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इन्टर स्कूल है
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योगसार टीका |
प्रकाशसे शीघ्र ही निर्माणका लाभ होगा। आत्मवीर्यके प्रयोगसे ही हरएक कामका पुरुषार्थ होता है। अज्ञानी जीव पाँचों इंद्रियोंके विष योंके भीतर जिस आसक्किसं रमण करता है वैसी आसक्ति ज्ञानी जीव अपने आत्माके रमण करता है, विषयोंके रमणने मनको बिलकुल फेर लेता है ।
स्पर्शनेन्द्रियके वशीभूत हो हाथी उन्मत्त होता जाता है, पकड़ा जाता है, सभी विपयकी आसक्तिको नहीं छोड़ता है। रसनाइन्द्रि यके वश हो एक मत्स्य जालमें पकड़ लिया जाता है । बाणइंद्रियके वश हो एक भ्रमर कमलमें बंद होकर प्राण देदेता है। चक्षुइंद्रिय वशीभूत होकर पतंग दीपककी ज्योतिमें भस्म होजाता है । कर्णइन्द्रियके वश हो मृग जंगलमें पकड़ लिया जाता है। जैसी आसक्ति इन जीवोंकी इन्द्रियोंके भोगो में होती है वैसी आसक्ति ज्ञानीको आत्मा के रमणमें रखनी चाहिये। दिन रात आत्माका ही स्मरण करना चाहिये | आत्माका ही स्वाद लेना चाहिये । विषय कषायका स्वाद नहीं लेना चाहिये |
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आत्मा के इसमें ऐसा रसिक हो जाना चाहिये कि मान, अपमान, लाभ, अलाभ, कांच कंचन, स्त्री पुरुष, जीवन मरण, दुःख-सुखमें समान भाव रखना चाहिये। जैसे धतूरा खानेवाला हर स्थानमें पीत रंग देखता है वैसे आत्मप्रेमी हर स्थानमें आत्माको ही देखता है | शुद्ध निश्वयनयसे उसे जैसे अपना आत्मा परमात्मारूप शुद्ध दीखता है वैसे हरएक आत्मा परमात्मारूप शुद्ध दीखता है उसकी तीक्ष्ण दृष्टिसे भेदज्ञानके प्रयत्नसे पुदलादि पांच द्रव्योंका दर्शन छिप जाता है, केवल आत्मा ही आत्मा लोकभरमें दिखता है तब यह लोक एक शुद्ध आत्मीक सागर बन जाता है । उसी आत्मसागरका वह आत्मज्ञानी एक महामत्स्य हो जाता है । उसी आत्मसागरमें वास