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________________ योगसार टीका। [१६५ जीव अपनेको सर्य रागादिसे सोशदिसे मिल जालमा गएकरूप अनुभव करता है। आश्चर्य य खेद है कि अज्ञानी जीयमें अनादिकालसे यह मोहभाव क्यों नाच रहा है जिससे यह अजीचको अपना तल मान रहा है : दो द्रव्योंको न्यारे न्यारे नहीं देखता है इसीसे संसार है। आत्मा केवलज्ञानस्वभावधारी है। केवल-णाण सहाउ सो अप्पा मुणि जीव तुह । जइ चाहहि सिव-लाहु भाइ जोड़ जोइहि भागिल ॥३९।। अन्वयार्थ-(जोइ ) हे योगी ! (जोदाई भणि) योनियोंने कहा है (तुहूं केवल-णाण-सहाउ सो अप्पा जीव मुणि) न केवलज्ञान स्वभावी जो आत्मा है उसे ही जीव जान (जह सिव-लाइ चाहि ) यदि तू मोक्षका लाभ चाहता है (भणइ) ऐसा कहा गया है। भावार्थ-हरएक आत्माको जब निश्चयनयसे या पुद्गलये खभाषसे देखा जावे तब देखनेवालेके सामने अबेला एक आत्मा सर्व परर्फ संयोग रहित खड़ा होजायगा । तब वहां न तो आठों कर्म दीखेंगे न शरीरादि नो कर्म दीखेंगे, न रागद्वेषादि भावकम दीखेंगे। सिद्ध परमात्माके समान हरपक आत्मा दीखेगा । यह आत्मा वास्तवमें अनुभवस्न पर है । तथापि समझनेवे लिये कुछ विशेष गुणोंके द्वारा अचेतन द्रव्योंसे जुदा करके बताया गया है । छ: विशेष गुण ध्यान देनेयोग्य हैं। (१) शान-जिस गुणके द्वारा यह आत्मदीपकके समान आपको व सर्व जाननेयोग्य द्रव्योंकी गुणपयायोको एकसाथ क्रम
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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