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३२०] योगसार टीका।
समयसारकलशमें कहा हैअत्यन्तं भावयित्वा विनमविरतं कर्मणस्ताफलान प्रम्पाटं नायित्वा प्रलयन खिलाज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्या स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचतनां स्वां सानन्दं नाट्यन्तः प्रशासमितः सर्वकालं पिबन्तु ॥४-१०॥
भावाथ-कर्म करने के प्रपंचसे व कर्मफलमे निरन्तर विरक्त भावी भलेप्रकार भावना करे | सर्व प्रकार अज्ञान चननाको नाशकरनेक भावको भलेप्रकार नाश करावे । अपने आत्मीक रससे पूण अपने स्वभावको जानकर ज्ञानचंतनाको या आत्मानुभूतिको आनंद सहित केल कराव, व सर्वकाल शांत रसका ही पान करे । चही ज्ञानीको प्रेरणा है ।
आत्माको पुरुषाकार यावे । पुरिसायार-पमाशु जिय अम्मा एड पवित्तु । जाइज्जइ गुण-गण जिलउ णिम्मल-तेय-फुरंतु ॥ ९४ ॥
अन्वयार्थ-(जाय ) ई जीव : (एहु अप्या पुरिसायारपमाणु पवित्त गुणगाणलउ णिम्मलतेय-फुरंतु जोइन्जा) इस अपने आत्माको पुरुषाकार प्रमाण, पवित्र, गुणोंकी खान, व णिमिल तेजसे प्रकाशमान देखना चाहिये ।
भावार्थ-आत्माकी भावना करनेके लिये शिक्षा दी है कि आत्माको ऐसा विचारना चाहिये कि उसका आत्मा अपने पुरुषके आकार प्रमाण है, सर्थ शरीरमें व्यापक है । यदि पल्मासनसे बैठे तो आत्माको पद्मासन विचार । यदि कायोत्सर्ग आसनसे खड़ा हो तो आत्माको उसी प्रकारका विचारे । यद्यपि आत्मा असंख्यान प्रदेशी