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________________ ६.] योगसार टीका। चावल भातक रूपमें बदलता है, दोनों कारणोंकी जरूरत है । माधकको या मुमुक्षुको सबमे पहले व्यवहार सम्यग्दर्शन द्वारा अर्थान परमार्थदेव, शास्त्र, गुरुके श्रद्धान नथा जीवादि सात तत्वोंके श्रद्धानद्वारा मनन करके भेदज्ञानकी दृढ़त्तासे अपने आत्माकी प्रतीतिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनको प्राप्त करना चाहिये । तब ही आत्मझानका यथार्थ उदय हो जायगा, वीतरागताका अंश झलक जायगा, संघर व निर्जराका कार्य प्रारंभ हो जायगा, मोक्षमार्गका उदय हो जायगा | कोका बन्ध जब रागद्वेष मोहसे होता है तथ काका क्षय वीतराभादा होता है ! वीतरागभाव अपने ही आत्माका रागद्वेष मोह रहित परिणमन या वर्तन हैं । मुमुक्षुका 'कर्तव्य है कि वह घुद्धिपूर्वक परिणामोंको वीतरागभावमें लानेका 'पुरुषार्थ करे | तब कर्म स्वयं झड़ेगे व नवीन कर्मक, आम्रवका संबर होगा। राग, द्वेष, मोहर पैदा होनेमें भीतरी निमित्त मोहकर्मका उदय है। बाहरी निमित्त दूसरे चेतन व अचेतन पदार्थीका संयोग व उनके साथ व्यवहार है । इसलिये बाहरी निमित्तोंको हटाने के लिये श्रावकके बारह ब्रोंकी प्रतिज्ञा लेकर ग्यारह प्रतिमाकी पूर्तितक बाहरी परिग्रहको घटाले घटाते एक लंगोट मात्रपर आना होता है । फिर निर्मच दशा धारण करक चालकके समान नन्न हो जाना पड़ता है, साधुका चाचित्र पालना पड़ता है, कोतमें निवास करना पड़ता है, निर्जन स्थानों में आसन जमाकर आत्माका ध्यान करना पड़ता है, अनशन ऊनोदर रस त्याग आदि तपसे ही इच्छाका निरोध करना पड़ता है। सर्व श्रावकका या साधुका व्यवहारचारित्र पालते हुए बाहरी निमित्त मिलाते हुए साधककी दृष्टि उपादान कारणको उच्च बनानेकी तरफ रहनी चाहिये । अर्थात अपने ही शुद्धात्माकं
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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