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________________ योगसार टीका। जब ऐला माना जायगा तब अनादिकी मिथ्या वासनाका अभाव होगा । अनादिसे यही मियाधुद्धि थी कि मैं नर हूँ, नारकी हूं, तिथंच हूं या देव हूं या में रागी हूं, वेषी हूं, मोधी हूं, मानी हूं, मायावी हूं, लोभी हूं, कामी हूं, रूपत्रान हूं, बलवान हूं, रोगी हूं, निरोगी ई, बालक हूं; युवान हूं, वृद्ध है। मैं जन्मा, मैं वृद्ध हुआ, मैं मरा, आठ काँके उद्घके विधाकन जो विमान दशा आत्माकी होती थी उसीको यह अज्ञानी अपनी ही मूल दशा मान लेता था । कर्मकृत रचनामें अईबुद्धि, रग्बना श्रा, शरीरके सुखमें सुखी व शरीरके दुःखमें दुःखी मानता था । जैस कोई सिंहका बालक सिंह होके भी दीन पशु बना रहता है मे ही अज्ञानसे वह अपनेको दीन हीन संसारी मान रहा था [ श्री गुरुके प्रसादन, या शाम्रो ज्ञानसे या स्वयं ही उसकी जय झानकी आंख खुली उसको यह प्रनीति हुई कि मैं तो स्वयं भगवान प्रश्न परमात्मा हूं । मेरा स्वभाव सिद्ध परमात्मासे रंच मात्र कम नहीं है। मैं तो संसारके अपंचोंसे रहित हूं, मैं कौसे अलिप्त हूं, परम वीनरागी हूं, परमानन्दमय हूं, जितने अनन्तगुण सिद्ध, परमात्मामें है वे सब मेरे आत्मामें हैं। मैं अमूर्तीक अखण्ड ज्ञानमूर्ति हूं, केवल आपसे आपमें आरहीके लिये आपसे आपको आप ही परिणमाता हूं। में ही अपनी शुद्ध परिगतिका कर्ता हूं, शुद्ध परिणाम ही मेरा कर्म है। शुद्ध परिणाम ही कारण है । यही संप्रदान है, अपादान है, यही अधिकरण है, प्रथमामें इन छहों कारकों के विचारसे रहित एक अभेद स्वरूप हूं, मैं स्वयं रागादिक भावोंका या पुण्य पापकर्मका कर्ता नहीं हूँ, मैं फेवल अपने ही शुद्ध व अतीन्द्रिय सहज आनंदका भोगनेवाला हूं। मैं सांसारिक सुखका या दुःस्वका भोगनेवाला नहीं हूँ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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