याप कर रहता है । इस आकारके धारी आत्माको पवित्र देखें कि यह निर्मल जलके समान शुद्ध स्फटिकके समान परम शुद्ध हैं | इसमें न कर्मीका मैल है न रागादि विकारोंका मैल ई न अन्य किसी शरीरका मैल है। व्याथिक नयसे आत्माको सदा ही निराकरण देग्मे । न यह कभी बंधा था न बंधा है न कभी बंधगा । फिर देखे कि सामान्य व विशेष गुणोका सागर है । यह ज्ञातादया है, बीतराग है। परमानद ई. एका नीर्यवान , महा मायक्त गुणी है, परम निर्मल तेजमें चमक रहा है। इस प्रकार अपने शरीरमें व्यापक आत्माको वार वार देग्यकर चित्तको रोके । यह ध्यानका प्रकार है । ध्याताको रम निश्चिन्त होना चाहिये । उत्तम ध्याता नियंथ साथु होते हैं। परिग्रहका स्वामीपना होनेस ध्यानके समय उसकी चिंता बाधा करती है । इसलिये साधुगण सर्व परिग्रहका त्याग करके धन कुटुम्ब क्षेत्रादिके रक्षणादिके विकल्पोंमे शुन्य होते हैं। देशत्रप्ती मध्यम ध्याता है, अविरत सम्यक्ती जघन्य भ्याता है। भ्याताको सम्यग्ज्ञान होना ही चाहिये । क्योंकि जबतक अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका श्रद्धान महीं होगा तब तक उसका प्रेम नहीं होगा। प्रेमके विना उसमें आसक्ति या चिरता नहीं होगी। ध्याताको यह श्रद्धान होना ही चाहिये कि मैं ही परमात्मा रूप हूं, मुझे जगतके इंद्र चक्रवर्ती आदि पदोंसे कोई राग भाव नहीं है, केवल निर्माणका ही ध्येय है। ___माया मिथ्या निदान तीन शस्याम्मे रहित, सर्व शंकाओंसे रहित, परम निष्पही, सर्व तृष्णा रहित होना चाहिये । ध्यानके समय सम्यग्ज्ञान व वैराग्यकी मूर्ति होजाना चाहिये। ऐसा ध्याता ध्यानको ध्यानेके लिये निराकुल क्षोम रहित स्थानमें बैठे। जितना
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३२२]
योगसार टीका ।
एकांत होगा उतना ध्यान सिद्ध होगा। स्त्री, पुरुष, नपुंसकों के संपर्क रहित शीत गर्मीकी व डांस मच्छरकी बाधा रहित परम शांत स्थानको ध्यानके लिये खोजे । ध्यानका समय अतिप्रातःकाल सर्वोत्तम है, मध्यम सायंकाल है, जघन्य मध्याह्नकाल है |
ध्यानको भूमिपर, पाषाण शिलापर, काष्टासनपर, चढाईपर, किसी समतल स्थान पर करें। जहां शरीरको स्थिर जमाकर रखसके, मन वचन काय शुद्ध हो, मनमें ध्यानके सिवाय और कोई चिंता न हो। जब तक ध्यान करना हो दूसरे कामोंका विचार न करे। ध्यान के समय मौन रहे या मंत्र जपे । कोई वार्तालाप न करें, शरीर नम्र हो या यथासंभव श्रावकका घोड़े वस्त्र सहित हो, रोगी न हो, भरपेट न हो, भूख प्यास से पीडित न हो, आसन जमा करके बैठे । निश्चल काय रहे, सीधा मुत्र हो । इसतरह बैठकर कुछ देर बारह भावना विचार करके चित्तको वैराग्यवान बनाये, फिर निश्चय नयसे जगतको देखकर राग द्वेष मित्रादे। फिर अपने ही आत्माको देखे कि यह शुद्ध निरंजन परमात्मा है, शरीर में व्यापक परम निर्मल है । मन जलके समान या स्फटिकके समान देखकर वारवार न्यावे । मनकी स्थिरता के लिये कभी कभी कोई मंत्र पढ़ कभी कभी गुणोंका विचार करे | तत्त्वानुशासन में कहा है
माध्यस्यं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहः ।
चैतृष्यं परमः शांतिरित्येकोऽर्थोऽभिधीयते ॥ १३२ ॥ दिधासुः स्वं परं ज्ञात्वा श्रद्धाय च यथास्थिर्ति । विहायान्यदमर्थित्वात् स्वमेववतु पश्यतु ॥ १४३ ॥
भावार्थ - ध्याताको माध्यस्थ भाव, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्यभाव, निष्पृहता, तृष्णा रहितता, परमभाव, शांत भावमें लीन
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योगसार दीका। होना चाहिये । इसका एक ही अर्थ है तथा आत्माका व परका ज्ञान व श्रद्धान करके जैसा यथार्थ स्वरूप है बैसा जाने, फिर निःप्रयोजन ज्ञानकर परको छोडकर केवल अपने आपको ही जाने व देखे ।
आत्मज्ञानी सव शास्त्रोंका ज्ञाता है । जो अप्पा सुद्ध वि मुगइ असुइ-सरीर-विभिन्नु। सो जाणइ सस्थई सयल सासय-सुक्खहँ लीणु ॥ ९५॥
अन्वयार्थ (जो अमुइ सरीर विभिन्नु ) जो कोई इस अपवित्र शरीरसे भिन्न (सासय-मुक्खहँ लीशु ) व अविनाशी सुखमें लीन ( मुद्ध वि अप्पा मुणइ) शुद्ध आत्माका अनुभव करता है ( सो सयल सत्य जाणइ ) वही सर्व शास्त्रोको जानता है।
भावार्थ-शास्त्रोंका ज्ञान तब ही सफल है जब अपने आत्माको यथार्थ पहचान ले, उसकी रुचि प्राप्त करले व उसके स्वभावका स्वाद आने लग जावे । क्योंकि शुद्वात्माका अनुभव ही मोक्षमार्ग हैं। शुद्ध स्वरूपकी भावनासे ही आत्मा शुद्ध होते होते परमात्मा होजाता है। जिनवाणीफे अभ्यासका भलेप्रकार उद्योग करके अपने आत्माको यथार्थ जाननेका हेतु रात्रे |
वर्तमानमें यह अपना आत्मा कम संयोगसे मलीन दिख रहा है व इसकी यह मलीनता प्रवाहरूपसे अनादि है । मलीन पानीको दो दृष्टियोंसे देखना योग्य है । व्यवहारनयसे यह पानी मैला ही है। क्योंकि मिट्टी मिली है व मिट्टीकी मलीनताने जलकी स्वच्छताको छिपा दिया है। निश्चयनयसे देखा जावे तो मिट्टी भिन्न है, पानी भिन्न है, तब यह जल स्वभावमें निर्मल दिखता है ! इसी तरह यह आत्मा
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१२४] योगसार दीका। कर्म पुगलोंके संयोगस व्यवहारनयसे अशुद्धा झलकता है, कौनी इसके शुद्ध स्वभावको इक दिया है |
निश्चय नयमे यही आत्मा इस अपवित्र औदारिक शरीरसे व तैजस व कार्मण शरीरसे व रागादि विकारी भावोंमे भिन्न परमानंदमयी ही परम शुद्ध ज्ञाता दृष्टा परमात्मा म्प दीखता है | यही दृष्टि ध्याताके लिये परम उपकारी है । अतएर जिनवाणीके भीतर दोनों नयोंकी मुख्यताम आत्माके स्वरूपके बतानेवाले ग्रंथोंका भलेप्रकार अभ्यास करे । जीव, अजीय. आम्ब, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष इन सात तत्वोंको समझनेसे व्यवहार नयग्ने आत्माके अशुद्ध स्वरूपका व अशुद्धम शुद्ध होनेका सर्व ज्ञान होता है ।
द्रव्यसंग्रह तथा नत्वार्थसूत्र ये दो ग्रंथ बड़े उपयोगी हैं, इनका सूक्ष्मतासे अभ्यास करके इनकी टीकाएं देख-बृहन द्रव्यसंग्रह व सर्वार्थसिद्धि, राजवालिक, शोकवार्तिक । विशप जानने के लिये गोम्मदसार जीवकांह व कर्मकांडका भलेप्रकार अभ्यास करे व आचार शास्त्रोंसे मुनि व श्रापककी बाहरी क्रियाके. पालनेकी विधि जाने । मूलाचार व रत्नकरंट श्रावकाचारका मनन करे । महान् पुरुषोंकि जीवन चरित्रको भी जाने कि उन्होंने मोक्षमार्गका किसतरह साधन किया था। कर्म सापेक्ष आत्माकी अवस्थाका ठीक परिचय प्राप्त करें। फिर निश्श्य नयकी मुख्यतःसे आत्माको जीतनेके लिये महान योगी श्री कुन्दकुन्दाचार्थ कुन पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, अपराहुड, समयसार, नियमसारका भलेप्रकार अभ्यास करे, परमात्म-प्रकाशका मनन करे, तय दर्पणके समान विदित होगा कि मेरे ही शरीरके भीतर "परमात्मादेव बिराजमान हैं।
शास्त्रोंके झानके लिये व्याकरण व न्यायको भी जाने | तब शब्द ज्ञान व युक्तिका ज्ञान ठीक २ होगा व अन्य दर्शनवालोंके मतसे
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योगसार टीका। जिन दर्शनको तुलना करके जानने की योग्यता प्राप्त होगी । जो केवल व्यवहारनयमे ही आस्माको जाने, निश्चयनयसे न जाने, उसको अपने शुद्ध तत्वका निश्चय नहीं होगा और जो व्याहारको न जाने, केवल निश्चयको ही जाने, वह अशुद्धताके मेटनेका उपाय नहीं कर सकेगा।
दोनों नयोंसे विरोध रहित ज्ञान जब होगा तब ही भेदविज्ञान टेगा । भेद विज्ञानके अभ्यास विना तस्वज्ञानका लाभ नहीं होगा, तत्वज्ञान बिना आत्माका यथार्थ मनन व अनुभव नहीं होगा । सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं होगा। जो शास्त्रोंको पढ़कर व्यवहार-मगन रह व आत्मीक आनंदका स्वाद न ले, उसका परिश्रम सफल नहीं होगा | हेतु शास्त्रोंके पढ़नेका केवल एक अपने आत्माका यथार्थ ज्ञान है । पुरुषार्थ-सिद्धपायमें कहा है
अयुधम्य बोधनाधै नदीवरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमचै ति यन्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥ माणवक एव सिंहो यथा भवत्यन्वीत सिंहस्य । ब्यबहार एव हि तथा निश्चयतां यान्यनिश्चयज्ञस्य ॥ ७ ॥
भावार्थ --मुनिराजोंने अज्ञानीको समझाने के लिये असत्यार्थिकों या अशुद्ध पदार्थको कहनेवाले व्यवहारनयका उपदेश किया है। परंतु जो केवल व्यवहारमयकं विस्तारको जाने व निश्चयनयके नियमको न जाने वह जिनवाणीका यथार्थ ज्ञाता नहीं होसक्ता । बालकको विलाब दिखाकर सिंह बतादिया जाता है। यदि कभी उसे सिंहका झान न करामग जाये तो वह बालक. बिलापको ही सिंह समझा करेगा, उसी तरह यदि निश्चयका ज्ञान न कराया जावे तो निश्चयको न जाननेवाला व्यवहारको ही निश्चय व सत्य व मूल पदार्थ समझ बैटेगा।
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योगसार टीका |
परभाव का त्याग कार्यकारी है ।
जो वि जाणह अप्पु परु पवि परभाउ चण्ड ! सो जाणउ सत्थई सयल ण हू सिवसुक्खु लहेड़ ॥९६॥
३२६ ]
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अन्वयार्थ - ( जो अप्पु परु णावे जाणइ ) जो कोई आमाको परपदार्थको नहीं जानता है ( परभाव णवि चण्ड ) व परभावों का त्याग नहीं करता है ( सी सयल सन्धई जाणइ ) वह सर्व शास्त्रोंको जानता है तो भी (सिवसुक्खु ण हुलहेइ ) मोक्ष सुखको नहीं पायेगा |
भावार्थ अनेक शास्त्रोंके पढ़ने का फल मेद विज्ञानकी प्राप्ति है। अनादिकालमे आत्मशका व सूक्ष्म कर्म पुलों का संयोग संबंध ऐसा गाढ़ है कि कोई भी समय देखो आत्माके एक एक प्रदेशमें अपने पुदलकर्म वर्गणाएं पाई जाती हैं। उन कमका उदय भी हर एक समय है, हर समय मोह व राग द्वेषसे उसकी अनुभूति मलीन होरही हैं | इसको कभी भी आत्माके शुद्ध ज्ञानका अनुभव नहीं आता है। यह कर्मचेतना व कर्मफल चेतना में ही लवलीन है। यह प्राणी अपनी इंद्रियोंकी तृष्णाको पूर्ति मन वचन कायसे अनेक काम करनेमें तन्मय रहता है।
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धन कमानेका, मकान बनानेका, वस्त्र सीने मिलानेका, आभूपण बनवानेका, शृंगार करनेका, रसोई बनानेका सामग्री एकत्र करनेका, बाधकोंको दूर रखनेका, परिग्रहकी रक्षाका आदि उद्यममें तल्लीन होकर कर्मचेतना रूप वर्तता है । जब असाताका तीव्र उदय आजाता है तत्र दुःख व सुखमें तन्मय होकर कर्मफलचेतनारूप होजाता है | उन्मत्तकी तरह जगतकं पदार्थोंमें आसक्त रहता है, विषयसुखकी रात दिन चाह किया करता है ।
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योगसार टीका। इसने कभी भी यह नहीं जाना कि मैं आत्मा द्रव्य पुगलसे सर्वथा भिन्न हूं। मैं न पशुहूं,न पक्षी हूं, न मानध हूं, न रागीद्वपी हूं। मैं तो परम वीतरागी ज्ञान दान सुख वीर्यका धारी कर्मफलंक रहित परमात्मा हूं। और सब प्रकार के भाव व पदार्थ जससे निराले हैं। जिन भावों में अनादिकरलसे आपा माना किया उन ही भावोंको पर जाननेकी व अपने शुद्ध वीतराग विज्ञानयम भावको पहचाननेकी आवश्यक्ता है | अतएव शास्त्रोंके पभेका फल यही है जो अपने आत्माको आत्मारूप व परको रूप माने !
