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________________ २६४ योगसार टीका । पांच महावतोंको यथार्थ पाल सक्ता है। गृहस्थावस्थामें आरम्म परिप्रहके कारण हिंसादि पांच पापोंके विकल्प नहीं मिटते हैं । मनमें निश्चलताका बाधक परिग्रहकी चिंता है | उत्तम धमध्यान प्रत्याख्यान कषायके उदयसे व निमित्त पूण वैराग्यक न होनेसे गृहस्थीके नहीं होसत्तता है । इसी लिये लीकरादि महानुरूपोंने भी गृहस्थपद त्यागकर साध्रुपद धारण किया । बाहरी परिग्रहका त्याग इसलिये जरूरी है कि परिग्रह मूाभारत और करके : सिगि दाल मारके मागके लिये महापुरुप कत्री, पुत्र, धन, राज्य संपदाको त्यागकर प्रकृति रूपमें होजाते हैं। बाभूपण त्यागकर वाटकके समान नग्न होजाते हैं। जहाँतक बन्नका ग्रहण है वहातक परिग्रहका पूर्ण त्याग नहीं है। दिशाओंको ही जहां वप कल्पा जावे बही दिगम्बर या निगंथ मेप है । यह निथका ना भंप जहां मोरपिनिछका जीवदयाके लिये व काठका कमंडल शौरके लिये या कभी शास्त्र ज्ञानके लिये रखा जाना हैं | अन्तरंग, निग्रंथ होनेका निमित्त साधन हैं ! निमित्फे विना उपादान काम नहीं करता हैं | जब आग पानीका निमित्त होता है तब ही चावल पककर भात बनता है | अन्तरंगमें मनको ग्रंथरहिन करना चाहिये । मनसे सर्व रागवेष मोह हटाना चाहिये। बुद्धिपुर्वक चौदह प्रकार के अन्तरंग परिमएका त्याग होना चाहिये । मिथ्यादर्शन, क्रोध, माग, माया, लोभ, हास्य, रनि, अरनि, शोक, भय, जुगुप्मा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद भावोंका त्याग करके मभ्यम्बट्री कष्ट दिये जाने पर भी उत्तम क्षमाघान, विद्या व तप संयम होने पर मी परम कोमल, मन वचन कायका वर्तन सरल रखके परम आजब गुणयुक्त, सर्व पर वस्तुका लोभ त्यागके परम सन्तोषी व पवित्र, हास्य रहित गम्भीर, रति व
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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