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योगसार टीका |
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भावार्थ - इंद्रिय भोगोंके चीर जालाक दिल नहीं है को भी मिध्यादृष्टी अज्ञानकी भावनाएं उन्होंमें रमण करता रहता है। चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः कुयोनिषु ।
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जायति ॥ ५६ ॥ भावार्थ अनादिकालसे मृढ़ आत्माएं अपने स्वरूप में सोई हुई हैं. खोटी योनियों में भ्रमण करती हुई स्त्री पुत्रादि परपदार्थोंको क अपने शरीर व रागादि विभावोंको अपना मानकर इसी विभामें जाग रही हैं।
देहान्तरगते बजे देहेऽस्मिन्नाभावना ।
बीजं विदेह निष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥
भावार्थ - इस शरीर में आपा मानना ही पुनः पुन देह ग्रहका बीज है। जबकि अपने आत्मामें ही आपा मिलना देने छूट जानेका बीज है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैंमिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः ।
तस्मात्तदेव मोक मोक्षसौख्यं जिघृक्षुणा ॥ ५२ ॥ भावार्थ - इस दुष्ट संसारका परम बीज एक मिथ्यादर्शन है इसलिये मोक्ष सुखकी प्राप्ति चाहनेवालोंको मिथ्यादर्शनका त्याग करना उचित है |
सम्यत्तत्रेन हि युक्तस्य धुवं निर्वाणसंगमः !
मियाशोऽस्य जीवस्य संसार भ्रमणं सदा ॥ ४१ ॥ भावार्थ- सम्यग्दृष्टी जीवके अवश्य निर्वाणका लाभ होगा, किन्तु मिध्यादृष्टी जीवका सदा ही संसार में भ्रमण रहेगा ।
अनादिकालीन संसारमें यह संसारी जीव अनादिसे हो सिभ्यादर्शनसे अन्वा होकर भटक रहा है, इसलिये इस मिथ्यात्वका त्याग जरूरी है ।