जिसकी चुद्धिमें भेद विज्ञानका प्रकाश न हो उसका शास्त्रजान मोक्षमार्गमें लाभकारी नहीं होगा। मेद विज्ञान होनेपर यह प्रतीति जमनी चाहिये कि सच्चा आनंद मेरे ही आत्माका गुण है। तैसे मिश्रीका स्वाद पाने के लिये मिश्री खानेमें उपयोगको जोड़ना पड़ता है | यदि उपयोग न थिर हो तो मिश्रीका स्वाद नहीं आएगा।
इसी तरह आत्मानंदके पानेके लिये कर्मकलंक रहित चीतरागी व ज्ञातादृष्टा अपने आत्माके भीतर श्रद्धा व ज्ञान सहित रमण करता पड़ेगा | सय भन्य सर्य पदार्थों में व भावों में से उपयोगको हटाना पड़ेगा । इसलिये परम सुखको अनंतकाल के लिये निरन्तर भोग करनेके लिये ज्ञान व वैराग्य सहित आत्माका अनुभव प्राप्त करना चाहिये । जाने तो यह कि मैं निराला शुद्ध आत्माद्रव्य हूं। मैं ही परमेश्वर हूं, मैं ही परमदेव हूं, मैं ही उपासना करने योग्य हूं, व अपनी ही आराधनासे ही मोक्षका लाभ होगा। अद्वैत निर्विकल्प ध्यान ही संबर व निर्जराका कारण है ! वैराग्य यह कि इस जगतके भोग विपके समान त्यागनेयोग्य हैं । लौकिक कोई पद इष्ट नहीं है, एक शिवपद कल्याणकारी है महान वैराग्य यही है कि
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३२८ ] योगसार टीका । तीन लोककी सम्पत्तिसे उदासीनता आजावे । एक निज स्वभात्रसे ही प्रेम उत्पन्न होजाचे | झान व वैराग्य विना रत्नत्रयधर्मका स्वाद नहीं आयगा । मोक्षके सुखका उपाय निजात्मीक सुख या वेदन है। आत्मानंदका अनुभत्र ही ध्यानकी आग है जो कौंको जलारही है। मुमुक्षुको योग्य है कि जिनवाणीका अभ्यास करके आत्माको व परपदाधों को ठीक ठीक जाने | जानकर परमसमभावी होगा । जैसे सूर्यका काम केवल जगतको प्रकाश करता है, किसीमे रागद्वेष करना नहीं है, समभावसे निर्विकार रहना है वैसा ही आत्माका स्वभाव समभावसे पदाधाको पथार्थ जानना है. किमीले गामहेष नहीं करना है । जो समभावमें तिष्टकर निज आत्माको ध्याता है वही निर्वाणके सुखको पाता है। बृहत् सामायिक पाठमें कहा है
भवति मधिनः सौख्यं दुःखं पुराकृतिकर्मणः
स्फुरति हृदये रागो द्वेषः कदाचन मे कथं । मनसि समतां विज्ञायत्थं तयोविदधाति यः
क्षपति सुधीः पूर्व पापं चिनोति न नृतन ॥१०२॥ भावार्थ-प्राणीको सांसारिक सुख दुःख अपने पुर्वमें यांध कमौके उदयसे होता है । तब ज्ञानीक मनमें किस तरह राग द्वेष पैदा होसक्ता है ! ज्ञानी रागद्वेपका स्वरूप जानकर उनको त्यागकर समताको मनमें धारण करता है। इसी उपायम यह पूर्व पापको नाश करता है व नये कर्मका संग्रह नहीं करता है।
परम समाधि शिवसुखका कारण है। वन्जिय सरल-वियप्पई परम-समाहि लहति । जं विदहिं साणंदु क वि सो सिब-सुक्खं भणेति ॥१७॥
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योगसार टीका।
[३२९ अन्वयार्थ-(सयल-त्रियप्पई वजिय) सर्व विकल्पोंको त्यागने पर (परम समाहि लहाते) जो परम समाधिको पाते हैं ( जंक बि साणंदु विदहि) तब कुछ आनंदका अनुभव करते हैं
सिव सुक्रवं भणति ) इसी सुत्रको मोक्षका सुख कहते हैं ।
भावार्थ-मोक्षका मुख आत्माका पृण स्वाभाविक सुत्र है जो रिटको सदार नित ना ! गेसे सुखका उपाय भी आत्मीक आनंदका अनुभव करना है । सुखी आत्मा ही पूर्ण सुखी होता है | आत्मीक सुखके स्वाद पानेका उपाय अपने ही शुद्ध आत्मामें निर्विकल्प समाधिका प्राप्त करना है |
तत्वज्ञानीको उचिन है कि वह प्रथम गाढ़ विश्वास करें कि मैं ही सिद्ध सम शुद्ध है | मेरा द्रव्य कभी स्वभावसे रहित नहीं हुआ । काँक मलसे स्वभाव झक रहा है, परंतु भीत्तरसे नाश नहीं हुआ । जैसे मिट्टीके मिलने से पानीकी निर्मलता इक जाती है, नाश नहीं होती है। निर्मली फल डाल देने पर मिट्टी नीचे बैठ जाती है पानी साफ दिखता है । यह आत्मा अनादिसे आठ प्रकारके कर्मोंस मिला है तो भी अपना स्वभाव बना हुआ है। सम्यग्दृष्टी जीव शुद्ध निश्चय नयके द्वारा अपने आत्माके साथ रहनेवाले सर्व संयोगोंको दूर करके आत्माको शुद्ध देखते हैं।
आगम ज्ञानकी श्रद्धापर जब अपने आस्माको बार बार शुद्ध भाया जाता है तर भावनाके दुद संस्कारसे गाढ़ रुचि होजाती है । यही सम्यक्त है तब उपयोग स्वयं परसे छूटकर अपने आत्मामें ठहर जाता है | स्वानुभवकी कला सम्यक्त होते ही जग जाती है । इस समय काया थिर होनी है, बचन विलास नहीं होता है, मनका चिन्तवन बंद होजाता है। यदि विकल्पोंसे रहित परम समाधि होती है, उसी समय आत्मीक आनन्दका स्वाद आता है ।
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[३२१ अन्वयार्थ (सयल-वियप्पई वज्जिय) सर्व विकल्पोंको त्यागने पर (परम समाहि लहति) जो परम समाधिको पाते हैं ( अंक वि साणंदु विदहि) तब कुछ आनंदका अनुभव करते हैं
सिव सुक्खं भणति ) इसी सुस्त्रको मोक्षका सुख कहते हैं।
भावार्थ-मोक्षका सुख आत्माका पूर्ण स्वाभाविक मुख है जो सिद्धोंको सामान निरन्तर अनुभासें माता है ! ऐसे सम्बका उपाय भी आत्मीक आनंदका अनुभव करना है । सुखी आत्मा ही पूर्ण सुखी होता है | आत्मीक सुखके खाद पानेका उपाय अपने ही शुद्ध आत्मामें निर्विकल्प समाधिका प्राम करना है।
तत्त्रज्ञानीको उचित है कि वह प्रथम गाढ़ विश्वास करे कि में ही सिद्ध सम शुद्ध हूं। मेरा द्रव्य कभी स्वभावसे रहित नहीं हुआ। कमोंके मैलने स्वभाव रुक रहा है, परंतु भीतरसे नाश नहीं हुआ । जमे मिट्टीके मिलनेसे पानीकी निर्मलता ढक जाती है, नाश नहीं होती है । निर्मली फल डाल देनेपर मिट्टी नीचे बैठ जाती है पानी साफ दिखता है | यह आत्मा अनादिसे आठ प्रकारके कति मिला है तो भी अपना स्वभात्र बना हुआ है। सम्यग्दृष्टी जीव शुद्ध निश्चय नय द्वारा अपने आत्माके साथ रहनेवाले सर्व संयोगोको दूर करके आत्माको शुद्ध देखते हैं।
आगम झानकी श्रद्धापर जब अपने आत्माको बार बार शुद्ध भाया जाता है तब भावनाके दढ़ संस्कारमे गाढ़ रुचि होजाती है। यही सम्बक्त है तय उपयोग स्वयं परसे छूटकर अपने आत्मामें ठहर जाता है | स्यानुभवकी कला सम्यक्त होते ही जग जाती है । इस समय काया थिर होती है, वचन विलास नहीं होना है, मनका चिन्तवन बंद होजाता है। यदि विकल्पोंसे रहित परम समाथि होती है, उसी समय आत्मीक आनन्दका स्वाद आता है |
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३३.]
