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________________ ३२८ ] योगसार टीका । तीन लोककी सम्पत्तिसे उदासीनता आजावे । एक निज स्वभात्रसे ही प्रेम उत्पन्न होजाचे | झान व वैराग्य विना रत्नत्रयधर्मका स्वाद नहीं आयगा । मोक्षके सुखका उपाय निजात्मीक सुख या वेदन है। आत्मानंदका अनुभत्र ही ध्यानकी आग है जो कौंको जलारही है। मुमुक्षुको योग्य है कि जिनवाणीका अभ्यास करके आत्माको व परपदाधों को ठीक ठीक जाने | जानकर परमसमभावी होगा । जैसे सूर्यका काम केवल जगतको प्रकाश करता है, किसीमे रागद्वेष करना नहीं है, समभावसे निर्विकार रहना है वैसा ही आत्माका स्वभाव समभावसे पदाधाको पथार्थ जानना है. किमीले गामहेष नहीं करना है । जो समभावमें तिष्टकर निज आत्माको ध्याता है वही निर्वाणके सुखको पाता है। बृहत् सामायिक पाठमें कहा है भवति मधिनः सौख्यं दुःखं पुराकृतिकर्मणः स्फुरति हृदये रागो द्वेषः कदाचन मे कथं । मनसि समतां विज्ञायत्थं तयोविदधाति यः क्षपति सुधीः पूर्व पापं चिनोति न नृतन ॥१०२॥ भावार्थ-प्राणीको सांसारिक सुख दुःख अपने पुर्वमें यांध कमौके उदयसे होता है । तब ज्ञानीक मनमें किस तरह राग द्वेष पैदा होसक्ता है ! ज्ञानी रागद्वेपका स्वरूप जानकर उनको त्यागकर समताको मनमें धारण करता है। इसी उपायम यह पूर्व पापको नाश करता है व नये कर्मका संग्रह नहीं करता है। परम समाधि शिवसुखका कारण है। वन्जिय सरल-वियप्पई परम-समाहि लहति । जं विदहिं साणंदु क वि सो सिब-सुक्खं भणेति ॥१७॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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