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________________ योगसार टीका। वत्थु पनि त पुण अझवसाणं नु होदि जीवाणं । पहिलो हु भो थाम्यवसागर बंधोति ॥ २७७ ।। एदागि गस्थि जेसिं अज्झक्साणाणि एबमादीणि । ते असुहेण सुहेण य कम्मेन मुणी या लिपति ॥२८॥ भावार्थ--हिंसक परिणाममें बन्ध अवश्य होगा, चाहे प्राणी मरो या न मरो। वास्तवमें जीवोंको कर्मका बंध अपने विकारी भावों मे होता है, यही बंधका तत्व है । यद्यपि बाहरी पदार्थोके निमित्तसे अशुद्ध परिणाम होता है । तथापि बाहरी वस्तुओंके कारण बंध नहीं होता है । बंध तो परिणामोंसे ही होता है । जिनके शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकारके परिणाम नहीं हैं ये मुनि पुण्य नथा पापकर्मास नहीं बंधते हैं । समयसारकलशामें कहा है यावत्याकमुपैति कर्मविरतिनित्य सम्यक न सा कर्नज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न आधिक्षतिः । कि खत्रानि समुल्लसत्ववशतो यकर्म कन्धाय तःमोक्षाय स्थितसेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११-४॥ भावार्थ-जस्तक मोहनीय कर्मका उदय है तक्तक ज्ञानमें पुर्ण वीतरागता नहीं होती है, तबतक मोहका उदय और सम्यम्हान दोनों ही साथ २ रहते हैं, इसमें कुछ हानि नहीं है, किन्तु यहां जितना अंश कर्मके उनसे अपने वश बिना राग है उतने अंश बंध होगा तथा परसे मुक्त जो परम आत्मज्ञान है वह स्वयं मोक्षका ही कारण है। रत्नत्रयका अंश अंधकारक नही है, राग अंश बंधकारक है। श्री बुन्दनन्दाचार्य भावपाहदमें कहते हैं भावं तिविदयार सुहासुई सुद्धमव जायव्यं । अनुहं का अमृतई सुह धम्म जिगवरिंदेति ॥ ७६ ॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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