योगसार टीका । इसीसे कर्मकी निर्जरा भी अधिक होती है । इसीको ध्यानकी आग कहते हैं।
सम्यक्तीको स्वानुभवके करनेकी रीति मिल जाती है। इसीको मोक्षका उपाय जानकर सम्यक कारवार स्वानुम्या अभ्यास करके आत्मानन्दका भोग करता है । यदि कोई सम्यक्ती निर्मन्य मुनि हो व वनवृषभनाराच संहननका धारी हो और उसका स्वानुभव यथायोग्य एक अंतर्मुहर्स तक जमा रहे तो वह चार बातीय कोका क्षय करके परमात्मा होजावे । एक साथ ही अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त बायको प्रकाश करले ।
__ आत्मवीर्यकी कमीसे सर्व ही सम्यक्ती ऐसा नहीं कर सकते हैं. तन्त्र शक्तिके अनुसार गृहस्थमें यदि रहते हैं तो समय निकाल कर आत्मानुभवके लिये सामायिकका अभ्यास करते हैं। अधिक देरतक सामायिक नहीं हो सकती है इसलिये सम्यक्ती गृहस्थ देरतक जिनपूजा करते हैं, जिनेन्द्र गुण गान करते करते स्वानुभव पा लेते हैं । कभी अध्यात्म अन्धोका मनन करते हैं, कभी अध्यात्म चर्चा करते हैं कमी अध्यात्मीक भजन गाते हैं।
परिणामोंको पापके भावोंसे बचाने के लिये श्रावक बारह व्रत पालते हैं। निराकुल स्वच्छ भावोंक होनेपर ही स्वानुभवका काल अधिक रहना है । जब वैराग्य अधिक होजाता है तब सम्यक्ती गृह त्याम करके साधु होजाता है, तब परिग्रहके त्याग होनेपर व आरंभ न करनेपर निराकुलता विशेष प्राप्त होती है । क्षोभ रहित मन ही निश्चयत्नयों द्वारा सर्व जीवोंको समान देखकर रागद्वेषको जीतता है। वीतरागी होकर वारवार आत्मानुभव करता है | आत्मानुभक्से सच्चा आत्मीक आनंद पाता है। इसी उपायसे यह साधक मोक्षमार्गको तय करता हुआ बढ़ता जाता है, कभी न कभी निर्वाणका लाभ कर
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योगसार टीका ।
लेता है । तत्वानुशासन में कहा है
समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नानुभूयते । तदा न तस्य तद्ध्यानं मूर्छावान्मोह एव सः ॥ १६९ ॥ तदेवानुभवंश्चायमेकाम्यं परमृच्छति । तथात्माधीनमानंदमेति वाचामगोचरं ॥ १७० ॥
भावार्थ-समाधिभावमें तिष्ठकर जो ज्ञान स्वरूप आत्माका अनुभव न हो तो यह उसके ध्यान नहीं है वह मूछांवान या मोही है | जब ध्यान करते हुए आत्माका अनुभव प्रगट होना है तत्र परम एकाग्रता मिलती है तथा तब ही वह वचनोंके अगोचर आत्मीक आनंदका स्वाद भोगता है।
आत्मपान बार नगर है। जो पिंडत्थु पयत्थु बुह रूवत्थु वि जिण उत्तु । रूवातीतु मुणेहि लहु जिम परु होहि पवित्तु ।। ९८॥
अन्वयार्थ--(बुद्द) हे पंडित ! (जिण-उनु जो पिंडत्यु पयत्यु रूवत्थु वि रूवातीतु मुणहि ) जिनेन्द्र द्वारा कहे गए. जो पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, व रूपातीत ध्यान है उनका मनन कर (जिम लहु परु पवितु होहि ) जिससे तु शोध ही परम पवित्र हो जावे।
भावार्थ-जैसे मैले वस्त्रको ध्यानपूर्वक रगड़नेसे साफ होता है वैसा ही यह अशुद्ध आत्मा आत्माके ध्यानसे शुद्ध होजाता है । ध्यान करनेकी अनेक रीतियाँ हैं। ज्ञानार्णव अन्थमें पिंडस्थान, चार प्रकारके ध्यानोंका विस्तारसे वर्णन है। यहां संक्षेपमें कहा जाता है
{१) पिंडस्थ-पिंड शरीरको कहते हैं उसमें विराजित
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योगसार टीका। आत्माका ध्यान सो पिंडस्थध्यान है। इसकी पांच धारणाएं हैंपृथ्वी, आग्नि, पवन, जल, तत्व रूपवती ।
(१) पृथ्वी धारणा-ध्याता ऐसा विचारे कि मध्यलोक एक क्षीर सागर है, उसके बीच में जम्बूद्वीपके बराबर एक हजार पत्तोंका एक कमल है, उस कमलके बीच में मेरु पर्वतके समान कर्णिका है। मेरु पर्वतके पौड़क वनमें पाहक शिला है उसपर स्फटिकमणिका सिंहासन है, उसपर में कर्मोंके क्षय करनेके लिये पद्मासन बैठा हूं। इतना स्वरूप ध्यान में जमा लेना पृथ्वी धारणा है।
(२) अग्नि धारणा-यही श्याता वहीं बैठा हुआ यह सोचे कि मेरे नाभिके स्थानपर एक १६ पत्तीका कमल हैं उसपर १६ स्वर लिग्वे हैं-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं अः । कमलके बीचमें है अक्षर लिखा है, दूसरा कमल हृदयस्थानमें नीचेके कमलके ऊपर उल्ला आठ पत्तोंका रिचारे | ग्रही ज्ञानावरणीय आठ कर्म है ऐसा जाने । है की रेषासे धृमा निकला फिर आगकी लौ होगई और कर्मोंके कमलको जलाने लगा।
इसी आगकी एक शाखा मस्तकपर आई व शरीरको सब तरह त्रिकोण रूपमें होगई । इस त्रिकोणमें रररररर अक्षर अग्निमय प्राप्त है । बाहरके तीन कोनों पर अग्निमय स्वस्तिक, भीतर तीन कोनों पर * है अग्निमय लिला विचारे, यह बाहरकी आग शरीरको जला रही है इसतरह कर्म व शरीर जलकर राख होरहे हैं ऐसा ध्यान करे।
(३) पवन धारणा-पवन वेगसे चलकर मेरे चारों तरफ घुमने लगी | गोल मंडल बन गया | उसमें स्वाय स्वाय स्वाय लिखा विचारे । यह, मंडल राखको उड़ा रहा है, आत्मा स्वच्छ हो. रहा है।
(४)जल धारणा-काले काले मेघोंसे पानी बरस रहा है
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योगसार टीका ।
[ ३३३
चन्द्राकार जल मंडल मेरे ऊपर होगया पपपपप लिखा है यह जलकी धाराएं मेरे आत्माको घोरही हैं, सब रज दूर हो रही हैं ऐसा विचारे |
( ५ ) तत्व रूपवती - आत्मा बिलकुल साफ होगया, सिद्ध के समान हो गया । परम शुद्ध शरीर के प्रमाण आत्माको देखे । यही पिंडस्थ ध्यान है |
( २ ) पदस्थ ध्यान - पदोंके द्वारा ध्यान करना । जैसे ॐ को या है को मस्तकपर, भौहोके बीच में, नाककी नोकपर, मुँहमें, गले में, हृदयमें या नाभिमें बिराजमान करके देखे व पांच परमेष्ठी के गुण कभी कभी विचार करे ।
(२) एक आठ पत्तोंका कमल हृदयमें विचारे। एक पलेपर णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोएव्साहूणं, सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यकूचारित्राय नमः | इन आठ पदकों विराजित करके एक एक पदका ध्यान क्रमसे करें ।
(३) रूपस्थ ध्यान - अपनेको समवसरणमें श्री अरहंत भगवान के सामने खड़ा देखें | अरहंत भगवान पद्मासन परम शांत विराजित हैं उनके स्वरूपका दर्शन करें। अथवा किसी ध्यानमय तीर्थंकरकी प्रतिमाको मनमें लाकर उसका ध्यान करे ।
(४) रूपातीत — सिद्ध भगवानके पुरुषाकार ज्ञानानन्दमय स्वरूपका ध्यान करे | जब मन एकाग्र होता है वीतरागता प्रगट होती है तब बहुत कर्म झड़ते हैं, आत्मा आत्मध्यानके उपाय से ही परम पवित्र परमात्मा होजाता है ।
तत्वानुशासनमें कहा है
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३३४] योगसार टीका ।
येन भावन यद्रूपं ध्यायत्यास्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ १९.१ ।।
भावार्थ-जिन भावसे व बिस रूपसे आत्मज्ञानी आत्माको श्याता है उसीस वह तन्मय होजाता है, जैसे रंगकी उपाधिसे स्फटिक पाषाण तन्मय होजाना है।
सामायिक चारित्र कथन । सव्वे जीवा णाणमया जो सम-भाव मुणेइ । सो सामाइउ जाणि फुड जिणवर एम भणेइ ॥९॥
अन्वयार्थ-(सव्ये जीवा जाणमया) सर्व ही जीव ज्ञानस्वरूपी है ऐसा (जो समभाव मुणेइ) जो कोई समभात्रको मनन करता है (सो फुड सामाइड जाणि) उसीके प्रगटपने सामायिक जानो (एम जिणवर भणेइ) ऐसा श्री जिनेन्द्र कहते हैं।
भावार्थ-समभावकी प्राप्तिको सामायिक कहते हैं। यह भाव तब ही संभव है जब इस विश्वको निश्चयनयसे या द्रव्यार्थिक नयसे देखा जावे। पर्यायार्थिक या व्यवहारनयकी दृष्टिको अंद कर दिया जावे । जगतमें नाना भेद पर्यायकी अपेक्षासे दीखते हैं। चार गति नाम कर्मके उदयसे जीव नारकी, पशु, मानव व देव दिखते हैं ।
जाति नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रिय, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौनिय, पंचेन्द्रिय सष दीखते हैं। जीवोंकी अन्तरंग व बहिरङ्ग अवस्थाएं आठ कर्मोके उदयसे विचित्र दीखती हैं। मोहनीय कर्मके उदयसे जीब शरीरासक्त, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, हास्य सहित, रतियान, झोकी, अरतिवान, भयभीत, जुगुप्सा सहित, स्त्रीवेदी, 'पुवेदी, नपुंसकवेदी, तीनकषायी, मन्दकषायी, पापी, पुण्यात्मा दीखते
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हैं। हिंसक, दयावान, असत्यवादी, सत्यवादी, चोर व ईमानदार, कुशील व ब्रह्मचारी, परिग्रहवान व परिग्रह रहित, मोहकी तीव्रता से या मन्दतासे दीखते हैं। ज्ञानावरणी कर्मके क्षयोपशम कम व अधिक होने से कोई मन्द ज्ञानी, कोई तीव्र ज्ञानी, कोई शास्त्रोंके विशेष ज्ञाता, कोई अल्पज्ञाना, कोई शीघ्र स्मृतिवान, कोई अल स्मृतिवान दीखते हैं ।
दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशम से कोई चक्षु रहित, कोई चक्षुबाम दीखते हैं । अन्तराय कर्मके क्षयोपशमसे कोई विशेष आमचली, कोई कम आत्मबली दीखते हैं। नाना जीवेंकिं नानाप्रकार के परिणाम थातीय कर्मोके कारण दीखते हैं | आयुकर्म के उदयसे कोई दीर्घायु, कोई अल्पायु दीखते हैं। कोई जन्मते हैं, कोई मरते हैं। नामकर्म के कारण, कोई सुन्दर, कोई असुन्दर, कोई सुडौल शरीरो, कोई फुडौल शरीरी, कोई बलवान, कोई निवेल, कोई रोगी, कोई निरोगी, कोई स्त्री, कोई पुरुष, कोई अन्धे, कोई बहिरे, कोई काने, कोई लंगड़े, कोई सुन्दर चाल चलनेवाले, कोई बुरी चाल चलनेवाले दीखते हैं। गोत्र कर्मके उदयसे कोई उम्रकुली, कोई नीचकुली दीखते हैं ।
