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________________ २६८ ] योगसार टीका । के भीतर शुद्ध स्वरूपी अपने आत्माको देखना चाहिये। वैसे ही जनमें सर्व आत्माओं को एकाकार शुद्ध देखना चाहिये । छः द्रव्यमि लादि पांच अचेतन हैं, उनपर शत्रुना मित्रता नहीं होसकती । आत्मा मात्र सचेतन है | जब सर्वको एकसमान शुद्ध देखा गया तब न कोई मित्र है, न कोई शत्रु हैं, सर्वको व अपनेको समान देखते हुए रागद्वेषका पता नहीं रहता है | समभाव व शांत रस बहता है । निद्र्थ मुमुक्षुको उचित है कि इस तरह समभाव में रमण करके सामायिक चारित्रको पाले । स्वानुभव में लीन होकर सर्व नयोंके विचार से भी रहित होकर आत्मानंदमें मस्त होजावे | यही आत्मसमाधि है | समाधिशतक में कहा है आत्मानन्तरे देहादिकं बहिः । तयोरन्तरविज्ञानादन्यासादच्युतो भवेत् ॥ ७९ ॥ चेतनं ततः । अचेतनमिदं क रुप्यामि क तुप्यागि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥ ४६ ॥ भावार्थ - जो अपने आत्माको भीतर देखकर व शरीरादिको अपने से बाहर देखकर शरीर व आत्माके भेदविज्ञानसे आत्मा को शुद्ध अभेद जानकर उसी अनुभवका अभ्यास करता है वह मुक्त - होजाता है। ज्ञानी विचारता है कि जो इंद्रियों झलकता है वह सब अचेतन जड़ है। जो आत्माएं हैं वे इंद्रियोंसे दिखती नहीं तब फिर मैं किसपर प्रसन्न रहे व किसपर रोष करूँ ? मैं - वीतरागी व समभावी ही रहता हूं ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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