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________________ २१२] योगसार टीका। भावार्थ--जब पीके गानों व 3 अप सब यह शांतभावसे क्षणभरके लिये अपने आल्मामें स्थित होकर आत्माके शुद्ध स्वभावकी ही भावना करे | जिस शरीर में मुनिका राग होजावे उस शरीरसे अपने आत्माके भामको हराकर अपने आत्माफ उत्तम ज्ञानमय शरीरमें उस भावको जोड देवे तब रागका क्षय होजायगा । पुद्गल व जगतके व्यवहारसे आत्माको भिन्न जाने। पुग्गलु आण्णु जि अश्ण जिउ अणु जि सहु ववहारु । चयहि वि पुग्गल गहहि जिउ लहु पारहि भवपारु ।। ५५॥ __अन्वयार्थ-(पुग्गलु अण्णु जि) पुद्गल मूर्तीकका स्वभाव जीवस अन्य है (जिर अण्णु) जीवका स्वभाव पुनलादिसे न्यारा है (सहु ववहारू अपा जि) तथा और सब जगतका व्यवहार प्रपंच भी अपने आस्मान न्यारा है (पुरगलु चयहि वि जिउ महाह) पुद्गलादिको त्यागकर यदि अपने आत्माको निराला ग्रहण करे (लहु भवपारु पाचाह) तो शीघ्र ही संसारसे पार हो जावे । भावार्थ-संसारमे पार होनेका उपाय एक अपने ही आत्माका सर्व परद्रव्योंसे तथा परभावोंसे भिन्न ग्रहण करके उसीका अनुभव करना है । ज्ञानी यह विचारता है कि हराएक यकी सत्ता भिन्न २ रहती हैं । मुलमें एक द्रव्य दूसरस मिलकर एकरूप नहीं होता, न एक द्रव्यके वाद होकरके दो या अनेक द्रव्य बनते हैं । सर्व ही द्रव्य अपने अनंतगुणोंको व पर्यायौंको लिये हुए बने रहते हैं तब मेरे आत्माका द्रव्य प्रगटपने अन्य सर्व संसारी तथा सिद्ध आत्माओंसे भिन्न हैं। अन्य आत्माओंका ब्रान, सुख, वीर्य, चारित्र भिन्न है । मेरे
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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