वेदनीय कर्मके उदयसे कोई धनवान, कोई निर्धन, कोई बहुकुटुम्बीजन, कोई कुटुम्ब रहित, कोई इन्द्रिय भोग सम्पन्न, कोई भोग रहित, कोई विशाल मकानका वासी, कोई वृक्षतल निवासी, कोई सब साभूषण, कोई आभूषण रहित, कोई सुखी, कोई दुःखी दीखते हैं। आठ कर्मोंके उदयसे यह जगतका नाटक होरहा है। प्राणी इन्द्रियके विषयोंके लोभी हैं व आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, संज्ञाओंमें मूढ़ हैं। इसके कारण इष्ट पदार्थोंमें राग व अनिष्ट पदार्थों में द्वैध करते हैं ।
व्यवहारदृष्टि रागद्वेष होनेका निमित्त सामने रखती है। निश्चय
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योगसार टीका। दृष्टिस सब ही जीव चाहे सिद्ध हो या संसारी समान दीखते हैं। कर्म रहित, शरीर रहित, रागद्वेष रहित सच ही समान ज्ञानी, परम सखी, परम सन्तोषी, परम शुद्ध, एकाकार दीखते हैं | जितने गुण एक आत्मामें हैं उतने गुण दूसरी आत्माओं में है। सत्ता सध आत्माकी निराली होने पर भी स्वभावसे सत्र समान दीखते हैं। पुद्गल सब परमाणुरूप दीरखते हैं। धर्म, अधर्म, काल, आकाश चार अमृतीक द्रव्य स्वभात्रसे झलकते हैं। छोटे बड़े, सुन्दर असुन्दर, स्वामी सेत्रक, आचार्य शिष्य, पुज्य' पूजक आदिके भेद सब उड़ जाते हैं |
जो कोई इस तरह सब दृष्ट्रिान देखता है उसीके रागद्वेषका विकार दूर होजाता है, वह समभावमें आजाना है | इस तरह समभावको लाकर ध्याता जब पर जीवोंसे उपयोगको हटाकर केवल अपने स्वभायमें जोड़ता है तब निश्चल होजाता है, आत्मस्थ होताता है, आत्मानुभवमें होजाता है तब ही परम निर्जराका कारण सामायिक चारित्रका प्रकाश होता है | विकल्प रहिन भावमें रहना ही सामायिक है, यही मुनिपद है, यही मोक्षमाग है, यही रत्नत्रयकी एकता हैं । श्री योगन्द्रदेव अमृताशीतिमें कहते हैं
सत्साम्यभावगिरिंगटरमध्यमेत्य
___ पद्मासनादिकमदोपमिदं च बद्ध्वा । आत्मानमात्मनि सखे ! परमात्मरूपं
त्वं ध्याय वेसि ननु येन मुख समाधेः ॥२८॥ भावार्थ-हे मित्र 1 सच्चे साम्यभावकी गुफाके बीच में बैठ कर व निषि पद्मासन आदि बांधकर अपने ही एक आत्माके भीतर अपने ही परमात्मा स्वरूपी आत्माको तु ध्यान, जिससे तू समाधिका सुख अनुभव कर सके।
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राग द्वेष त्याग सामायिक है ।
राय-रोस वे परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ । सो सामाइ जाणि फुड केवलि एम भणे || १०० ॥
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अन्वयार्थ - (जो राग-रोस वे परिहरिवि समभाव मुणे) जो कोई रागद्वेषको त्याग करके समभावकी भावना करता है ( सो ऊड सामान नागि) कि जानो (एम
केवल भणेड़ ) ऐसा केवली भगवानने कहा है
I
भावार्थ - रागद्वेपका त्याग ही सामायिक है। मिध्यादृष्टी अज्ञानी शरीर व इन्द्रियोंके विषयोंका रागी होता है इसलिये जिनमें अपना मनोरथ सिद्ध होता जानता है, उनसे प्रीति करता है, जिनमे बाधाकी शंका होती है उनसे द्वेष रखता है। वह कभी रागद्वेष मे छूटता नहीं । बोर तप करते रहनेपर भी वह कषायकी कालिमास मुक्त नहीं होता है ।
सम्यग्दीका मात्र उलट जाता है, यह संसारके सुखोंका श्रद्धाबान नहीं रहता है। उसके गाढ़ श्रद्धान अतींद्रिय आत्मीक आनंदका होता है, वह एक मात्र सिद्ध दशाका ही प्रेमी रहता है। वह संसार शरीर व भोगोंसे पूर्ण वैरागी हो जाता है। परमाणु मात्र भी राग उसके भीतर सांसारिक पदार्थोंकी तरफ नहीं रहता है। वह जगतकी दशाओंको समभाव से देखता है। सर्व सांसारिक जीवोंके भीतर जो जो भीतर व बाहर वशा वर्तती है वह उनके स्वयं परिणमन शक्ति कमौके उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधीन है। दूसरा जीव कोई उस दशाको बलात्कार पलट नहीं सक्ता है। निमित्त कारण मात्र एक दूसरेके परिणमनसे होसक्त हैं तथापि अन्तरंग निमित्त व उपा दान हरएकका हरएकके पास स्वतंत्र है। ऐसा वस्तुका स्वभाव जान
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कर ज्ञानी जी अपने जीवन में व मरणमें व दुःख या सुखमें या अन्य किसी कार्य में समभाव रखता है, कर्मों के अच्छे या बुरे विपाकको समभाव से भोग लेता है ।
दूसरे के जीवन मरण पर व दुःख सुख होनेपर व अन्य किसी कार्य के होने पर भी समभाव रखता है। राग द्वेष करके आकलित नहीं होता है | यदि स्त्री का मरण व पुत्र पुत्रीका मरण होजाये तो अन्य किसी मित्र या बंधुका मरण या वियोग होजाये तो ज्ञानी समभावसे देखकर आकुलित नहीं होता है । वह जानता है कि सर्व जीवोंको दुख सुख व उनका जीवन मरण उनके ही अपने कर्मोके उदय अनुसार है। कर्मकि उदयको कोई मेट नहीं सक्ता है ।
अपने जीवनको व दूसरोंके जीवनकी स्थितियोंको देखकर राग द्वेष नहीं करता है। जैसे सूर्यका उदय होना, प्रकाशका फैलना, प्रकाशका कम होना व अधकारका होजाना यह सब सूर्यके विमानक्की गति स्वभावका कारण है। ज्ञानी जीव कभी यह विचार नहीं करता है कि दिन बढ़ जावे तो ठीक है, रात्रि बढ़ जाये या घट जावे तो ठीक है । प्रकाश सदा बना रहे व कभी नहीं हो ऐसा राग द्वेष ज्ञानी कभी नहीं करता है। सूर्यके परिणमनको सम्भावमें देखता है । इसीतरह जगतमें परमाणु जैसे अनेक स्कंध बनते हैं । स्कंधोंसे अनेक परमाणु बनते हैं। पुलके कार्य उनके स्वभावसे होते रहते हैं। जैसे पानीका भाप बनना, मेघ बनना, पानीका बरसना, नदीका बहना, मिट्टीका कुपा होना, तुफानका आना, भूकंप होना, बिजलीका चमकना, पर्वतोंका चूर होना, मकानोंका गिरना, जंगलमें वृक्षोंका उत्पन्न होना, जंगल में आग लगना, आदि अनेक प्राकृतिक कार्य होते रहते हैं । उनमें भी ज्ञानी राग द्वेष नहीं करता है। समभाव से देखता है । जगतका चरित्र एक नाटक है । उस
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योगसार टीका। नांदकको ज्ञानी स्वामी होकर नहीं देखता है । ज्ञाता हप्ता दर्शक होकर देखता है । नाटकके भीतर हानि व लाभ देखकर ज्ञानी समभात्र (खता है । जो समभावसं पने परिणमनको व दुसरोके परिणमनको देखता है, उसके पूर्वकर्म फल देकर गिर जाते है, नवीन पापकर्मोंका बंध नहीं होता है व अति अल्प होता है | वही सामायिक चारित्रको पालना है | ऐसा समभावधारी ज्ञानी गृहस्थ सामायिक शिक्षाव्रतका व मुनि सामायिक चारित्रका पालक है। समयसार कलशमें कहा है-.
इति वस्तुम्वभावं न्वं ज्ञानी आनाति तेग सः । सगादीन्नात्मनः कुर्यान्त्रातो भवति कारकः ॥१४-८ ।।
भावार्थ-ज्ञानी इसतरह सर्व वस्तुकि स्वभावको व अपने ‘आपको ठीक ठीक जानता है, इसलिये रागद्वेष भात्रीको अपने भीतर नहीं करता है, सम भावगे रहता है इसलिये वह रागद्वेषका कर्ता नहीं होता है । चारित्र मोहनीयके उद्यसे होनेवाले विचारको काँका उद्यरूप रोग जानता है, उनके मेटनेका उधम है।
छेदोपस्थापना चारित्र। हिंसादिउ-परिहारू करि जो अप्पा हु ठवेइ । सो वियऊ चारित्तु मुण्ठि जो पंचम-गइ इ ।।१०१॥
अन्वयार्थ-(जो हिंसादिउ-परिहारु करि अप्पा हु ठयेइ) जो कोई हिंसा आदि पापोको त्याग करके आत्माको स्थिर करता है (सो बियफ चारितु मुणि) सो दूसरं चारित्रका धारी है, ऐसा जानो (जो पंचम-गद जेई ) यह चारित्र पंचम गतिको ले. जाता है।
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३४०] योगसार टीका।
भावार्थ-पहलाकोंके द्वार. सानेपोल पंच चारित्रले दूसरे चारित्र लेदोपस्थापनाका स्वरूप बताया है। सामायिक चारित्र पहला है उसको धारण करते हुए साधु निर्विकल्प समाधिमें व समभावमें लीन रहता है, वहां ग्रहण त्यागका विचार नहीं होसक्ता है। ___स्त्रानुभव होना या आत्मस्थ रहना ही सामायिक है | परंतु यह दशा एक अन्तर्मुहूतसे अधिक आत्मज्ञानी छमस्थके होना असम्भव है। उपयोग चन्चल हो जाता है तब अशुभ भावोंग बच. नेके लिये व्यवहार चारित्रका विकल्प किया जाता है । व्यवहार चारित्रके आलम्बन साधु फिर अन्तर्मुहूर्त पीछे आत्मलीन होजाता है । प्रमत्त भावमें भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं रहता है ।
सामायिकके छेद होजानेपर फिर सामायिकमें स्थिर होना ही छेदोपस्थापना चारित्र है। निश्चय चारित्र सामायिक है, उसमे उपयोग हटनेपर फिर जिस व्यवहार चारित्रक द्वारा पुनः निश्चय चारित्रमें आया जाये यह छेदोपस्थापना चारित्र हैं, यह सविकल्प हैं । निश्चय चारित्र निर्विकल्प है। इस भेदरूप चारित्रमें साधु अट्ठाईस मुल. गुणोंकी सम्हाल रखता है।
पांच अहिंसादि बत-संकल्पी व आरम्भी हिंसाको मन, वचन, काय, कृत, कारिन, अनुमोदनासे पूर्णपने त्याग व भावोंमें राग द्वैप रहित रहनेका व बाहरमें प्राणीमानकी रक्षाका उद्यम करना अहिंसा महावत है।
जिनवाणीमे विरोधरूप न हो ऐसा. वचन यथार्थ कहना । सत्य धर्मकी रक्षा करते हुए कहना सत्य महाव्रत है।
पर पीड़ाकारी, आरम्भकारी सर्व वचनोंसे विरक्त रहना, अहिंसा पोषक व वीतरागतावर्द्धक वचन कहना सल्प महावत है।
बिना परफे द्वारा दी हुई किसी भी वस्तुको बुद्धिपूर्वक प्रमाद :
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योगसार टीका। भावसे ग्रहण नहीं करना । चोरीके सर्व प्रकारके दोषोंसे बचना सो अचौर्य महावत है।
स्त्री, देवी, पशुनी, चित्राम, इन चार प्रकारकी स्त्रियोंके संबंधों मन वचन काय, कृत कारित अनुमोदनासे कुशीलका त्यागना, सरल निर्विकार शील स्वभावसे रहना, काम विकारके आक्रमणसे बचना सो ब्रह्मचर्य महावत है ।
चेतन अचेतन सर्व प्रकार के परिप्रहका त्याग करके आर्किचन्य भावसे रहकर सर्व प्रकार की मु का त्याग करना परिग्रह त्याग सहावत है।
इन पाच महानतोंके रक्षाक्ष शेष तेईस गुणोंको साधु पालेते हैं। पांच ममिति:
