SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार टीका । भावपाहुडमें श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं--- णाणम्मविमलसीयसलिलं पाऊण भविय भाषेण । बा हिजरमरण वेयणाहविमुक्का सिवा होति ॥ १२५ ॥ भावार्थ - भव्यजीव शुद्धभाव से ज्ञानमई निर्मल शीतल जलको पीकर व्याधि, जरा, मरणकी वेदनाकी दाहसे छूटकर शिवरूप मुक्त होजाते हैं। आप्तस्वरूपमें कहा है कि - रागद्रेादयो येन जिताः कर्ममहाभटाः । कालकाविनिर्मुक्तः स जिनः परिकीर्तितः ॥ २१ ॥ [१०९ भावार्थ - जिसने रागद्वेपादिको व कर्मरूपी महान क्रीडाओंको जीता है व जो मरण के चक्र से रहित है वही जिन कहा गया है। अपनी आत्मामें व जिनेन्द्र में भेद नहीं । सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि । मोक्खह कारण जोईया णिच्छर एउ वियाणि ॥ २० ॥ अन्वयार्थ - ( जोईया) हे योगी ! (सुद्धप्पा अरु जिणवरहं किमपि भेउ म त्रियाणि) अपने शुद्धात्मामें और जिनेन्द्र में कोई भी भेद मत समझी (मोक्खह कारण णिच्छ एउ वियाणि) मोक्षका साधन निश्चयनयसे यही मानो । भावार्थ - मोक्ष केवल एक अपने ही आत्माकी परके संयोगरहित शुद्ध अवस्थाका नाम है। तब उसका उपाय भी निश्चयनयसे या पर्याय यही है कि अपने आत्माको शुद्ध अनुभव किया जावे साधा श्री जिनेन्द्र अरहंत या सिद्ध परमात्माके समान ही अपनेको: माना जावे |
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy