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________________ यांगसार टीका | [ २६७ औपशमिक, क्षायोपशमिक, भावों से भिन्न एक शुद्ध पारिणामिक स्वभा बधारी देखे । द्रव्य दृष्टि जीवके साथ कमका संयोग नहीं दिखता है तब कर्मी अपेक्षा होनेवाले भाव भी नहीं दिखते हैं । क्षायिक भाव यद्यपि अपने ही आत्मा के निज भाव हैं परंतु कर्मोंके क्षयसे प्रगटे हैं, इस दृष्टि कर्म सापेक्ष होजाते हैं । कमकी अपेक्षा न लेनेवाले द्रव्यार्थिक नयमें इस क्षायिक भावका भी विचार नहीं है | इसे अलका सबै वस्तुको अपने मूलखभावमें दिखानेवाला द्रव्यार्थिक नय है । इस इसे देखते हुये आत्मा के साथ न कभी कर्मका सम्बन्ध था, न है, न होगा | तीनकालमें एक स्वरूप में शुद्ध स्फटिकमणिकं समान दिखनेवाला यह आत्मा है । यद्यपि कमकं संयोगसं कर नारक पशु देव बार बार हुआ, यह विचार पर्यायकी दृष्टिसे हैं तौ भी द्रव्यदृष्टि यह आत्मा जैसाका तैसा बना रहा। इस आत्माने अपने स्वरूपको कुछ भी खोया नहीं। पर्याय दृष्टिसे यह चंचल दिखता है । इसमें मन वचन कायके निमित्तसे प्रदेशोंका कम्पन होता है व योगशक्ति कर्म नोकर्मको ग्रहण करती है तथापि द्रव्यदृष्टिले यह मन वचन कायसे रहित है, चंचलता रहित परम निश्चल है, कर्म नोकर्मको ऋण नहीं करता है । परके ग्रहण व स्वगुणके त्यागसे रहित हैं । भेद दृष्टि से यह आत्मा अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व इन छः प्रकार के सामान्य गुणसे व ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यग्दर्शन, चारित्र आदि शुद्ध गुणका धारी है तौ भी अभेद दृष्टिसे यह एकरूप अखंड सर्व गुणोंका पिंड एक शुद्ध द्रव्य ही दिखता है। यद्यपि पर्याय दृष्टिसे रागद्वेष मोहादि विभावोंसे संतापित व अशांत दिखता है तो भी द्रव्यदृष्टिसे यह बिलकुल. विभावसे रहित परम शांत दिखता है। क्रव्यार्थिकनय से अपने शरी
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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