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________________ २०० ] योमसार टीका। प्रकाशमान है | मोक्षके अर्थीको चिन है कि उसी आत्म-ज्योनिके सम्बंधमें प्रश्न करे, उसीकी चाह करे व उसीका दर्शन करे । पांच इंद्रियों के प्रार्मोको संयममें लाकर चिनको एकाग्र करके आत्मझानीको उचित है कि वह आत्मामें ही स्थित होकर आत्माही के द्वारा अपने आत्माका ध्यान करें | 'जब अभ्यास करते २ आत्मीक योग इतना बढ़ जाय कि क्षुधा, तृषा, देशमशकादि परीषहोंकी तरफ लक्ष्य ही न रहे तच आम्रवका निरोध होकर शीघ्र ही कमौकी निर्जरा होने लगती है और वह योगी कमरहित परमपुरुष हो जाता है। - - -.. -- - -AMIm - शरीरको नाटक घर जानो । जेहड जारु परय-घर तहट बुज्ज्ञि सरीरु । अप्पा भावहिं णिम्मल लह, पावहि भरती ॥५॥ अन्वयार्थ (जहर णरय-घर जजरु) जैसा नरकका पास आपत्तियोंस जर्जरित है-पृण हैं (नेह सरीक बुज्झि) तैसे ही शरीरके वासको समझ (हिम्मलज अप्पा भावाहि) निर्मल आत्माकी भावना कर (लहु भवतीक पावहि) शीघ्र ही संसार पार हो। भावार्थ-शरीरको नरककी उपमा दी है। जैसे नर्कमें सर्व अवस्था खराब व म्लानिकारक होती है, मूत्र दुर्गध मय, पानी स्वारी, हवा अंगदक, वृक्ष तलवारकी धारके समान, वन विकराल, नारकी परस्पर दुःखदाई । नरकवासमें क्षण मात्र भी साता नहीं । भूख प्यासकी बाधा मिटती नहीं । आकुलताका प्रवाह सदा बहता है। नरकका बास किसी भी तरह सुखकारी नहीं है । नारकी हरसमय नरकवाससे निकलना चाहते है परंतु वे असमर्थ हैं। कर्माधीनपने
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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