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________________ योगसार टीका। [ १२५ शरीरमें रहते हुए भी सात प्रकारके समुदघातके समय जीव शरीरके. प्रदेशोंको फैलाकर शरीर के बाहर होता है, फिर शरीरप्रमाण होजाता है। गोम्मटसार जीकांडमें कहा है-- मूलसरीरमछडिय उत्तरदेहस्स जीवपिण्डस्स । णिग्गमणं देहादो होदि सनुग्घावणामं तु ॥ ६६७ ।। वेयणकसायगुम्चियो य मरणतियो समुग्वादो । तेजाहारी छटो सत्तमओ केवलीणं तु ॥ ६६६ ॥ आहारमारतियदुर्गपि णियमेग एगदिसिंग तु। दसदिसि गदः हु संसा पंच समुग्धादया होति ॥ ६६८ ॥ भावार्थ-मुल शरीरक न छोड़कर उत्तर देह अर्थात कामण, तेजस देह सहित आस्माके प्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलनेको ममुद्घात कहते हैं। उसके सान भेद हैं:.-- (2) वेदना-तीन रागादिके कसे शरीरको न छोड़कर प्रदेशोंका बाहर होना । (२) कपाय-तीन कपायके उद्यसे परके घातके लिये प्रदेशोंका बाहर जाना। (३) विक्रिया-अपने शरीरको छोटा या बड़ा करते हुए या एक शरीरके भिन्न अनेक शरीर न करते हुए आत्माके प्रदेशोंका फैलाना, जैसा देव, नारकी, भोगभूमिवासी तथा चक्रवर्तीको या, ऋद्धिधारी साधुको होता है। (४) मारणांतिक-मरणके अंतिम अंतर्मुहूर्तमें जहांपर मरके जन्म लेना हो उस क्षेत्रको स्पर्श करनेके लिये आत्माके प्रदेशोका बाहर जाना फिर लौट आना तब मरना ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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