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यांगसार टीका ।
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स्वभाव में रमण करनेकी व स्थिर होनेकी परम चेष्टा रहनी चाहिये । साधकको बाहरी चारित्र में निमित्त मात्रले सन्तोष न करना चाहिये। जब आत्मा आत्मसमाधिमें व आत्मानुभव में वर्तन करे तब ही कुछ फल हुआ, तब ही मोक्षमार्ग सा ऐसा भाव रखना चाहिये। क्योंकि जबतक शुद्धात्मध्यान होकर शुद्धोपयोगका अंश नहीं प्रगट. होगा तबतक संवर व निर्जरा के तत्व नहीं प्रगट होंगे। तबतक आत्माकी एकदेश शुद्धि नहीं होगी। निश्रयसे ऐसा समझना चाहिए कि निर्माणका मार्ग एक आत्मध्यानकी अमिका जलना है, एक आत्मानुभव है; आत्माका आत्मारूप ज्ञान है. आप ही आपको शुद्ध करता है, उपादान कारण आप ही हैं। यदि परिणामों में आत्मानुभव नहीं प्रगटे तो बाहरी चारित्रमे शुभ भावोंके कारण ग्रंथ होगा, संसार बढ़ेगा. मोक्षका साधन नहीं होगा ।
इसके विरोध में जब कि आत्माका यथार्थ ज्ञान नहीं होगा जबतक आत्माको अन्यरूप मानता रहेगा, जैसा उसका जिनेन्द्र भगवान कथित स्वरूप है वैसा नहीं मानेगा, आत्माको सांसारिक विकारका कर्ता व भोक्ता मानेगा व जनतक परमाणु भाव भी मोह अपने आत्माके सिवाय परपदार्थों में रहेगा तक मिध्यात्वकी कालिमा नहीं मिटी ऐसा समझना होगा |
मिथ्यात्वकी कालिमाके होते हुए बाहरी साधुका व गृहस्वका चारित्र पालते हुए भी संसार ही बढ़ेगा। विशेष पुण्य बांधकर शुभ-गतिमें जाकर फिर अशुभ गतिमें चला जायगा। जहांतक आत्माका आत्मारूप श्रद्धान नहीं होगा वहांतक मिध्यादर्शनका अनादि रोग दूर नहीं होगा | पर्यायवृद्धिका अहंकार नहीं मिलेगा । विषयभोगेकी कामनाका अंश जब तक नहीं मिटेगा तब तक मिथ्या भव नहीं. हटेगा । विषयभोगोंका सुख त्यागने योग्य है, यह श्रद्धान जब तक न होगा तय तक मिथ्यात्व न हटेगा।
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