चार हाथ भूमि आगे देखकर दिनमें प्राशुक या रौदी हुई भूमि पर चलना ईर्या समिति है ।
मिष्ट्र हितकारी सभ्य वचन बोलना, कर्कश मर्मछेदक वचन नहीं कहना भाषा समिति है ।
शुद्ध भोजन भिक्षावृत्तिले श्रावक दातार द्वारा भक्तिपूर्वक दिये जाने पर संतोषले ग्रहण करना एषणा समिलि है ।
शरीर, पीछी, कमंडल, शास्त्रादि देखकर रखना, उटाना आदाननिक्षेपण समिति है।
___ मल मूत्रादि जैतु रहित भूमिपर डालना उत्सर्ग समिति है। पांच इन्द्रिय निरोधः
स्पशेन, रसना, घ्राण, चक्षु य कान इन पांच इंद्रियोंके विषयोंकी इच्छाको रोकना, इन्द्रिय भोगोंसे विरक्त रहना, समभावसे इंद्रियों के द्वारा काम लेना । निर्विकार भावसे इंद्रियों से ज्ञान प्राम करना इंद्रिय वमन है। छः निस आवश्यकः- ... . प्रतिदिन समय पर तीन काल मामायिक करना, मन
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३४२]
योगसार टीका ।
चच कायसे धति दोषोंका प्रातः व संध्याको प्रतिक्रमण करनापश्चाताप करना । प्रसाख्यान - आगामी दोष त होनेकी भावना करना या स्वाध्याय करना । तीर्थंकरोंके गुणों की स्तुति करना स्तवन है, तीर्थकस्को मुख्यतासे गुणानुवाद करना वंदना है । कायसे ममता त्यागकर ध्यान करना कायात्सर्ग है ।
सात अन्य गुण - (१) शरीर या वस्त्रादि न रखकर बालकके समान नग्न रहना । (२) अपने केशांको लोन करना - घास के समान ममता रहित होकर उपाड लेना । (३) स्नान नहीं करना । (४) दंतवन नहीं करना - दानोंका अंगार नहीं रखना । (५) भूमि शयन - जमीनपर तृणका या काष्टका संथारा करना, या खाली जमीनपर सोना । (६) स्थिति भोजन- खड़े होकर भोजन करना | (७) एकवार भोजन - दिनमें एक ही बार भोजनपान करना । इन २८ मूल गुणों को निर्दोष पालना छेदोपस्थांना चारित्र है निश्चयमे आत्मस्थ होजाना ही चारित्र है ।
तत्वार्थसार में कहा है
यंत्र हिंसादिभेदेन त्यागः सावद्यकर्मणः ।
व्रतलोपे विशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ॥ ४६-६ ॥
भावार्थ - जहां हिंसादिके मेदसे पाप कर्मोंका त्याग करना या व्रत भंग होनेपर प्रायश्चित्त लेकर फिर बली होना भी हेोपस्थाना चारित्र है ।
परिहारविशुद्धि चारित्र ।
मिच्छादित जो परिहरणु सम्म सण- सुद्धि । सो परिहारविमुद्धि मुणि लहु पावहि सिवसिद्धि ॥१०२॥
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योगसार टीका। अन्वयार्थ-(जो मिच्छादिउ परिहरणु ) जो मिथ्यालादिका त्याग करके ( सम्मदसणमुद्धि ) सम्यग्दर्शनकी शुद्धि प्राप्त करना ( सो परिहारविसुद्धि मुणि । वह परिहार विमुद्धि संयम जानो (लह सिव-सिद्धि पावहि) जिसस श्रेष्ठ मोक्षकी सिद्धि मिलती है।
भावार्थ-परिहारबिशुद्धि संयमका व्यवहार में प्रचलित स्त्रकार यह है कि वह विशेष संयम जस साधुको प्राप्त होता है जो तीस वर्ष तक सुखले घरमें रहा हो फिर दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थकरकी संगति में रहे व प्राचारवान पुर्बया स्यालक । ऐलः सानु विशेष हिंसाका त्यागी होता हैं | छठे व सातवे गुणस्थानमें ही होता है । यहाँ अध्यात्म प्रिंसे शब्दार्थ लेकर कहा है कि मिथ्यात्वादि विषयांका त्याग करके सम्यग्दर्शनकी विशेष शुद्धि प्राप्त करना परिहारविशुद्धि है।
शुद्ध आत्माका निर्मल अनुभव ही मोक्षमार्ग है । उसके बाधक मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं। अनंतानुबन्धी कषाय
और मिथ्यादर्शन कर्मक उपशम या भयसे एक ही साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र प्रगट होजाते हैं, तीनों ही आत्माके गुण हैं । ज्ञान और चारित्र एकदेश झलकते हैं । इसके पूर्ण प्रकाशके लिये अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन कघायका उपशम या क्ष्य करना होता है । जैसे जैस स्वानुभवका अधिक अभ्यास होता है वैसे २ कधायकी मलीनता कम होती जाती है।
तब ज्ञान निर्मल व चारित्र ऊँचा होता जाता है। श्रावकपदमें देशचारित्र होता है, साधुपद में सकल चारित्र होता है। जिस साधुकी स्वानुभवकी तीव्रता वीतरागता ऐसी प्रगट हो जाती है कि बुद्धिपूर्वक कषायमलका स्वाद नहीं आता है। निर्मल शुद्ध
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योगसार टीका। स्वानुभत्र झलकता है। माला मम्मानन गाढव हा निर्मः । चारित्र शुद्ध होता है। ___ रत्नत्रयकी शुद्धता प्राप्त करना ही मोक्षके निकट पहुंचना है । अतएव साधुको निग्रन्थ पदमें रहकर विशेष आत्मत्यानका अभ्यास करना योग्य है । मोहके साथ साधुको युद्ध करना है। इसलिये ज्ञान वैराग्यकी खड्गको तेज रखनेकी जरूरत है । सम्यग्दर्शनके प्रतापमे ज्ञानीको जगतके पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होता है कि छः द्रव्योंसे यह जगन भरा है। सर्व ही द्रव्य निश्चयमे अपने अपने स्वभावमें फलोल करते हैं । यद्यपि संसारी जीव पुगलके संयोगसे अशुद्ध है । नर नारक नियंच देवके शरीरोंमें नानाप्रकार दीखते हैं तो भी ज्ञानी उन सब जीवोंको दृष्यके स्वभावकी अपेक्षा शुद्ध एकरूप ज्ञानानन्दी परम निर्विकारी देखता है।
इस झानके कारण न कोई आश्चर्य नहीं भासता है । वह छछा द्रव्यांक मूलगुण व पर्यायीक स्वरूपको केवलज्ञानीके समान यथार्थ व शंकारहित जानता है | अपने आत्माकी सत्ताको अन्य आत्माओंकी सत्तासे भिन्न जानता है । तो भी स्वभावसे सबको व अपने आत्माको एक समान शुद्ध देखता है । इसी ज्ञानके प्रतापने उसके भीतर सहज वैराग्य भी रहना है कि एक अपना शुद्ध आत्मीक पद ही सार है, उत्तम हैं, ग्रहण करनेयोग्य है ।
सिद्धपकी ही प्राप्ति करनी चाहिये | चारों गनिके क्षणिकपद सत्र त्यागनेयोन्य हैं । यह इन्द्रियों के सुखको आकुलतारूप व पराधीन व नाशवंत व पापबंधकारी ब अतृप्तकारी व हेय समझ चुका है । इसलिये वह भोगविलासके हेतुसे चत्रावर्तीपद, नारायणपद, बलभद्रपद, प्रतिनारायणपद्, राजापद, श्रेष्ठीपद, इन्द्रपद आदि नहीं चाहता है, उसके भीतर पूर्ण वैराग्य है कि सर्व ही आठ कर्मोंका
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योगसार टीका ।
[ ३४५ संयोग मिटानेयोग्य है, सब ही रागादि विभाव त्यागनेयोग्य है, सर्व ही शरीर व भोग सामग्रीका संयोग दूर करनेयोग्य है, ऐसा दृढ़ ज्ञान वैराग्यधारी सम्यग्दृष्टी पूर्व कर्मके उदयसे यद्यपि गृहस्थपदमें अनेक गृहस्थकं काम करता हुआ दिखाई पड़ता है तौभी वह उन कार्योंको आसक्ति भावसे नहीं करता है । कषायके उदयको रोग जानता है । रोगको मिटानेकी भावना भाता है। जितनार कपायका उदय मिटता है इसका व्यवहार भी निर्मल होता जाता है । मोक्षका उपाय में एक सम्यग्दर्शनकी शुद्धता है। वीतराग यथाख्यात चारित्र व केवलज्ञानके लाभका यही उपाय है ।
तत्वार्थसार में कहा है
विशिष्टपरिहारेण प्राणिघातम्य यत्र हि ।
शुद्धिर्भवति चारित्रं परिहारविशुद्धि तत् ॥ ४७-६ ॥ भावार्थ -- जहां प्राणियों के धातका विशेषपने त्याग हो व चारित्रकी शुद्धि हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है ।
यथाख्यात संयम |
सुहुमहँ लोहहैं जो विलउ जो सुहुमुवि परिणाम | सो मुहमु विचारित मुणि सो सासय-सुह धामु ॥ १०३ ॥ अन्वयाथ -- (सुहमहं लोहडं जो विलज) सूक्ष्म लोभका जो भी क्षय होकर (जो मुवि परिणाम) जो कोई सूक्ष्म वीतराग भाव होता है (सोहुमु विचारित मुणि) उसे सूक्ष्म या यत्राख्यात चारित्र जानो ( सो सासय सुद्द्धामु वही अविनाशी सुखका स्थान है ।
भावार्थ-सुत्र आत्माका गुण है । उसको यथार्थ चारों
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३४६ ] योगसार टीका। घातीय कमाने रोक रक्खा है परंतु मुख्यतास उसको रोकनेवाला मोह कर्म है | जितना २ मोहका क्षय होता है उतना र सुखका प्रकाश होता जाता है | यह सुख वीतराग भात्र सहित निर्मल है ।
मायिक सम्यग्दष्टी जोव चार अनंतानुबधी अपाय और दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका जब आय कर देता है तय क्षायिक सम्यस्त्व व स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होजाने हैं। इन शक्तियोंके प्रगट होनेपर जब कभी ज्ञानी अपने उपयोगको अपने आत्मामें स्थिर करता है. तब ही स्वरूपका अनुभव आता है व अनीन्द्रिय आनंदका स्वाद आता है। अविरत सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानमें भी इस सुखका प्रकाश होजाता है। फिर यह शायिक सम्यक्ती महात्मा जितनार स्वानुभवका अभ्यास करता है उतनार करायका रस कम उदयमें आता है। तब उतनार निर्मल मुम्ब अनुभवमें आना है। पांचवे देशसंयम गुणस्थानमें अप्रत्यागठ्यान कषायका उदय नहीं होता है तब चौथे गुणस्थानकी अपेक्षा निर्मल सुख स्वादमें आता है। छठे प्रमत्तगुणस्थानमें प्रत्याख्यान कषायका भी उदय नहीं रहता है, तब और अधिक निर्मल सुख वेदनेमें आता है । सातवे अप्रमत्त गुणम्यानमें संज्वलन कपायकामंद उदय रहता है तब और भी निर्मल सुख अनुभवमें आता है | आठवे अपूर्वकरण गुणस्थानमें संज्वलन कषायका अति मंद उदय होता है तब और भी निर्मल सुख स्वादमें आता है | अनिवृत्तिकरण नौ गुणस्थानमें अतिशय मंद् कषायका उदय रहता है तथा वीतराग भावकी आग बढ़ती जाती है। उस कारणमे योगी अनिवृत्तिकरणके दूसरे भागमें अप्रत्याख्यान ४ व प्रत्याग्न्यान ४ इन आठ कषायकर्मोंकी सत्ताका क्षय कर देता है। तीसरे भागमें नपुंसक वेदका चौथे भागमें स्त्री चेदका, पांचवे भागमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छ: मोकषायोंका, छटे भागमें पुरुष वेदका, सान- भागमें सज्वलन क्रोधका..
