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योगसार टीका। कर्मको ही करता रहंगा (तर वि सिद्धि मुह ण पाचइ) तौ भी तू सिद्धके सुखको नहीं पायेगा (पुणु संसार भमेसु) पुनः पुनः संसारमें ही भ्रमण करेगा ।
भावार्थ-मक्षिका सुख या सिद्ध भगवानका सुत्र आत्माका इलामविक न अतीन्दिर है ! मह दिला परमानंद हरएक
आत्माका स्वभाव है | उसका आवरण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहत्तीय, अन्तराय चारी ही घानीय कर्मोंने कर रखा है | जब इनका नाश होजाता है तब अनंत अदौद्धि सुख अरहंत केवली प्रगट हो जाता है, बही सिद्ध भगवानमें या मोक्षमें रहता है । इस मुखके पानेका उपाय भी अपने आत्माका अद्भान, ज्ञान व आचरण है। सम्यग्दृष्टीको अपने आत्माके सच्चे स्वभावका पूर्ण विश्रास रहता है | इसलिये वह जब उपयोगको अपने आत्मामें ही अपने आत्माके द्वारा तहीन करता है तब आनंदामृनका पान करता है । इस ही समय वीतराग परिणतिसे पूर्वबद्ध काँकी निर्जरा होती है व नवीन काँका संबर होता है | आत्मा आप ही साधक है, आप ही सान्य है। उस तत्वका जिसको श्रद्धान नहीं है यह पुण्यबंधक कारक शुभ मन वचन काय द्वारा अनेक कार्य करता है और चाहता है कि मोक्ष-सुख मिल सके, सो कभी नहीं मिल सक्ता हैं । जहा मन वचन कायकी क्रियापर मोट हैवहीं परसे अनुराग है। आस्मास दूरवर्तीपना है वहां बंध होगा, निर्जरा नहीं होगी।
कोई मानर कठिनसे कठिन तपस्या वा ब्रतादि पाले व आप भी पुण्यबंधके अनेक कार्य करे, वह संसार मार्गका ही पधिक है व निर्माणका पथिक नहीं । वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है। यह द्रव्यलिंगी साधुका चारित्र पालता है। शास्त्रोक्त व्रत समिति गुप्ति पालता है, तप करता है। आत्मज्ञान रहित तपसे वह महान पुण्य'
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