SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६] योगसार टीका। रहित जानता है, इसीको केवलज्ञान-स्वभाव कहते हैं । इन्द्रियोंकी व मनकी सहायता विना सकल प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान आवरण रहित सूर्यकी भांति प्रकाशता है। उसके द्वारा अन्य गुणोंका प्रतिभास होता हैं.। इसीको सर्वज्ञपना कहते हैं । हवाएक आत्मा स्त्रभावसे मर्वज्ञ हैं। (२) दर्शन-जिस गुणकं द्वारा सर्व पदार्थ के सामान्य स्वभावको एकसाथ देखा जासके वह केवलदर्शन :स्वभाव है । वस्तु सामान्य विशेषरूप है, सामान्य अंशको ग्रहण करनेवाला दर्शन है, विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है ! (३) मुख-जिस गुणक द्वारा परम निराकुल अद्वितीय आनंदामृतका निरन्तर स्वाद लिया जावे । हरएक आत्मा अनन्त सुखका सागर है, वहां कोई सांसारिक नाशवंत परके द्वारा होनेवाला सुख व ज्ञान नहीं है । जमे लवणकी डली खाररससे व मित्रीकी डली मिष्टरससे पूर्ण है वैसे ही हरएक आत्मा परमानंदसे पूर्ण है । (४) वीर्य-जिस शक्तिसे अपने गुणोंका अनत कालतक भोग या उपभोग करते हुए खेद व थकावट न हो, निरंतर सहज ही शांतरसमें परिणमन झो, अपने भीतर किसी बाधकका प्रवेश न हो। हरएक आत्मा अनंतवीर्यका धनी है। पुदल में भी वीर्य हैं, अशुद्ध आत्माका घात करता है तथापि आत्माका वीर्य उससे अनंतगुणा है,. क्योंकि कौका क्षय करके परमात्मा पद आत्म वीर्यसे ही होता है। (५) चैतनत्व-चैतनपना, अनुभवपना “चैतन्य अनुभवन" (आलाप पद्धति ) अपने ज्ञान स्वभावका निरंतर अनुभव करना,. कर्मका व कर्मफलका अनुभव नहीं करना । संसारी आत्मा रागी द्वेषी होते हैं अतएव राग द्वेषपूर्वक शुभ व अशुभ काम करने में तन्मय रहते हैं या कर्मके फलको भोगते हुए सुख दुःखमें तनमय होजाते हैं। : - - -
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy