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________________ योगसार टीका | [ २०१ पाठन द्वारा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावकी रुचि प्राप्त करो। शुद्धा त्मानुभव मोक्षमार्ग है उसका लाभ करो, जिससे इस जीवनमें भी सच्चा सुख मिले व आगामी मोक्षका मार्ग तय होता जावे व निर्वाणका लाभ होसके । सारसमुच्चय में कहा है--- एतज्ज्ञानफलं नाम यच्चारित्रोयमः सदा । क्रियते पापनिर्मुक्तेः साधुवाणैः ॥ ११ ॥ सर्वद्वन्द्वं परित्यज्य निभृतेनान्तरात्मना । ज्ञानामृतं सदा पेयं वित्ताहादनमुत्तमम् ॥ १२ ॥ भावार्थ - शास्त्रशिका यही फट है जो पास अचकर व साधुओंकी सेवा करके चारित्र पालनेका सदा उद्यम करें | अंतरात्मा या सम्यग्टी आत्मज्ञानी होकर सर्व रागादि विकल्पोंकी छोड़कर निश्चिन्त होकर परमानन्दकारी आत्मज्ञान रूपी अमृतका पान सवा किया जाये । इन्द्रिय व मनके निरोधसे महज ही आत्मानुभव होता है । मणु-इंदिहि वि छोडियह वहु पुच्छियह ण कोइ । राय पसरु णिचारियt सहज उपज्जइ सोइ ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थ - ( मणु बहु इंदिहि विछोडिया ) यदि बुद्धिमान मन य इन्द्रियोंसे छुटकारा पाजावे ( कोइ ण पुच्छियइ ) तब किसीसे कुछ पूछनेको जरूरत नहीं है ( राय पसरु णिवा - रियइ ) जब रागका फैलाना दूर कर दिया जाता है ( सहज सोइ उपज्जड़ ) तब यह आत्मज्ञान सहज ही पैदा होजाता है । ક
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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