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________________ ३८] योगसार सका। मिच्छाइट्ठी जीवो उबइट पवयणं ण सद्दहदि । सदहदि असभा उबटुं वा अणुबइठं ॥ १८ ॥ भावार्थ-मिथ्यात्व कर्मके फलको भोगनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानी होता है । उम उसी तरह धर्म नहीं रुचता है जिस तरह ज्वरसे पीड़ित मानवको मिष्ट रस नहीं सुहाता है। ऐसा मिथ्यादृष्टी जीव जिनेन्द्र कथिल तत्वोंकी श्रद्धा नहीं लाता है | अयथार्थ तत्वोंकी श्रद्धा परके उपदेशस या विना उपदेशक करना रहता है | श्री कुन्दकुन्दाचार्य दसणपाहुडमें कहते हैं-- दसणभट्टा भट्टा दंगणभट्टम्स गस्थि णिव्वाणं । सिझंति चरियभट्टा दसणभट्टा ण सिझंति ॥ ३ ॥ सम्मत्तरयणभट्टा जाणता बहुविहाई सस्थाई । आराहणाविरहिया भमति तत्व तत्येव ॥ ४ ॥ सम्मत्तविरडिया को मुड वि उमा तवं चता । ण लहंति कोहिलाई अवि वाससहस्सकोडीहि ॥५॥ भावार्थ-जिनका श्रद्धान भ्रष्ट है वे ही भ्रष्ट है क्योंकि दर्शनभ्रम बहिरात्माको कभी निबाणका लाभ नहीं होगा। यदि कोई चारित्रभ्रष्ट हैं परंतु वहिरात्मा नहीं है तो वे सिद्ध होसकेंगे । परन्तु जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं ये कभी मोल नहीं पासकेंगे । जिनको सम्यग्दर्शनरूपी राकी प्राप्ति नहीं है, वे नानाप्रकारके शास्त्रोंको जानते हैं, तीमी स्वयकी आराधनाके विना वारवार संसारमें भ्रमण ही करेंगे । जो कोई सभ्यदर्शन में अन्य बहिरात्मा हैं वे करोड़ों वर्षतक भयानक कठिन तपको आचरण करते हुए भी रत्नत्रयक लाभको या आस्मानुभवको नहीं पासकते हैं।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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