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________________ योगसार टीका । [२०१ सरकवासमें आयु पर्यंत रहना पड़ता है, छेदन, मारन, पीड़न सहना पड़ता है। मानवका यह शरीर भी नरकके बराबर है । भीतर मास, चरबी, खून, हड्डी, वीर्य, मलमूत्रसे भरा है, अनेक कीड़े चिलबिला रहे हैं। शरीरके ऊपरसे स्वचाको हटा दिया जावे तो स्वयंको ही इस शरीरसे घृणा होजाये, मक्खियोंसे व मांसाहारी जन्तुओंसे यह वेष्ठित होजावे । इस शरीरके भीतरसे नवद्वारोंक द्वारा मल ही निकलता है। करोड़ों रोमके छेदोस भी मल ही निकलता है। करोड़ों रोगोंका स्थान है। निरन्तर भूख प्याससे पीडित रहता है । भोजन पानी मिलते हुए मी भूख प्यासका रोग शमन नहीं होता है। शरीर ऐसा गंदा व अशुचि है कि सुन्दर व पवित्र पुष्पमाला, वस्त्राभूषण, जलादि शरीरकी संगति पाने ही अशुचि हो जाते है । शरीरमें पांच इन्द्रियां होती हैं उनको अपने अपने विषय भोगनेकी भी बड़ी भारी तृष्णा होती है । इच्छाके अनुसार भोग मिलते नहीं। यदि मिलते हैं तो घराचर बने नहीं रहने हैं। उनके वियोग होनेपर कष्ट होता है. व नए नए विषयोंकी चाहना पैदा होती रहती है | तृष्णाकी ज्याला बढ़ती ही रहती है । उनकी दाहसे यह प्राणी निरन्तर कष्ट पाता है। कुटुम्बीजन व स्वार्थी मित्रगण सब अपना अपना ही मतलब साधना चाहते हैं । मतलब कि त्रिना मातापिता, भाई, पुत्र, पुत्री, बहन, भानजे आदि कुटुम्बीजनों का स्नेह नहीं होता है | सब एक दूसरेसे सुख शनेकी आशा रखन हैं । विपयोंके भोगमें परम्पर सहायता चाहते हैं । यदि उनका स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है तो वे ही बाधक व घातक हो जाते है। शरीरमें चालकपन पराधीनपने बड़े ही कष्टसे बीतता है । -युवापनमें घोर तृष्णाको मिटाने के लिये धर्मकी भी परवाह न करके
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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