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योगसार टीका |
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अरति रहित समभावी, शोक रहित परम प्रसन्न, भय रहित निर्मल, "घृणा रहित वस्तु स्वभावके मर्मी, तीन वेद भाव रहित परम ब्रह्मचारी रहना योग्य है ।
मनके भीतर से सर्व मनताका, रागद्वेषका मैल निकालकर फेंक देना चाहिये, परम वीतराग, समदर्शी, सर्व प्राणी मात्रपर करुणाभाव, परम सन्तोपी, आत्मरस पिपासु, विपयरस विरत होना हो भाव निर्मथ पत्र है । धान्यका बाहरी छिलका हटाए बिना भीतरका पतला छिलका दूर नहीं हो सक्ता, शुद्ध चावल नहीं मिल सक्ता । कोई बाहरी छिलका ही हटावे, भीतरी नहीं हटाये तो यह शुद्ध चावल नहीं पा सकेगा, इसी तरह बाहरी परिग्रहके त्याग त्रिना अन्तरंग रागमात्र नहीं मिट सकता। बाहरी निर्मेय हुए विना जन्तरंग निर्भय नहीं हो मक्ता । यदि कोई चाही निर्बंध हो जाये परन्तु भीतर से नियंव न हो, वीतरागी न हो. समदर्शी न हो, आत्मानंद - रसिक न हो तो वह सजा निद्र्य नहीं है ।
भाव निर्बंध ही वास्तव में भोक्षका मार्ग है, केवल व्यवहारचारित्र मोक्षमार्ग नहीं है । रक्षन्नयमई अन्तरंग म्वानुभव रमणरूप निश्चयचारित्र है, यही धार्थ शिवगंध है, इसीपर चलकर ज्ञानी मोक्षनगरमें पहुंच जाते हैं । पुरुषार्थसिद्धपाय में कहा हैमिश्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्ध पदोषाः ।
चत्वारश्च कयायाश्वचतुर्दशाभ्यन्तरा यथा ॥ ११६ ॥ निजक्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसंगानाम् । कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ।। १२६ ॥ बहिरङ्गादपि संगाद्यस्मात्प्रभवत्यसंयमो ऽनुचितः । परिवर्जयेदशेषं तमचितं वा सचितं वा ॥ १२७॥