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________________ योगसार टीका । [१०७ मुझे अपने आत्माके शुद्ध स्वभावमें या जिनपरमात्मामें कोई संशय नहीं है, न मुझे मरणका गंगादिका व किसी अकस्मात्का भय है। मेरा आत्मा अमुक अमेघ अछेव अविनाशी है। इसका कोई बिगाड़ कर नहीं सक्ता हैं | इसतरह स्वरूपमें निशंक ब निर्भय होकर निःशंकित अंग पालता है | इस ज्ञानीको कमौके आधीन क्षणिक, तृष्णाबद्धक, पापबन्धकारी इन्द्रिय सुखोंकी रंचमान्न लालसा या आसक्ति नहीं होती है । यह पूर्णपने वैरागी है । केवल अपने अती. न्द्रिय आनन्दका प्यासा है। उस परमानन्दक सिवाय किसी प्रकारके अन्य मुलकी क सागमवके पिकास अन्य किसी व्यवहार्मली या मोक्षपदके निज पदकं सिवाय अन्य किसी पदकी बांका नहीं रखता है। वे चाह लो शुद्ध भाव रखता हुआ निष्कांक्षित अङ्गको पालता है । ज्ञानी छः द्रव्योंको व उनके गुणोंके व उनकी होनेवाली स्वाभाविक व वैभाविक पर्यागोंको पहचानता है | सर्व ही जगतकी व्यवस्थाको नाटकके समान देखता है । किसीको बुरी व भली माननेका विचार न करके घृणाभावकी कालिमासे दूर रहकर व समभावकी भूनिमें तिगुकर निर्विचिकित्सित अङ्गको पालता है। वस्तु स्वरूपको ठीक ठीक जाननेवाला ज्ञानी जैसे अपने आत्माको द्रव्याधिक व पर्यायार्थिक नयसे एक व अनेकरूप देखता है वैसे अन्य जगतकी आत्माओंको देखता है, वह किसी वानमें मूलभाव नहीं रखता है। वद् धर्म, अधर्म, आकाश, काल चार द्रव्योंको स्वभावमें मदा परिणमन करते हुए देखता है। पुद्गलकी स्वाभाविक व वैभाषिक पर्यायोंको पुगलकी मानता है । जीवकी स्वाभाविक व वैभाविक वैमित्तिक पर्यायोंको जीयकी जानता है । उपादेय एक अपने शुद्ध द्रव्यको ही जानता है । इसतरह ज्ञानी वस्तु स्वभावका ज्ञाता होकर अमूह दृष्टि अंग पालता है । ज्ञानी.
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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