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योगसार टीका |
भावार्थ - मिध्यात्वादि चौदह प्रकार अन्तरंग ग्रन्थ हैं। अपनी शक्तिले इन सर्व अन्तरंग परिग्रहका त्याग करे । मार्दव, शौच आदि भावनासे भावको पवित्र रखे, क्योंकि बाहरी परिग्रह अनुचित असंयम होता है, इसलिये सर्व ही सचित्त व अचित्त परिग्रहको त्याग करें । उभय प्रकार निषेध क्षेत्रा ।
देहमें भगवान् होता है ।
जं वमज्झहँ बीउ फुड़ बीयहँ बड़ वि हु जाणु | तं देह देव विमुग्रहि जो तइलोय - पहाणु ॥ ७४ ॥ अन्वयार्थ - ( जं वडमज्झहँ बीउ फुडु ) जैसे वर्गत वृक्षमें उसका बीज स्पष्टपने व्यापक है ( बीय व विदु जाणु) वैसे वर्ग के बीज में वर्गतके वृक्षको भी जानो ( तं देहहँ देउ कि मुणाहि ) तैसे इस शरीर में उल देव को भी अनुभव करो ( जी तड़लोय - पहाणु ) जो तीन लोकमें प्रधान है।
भावार्थ -- अपना आत्मा अपने शरीरमें व्यापक है- शरीर प्रमाण है । शरीर प्रमाण आकार लिये शरीर में है। जैसे वर्गतमें बीज व वीजमें वर्गत व्यापक है। यह आत्मा स्वयं तीन लोकमें मुख्य पदार्थ परमात्मा देव है । ज्ञानीको यह विचारना चाहिये कि मेरा आराधने योग्य या ध्यान करने योग्य मेरा ही आत्मा है । आसन लगाकर बैठ जाओ तब यहीं विचार करे कि जैसा इस मेरे शरीरका आकार है, वैसा ही आकार मेरे आत्मीक प्रभुका हैं।
आत्मा असंख्यात प्रदेशी होकर भी शरीरप्रमाण रहता है । आत्मा देवको तेजस, कार्मण, औदारिक तीनों शरीरोंसे भिन्न देखे । सर्व रागादि भावों से भिन्न देखे। कर्मके निमित्त से होनेवाले औदयिक,