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________________ योगसार टीका। [१९९ करता है, उसीमें कल्लोल करता है, उसी आत्मीक जलका पान करता है, उसीके आनन्दमें मगन रहता है। ज्ञानी जीव ऐसा आत्मरसिक हो जाता है कि तीन लोककी विपक्ष-सम्पदा इसकी जाणतणक सभा दीखती है। यही कारण हैं जो बड़े २ सम्राट राज्यविभूति, न स्वीपुत्रादि सब कुटुम्बका ल्यागकर, परिग्रहके संयोगसे रहित हो, एकाकी बनमें निवास करते हैं और निर्मोही हो, बड़े प्रेम व उत्लाइस आत्मीक रसके स्वादमें तन्मय हो जाते हैं, विषयोंकी तरफसे परम उदासीन हो जाते हैं | मनको सर्व ओरसे रोककर आत्माके रसमें ऐसा मगन कर देते हैं कि वह मन उसीतरह लोप हो जाता है जैसे पानी में बकर लवणकी डली लोप हो जाती है, मन मर जाता है, केवल आत्मा ही आत्मा रह जाता है। ऐसा आत्मस्थ योगी परीषहोंके पड़नेपर भी विचलित नहीं होता है । शीघ्र ही क्षायिक सम्यग्दृष्टी होकर क्षपकश्रेणीपर चढ़कर घातीय कर्मोंका एक अन्तर्मुहूर्तमें क्ष्य करके केवलज्ञानी होजाता है | उसी शरीरसे शरीर रहित होकर सिद्धपदका लाभ कर लेता है। इष्टोपदेशमें पूज्यपाद महाराज कहते हैं अविद्या भिदुरं ज्योतिः परे ज्ञानमयं महत् । तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ १९ ॥ संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः । आत्मनमात्मवान्ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थित ॥ २२ ॥ परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी । जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा ॥२४॥ भावार्थ-अज्ञानसे रहित श्रेष्ठ ज्ञानमई महल ज्योति भीतर
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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