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________________ योगसार टीका । [७३ सुद्धं सुद्धसहारं अध्त अपमितं च पाकर । इदि जिणवरेहि य यं । सत करा : भावार्थ-जीवोम तीन प्रकारके भाव जानने चाहिये । अशुभ, शुभ. शुद्ध आई व नद्रयान अशुभभाव है, धर्मध्यान शुभभार है। शुद्ध भाव आल्माका शुद्ध स्वभाव हैं, जर आत्मा आत्मामें रमण करता है पमा लिनेन्द्र ने कहा है। जिससे कल्याण हो उसको आचरण कर । प्रयोजन यहाँ वा है कि जब भीतरी आशयमें इन वियोग, अनिष्ट संयोग. पीड़ा, चितवन व भोगाकाक्षा निदानभाव है ग. हिमानन्द, कृपानन्द, नौयानन्द. परिप्रदानन्दछ इसतरह चार प्रकार के अन या चार प्रकारचे. अद्रध्यानमें से कोई भाव है तो वह अभभाव है : म पन्नाय है उनमें प्रेमभाव रामभाव है । निर्विकल्प आत्मीक भाष शुभार है। इससे यह भी झालयावा है कि सभ्यराष्टी ज्ञानीक ही शुद्धभाव होता है : मिथ्यादृष्टीक मन्द कएचको व्यवहारमें अभभात्र कहते हैं परंतु उसका आशय असम हारेमे उसमें कोई न कोई आत व रौद्रध्यान होता है ! इमलिये में अभभावमें है। गिना है । मोक्षका कारपा एक शुद्ध भाव ही है. यह आमानुभव रूप है । पुण्यकर्म मोक्ष-सुख नहीं दे सक्ता। अह पुणु अप्पा कवि मुणहि पुण्णु वि करइ असेसु । सउ वि णु पावड सिसह पुणु संसार भमेसु ॥१५॥ अन्वयार्थ-(भा एणु अप्पा ण वि मुहि) यदि तू आरमाको नहीं जानेगा (असंस पुष्णु वि करइ) सर्व पुण्य
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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