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योगसार टीका। आठवे भागमें संचलन मानक्रा, नौमें भागमें संज्वलन मायाका क्षय कर देता है । इसतरह अप्रत्याख्यानका अधिक २ स्वाइ आता है। सुक्ष्मसापराबाट गुणस्थानमा अग्धमें मिला लोन्का की शाय कर देता है तब बारहवें गुणस्थानमें जाकर यथाख्यात चारित्रको प्रगट करके शुद्ध सुखका अनुभव करता है | अट्ठाईस प्रकार मोहकर्मके अत्र होनेसे न मिटनेवाला सुख प्रगट हो जाता है ।
जब योगी द्वितीय शुक्लन्यानक बलम ज्ञानावरण, दशनावरण, अन्तराय तीनों कर्मोंका सर्वथा क्षय कर देता है तब तेरहवे गुणस्थानमें आकर केवलज्ञानी अहंत परमात्मा हो जाता है, उससमय निज आत्माका प्रत्यक्ष दर्शन व अनुभव हो जाता है । अबतक श्रुतमानके द्वारा परोक्ष ज्ञान था, अब केवलज्ञानीक प्रत्यक्ष ज्ञानक द्वारा प्रत्यक्ष अमृतीक आत्माका ज्ञान व अनुभव हो जाता है, अन्तराग्य कर्मके नाशसे अनंतवीय प्रगट होनेसे सुख परम शुद्ध व यथार्थ अनंतकाल तक स्वादमें आनेत्राला झलक जाता है इसलिये इस गुणस्थानमें यह अनंत सुख कहलाता है | फिर यह सुख कभी कम नहीं होता है, निरन्तर सिद्धोंके स्वाद में आता है ।
तत्वार्थसारमें कहा हैसंसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिनि प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ १५ ॥ लोके तत्सदृशो यर्थः कृलऽप्यन्यो न विद्यते । उपमींयेत तयेन तस्मान्निरुपमं स्मृतम् ॥ ५२-८ ॥
भावार्थ-सिद्धोंके संसारके विषयोंकी पराधीनतासे रहित अविनाशी सुख प्रगट होता है उस सुम्बको परम व बाधा रहित सुख परम ऋषियोंने कहा है। समस्त जगतमें कोई भी उस सुखके
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३४८] योगसार टीका। समान पदार्थ नहीं है जिसको उस सुस्व गुणकी उपमा दी जासके इसलिये उस सुखको उपमा रहित अनुपम कहा गया है।
आत्मा ही पंचपरमेष्ठी है। अरहंतु वि सो सिद्ध फुटु सो आयरिउ वियाणि । मो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि ॥१०४॥ ___ अन्वयार्थ-( णिच्छ) निनयनयम ( अरहंतु वि अपा जाणि : आग्मा ही अरहत हैऐसा जानो (सो फुड सिद्ध) वही आरम, अमर सिद्ध है । सो पारेर मियाणि) उसीको आचार्य ज्ञानो (सो अवझायउ ) वहीं उपाध्याय है (सो जि मुणि) वही आत्मा ही साधु है।
भावार्थ-निश्चयनयम जिसने आत्माका अनुभव प्राप्त कर लिया उसने पचिों परमेष्ठियोंका अनुभव प्राप्त कर लिया । ये पांचों पद आत्माको ही दिये गये हैं। व्यवहारनयसे या पर्यायकी दृशिसे आत्माके पांच भेद हो जाते हैं, निश्वयसे आत्मा एक ही रूप हैं ।
जिस आत्मामें चार घातीय कर्मो क्षयसे अनंत दर्शन, अनंत झान, नायिक सम्बक्त, भाषिक चारित्र, अनंत वीर्च, अनंत सुग्न, गुण प्रगद है परन्तु चार अघानीय कर्मोंका उदय है व उनकी सत्ता आरमाके प्रदेशोमें है। जो जीवन्मुक परमात्मा है वे अरहत हैं। अरहनका ध्यान करते हुए उनके पुदलमय शरीरपर व सिंहासन छत्रादि आठ प्रातिहार्य पर लक्ष्य न देकर उनकी आत्माकी शुद्धिपर लक्ष्य देना चाहिये व अपने आत्माको भी उस समान होनेकी भावना करनी चाहिये ।
आत्मीक भावोसे अरहंतकी आत्माको ध्याना चाहिये। ध्यान में
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यांगसार टीका ।
[ ३४९ एकाग्र हो जाना चाहिये यह अरहंतका ध्यान है । सिद्ध भगवान आठों ही कमसे रहित प्रगटपने शुद्धात्मा है वहां शरीरादि किसी भी पुद्रलका संयोग नहीं हैं। पुरुषाकार अमृतक ध्यानमय आत्माको सिद्ध कहते हैं। वे निरंजन निर्विकार हैं। सम्यक्त, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अगुरुलघु, अव्यानाध, सूक्ष्मत्व, अवगाहन इन आठ प्रसिद्ध गुणों से विभूषित हैं। शाम पानी है। के को अपने आत्मामें बिराजमान करके एकतान हो जाना, सिद्धका ध्यान है ।
आचार्यकी आत्मा शुद्ध सम्यग्दर्शन. शुद्ध ज्ञान, शुद्ध चारित्र, शुद्ध तप व परम वीर्य विभूषित है व निश्रय रत्नत्रयमई शुद्धात्मानुभव से अलंकृत है ।
यद्यपि शिष्यों के कल्याण निमित्त परोपकार भाव से भी रंजित हैं यह उनकी प्रमाद अवस्था है उसको लक्ष्यमें न लेकर केवल शुद्धात्मानुभवकी दशाको भ्यानमें लेकर उनके स्वरूपको अपने आत्मामें बिठाकर एकतान होजाना आचार्यका ध्यान है । उपाध्याय महाराज. व्यवहारमें अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता होकर पठन पाठनमें उपयुक्त रहते हैं, यह उनकी प्रमाद दशा है । अप्रमत्त दशा में वे भी स्वात्मानुभव में एकाम होकर आत्मीक आनंदका पान करते हैं । इस निश्चय आत्मीक भावको ध्यानमें लेकर अपने आत्माको उनके भावमें एकतान करना उपाध्यायका ध्यान है |
साधु परमेष्ठी व्यवहारमें २८ मूलगुणों का पालन करते हैं, निवसे शुद्ध आत्मीक भाव में रमण कर आत्मगुम हो, निर्विकल्प. समाधिका साधन करते हैं, आपमें ही आपको आपमें ही अपने ही द्वारा आपके लिये आप ही ध्याते हैं, परम एकाग्रभावसे आत्मामें मगन हैं, उनके इस आत्मीक स्वरूपको अपने आत्माके भीतर धारण करके एकाम हो जाना साधुका ध्यान है ।
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३५०]
योगसार टीका - आत्माके ध्यान में ही पांचों परमेष्ठीका ज्यान गर्भित है । शरीरादिको क्रियाको न च्यानमें लेकर केवल उनके आत्माका आराधन निश्चय आराधन है । समयसार कलशमें कहा है.--
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः । एक एव गदा सेन्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ॥६-१०॥
भावार्थ-आस्माका स्वरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्रमई एकरूप ही है, यही एक मोक्षका मार्ग है | मोक्षके अर्थीको उचित है कि इसी एक स्वानुभवरूप मोक्षमार्गका सेवन करें।
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आत्मा ही ब्रह्मा विष्णु महेश है । सो सिउ संकरु विण्ड सो सो रुद्द वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसरु बंभु सो सो अणंतु सो सिद्ध ।। १०५॥
अन्वयार्थ-( सो सिउ संकर विण्हु सो) यही शिव हैं, शंकर हैं, वही विष्णु हैं ( सो रुद्द वि सो बुद्ध ) वही रुद्र हैं, वहीं बुद्ध हैं ( सो जिणु ईसरु बंभु सौं) बद्दी जिन हैं, ईश्वर हैं, वही ब्रह्मा हैं ( सो अणंतु सो सिद्ध ) बही अनंत हैं, वहीं सिद्ध हैं।
भावार्थ--जिस परमात्माका ध्यान करना है, उसके अनेक नाम गुणवाचक होसकते हैं वही शिव कहलाता है । क्योंकि वह कल्याणका कर्ता है । उसके ध्यान करनेसे हमारा हित होता है । वही शंकर कहलाता है, क्योंकि उसके ध्यान करनेसे आनंदका लाभ होता है, दूसरा कोई लौकिकजनोंसे मान्य व पूज्य शिव-शङ्कर नहीं है। वहीं विन्यु कहलाता है, क्योंकि वह केवलज्ञानकी अपेक्षा सर्व लोकालोकका नाता होनेसे सर्वव्यापक है, दूसरा कोई लौकिकजनोंसे मान्य यथार्थ विष्णु नहीं है। वही रुद्र या महादेष है, क्योंकि उस
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योगसार टीका ।
[ ३५१ परमात्माने सर्व कमको भस्म कर डाला है। दूसरा कोई लोकसंहारक रुद्र नहीं है न दूसरा कोई लेोकवि है। ही सवा कुछ है, क्योंकि वही सर्व तत्वोंका यथार्थ ज्ञाता है । और कोई बौद्धों मान्य बुद्धदेव यथार्थ सर्वज्ञ परमात्मा नहीं है ।
वही यथार्थ जिन हैं क्योंकि उसने रागादि शत्रुओंको व ज्ञानावरणादि कर्म-रिपुओंको जीत लिया है। और कोई यथार्थ जिना या विजयी नहीं है, यही ईश्वर है. क्योंकि अविनाशी परमैश्वर्यका धारी वही परमात्मा है जो परम कृतकृत्य व संतोपी है, सर्व प्रकारकी इच्छासे रहित है | वही परमात्मा सचा ब्रह्मा है, क्योंकि यह ब्रह्मस्वरूप में लीन हैं । अथवा वह अपने स्वरूपसे यथार्थ मोक्षका उपाय बताता है। वही धर्मका कर्ता है। उसके हो स्वरूपके ध्यानले संसारी आत्मा परमात्मा होजाता है । और कोई जगतकर्ता ब्रह्मा नहीं हैं । यही परमात्मा अनंत है क्योंकि वह अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य, अनंत शांति, अनंत सम्यक्त आदि अनंत गुणका धारी है । उसीको सिद्ध कहते हैं; क्योंकि उसने साध्यको सिद्ध कर लिया है । संसारीको शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति सिद्ध करनी है । उसको वह प्राप्त कर चुका है ।
परमात्मा यथार्थ स्त्ररूपके प्रतिपादक हजारों नाम लेकर भावना करनेवाला भावना कर सक्ता है। नाम लेना निमित्त हैं। उन नामांक निमित्त से परमात्माका स्वरूप ध्यानमें यथार्थ हो आना चाहिये । परमात्मा वास्तव में जैन सिद्धांतमें सिद्ध भगवानको कहते हैं। जो परम शुद्ध हैं, उनकी आत्मा में किसी परद्रव्यका संयोग नहीं हैं, न वहां ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं न रागादि भाव कर्म हैं न शरीरादि नोकर्म है, शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है । ज्ञातादृष्टा स्वभाव से है तथापि प्रशंसा किये जानेपर प्रसन्न नहीं होता है ।
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३५२] योगसार टीका। निन्दा किये जानेपर क्रोधित नहीं होता है। वह सदा निर्विकार रहते हैं। उसमें ही विषय रहीं होता है । गटापि वे परमात्मा स्तुति करनेवाले पर प्रसन्न या रागी नहीं होते हैं। तथापि भक्तोंका परिणाम उनकी स्तुतिके निमित्तसे निर्मल या शुभ होजाता है तब जितने अंश. भावोंमें वीतरागता होती है उतने अंश कर्मका क्षय होता है । जितने अंश शुभ राग होता है उतने अंश पुण्यका बंध होता है । निन्दा करनेवालोंके भाव बिगड़ते हैं उसमे ये निन्दक पापका बंध करते हैं।
परमात्मा परम वीतराग रहते हैं। वे कोई भी अशुद्ध भाकि को नहीं हैं। उनमें शुद्ध परिणमन है । ये शुद्ध आत्मीक भावोंके ही कती है। जैसे निर्मल क्षीर झीर समुद्रमें निमर्ल ही तरंगे उठती हैं वैसे शुद्धात्मामें सर्व परिणमन या वर्तन शुद्ध ही होता है | वे परमात्मा सांसारिक सुख या दुःख भोगनेवाल नहीं हैं । चे केवल अपने ही अतीन्द्रिय परमानन्द के निरंतर भोगनेवाले हैं। परमात्मा सुख, सत्ता, चैतन्य, बौध इन चार मुख्य प्रागसि सदा जीते रहते हैं । परमात्मामें केवलदान व केवलज्ञान उपयोग एक ही साथ अपने आपको ही देख रहा है । अपने आपको ही जान रहा है ।
परमात्मा वर्ण, गंध, रसस्पर्शसे रहित अमूर्तीक है तौमी ज्ञानमई पुरुपाकार . पद्मासन या कायोत्सर्ग आदि आसनसे रहते हुये असंख्यात प्रदेशी हैं। ये परमात्मा परम आदर्श हैं। हरएक आत्मा भी निश्चयसे परमात्मा है ऐसा जानकर वीतरागमय या समभावमें होकर स्वानुभवका अभ्यास करना योग्य है | यही उपाय परमात्माके पदके लाभका है।
समाधशतकमें कहा हैनिर्मल: केवलः सिद्धो विविक्त: प्रभु रक्षयः । परमेष्टी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥ ६ ॥ ......
