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________________ २१० ] योगसार टीका | भावार्थ - शास्त्रोंके रहस्यके ज्ञाताको जो व्यवहार निश्चयनय या द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयसे छः द्रव्योंके स्वरूपको भ प्रकार जानता हो व जिसको अपने आत्मामें रमण करनेकी गा रुचि पैदा होगई हो व जो कर्ममसे आत्माको छुड़ाना चाहता ह आत्माधीन निश्चय चारित्रके लाभके लिये उपयोगको मन व इंद्रिय रोकना चाहिये । इन्द्रियोंके विषयोंकी चाह मिटानी चाहिये तथा इन्द्रियों द्वारा स्पर्श करने, रस लेने, सूंघने, देखने व सुननेकी बुद्धिपूर्व क्रिया बंद करनी चाहिये। विषयभोग क्षणिक तृप्तकारी है व आगामी तृष्णाके वर्द्धक हैं, ऐसा जानकर सर्व इन्द्रियकि भोगों पूर्ण विर रहना चाहिये। अबुद्धिपूर्वक यदि वस्तु-स्वभावसे इन्द्रियोंके द्वार ज्ञानमें पदार्थ आजाये तो वीतराग भावसे जान करके छोड़ देना चाहिये | उनका स्वागत नहीं करना चाहिये । ध्यानके समय तो उपयोगको इन्द्रियोंके विषयों ढ़तापूर्वक हटाना चाहिये | मनको भी थिर करने की जरूरत है । मनद्वारा पिछले भोगका स्वरूप व आत्माकी कांक्षा होती है । वैराग्य द्वारा उसके इस संकल्प विकल्पको या चितवनको रोकें । आत्मज्ञानमें रमणका उपाय यह है कि पहले व्यवहार नयसे बारह भावनाओंको चिन्तवन करके मनको शांत करे, फिर निश्चय नयके द्वारा जगत के द्रव्योंको मूल स्वभावमें पृथक २ देखे । समभाव लानेका प्रयास करें, फिर अपने ही आत्माके स्वरूपकी शुद्ध भावना भावे । भावना करते करते एक दुमसे मनका उपयोग आत्मरूप हो जायगा व आत्मामें रमण प्राप्त होजायगा । अल्पज्ञानी हझस्वका उपयोग अंतर्मुहूर्त के भीतर कुछ ही देर स्थिर रहेगा, फिर निश्वयनयके द्वारा आत्माकी भावनायें आजाना चाहिये । अपने आत्मज्ञानमें
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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