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________________ १६८ ] योगसार टीका | न मुह्यति संशेतं न स्वार्थानध्यवस्यति । न रज्यते न च द्वेष्टि किंतु स्वस्थः प्रतिक्षणं ॥ २३७॥ भावार्थ - सर्व जीवोंका स्वभाव आत्माका व परपदार्थोंका सूर्यमण्डल की तरह बिना दूसरे की सहायतासे प्रकाश करता है। हरएक आत्मा स्वभावसे संशयवान नहीं होता है, अनभ्यवसाय या ज्ञानके आलस्य भावको नहीं रखता है न मोह या विपरीत भात्रको रखता है, संशय विमोह अनभ्यवसाय रहित हैं, न तो राग करता हैं न द्वेष करता है। किंतु प्रति समय अपने ही भीतर मगन रहता है । ज्ञानीको हरजगह आत्मा ही दिखता है । को सुसमाहि कर को अंचर, छोपु- अछोपु करिवि को बंचउ । हल सहि कलहु केण समाणउ, जहि कहि जोवर तर्हि अप्पाणउ ॥४० अन्वयार्थ - ( को सुसमाहि करउ ) कौन तो समाधि करे ( को अंचड ) कौन अर्चा या पूजन करें ( छोपु- अछोपु करित्रि ) कौन स्पर्श अस्पर्श करके ( को चंचल) कौन वंचना या मायाचार करें (केण सहि हल कलहु समाउ ) कौन किसके साथ मैत्री व कलह करे (जहि कहि जोवर तहि अप्पाणड ) जहां कहीं देखो वहाँ आत्मा ही आत्मा दृष्टिगोचर होता है । भावार्थ- इस चौपाई में बताया है कि निश्चयनयसे ज्ञानी " जब देखता है तब उसे अपना आत्मा परम शुद्ध दीखता है, वैसे ही विश्वभर में भरे सूक्ष्म व बादर शरीरधारी आत्माएं भी सब परम शुद्ध दीखती हैं। इस दृष्टिमें नर नारक देव पशुके नाना प्रकारके भेद नहीं दिखते हैं, एक आत्मा ही आत्मा दिखता है। ऐसा उस ज्ञानीके
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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