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योगसार टीका। भावार्थ-परमात्मा कर्ममल रहित निर्मल है, एक अकेला है इससे केवल है, वही सिद्ध है, ब्रही संबै अन्य द्रव्योंकी व अन्य आत्माओंकी सत्तासे निराला विविक्त है। वहीं अनंत बावान होने से प्रभु हैं, वही सदा अविनाशी हैं, वही परम पद में रहनेसे परमेष्ठी हैं । वही उत्कृष्ट होनेसे परात्मा हैं, वही परमात्मा हैं, वहीं सर्व इन्द्रादिसे पूज्य ईश्वर हैं, यही रम्गादि विजयी जिन भगवान हैं।
परमात्मादेव अपने ही देहमें भी है। एक हि लकखण-लक्खियउ जो परु णिकलु देउ । देहह मज्झहिं सो वसह तासु ण विजइ भेउ ॥१०६॥
अन्वयार्थ-(एक हि.लक्षण-लक्वियउ जो परुणिकलु दंज ) इस प्रकार पर कहे हुए लक्षणोंमे लक्षित जो परमात्मा निरंजन देव हैं (देहाँ मज्झहि सो वसइ) तथा जो अपने शरीरके भीतर बसनेवाला आत्मा है ( तासु भेडण विज्जइ) उन दोनोंमें कोई भेद नहीं है। .
भावार्थ-अपने शरीरमें व प्राणीमात्रके शरीरमें आत्मा द्रव्य शरीरभरमें व्यापकर तिष्ठा हुआ है | उस आत्मद्रव्यफा लक्षण सिद्ध परमात्माक समान है। व्यवहार दृष्टिसे या कर्मबन्धकी दृष्टिले सिद्धारमासे और संसारी आत्मासे स्वरूपकी प्रगटता व अप्रगटलाके कारण भी हैं । संसारी आत्माएं कार्मण व तैजसः शरीरको प्रबाहकी अपेक्षा. अनादिसे साथमें रख रही है | आठौं कर्मके विचित्र मेदोंक उदयसे. या विपाक रससे आत्माओंके विकासमें बहुत भेद दिख रहे हैं। उन : मेंदोंको संग्रह करके विचारें तो १९ उनीस जीव समास नीचे प्रकार होंगे- .:: . . : . : . .. .. ... ... : ..
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३५४]
योगसार टीका। '. (१) पृथ्वीकायिक सूक्ष्म, (२) पृष्त्रीकायिक बादर, (३) जलकायिक सूक्ष्म, (४) जलकायिक बादर, (५) अग्निकायिक सूक्ष्म, अग्निकायिक बादर, (७) बायकाधिक सक्ष्म- (८) वायकायिक बादर, (१) नित्य निगोद साधारण वनम्पनिकायिक सूक्ष्म, (१०) निन्य निगोद साधारण वनस्पतिकायिक बादर, (११) इतर या चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक मुक्ष्म, (१२) इतर निगोद साधारण वनस्पतिकायिक बादर, (१३) प्रत्येक वनस्पतिकायिक सप्रति हित (निगोद सहित ), (१४) प्रत्येक बनस्पतिकायिक अप्रतिष्ठित (निगोद रहित), (१५) टेन्द्रिय, (१६) तेन्द्रिय, (१५) चतुरिट्रियः (१८) पंचेन्द्रिय असैनी, (१९) पंचेन्द्रिय सैनी । हरएकमें पर्याप्त तथा अपर्याप्त भेद हैं, इस कारण ३८ अड़तीस भेद हो जायगे | लब्धपर्याप्त व निर्वृत्यपर्याप्तके भेदसे ५७ सत्तावन जीव समास हो जायेंगे।
सनी पंचेन्द्रियमें नारकी, देव, मनुष्योंके अनेक भेद हैं व पशुओंमें जलचर, थलचर व नभचर हैं। कर्मोके उदयक कारण संसारी जीयोंके भीतर ज्ञान दर्शन व वीर्य गुणकी प्रगटता कम व अधिक है व क्रोध, मान, माया, लोभ कषायोंसे अनुरंजित योगोंकी प्रवृत्ति या लेश्या मूलमें छः भेदरूप है तो भी हरएकके भीतर मन्द, मन्दतर, तीन, तीव्रतर शक्तिकी अपेक्षा अनेक भेद हैं । कृष्ण, नीला, कापोत, लेश्याके परिणाम अशुभ कहाते हैं, क्योंकि इन भात्रोंके होते हुए जीव पाप कर्मोको ही बांधते हैं। पीत, पम, शुक्ल लेश्याके परिणाम शुभ कहाते हैं। क्योंकि इन भावोंसे घातीय काँका मन्द पंघ पड़ता है व अघासीय कर्मोंमें केवल पुण्यका ही बन्ध पड़ना है। इस तरह अन्तरंग भाषोंमें व बाहरी शरीरकी चेष्टामें विशेष विशेष भेद कमौके उदयसे ही हो रहे हैं।
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योगसार टीका।
[३५५ इस कारण संसारी जीव विचित्र दोखते हैं। रागी जीव इन जीयोंको देखकर जिनसे कुछ इन्द्रिय विषयके साधनमें मदद मिलती है उनस प्रीति जिनसे बाबा पहुंचत, दिस है उनसे द्वेप कर लेते हैं । उसीसे कर्मबन्ध करते हैं व उन कमौका फल भोगते हैं । इस दृष्टि से देखते हुए वीतरागीको बन्ध नहीं होना है।
समभाव ही मोक्षका उपाय है, इस भावके लानेके लिये साधकको व्यवहार दृष्टि से भेद है, ऐसा जानते हुए भी, ऐसा धारणामें रखते हुए भी इस इष्टिका विचार बंद करके निजय दृष्टिसे अपने आत्माको व सर्व संसारी आत्माओंको देखना चाहिये तब अपना आत्मा व सर्व संसारी आत्माएं एकसमान शुद्ध, निरंजन, निर्विकार, पूर्ण ज्ञान, दर्शन, वीर्य व आनन्दमय अमूर्तीका, असंख्यात प्रदेशी ज्ञानाकार देख पड़ेंगे । तव सिद्धोंमें ब संसारी आत्माओंमें कोई भेद नहीं दीख पड़ेगा।
समभावको लानेके लिये ध्यानाको निश्चयनयसे देखकर राग 'द्वेषको दूर कर देना चाहिये । फिर केवल अपने ही आत्माको शुद्ध देखना चाहिये | उसे ही परम देव मानना चाहिये। आप ही निरंजन हैं, परमात्मा देव हैं ऐसा भाव लाकर इसी भावमें उपयोगको स्थिर करना चाहिये तब भावनाके प्रतापस यकायक स्वानुभव हो जायगा, मोक्षमार्ग प्रगद हो जायगा । वीतराग भाव ही परमानन्द प्रद है व निर्जराका कारण है । समांधिशनको कहा है --
परित्राहम्मतिः स्वस्माच्युतो बनात्यसंशयम् । स्वस्मिन्नहम्मतियल्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुधः ॥ १३ ॥ दृश्यमानमिदं. मूढस्त्रिलिममवबुध्यते । इदमित्यमबुद्धस्तु निष्पन शब्दवर्जितम् ।। *"....
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३५६] योगसार टीका ।
भावार्थ-जो कोई अपने शुद्ध स्वरूपके अनुभवसे छुटकर परभावोंमें आत्मापनेकी बुद्धि करता है, अपनेमें कषाय जगा लेता है वह अवश्य कर्म बंध करता है। परन्तु जो पर रागादि भावोंसे छूटकर अपने ही शुद्ध स्वरूपमें आत्मापनेकी भावना करता है वह झानी क्रमौम मुक्त होता है। मुर्ख बहिरात्मा इस दीखनेवाले जगतके प्राणियोंको तीन लिंगरूप स्त्री, पुरुष, नपुंसक, देखता है | परंतु ज्ञानी इस जगतका निश्चयसे एकसमान शब्द रहित व निश्चल ज्ञाता है। उमे सर्व जीव एकसमान शुद्ध दीखते हैं।
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. आत्माका दर्शन ही सिद्ध होनेका उपाय है।
जे सिद्धा जे सिज्झिहिहि जे सिज्झहि जिण-उत्तु । अप्पा-दसणि ते वि फुड एहउ जाणि णिमंतु ॥१०॥
अन्वयार्थ-(जिण उनु) श्री जिनेन्द्र ने कहा है (जे सिद्धा) जो सिद्ध होचुके हैं (जे सिज्झिहिहि) जो सिद्ध होंगे (ज सिज्झाहे) जो सिद्ध होरहे हैं (ते वि कुड अप्पा दंसाण) वे सब प्रगटपने आत्माके दर्शनसे हैं. ( एहउ णिभंतु जाणि ) इस बातको सन्देह रहित जानो।
भावार्थ-ग्रन्थकारने ऊपर कथित गाथाओंमें सिद्ध कर दिया है कि मोक्षका उपाय केवल मात्र अपने ही आत्माका अनुभव है। मोक्ष आत्माका पूर्ण स्वभाव है। मोक्षमार्ग उसी स्वभावका श्रद्धा व ज्ञान द्वारा अनुभव है। अपना ही आत्मा · साध्य है, अपना ही आत्मा साधक है । मादान कारण ही कायरूप हो जाता है। पूर्व पर्याय कारण है, उत्तर पर्याय कार्य है। .::: ...
सुवर्ण,आप ही धीरे. २ शुद्ध होता है। जैसा जैसा: अग्निका
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योगसार टीका |
| ३५७ ताप लगता है व सैल करता है वैसे वैसे सोना चमकता जाता है। उसकी चमक धीरे २ बढ़ ही आती है। सोना आपसे ही कुन्दन बन जाता है। इसी तरह यह आत्मा मन वचन कायकी क्रियाको चुद्धिपूर्वक निरोध करता है और अपने उपयोगको पांचों इंद्रियोंके fruit तथा मनके विकल्पोंसे हटाकर अपने ही आत्मामें तन्मय ' करता है, आत्मस्थ हो जाता है ।
इस दशाको आत्माका दर्शन या आत्माका साक्षात्कार कहते हैं । यही ध्यानकी अभि है, इसीके जलने पर जितनी २ वीतरागता बढ़ती है मौका मैल कटता है, आत्माके गुणोंका विकास होता है। धीरे २ आत्माका भाव शुद्ध होते होते परम वीतराग होजाता है । तत्र केवलज्ञानी अरहंत या सिद्ध कहलाता है।
आत्माका दर्शन या आत्मानुभव ही एक सीधी सड़क है जो मोक्ष सिद्ध प्रासाद तक गई है। दूसरी कोई गली नहीं है जिसपर चलकर पहुंच सके | सिद्धपद न तो किसीकी भक्ति से मिल सक्ता है न बाहरी तप व जप व चारित्रसे मिल सक्ता है। वह तो केवल अपने हो आत्माके यथार्थ अनुभव ही प्राप्त हो सक्ता है ।
Sareest श्रीगुरु तथा जिनवाणी से आत्माक: स्वरूप ठोकर जानना चाहिये कि यह स्वतंत्र द्रव्यं है, सत्तू है, व्यापेक्षा नित्यं है, -समय र परिणमनशील होनेसे अनित्य है, इसलिये हर समय उत्पाद व्यय भव्य स्वरूप है या गुणपर्यायस्य हैं। गुण सदा द्रव्यके साथ रहते हैं ! द्रव्य गुणोंका समुदाय ही है। गुणों में जो परिणमन होता है उसे ही पर्याय कहते हैं ।
आत्मा पुर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सभ्यक्तः, चारित्रादि शुद्ध गुणोंका सागर है, परम निराकुल है, परम वीतरांग है, आठों कर्म
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१५८] योगसार टीका। रागादि भावक्रम, शरीरादि नोकर्मसे भिन्न है, शुद्ध चैतन्य ज्योतिमय हैं। पर भावोंका न तो कर्ता है न पर भावोंका भोक्ता है । यह सदा स्वभावके रमणमें रहनेवाली स्वानुभुति मात्र है। इसतरह अपने
आत्माके शुद्ध स्वभावकी प्रतीति करके साधक इसी ज्ञानका मनन करता है।
भेद विज्ञानके द्वारा यद्यपि आप अशुद्ध है तो भी अपनेको कर्दम रहित जलके समान शुद्ध मानकर पारवार विचार करता है । इस मालामना तसे भी की समय समय अनंतगुणा बनती हुई विशुद्धताको एक अन्तमुहूर्त के लिये पाता है |
ऐसे परिणामं की प्राप्तिको करणलब्धि कहते हैं । तब यकायकः अनंतानुबंधी कषाय और दर्शन मोहका विकार दूर होता है और यह जीव अविरत सम्यक्ती या साथमें अप्रत्याख्यान कपायका विकार भी हदनेसे एकदम देशविरती श्रावक या प्रत्याख्यान कपायका भी विकार हदनेमे एकदम अप्रमत्तविरत साधु होजाता है।
चौथे अविरत सम्यक्त गुणस्थानमें आत्माका अनुभव प्रारंभ होजाता है, वह दोयजके चन्द्रमाके समान होता है। उसी आत्मानुभवके सतत अभ्याससे पात्रके शुणस्थानके योग्य आत्मानुभव निर्मल होजाता है, इस तरह गुणस्थान २ प्रति जैसे २ चढ़ता है आत्मासुभवकी शुद्धता व स्थिरता अधिक अधिक पाता जाता है।
आत्मानुभवको ही धर्मध्यान कहते हैं। उसीको ही कमाय मलके. अधिक दूर होनेसे शुक्ल यान कहते हैं। इसीसे चार घातीय कर्म क्षय होते हैं तब आत्मा अरहंत परमात्मा होजाता है। शेष चार अघातीय कर्मोंक दूर होनेपर यही सिद्ध होजाता है । भूत भावी वर्तमान तीनों झी कालों में सिद्ध होनेका एक ही मार्ग है। .
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योगसार टीका |
[ ३५९
अपने आत्माका जो कोई यथार्थ अनुभव करंगा वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्गको साधन करेगा | यह मोक्षमार्ग वर्तमान में भी साधकको आनंददाता है व भविष्य में अनंत सुखका कारण है। मुमुक्षुको उचित है कि वह व्यवहार धर्मके बाहरी आलम्बनसे निश्चय धर्मका या आत्मानुभवका अभ्यास करे । यही कर्तव्य है, यही इस प्रन्थका सार है | समयसार कलश में कहा है
शुद्धिविधायिकिल पर सम स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराच्युतः । बन्समुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल चैतन्यामृतपूरपूर्ण महिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥ १२-९ ॥
भावार्थ - जो कोई अशुद्धता के करनेवाले सर्वे ही पर द्रव्यका राग स्वयं त्यागकर व सर्व परभावमें रतिरूप अपराध मुक्त होकर अपने ही आत्मीक द्रव्यमें रतिः प्रीति, आसक्ति व एकामता करता है वह अपने उछलते हुए आत्मा के प्रकाशमें रहकर कर्मबन्धका क्षय करके चैतन्यरूपी अमृत पूर्ण व शुद्ध होकर मोक्षरूप या सिद्ध हो जाता है ।
ग्रन्थकर्ताकी अन्तिम भावना |
संसारह भय भी एण जोगिचंद मुणिएण | अप्पा संबोण या दोहा इक मणेण ॥ १०८ ॥ अन्वयार्थ - ( संसार भय-भीयरण ) संसार भ्रमणसे भयभीत ( जोगिचंद - पुणिरण ) योगेन्द्राचार्य मुनिने ( अप्पा
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I
३६० ]
योगसार टीका ।
संबोण ) आत्माको समझानेके लिये (इक- मणेण ) एकाग्र चित्तसे ( दोहा क्या ) इन दोहोंकी रचना की है।
भावार्थ- ग्रंथकर्ता योगेन्द्राचार्यने प्रगट किया है कि उन्होंने अपने ही कल्याणके निमित्त इन गाथा दोहोंकी रचना की है । कहते हैं कि मुझे संसार भ्रमणका भय है। संसार में आत्माको अनेक प्राणोंको धारकर बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं, परम निराकुल सुखका लाभ नहीं होता है।
जहतिक आठ कर्मका संयोग है वहनि ही संसार है, कमोंके उदयके आधीन होनेसे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन प्रगट नहीं होता है । न अनंतत्री ही झलकता है। मिध्यात्वका गहलपना रहता है, जिससे प्राणी अपने आत्मीक अतीन्द्रिय सुखको नहीं पहचानता है, इंद्रिय सुखका ही लोभी बना रहता है। इष्ट सामग्री मिलने की तृष्णा में फंसा रहता है । महान लोभी हो जाता है । इष्ट वस्तुके मिलने पर मान करता है । इष्ट वस्तुके लिये मायाचार करता है। कोई उसके लाभमें जो बाधा करे उसपर क्रोध करना है ।
मोहनीय कर्मके उदयसे नाना प्रकारके औपाधिक भाव निरन्तर रंगा रहता है, इसी कारण नए कर्मोका बन्ध करता है । चार घानीय कमौका जबतक क्षय न हो आत्मा परमात्मा नहीं हो सक्ता है | आयु कर्मके उदयवश स्थूल शरीर में रुकना पड़ता है । नामकर्मके उदयसे शरीरकी रचना शुभ या अशुभ होती है । गोत्रकर्मके उदयसे निन्दनीय या आदरणीय कुलमें जन्मता है। वंदनीय कर्मके उदयसे साताकारी या असाताकारी सामग्रीका निमित्त मिलता है | चार अघातीय कर्मके कारण बाहरी पिंजरे में कैद रहता है ।
चारों ही गतियोंमें जीव सांसारिक आकुलता भोगता है ।
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योगसार टीका ।
[ ३६१
जिस इन्द्रिय सुखको संसारके अज्ञानी प्राणी सुख कहते हैं उसीको ज्ञानी जीव दुःख मानते हैं, क्योंकि जबतक विषयभोग करने की आकुलता नहीं होती है तबतक कोई विषयभोग में नहीं पड़ता है | चाकी दाहका उठना एक तरहका रोग है । विषयभोग करना इस रोगके शमनका उपाय नहीं होकर तृष्णाके रोगकी वृद्धिका ही उपाय है। बड़े २ चक्रवर्ती राजा भी विषयभोगोंके भोगसे तृप्त नहीं हुए । इन्द्रियोंके भोग पराधीन हैं, बाधा सहित हैं, नाशवन्त हैं व कर्मबन्धके कारण हैं व समभावके नाशक हैं ।
संसार में दुःख मना है, इन्द्रिय सुखका लाभ थोड़ा है। नौ भी इस सुख संतोष नहीं होता है। आत्मा स्वभावसे परमात्मा रूप हैं, ज्ञानानन्दका सागर है, परम निराकुल है, परम बीतराग है, ऐसा होकर भी आठ कर्मोंकी संगति इसको महान् दीन दुःखी ब तुच्छ होना पड़ता है । जिसकी संगति अपना स्वभाव बिगड़े, दुर्गति प्राप्त हो, जन्म मरणके कष्ट हो उनकी संगति त्यागने योग्य है | इन कर्मों का कारण राग द्वेष मोह है । इसलिये राग द्वेष मोह ही संसारके भ्रमणका बीज है ।
इसी लिये आचार्य प्रगट करते हैं कि मुझे संसार से भय है अर्थात् मैं राग द्वेष मोहके विकार से भयभीत हूं, मैं इनमें पड़ना नहीं चाहता हूं, तथा नए कर्माका संचर होनेके लिये व पुरातन कर्मकी निर्जरा होनेके लिये आचार्यने अपने आत्माको ही वीतराग भाव में लानेके लिये आत्माके सारतत्वकी भावना की है-प्रगट किया हैं कि यह आत्मा निश्चयसे संसारी नहीं है, यह तो स्वयं परम शुद्ध परमात्मा देव है। इसीका ही वारवार अनुभव करना चाहिये। इसी में रमण करना चाहिये |
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३६२] योगसार टीका। - आत्मीक आनन्दका ही स्वाद लेना चाहिये। निराकुल अतीन्द्रिय सुस्वको भोगना चाहिये । आत्माका दर्शन करना चाहिये । इस ग्रंथकं भीतर आचार्यने इसी शुद्ध आत्माकी भावना करके अपने आत्माका हित किया है। अध्यात्म तत्वका विवेचन घरमहितकारी है,. आत्मीक भावनाका हेतु है ।
यद्यपि अंधकर्ताने अपने ही उपकारके लिये ग्रंशकी रचना की है तथापि शब्दोंमें भावोंकी स्थापना करने व उनको लिपियद्ध करनेसे पाठकोंका भी परम उपकार किया है | इस ग्रन्थको इसी भावमे पद्धना व मनन करना चाहिये कि हमारा संसार नाश हो अथान् संसारका कारण कर्म य कर्मबंधका कारण राग, द्वेष, मोह भावोंका नाश हो व मोक्षकै कारण स्वानुभवका लाभ हो । परमास्मतत्वकी ही भावना रहे । आत्माका ही आराधन रहे | समभावमें ही प्रवृत्ति रहे । शतिरसकी ही धारा वहे । उसी धाराके भीतर मगनता रहे । आनन्दामृतका ही पान रहे, सिद्ध सुखका ही उद्देश्य रहे,. शिवालयके भीतर प्रवेश करनेकी भावना रहे । यही भावना अमृतचन्द्राचार्य ने समयसारकलशमें की है
परपरिणतिहेतोर्मोहनान्नोऽनुभावादविस्तमनुभाव्यन्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते
र्भवतु समयसारव्याख्यथैवानुभूतेः ॥ ३ ॥ भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि निश्चयसे मैं शुद्ध चैतन्य मात्र मूर्तिका धारी हूं, परंतु अनादिकालसे मेरी अनुभूति विभाव परिणामौकी उत्पत्तिके कारण मोहकर्मके उदयके प्रभावसे रागद्वेषले निरंतर मली होरही हैं। मैं इस समयसार ग्रंथका व्याख्यान करके यही याचना
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योगसार टीका। [ ३६३ करता हूं कि यही मेरी अनुमति परम शुद्ध होजावे, वीतरागी होजावे, परम शांतरससे व्याप्त होजावे. समभावमें नन्मयता होजाचे, संसारमागसे मोक्षमार्गी होजावे ।
मंगलमय अरहतको, मंगल. सिद्ध महान् । आचारज पाटक यती, नमई नमहं सुख दान ।। परम भाव परकाशका, कारण आत्मविचार । जिस निमित्तसे होय सो, बंदनीक हरबार ।।
. [रन्धई, ता. १३-६-१९३९ ]
टीकाकारको प्रशस्ति। युक्त प्रांतमें शुभ नगर, नाम लखनऊ जान । अग्रवाल वंशज बस, मंगलसेन महान ।। १ ॥ जिनवाणी ज्ञाता सुधी, समयसार रस पान । करत करावत अन्यको, करत भव्य कन्या ॥ २ ॥ तिनसुत मक्खनलालजी, गृही कार्य लवलीन । तिन सुत वर हैं युद्ध अब, संतलाल दुरस हीन ।। ३ ॥ तृतिय पुत्र हूं नाम है, 'सीतल'. धर्म प्रसाद । विक्रम उनिस पैतिसे, जन्म भयो दुख बाद ।। ४ ।। बत्तिस वय अनुमान), गृह त्यागा वृष काज। श्राक्क चयो पालते, भ्रमण करत पर काज ॥ ५॥
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________________ 364 ] योगसार टीका। वायु कंपके रोगसे, पीड़ित चित्त उदास / योगसार इस ग्रन्थका, भाव लिखनके काज / प्रतिदिन दोहा एकको, नियम किया हित साज॥ 7 // शतक एक अर आठ दिन, पूर्ण भये सुखदाय। मुम्बई क्षेत्र अगासमें, नगर बड़ौदा पाय // 8 // तीन जगहके बासमै, करो सफल यह काम / मुम्बई नगर विशालमें, पूर्ण कियो अभिराम // 9 // अपाढ़ कृष्णा वारसी, मंगल दिवस महान / संक्त उन्निस छानवे, कीयो पूर्ण लिखान // 10 // उलिस उन्चालीसमें, जून त्रयोदश जान / भजन करत परमात्मका, मंगल पढ़ा महान // 11 // मंगल श्री जिनराज है, मंगल सिद्ध महान / साधु सदा मंगल मई, करहु. पापकी हान / / 12 // Ka