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योगसार टीका ।
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भाव में समभाव झलक गया है । एक अद्वैत आत्माका ही अनुभव आरहा है ! अनुभव के समय तो आपमें ही लीन है।
अनुभवकी माता भावना है। भावनाके समय उसे शुद्ध दृष्टिसे शुद्धात्मा ही दिखता है। इसका अभिप्राय यह नहीं लेना कि पुदलादि पांच द्रव्योंका अभाव होजाता है । जगत छः द्रव्योंका समुदाय है । - द्रव्य सप्त सन् पदार्थ हैं, उनका कभी लोप नहीं होसकता । तथापि आत्मदर्शकका लक्ष्यचिन्दु एक आत्मा ही आत्मा है । इसलिये आत्मा श्रीभगा दिया है। जैसे कोई खेल जाते और दृष्टि देखनेवालेकी चने के दानेकी तरफ हो तो वह चनेके खेतमें चनों को ही देखता है, वृक्षके पत्ते, शाखा, मूलादिको नहीं देखता है और कहता है कि इस खेत में पांच मन चना निकलेगा ।
बहुतसे सुवर्णके गहने मणिजडित हैं, जौहरीके पास चिकनेको लेजाओ तब वह केवल मणियोंको देखता है, सुवर्णको नहीं ध्यान में लेना, मणियोंकी ही कीमत करता है। उसी ही गहनेको सरफिके पास जाओ तो वह मात्र सुवर्णको ही देखकर सुवर्णकी कीमत लगाता है | इसी तरह आत्मज्ञानीको हरजगह आत्मा ही आत्मा दीखता है, यही भाव सामायिक चारित्र है, यही श्रावकका सामायिक शिक्षाव्रत है ।
जब आप परम शांत समभावी होगए तब साक्षात् कर्मके क्षयका कारण उपाय बन गया। फिर वहाँ और कल्पनाओंका स्थान नहीं रहा, न यह चिंता रही कि समाधिभाव प्राप्त करना है न यह चिन्ता रही कि पूजन पाठ करना है, न वह विचार ही कि शुद्ध भोजन करना है अशुद्ध नहीं करना है, अमुकके हाथका स्पर्शित करना है, अमुक हाथका स्पर्शित नहीं करना है। राग द्वेष रूप भाष व्यवड़ारसे करना पडता है यह व्यवहार निश्चयकी अपेक्षा असत्य हैं, माया · रूप हैं, मिथ्याभिमान है ।