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________________ २७०] योगसार टीका। समय २ परिणमनशील है। शुद्ध स्वभावमें सदृश परिणमन अगुरुलघुत्व गुणके द्वारा कर रहा है । हरएक आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुख, धीर्य, सम्यक्त, चारित्र आदि शुद्ध भावीका धारी है तब निश्चयसे अपने आत्माको परमात्मारूप देखना ही व अनुभव करना ही वीतरागभावकी प्रातिका उपाय है। जहां वीतरागता जितने अंश होती है उतने अंश कर्मोंका संबर व उनकी निर्जरा होती है । नृतन कर्मका न आना व पुराने बांधे हुए कोका झड़ना ही मोक्ष होनेका उपाय है। सोऽहं मन्त्रके द्वारा अपने भीतर यही भावना भावे कि में ही परमात्मा हूं। मेरा कोई सम्बन्ध रागादि भावोंसे व पापपुण्यस व किसी प्रकार के कर्मसे या मन, वचन, कायकी क्रियासे नहीं है। मैं परम निर्मल अपने स्वभावमें बहनेवाला है । वास्तवमें जो कोई अरहंत व सिद्ध परमात्माको ठीक ठीक पहचानता है वह आत्माके द्रव्य, गुण, पर्यायको ठीक २ जानता है । पर वस्तुसे दृष्टि संकोच करके अपने ही आत्मापर दृष्टि जमाकर स्त्रिनेसे आत्माका ध्यान होजाता है। यही कर्म खास करने योग्य माना है। यही स्वानुभवकी कला है, यही तन्त्र है, यही मन्त्र है, और कोई मन्त्रतन्त्र नहीं है जिससे आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सके | बाहरी चारित्र मनको संकल्प विकलोसे दानेके लिये आवश्यक है । पर कास्की चिंताका अभाव करना जरूरी है। इसलिये पूर्ण व शुद्ध आत्मभ्यानके लिये निग्रंथ होना योग्य है । बाहरी व अन्तरंग परि. प्रहका त्याग करके निर्जन स्थानोंमें ध्यानका अभ्यास करना जरूरी है। · अनेकांतके झानसे विभूषित रहे कि पर्यायकी अपेक्षा मैं कर्म सहित हूं, अशुद्ध हूं, यकी अपेक्षा कर्मरहित शुद्ध हूँ। दोनों अपेक्षाओका ज्ञान रखके पर्यायकी दृष्टि से उपयोगको हटाले, द्रष्यसी
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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