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________________ १०८ ] योगसार टीका । सर्व रागादि दोषोंसे परे रहकर व कषायके मैलको मैल समझकर उनसे रहित अपने वीतराग स्वभाव के अनुभव में जमकर अपने भीतर अनन्त शुद्ध गुणोंको प्रकाश करता है, दोषोंसे उपयोग घटाकर आत्मीक गुणोंमें अपनेको झलकाता हुआ उपगूहन या उपबृंहन अंगको पालता है । ज्ञानी जानता है कि रागद्वेषोंकी पवन लगनेसे मेरा आत्मीक समुद्र चंचल होगा | इसलिये वीतरागभाव में स्थिर होकर व ज्ञान चेतनामय होकर आत्मानंदके स्वादमें तन्मय हो स्थितिकरण अङ्गको पाता है । अपने उपयोगकी आत्माको भ्रमिमें रमनेसे बाहर नहीं जाने देता है। ज्ञानी जीव सर्व जगतको आत्माओंको एकसमान शुद्ध व परमानंदमय देखकर परम शुद्ध प्रेमसे मरकर ऐसा प्रेमाल होजाता है कि सर्व विश्वको एक शांतिमय समुद्र बनाकर उस समुद्र में गोते लगाता है। शुद्ध विश्व प्रेमको रखकर वात्सल्य अङ्ग पास्ता है | वह ज्ञानी अपने निर्मल उपयोगरूपी रथमें परमात्माको विराजमान करके ध्यानके मार्ग में रथको चलाकर अपने आत्माकी परम शांत महिमाको विस्तार करके प्रभावना अङ्ग पाळता है। इस तरह आठ अंगों से विभूषित ज्ञानी शुद्ध भाव से श्री जिनेन्द्रका स्मरण, चिन्तन व ध्यान करता हुआ निर्वाणके अचल नगरको प्रयाण करता है । समाविशतक में कहा है मिनात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशाः । बर्तिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥ २७ ॥ - भावार्थ — जैसे बत्ती दीपकसे भिन्न है तौभी दीपकको सेवा करके स्वयं दीपक होजाती है वैसे यह भिन्न परमात्माकी उपासना करके स्वयं परमात्मा हो जाता है ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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