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________________ यांगसार टीका। [२११ रमणके लिये दुसरोंसे पूछताछ करनेकी जरूरत नहीं है । स्वयं पुरुषार्थी होकर रागके प्रसारको मिटानेकी जरूरत है | तत्वज्ञानी छ: द्रव्योंको मूल स्वभावमें देखकर वैरागी होजाता है। वास्तवमें जिसको अनुभव करना है बह आप ही है । जिसने अपने आत्माके स्वरूपका भलेप्रकार निश्चय सहित ज्ञान प्राप्त करलिया है उसके भीतर आत्माका दर्शन या अनुभव रागद्वेषके मिटते ही साइजमें होजाता है। आत्माके आनंदकी गाढ़ श्रद्धा सर्व आत्मा या परपदार्थके आश्रित सुखसे वैराग्य उत्पन्न करदेती है । इंद्रियोंका सुख पराधीन है, व्यत्रहारी लोग इंद्रिय-सुखके लाभके लिये मनो। पदार्थोकी खोज करके उनसे TRE कलेते हैं ! आशाको दिय सुखसे गाढ़ वैराग्य होता है। इसलिये वह शीघ्र ही अपने उपयोगको मनोज्ञ या अमनोज्ञ पदार्थीस हटा लेता है। बस्तु-स्वरूपको विचार कर समभावमें आजाता है । रागका जाल मिटते ही अपना स्वरूप स्वयं प्रत्यक्ष होजाता है। जैसे सरोवरका निर्मल पानी जब पवनके द्वारा डांवाडोल होता है तब उसमें अपना मुख नहीं दीखता है परंतु जत्र तरंग रहित निश्चल होता है तब अपना मुख दिख जाता है। इसीतरह रागद्वेषकी चंचलता मिटते ही अपना आत्मा आपको स्वयं दिख जाता है, आत्माका अनुभव होजाता है । उपयोगकी चंचलता बाधक है। जब उपयोगको वैराग्यकी रज्जुसे बांधकर स्थिर किया जाता है तब सहज ही आत्माका प्रकाश होजाता है । समाधिशतकमें कहा है यदा मोहात्मजायते रागद्वेषौ तपस्विनः । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ।। ३९ ॥ यन्त्र काये मुनिः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम् । बुदृया तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति ॥ ४०॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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