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________________ १७० ] योगसार टीका । जब सर्व जीवोंको समान देख लिया तब किसके साथ मैत्री. करे व किसके साथ कलह करे | रागद्वेष तो नाना भेदरूप दृष्टिमें ही होसके हैं। सबैको शुद्ध एकाकार देख लिया तत्र शत्रु व मित्रकी कल्पना ही न रही | सर्व व्यवहार धर्म कर्मसे दूर होगया | व्यवहार निमित्त साधन के द्वारा जो भाव प्राप्त करना था सो प्राप्त कर लिया । समभाव ही चारित्र है, समभाव ही धर्म है, समभाव ही परम तत्व है सो मिल गया । वह भव्यजीव कुला होगया, अंधकी परिपाटीसे छूट गया, निर्जराके मार्ग में आरूढ़ होगया। सर्वार्थसिद्धिमें कहा है एक प्रथमं गमनं समग्र, समय एवं सामयिक, समय प्रवर्तनमस्येति वाषिद्ध सामाचिकं ॥ अ० ७ ० २१ ॥ भावार्थ - आत्माके साथ एकमेक होजाना आत्मामई होजाना सामायिक है । सारसमुच्चयमें कहा है समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानसः । ममत्वभावनमुक्ती यात्यसौ पद‌मव्ययम् ॥ २९३ ॥ भावार्थ- जो सुबुद्धी सर्व प्राणी मात्र से समभाव रखता है क ममता ने छूट जाता है वही अविनाशी पदको पाता है । समाविशतक में कहा है दृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते । इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् ॥ ४४ ॥ भावार्थ- मूर्ख अज्ञानी इस दिखनेवाले जगतको, स्त्री, पुरुष, नपुंसक रूप तीन लिंगमय देखता है। ज्ञानी इस जगतको शब्द रहित परम शांत देखता है ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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